कहानी संग्रह >> वारिस तथा अन्य कहानियाँ वारिस तथा अन्य कहानियाँरामचन्द्र भावे
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रामचन्द्र भावे की मूल कन्नड़ कहानियाँ जिसका अनुवाद डी.एन.श्रीनाथ ने किया है। उनकी कुछ कहानियाँ मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक हैं तो कई रिश्तों पर आधारित हैं। सभी कहानियों का मूल आधार परिवार है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
वारिस तथा अन्य
कहानियाँ’ रामचन्द्र भावे की
मूल कन्नड़ कहानियाँ हैं। इसका अनुवाद डी.एन.श्रीनाथ ने किया है।
रामचन्द्र भावे ने इन कहानियों को कई आयाम दिये हैं। उनकी कुछ कहानियाँ
मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक हैं तो कई रिश्तों पर आधारित हैं। सभी कहानियों
का मूल आधार परिवार है। उसकी गरिमा और मजबूती के लिए उन्होंने कहानियों
में कई मोड़ दिए हैं। वारिस कहानी में एक मंदिर के पुजारी की हत्या कर
पिता द्वारा पश्चाताप के आंसू नहीं निकल पाते लेकिन पछतावा सदैव रहा इस
कारण अपने पुत्र को उस धन का वारिस नहीं बनाना उसकी नियति है। पिता की मौत
के बाद पुजारी की हत्या का रहस्य उजागर होता है। उनकी सभी कहानियाँ अंत
में सोचने पर विवश करती हैं। यही कहानियों की विशेषता भी है। इस पुस्तक
में संकलित सभी कहानियाँ मध्यवर्गीय समाज की देन हैं। इस संकलन में कुल
पंद्रह कहानियाँ हैं।
छिपकली आदमी
तुंगक्का को सही लगा कि दुर्वासा ऋषि जैसा
पति और नन्हें
बच्चे जैसे बेटे के बीच फंस कर वह बैंगन की पकौड़ी हो जाएगी। वह डर गई।
उधर पति और इधर बेटा। दोनों में से उसे कौन चाहिए ? किसका हाथ पकड़ूं और
किसका छोड़ूं ? उसे लगा कि दोनों में से कोई सुधरने के लिए तैयार नहीं है।
अपना पति ज़रा चिड़चिड़े स्वभाव का है, यह बात जब तुंगक्का की समझ में आई तब-तक उसकी शादी के दस साल बीत चुके थे। कभी-कभी पति के कारण हिचकिचाहट, उदासीनता, दुख सब कुछ होता था, मगर वह खुद को ही सांत्वना दे लेती थी कि पति बहुत पढ़ा-लिखा आदमी है, बड़ा पंडित है और लोग उसका आदर करते हैं। कई सालों तक बच्चा भी नहीं हुआ, ये भी दुख था।
उसके बाद तीर्थ यात्रा की, भजन-पूजन किया, तो भगवान की कृपा से दो बेटियाँ पैदा हुई। तीसरा बच्चा उनकी इच्छा के अनुसार बेटा ही हुआ मगर तुंगक्का को उस बच्चे के जन्म लेने पर सन्तोष नहीं हुआ, क्योंकि वह पति के वंश को बढ़ाने योग्य था।
वासू बड़ा सिर लेकर पैदा हुआ था। सिर पर छोटे-छोटे बाल थे, मुंह में एक दांत भी था। बच्चे को देखने जो लोग आए थे, उनमें से एक ने उसे देखकर घृणा व्यक्त की और अपना मुंह टेढ़ा करके कहा था, यह तो राक्षस निकला। यह बात पति के कान में पड़ी तो उसके मस्तिष्क में बैठ गई। उस दिन से बेटे के बारे में उनका स्नेह उतना न रहा जितना रहना चाहिए था। उस दिन के बाद से उन्होंने अपने इकलौते बेटे को गोद में उठाकर प्यार नहीं किया। उसकी तरफ आंख उठाकर नहीं देखा। बेटे के बारे में गर्व का अनुभव करना तो दूर की बात रहा, बेटे की छाया देखने से भी उनकी सहन की सीमा टूट जाती थी।
वासू को भी शीघ्र बातचीत सीखने में और चलने में दिक्कत हुई। जब वह पढ़ने लगा तो किसी ने यह भी नहीं कहा कि लड़का तेज है, बेटे की दीन हालत देखकर बेचारी तुंगक्का को अतीव दुख हुआ।
ऐसा बेटा मेरे जैसा पंडित और विद्वान बने, यह बात पति सोचे भी तो कैसे ? तुंगक्का को यह भी डर था। पढ़ने-लिखने में वासु की रुचि नहीं थी। ठीक है, मगर उसके शौक कुछ विलक्षण थे। वह कोडबले (चावल के आटे से बनाई गई एक नमकीन चीज़ जो खाने में स्वादिष्ट होती है), से कीड़े और मेढक पकड़कर जेब में डाल लेता था। गिरगिट को रस्सी से बांधकर खिलाता था। कुत्ते के पिल्ले को सर्कस सिखाता था।
जब वह पन्द्रह साल का हुआ तो इतना ‘पक’ गया कि घर में यह कह कर जाता था कि रात में दोस्त के घर पढ़ने जाऊंगा, पर लोग कहते थे कि आधी रात को घंटो तक वह श्मशान में भटकता है। वहां से आने से पहले एक-दो खोपड़ियां भी लाता है और उन्हें किसी न किसी के दरवाज़े के पास रख देता। सवेरा होने पर उनकी हालत देखकर खिल्ली उड़ाता। इस बात में कितना झूठ है, कितना सच मालूम नहीं, मगर तुंगक्का को इस बात में विश्वास नहीं होता था।
पंडित जी को लगता था कि ऐसा ‘बड़ा आदमी’ मेरे घर में पैदा हुआ है, यह पूर्व जन्म के पापों का ही फल है।
कभी-कभी बाजार या मंदिर में स्कूल के मास्टर से भेंट हो जाती थी तो वह कह उठते थे, ‘वासू कुछ भी पढ़ता नहीं’ स्कूल में भी ठीक से नहीं आता। इस शिकायत से पंडित जी को लगता था कि धरती फट क्यों नहीं जाती ताकि वे उसमें समा जाएं। इस बात में सच्चाई भी थी। शिकायत करने वाले उन्हें ढूंढ़ कर आते थे, इस बात से भी उन्हें दुख था। पंडितजी को सिर्फ एक बात का पता था कि डांट-डपट से डर कर बेटा शायद सुधर सकता है। इस बात की आशा से कभी-कभी बेटे को मजबूती से पकड़ कर मारते-पीटते थे। मगर उन्हें इस बात का पता न चला कि बेटे की आंखों में धीरे-धीरे उनके लिए नफरत बढ़ रही है।
वासू अब तक तो किसी तरह घोड़े वाली गाड़ी के समान टक-टक करके चला था, मगर इस बार भी पब्लिक परीक्षा में फेल हो गया। इस बात का पता चलते ही तुंगक्का की छाती धड़कने लगी। उसे इससे भी अधिक डर इस बात का था कि बेटे के फेल हो जाने से नाराज़ होकर पति महाशय उसे मार ही न डालें ? तुंगक्का मुंह पर ताला लगा कर बैठ गई, पति महाशय आ ही पुहंचे। उनका चेहरा देखकर उसे लगा कि आज पति पर दुर्वासा के साथ-साथ जमदग्नि भी सवार है। वह छटपटाने लगी। उसकी समझ में नहीं आया कि आग जैसे जलते पति को कैसे शांत करे ?
‘‘कहां है वह...अभी तक घर नहीं आया न !’’ पंडित जी फुफकारे।
‘‘आएगा, आएगा...आप पहले हाथ मुंह तो धो लें...’’
‘‘मेरा सर ! तुम्हारे पुत्र ने तो मुंह पर तारकोल से पोत दिया है।’’
आखिर जब तक वासू आया तब-तक पंडित जी ने अच्छी खासी लाठी तैयार कर ली थी।
‘‘कहां गया था इतनी देर तक ?’’
‘‘.............................’’
‘‘परीक्षा का नतीजा क्या निकला ?’’
‘‘..................................’’
‘‘मूर्ख !....लगता है कि तेरे पेट में खाना ज्यादा चला गया है।’’ पंडित जी ने लाठी ऊपर उठाई तो उन्हें रोकने पत्नी आई। पंडित जी ने उसे बड़ी-बड़ी आंखों से घूरकर देखा, वह वहीं की वहीं जाम हो गई। बेटे को मारने-पीटने लगे। वासू जितनी मार-पीठ पर सह सकता था, वह सह गया मगर जब सह न सका तो चीखने-चिल्लाने लगा और ज़मीन पर गिरकर तड़पने लगा। पंडित जी हांफने लगे। फिर उन्होंने वासू को घसीटते हुए कमरे के अंदर डाल दिया और पत्नी को घूरते हुए चिल्लाए, ‘‘दो दिन तक इसे खाना-पानी मत देना। अगर दिया तो....’’
पीड़ा, अपमान और थकान के बाद वासू को रात के आठ बजे ही नींद आ सकी। उसके बाद वह खिड़की के पास आकर चिल्लाने लगा, ‘‘भूख लगी है, भूख लगी है।’’ मगर उत्तर में पिता की गालियाँ मिली। वासू को दुख हुआ। पत्नी आंखें बचाकर आधी रात को वासू को खाना देगी, इस विश्वास के साथ पंडित जी ने दरवाजे के आगे ही अपना बिस्तर लगा लिया।
मगर जब दूसरे भी दिन दरवाज़ा न खुला तो वासू घबराया। दबाव, कमज़ोरी और दर्द से कराहने लगा। सारा दिन ऐसे ही बीत गया। शाम को दिया जलाते वक्त तुंगक्का अपने को रोक न सकी। उसे खाने की थाली के साथ खिड़की के पास आना ही पड़ा। मगर यकायक पंडित जी आए, थाली खींच ली। मां ने कई बार विनती की, पिता गालियां देते हुए चिल्लाने लगे। ये सब दृश्य वासू ने देखा। उसके होंठों पर एक अनोखी हंसी उमड़ आई।
‘‘ऐसा बेटा ज़िन्दा रहने के बजाय अच्छा है कि मर जाए।’’ पिता पत्नी को घसीटते हुए रसोईघर में धकेल रहे थे। वासू को पिता की ओर देखने की भी इच्छा न हुई। लगा कि वह सब भूल गया है, अब उसका ध्यान दीवार पर लगा था जहां पर छिपकलियां थीं।
कमरे से टप-टप की आवाज सुनाई पड़ी। साथ में कभी-कभी हंसने की और अपने आप से बातें करने की भी आवाज़ें आने लगीं। पंडित जी को इन आवाज़ों में फर्क नज़र आया तो वह डर गए। उन्होंने खिड़की से अंदर झांका। पहले-पहले उन्हें समझ में ही नहीं आया कि वासू किस चीज़ की तलाश कर रहा है ? उन्होंने अधीरता से पत्नी को पास बुलाया, तुंगक्का ने आते ही चिल्लाते हुए कहा, ‘‘वहां देखिए, वह छिपकली पकड़ रहा है।’’
छिपकली शब्द कान में पड़ते ही पंडित जी का शरीर घृणा से कांप उठा और वे बिना विश्वास किये देखने लगे। हां, वासू उसी क्षण से दूसरा ही आदमी लग रहा था। उसके चेहरे में भग्नता थी, आंखों में कोई विलक्षण झांकी थी। उसने दस-पन्द्रह छिपकलियों को पकड़ ज़मीन पर ढेर डाल दिया था। वह कभी-कभी पिता की ओर देखता और दांत दिखा कर किटकिटाता था। फिर दीवार पर छिपकली की तलाश करता था।
बेटे की अक्ल पर भूत सवार हो गया है, यह विचार जब पंडित जी के मन में आया तो वह बहुत घबराए। छिपकली तो विष जन्तु है, जहरीली है। पागल वासू ने भूख के मारे उसे ही खा लिया तो ? उन्होंने इस डर से जल्दी ही ताला खोल दिया। दरवाज़े के खुलने पर भी वासू ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, वह अपने ही खेल में लगा रहा।
धीरे-धीरे पंडित जी को बेटे से डर लगने लगा। अब उसके व्यवहार में पूरा परिवर्तन आ गया था। वह दूसरों के साथ हिलता-मिलता नहीं था। बातचीत और नटखटपन से मानों वह अपरिचित था। खाते वक्त भी उसकी आंखें दीवार पर टिकी रहती थीं। पंडित जी को आश्चर्य होता था कि उसके कानों में छिपकली की चाल की आहट कैसे सुनाई पड़ती है। अलमारी के पीछे, फोटो के पीछे कोई भी आवाज़ हुई तो बस, तुरंत वहां दौड़ पड़ता। अगर छिपकली दिखाई पड़ती तो तुरंत उसे पकड़ कर जमीन पर पटक देता था, तभी उसे तसल्ली मिलती थी।
एकाएक छिपकली को देखने पर उसे क्यों ईर्ष्या शुरू हुई ? पंडित जी ने कितनी बार सोचा, पर कुछ भी समझ न पाए। पत्नी ने एक बार, बेटे को डॉक्टर के पास ले जाकर जांच कराने की सलाह दी। मगर पंडित जी ने यह कहकर उसका मुंह बन्द कर दिया कि उसे कुछ भी नहीं हुआ है, सन्नी के जैसे खाता है, घूमता है और उनको भय था कि बेटे को डॉक्टर के पास ले जाने पर लोग उन्हें ‘पागल का बाप’ कहेंगे।
वासू के प्रति पंडित जी की घृणा बढ़ने लगी। उन्हें शक था कि वासू के कारण वो अपने ही गांव में सिर उठाकर चल नहीं सकेंगे, ऐसी स्थिति का निर्माण हो गया है। इसलिए पंडित जी ने कमरे में जाकर दरवाज़ा बन्द कर चुप से रहने की आदत डाल ली। जब लोगों को वासू के इस करतब का पता चला तो कुछ नटखट लोग उसे देखने के इरादे से उनके घर बार-बार आने लगे। कुछ लोगों को निराशा भी हुई कि पंडित जी के घर में छिपकलियों का नाश हो गया। मगर वे अपनी कोतूहलता दबा न सके, वासू को अपने घर बुलाने लगे। अगर मन हो तो वासू सबकी मांग पूरी करता था।
पंडित जी पूरी तरह से हार गए थे। चिंता के कारण वे दुबले हो गए। शरीर झुक गया। बाहर जाकर लोगों का सामना करने की शक्ति न रही। हमेशा अन्दर ही रहने लगे थे। तन की चमड़ी सफेद हो गई थी। उपासना और परायण में भी मन नहीं लगता था। सब कुछ छोड़ दिया। एक प्रकार से मतिभ्रम की स्थिति में रहने लगे। धीरे-धीरे इस सोच के कारण वे और भी बूढ़े हो गए कि वासू उनका किसी जन्म का शत्रु है।
अब वासू पंडित जी को मनुष्य जैसा नहीं लग रहा था। वह राक्षस है, या जानवर है, यह बात मन में आते ही वह उदास हो जाते थे। लगता था कि यह उनकी विफलता का ही नतीजा है। दो दिन खाना नहीं दिया गया, इस पर वासू ने उनसे बदला लेने के लिए ऐसा रवैया अपनाया, देख पंडित जी हतप्रभ रह गए थे। अब उसे सुधारना असंभव था, कोई उपाय नहीं था, वे निराश हो गए।
अब उनके सामने न चाहते हुए भी हर समय वासू का चेहरा आ जाता था। उसकी आंख, उसका चाल-चलन, उसकी चमक, छिपकलियों को ढूंढ़ने की उसकी एकाग्रता, शिकारी के जैसे चलने की उस की चाल, लपक कर एकाएक पकड़ने की उसकी कला—ये सब सोच कर के पंडित जी कभी-कभी सपने में भी डर जाते थे।
तुंगक्का ने इतने दिनों तक बेटे के भविष्य के बारे में सोचा, पर अब पति की दयनीय स्थिति को देख बहुत ही डर गई। पति पहले हाथी जैसे हट्टे-कट्टे थे, मगर अब वह बकरी की तरह हो गए थे। जब उसने बेटे का अनोखा शौक देखा और उसे यह देखने की आदत भी हो गई तो उसने भी उस ओर ध्यान देना बन्द कर दिया। वह निर्लिप्त हो गई। मगर वह पति के साथ ऐसा नहीं कर सकती थी। पति जब खाने की थाली देखते तो उन्हें उल्टी आ जाती थी। धीरे-धीरे वह सूखी लकड़ी के समान हो गए थे। उनकी यह हालत देख तुंगक्का रोज़ एक-एक भगवान से मनौती करने लगी।
तुंगक्का को पता था कि पति में बेटे का चेहरा देखने का साहस बाकी नहीं बचा है, वे उससे दूर-दूर भाग रहे हैं, उस पर उनकी ममता नहीं रह गई है, उपदेश देने और दंड देने की इच्छा भी उनमें नहीं है, वे उसकी छाया से भी डरते हैं, उसके सामने खुद अपराधी होकर सिर झुका देते हैं....।
पति का हमेशा अकेले कमरे में बैठना, चिंता करना और जीने की राह से विमुख होकर इस तरह व्यवहार करना तुंगक्का को ठीक नहीं लगा। उसे लगा कि पति को इस तरह छोड़ देने से उन्हें कुछ भी हो सकता है। अब देरी करना उचित नहीं है, उसने तुरंत पड़ोसी के एक लड़के से अपने बड़े भाई शीनघा को फोन करवा के बुलवा लिया। दूसरे ही दिन शाम के वक्त भाई शीनघा आ पहुंचा।
वासू छोटी-सी नींद के बाद दीवार पर नजर टिकाए बैठा था। मामा को देख खड़ा हो गया। वासू के बारे में जो कुछ सुना था, उसका ख्याल आते ही शीनघा को कुछ अजीब-सा अनुभव हुआ।
‘‘बहनोई जी कहां हैं ?’’ शीनघा के पूछने पर वासू ने आंखों से कमरे की ओर इशारा किया। जब शीनघा वहां पहुंचा तो पंडित जी आंखें खोलकर लेटे हुए थे। वे अपने जीवन के सब सपने, आशाएं खो बैठे थे, शीनघा को यह बात तुरंत ही पता चल गई।
‘‘आप कैसे हैं ? मैं शीनघा आया हुआ हूं,’’ जब मामा पिता के पास जाकर बैठ गया तो वासू दरवाज़े की तरफ पीठ करके खड़ा हो गया।
‘‘यह एकाएक क्या हो गया आपको ? क्या हुआ है ? कमजोरी से आप छिपकली की तरह हो गए है न ?’’ शीनघा ने व्यग्रता में उन्हें देखा।
पंडित जी को लगा कि मानो एकाएक किसी ने उसकी छाती पर जोर से मार दिया है। उनके मुंह से ‘हाय’ की आवाज़ निकली और उन्होंने बेटे की ओर देखा। उन्हें लगा ‘छिपकली’ शब्द सुनते ही वासू की आंखें बड़ी हो गई हैं। उसके मुंह में जीभ खेल रही थी। उसने पिता पर से नज़र नहीं हटाई और मानों ‘लक्ष्य’ को पकड़ने के लिए आगे और पिता के पसरे पांव की ओर बैठ गया। पंडित जी को लगा कि बेटा एकटक उन्हें ही घूर रहा है। उसकी आंखों में जो अनोखी चमक थी, उसे देखते-देखते वह सिर से पांव तक पसीने से तर हो गए। लगा कि प्रकृति में कोई असंगता हो गई है। वासू ने जम्हाई लेने के लिए हाथ ऊपर उठाया तो पंडित जी को लगा कि वे क्षीण होते जा रहे हैं और वासू प्रेत के समान बड़ा होता जा रहा है। अब वह उन्हें पटक देगा, यह सोचते ही पंडित जी चीखने-चिल्लाने लगे।
शीनघा, जो उनके पास बैठा था, एकाएक घटी इस घटना से हक्का-बक्का रह गया। पंडित जी अंट-शंट बकने लगे। उसने पंडित जी को पुकारा, ‘बहनोई जी, बहनोई जी !’ मगर तब तक पंडित जी अपना होश-हवास खो बैठे थे। उनकी चेतना खो गई थी। वे लेटे ही लेटे थोड़ी सी सांस लेने के लिए छटपटाने लगे, मानों उन्होंने अपने प्राणांत की सूचना दे दी हो।
एक कलम के आस-पास
‘‘देखो, इस कलम में एक अपूर्व शक्ति है इससे तुम जिस किसी का नाम लिखोंगे, वह कुछ ही दिनों में मर जाएगा’’ स्वामीराव ने गंभारता से कहा।
चंदर ने यह बात सुनी तो उसने आश्चर्य से कोट की जेब से गोल्डन कलम निकाल कर अंगुलियों में पकड़कर देखा जिसे स्वामीराव ने आग्रहपूर्वक रखा था। कलम देखने में अत्याकर्षक तो था...,मगर....
‘‘अंकल आप क्या कह रहे हैं ?’’ चंदर को विश्वास न हुआ।
यह मत समझो....‘‘मेरी बात परिहास की है’’
स्वामीराव ने उसी गंभीरता से कहा, ‘‘यह एक सिद्ध बाबा की कृपा से मिली अद्भुत चीज़ है मगर मुझे मालूम था कि इसे पाने के लिए योग्यता, समर्थथता और साहस की जरूरत है मैं तो कुछ विचारों में कमजोर हूं, इसलिए सोचा कि तुम्हारे पिताजी को दे दूं मगर वैसा मौका ही नहीं आ पाया अब तो....वे इस दुनिया में नहीं रहे’’
चंदर भोलेपन से सुन रहा था। स्वामीराव अपनी गंभीरता त्याग कर मुस्कराये और उसकी पीठ थप-थपाते हुए कहा, ‘‘मगर अब कोई चिंता नहीं है। तुम भी उस पिता के योग्य पुत्र हो। इसलिए निश्चिंतता से यह कलम तुम्हें दे रहा हूं’’ चंदर ने शर्मा एण्ड वर्मा संस्था में एम.डी. का जब अधिकार स्वीकारा तो उस खुशी के मौके पर कई लोग आए थे और अभिनंदन की बातें कह रहे थे। मगर चंदर का मन स्वामीराव के बारे में ही सोच रहा था। जहां तक चंदर की जानकारी थी, राव इंडस्ट्रीज़ और शर्मा एण्ड वर्मा इंडस्ट्रीज़ के बीच कभी समरसता नहीं थी। शर्मा एण्ड वर्मा के विषय में राव के मन में ज्यादा असहिष्णुता है। पिताजी ने एक बार कहा था कि हमें पीछे ढकेलने में वह किसी भी वाम मार्ग को अपनाने में बाज नहीं आएगा। यह बात अब चंदर को याद आ रही थी। कहते हैं, स्वामीराव ने एक बार वर्मा अंकल को हमसे अलग कराने का प्रयत्न किया था, मगर प्रयत्न सफल नहीं हुआ।
पार्टी के खत्म होने पर रात बारह बजे का समय हो गया था। एक-एक करके सभी चलने लगे तो स्वामीराव फिर सामने आया और चंदर से आत्मीयता से कहा, ‘‘एक बात तुम हमेशा याद रखो। सिर्फ प्रयोग या हॉबी के लिए इसका उपयोग मत करो। कभी यह भी मत सोचो कि यह सिर्फ़ कलम है। तुम्हें यह अच्छी तरह मालूम हो कि इस कलम में दूसरे की किस्मत बदलनेकी अद्भुत क्षमता है। क्योंकि जो इससे लिखता है, उसके लिए यह कलम निब व्यक्त करती है और यह एक बम के समान अनर्थ कर सकती है। और तुम इसका सदा याद रखना।’’
स्वामीराव ने इतने विस्तार से यह बात कही थी, फिर भी यह कलम एक विनाशकारी अस्त्र है, इस बात पर चंदर को विश्वास नहीं हुआ और वह छटपटाने लगा। राव ने थोड़ी सी मुस्कराहट के साथ फिर कहा, ‘‘भूल कर भी तुम अपना या मेरा नाम इस कलम से न लिखना। लिखा तो...’’
इस बात से चंदर भी उत्साहित हुआ।
ऑफिस आए दो दिन हो गए, मगर वर्मा अंकल ने एक बार भी दर्शन न दिए तो चंदर तुच्छता की भावना से छटपटाने लगा। सुंदर को बुलाकर पूछने पर उसने कहा, ‘‘पिता जी जरा थक गए हैं। डॉक्टर ने सलाह दी है कि एक महीने तक आराम करें’’
‘‘तो तुमने यह खबर मुझे पहले क्यों नहीं दी ?’’ चंदर ने आक्षेप व्यक्त किया।
‘‘तुम एम.डी. होने की खुशी में थे ये मेरी इच्छा तुम्हारे मूड को खराब करने की नहीं हुई...’’
सुंदर के नीरस उत्तर से चंदर चिंतित हुआ। शाम तक इसी चिंता में था फिर सोचा कि वर्मा अंकल के घर जाकर उनका हाल-चाल पूछूं, मगर दास दिखाई पड़ा और कहा, ‘‘इस तरह घर जाना अच्छा नहीं लगता, सर।’’
चंदर ने तुरंत आश्चर्य से दास का चेहरा देखा। यह दास आम आदमी नहीं है, पिता की यह बात उसे याद आई और उसे लगा कि पिता की इस बात से खास मतलब है। यह दास बहुत समय से पिताजी का सहायक रहा था। इसे शर्मा एण्ड वर्मा संस्थान के कई लोगों के स्वभाव और रहस्य का पता है। जब मैं अधिकार में आया तो तभी दास को बदलने की सूचना वर्मा अंकल से मिली थी, मगर पिता के प्रति उसे जो आदर था, इससे उसका पालन नहीं किया था।
‘‘अब आप पहले जैसा मन चाहा बर्ताव करेंगे तो यह कुछ अनुचित लगेगा, सर। आगे से आपको इसी संस्था कि प्रतिष्ठा के अनुकूल बर्ताव करना चाहिए क्योंकि आप एक बड़ी संस्था के एम.डी. हैं और मुझे पता चला है कि वर्मा जी को आराम लेने की आवश्यकता नहीं है। उन्हें हुआ यह है कि.....’’
चंदर को कोतूहल हुआ। उसने आगे बताने के लिए दास को उकसाया, ‘‘मुझे लगता है कि सर की यह पराजय का चिन्ह है। मैंने सुना है कि आपके पिताजी के बाद इस संस्था का एम.डी. कौन बने, इस मामले में वाद-विवाद और मनमुटाव हुआ है, पर यह सब आपका निजी मामला है। मैं कैसे.....?
‘‘ठीक है चंदर ने बैठे-बैठे सिर हिलाया। वर्मा अंकल का बेटा सुंदर भी मेरे हम उम्र वाला है। मैं अपनी संवेदनाओं को ज्यादा महत्त्व दे रहा था, इसलिए व्यावहारिक रूप से उससे कुछ पिछड़ गया हूं, यह बात सही है। इसी कारण से वह मुझसे ज्यादा होशियार है, इस निश्चय से वर्मा ने बेटे को एम.डी. की कुर्सी पर बैठाने का स्वप्न देखा है, यह किसकी गलती है ?
‘‘आपके पिताजी पर अधिक दबाव था, सर उनके बेटे को अगर एम.डी. न किया गया तो अपनी साझेदारी से बाहर आ जाएंगे, इस प्रकार एक बार वर्मा अंकल ने आपके पिताजी को ज्यादा डराया था, ऐसा कहते हैं।’’
‘‘तो यह बात है ! अब तक मुझे इस बात की जानकारी ही नहीं थी’’ चंदर ज़रा डर गया।
‘‘आखिर तो आपके पिताजी ने वर्माजी को किसी प्रकार खुश किया, यह सच है। मगर यह निश्चय कब तक ठोस रहेगा, को कल्पना भी नहीं कर सकता।’’
चंदर को तुरंत एक बात की याद आई। लगता है, शायद अपने बेटे को ही एम.डी. करने की स्थिति में पिताजी ने। उन्होंने कहा था, ‘‘देख बेटे मेरे और वर्मा के खून-पसीने से इस संस्था की स्थापना हुई है। हम दोनों एक साथ हैं, इस बात से कुछ लोग जल रहे हैं। किसी भी तरह हम दोनों को अलग करने का प्रयास भी किया है। मगर वर्मा ने मेरा साथ नहीं छोड़ा। संस्था के प्रति उनकी निष्ठा अचल है। इसलिए तुम भविष्य में कोई ऐसा काम न करना, जिससे वर्मा के मन को ठेस पहुंचे। मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं कि मैं भी कुछ बातों में स्वार्थी था, इसलिए वर्मा दुखी हुआ है। फिर भी उसने मेरी बात को नहीं टाला। हमेशा के लिए वर्मा इस संस्था का आधार स्तंभ है।’’
अपना पति ज़रा चिड़चिड़े स्वभाव का है, यह बात जब तुंगक्का की समझ में आई तब-तक उसकी शादी के दस साल बीत चुके थे। कभी-कभी पति के कारण हिचकिचाहट, उदासीनता, दुख सब कुछ होता था, मगर वह खुद को ही सांत्वना दे लेती थी कि पति बहुत पढ़ा-लिखा आदमी है, बड़ा पंडित है और लोग उसका आदर करते हैं। कई सालों तक बच्चा भी नहीं हुआ, ये भी दुख था।
उसके बाद तीर्थ यात्रा की, भजन-पूजन किया, तो भगवान की कृपा से दो बेटियाँ पैदा हुई। तीसरा बच्चा उनकी इच्छा के अनुसार बेटा ही हुआ मगर तुंगक्का को उस बच्चे के जन्म लेने पर सन्तोष नहीं हुआ, क्योंकि वह पति के वंश को बढ़ाने योग्य था।
वासू बड़ा सिर लेकर पैदा हुआ था। सिर पर छोटे-छोटे बाल थे, मुंह में एक दांत भी था। बच्चे को देखने जो लोग आए थे, उनमें से एक ने उसे देखकर घृणा व्यक्त की और अपना मुंह टेढ़ा करके कहा था, यह तो राक्षस निकला। यह बात पति के कान में पड़ी तो उसके मस्तिष्क में बैठ गई। उस दिन से बेटे के बारे में उनका स्नेह उतना न रहा जितना रहना चाहिए था। उस दिन के बाद से उन्होंने अपने इकलौते बेटे को गोद में उठाकर प्यार नहीं किया। उसकी तरफ आंख उठाकर नहीं देखा। बेटे के बारे में गर्व का अनुभव करना तो दूर की बात रहा, बेटे की छाया देखने से भी उनकी सहन की सीमा टूट जाती थी।
वासू को भी शीघ्र बातचीत सीखने में और चलने में दिक्कत हुई। जब वह पढ़ने लगा तो किसी ने यह भी नहीं कहा कि लड़का तेज है, बेटे की दीन हालत देखकर बेचारी तुंगक्का को अतीव दुख हुआ।
ऐसा बेटा मेरे जैसा पंडित और विद्वान बने, यह बात पति सोचे भी तो कैसे ? तुंगक्का को यह भी डर था। पढ़ने-लिखने में वासु की रुचि नहीं थी। ठीक है, मगर उसके शौक कुछ विलक्षण थे। वह कोडबले (चावल के आटे से बनाई गई एक नमकीन चीज़ जो खाने में स्वादिष्ट होती है), से कीड़े और मेढक पकड़कर जेब में डाल लेता था। गिरगिट को रस्सी से बांधकर खिलाता था। कुत्ते के पिल्ले को सर्कस सिखाता था।
जब वह पन्द्रह साल का हुआ तो इतना ‘पक’ गया कि घर में यह कह कर जाता था कि रात में दोस्त के घर पढ़ने जाऊंगा, पर लोग कहते थे कि आधी रात को घंटो तक वह श्मशान में भटकता है। वहां से आने से पहले एक-दो खोपड़ियां भी लाता है और उन्हें किसी न किसी के दरवाज़े के पास रख देता। सवेरा होने पर उनकी हालत देखकर खिल्ली उड़ाता। इस बात में कितना झूठ है, कितना सच मालूम नहीं, मगर तुंगक्का को इस बात में विश्वास नहीं होता था।
पंडित जी को लगता था कि ऐसा ‘बड़ा आदमी’ मेरे घर में पैदा हुआ है, यह पूर्व जन्म के पापों का ही फल है।
कभी-कभी बाजार या मंदिर में स्कूल के मास्टर से भेंट हो जाती थी तो वह कह उठते थे, ‘वासू कुछ भी पढ़ता नहीं’ स्कूल में भी ठीक से नहीं आता। इस शिकायत से पंडित जी को लगता था कि धरती फट क्यों नहीं जाती ताकि वे उसमें समा जाएं। इस बात में सच्चाई भी थी। शिकायत करने वाले उन्हें ढूंढ़ कर आते थे, इस बात से भी उन्हें दुख था। पंडितजी को सिर्फ एक बात का पता था कि डांट-डपट से डर कर बेटा शायद सुधर सकता है। इस बात की आशा से कभी-कभी बेटे को मजबूती से पकड़ कर मारते-पीटते थे। मगर उन्हें इस बात का पता न चला कि बेटे की आंखों में धीरे-धीरे उनके लिए नफरत बढ़ रही है।
वासू अब तक तो किसी तरह घोड़े वाली गाड़ी के समान टक-टक करके चला था, मगर इस बार भी पब्लिक परीक्षा में फेल हो गया। इस बात का पता चलते ही तुंगक्का की छाती धड़कने लगी। उसे इससे भी अधिक डर इस बात का था कि बेटे के फेल हो जाने से नाराज़ होकर पति महाशय उसे मार ही न डालें ? तुंगक्का मुंह पर ताला लगा कर बैठ गई, पति महाशय आ ही पुहंचे। उनका चेहरा देखकर उसे लगा कि आज पति पर दुर्वासा के साथ-साथ जमदग्नि भी सवार है। वह छटपटाने लगी। उसकी समझ में नहीं आया कि आग जैसे जलते पति को कैसे शांत करे ?
‘‘कहां है वह...अभी तक घर नहीं आया न !’’ पंडित जी फुफकारे।
‘‘आएगा, आएगा...आप पहले हाथ मुंह तो धो लें...’’
‘‘मेरा सर ! तुम्हारे पुत्र ने तो मुंह पर तारकोल से पोत दिया है।’’
आखिर जब तक वासू आया तब-तक पंडित जी ने अच्छी खासी लाठी तैयार कर ली थी।
‘‘कहां गया था इतनी देर तक ?’’
‘‘.............................’’
‘‘परीक्षा का नतीजा क्या निकला ?’’
‘‘..................................’’
‘‘मूर्ख !....लगता है कि तेरे पेट में खाना ज्यादा चला गया है।’’ पंडित जी ने लाठी ऊपर उठाई तो उन्हें रोकने पत्नी आई। पंडित जी ने उसे बड़ी-बड़ी आंखों से घूरकर देखा, वह वहीं की वहीं जाम हो गई। बेटे को मारने-पीटने लगे। वासू जितनी मार-पीठ पर सह सकता था, वह सह गया मगर जब सह न सका तो चीखने-चिल्लाने लगा और ज़मीन पर गिरकर तड़पने लगा। पंडित जी हांफने लगे। फिर उन्होंने वासू को घसीटते हुए कमरे के अंदर डाल दिया और पत्नी को घूरते हुए चिल्लाए, ‘‘दो दिन तक इसे खाना-पानी मत देना। अगर दिया तो....’’
पीड़ा, अपमान और थकान के बाद वासू को रात के आठ बजे ही नींद आ सकी। उसके बाद वह खिड़की के पास आकर चिल्लाने लगा, ‘‘भूख लगी है, भूख लगी है।’’ मगर उत्तर में पिता की गालियाँ मिली। वासू को दुख हुआ। पत्नी आंखें बचाकर आधी रात को वासू को खाना देगी, इस विश्वास के साथ पंडित जी ने दरवाजे के आगे ही अपना बिस्तर लगा लिया।
मगर जब दूसरे भी दिन दरवाज़ा न खुला तो वासू घबराया। दबाव, कमज़ोरी और दर्द से कराहने लगा। सारा दिन ऐसे ही बीत गया। शाम को दिया जलाते वक्त तुंगक्का अपने को रोक न सकी। उसे खाने की थाली के साथ खिड़की के पास आना ही पड़ा। मगर यकायक पंडित जी आए, थाली खींच ली। मां ने कई बार विनती की, पिता गालियां देते हुए चिल्लाने लगे। ये सब दृश्य वासू ने देखा। उसके होंठों पर एक अनोखी हंसी उमड़ आई।
‘‘ऐसा बेटा ज़िन्दा रहने के बजाय अच्छा है कि मर जाए।’’ पिता पत्नी को घसीटते हुए रसोईघर में धकेल रहे थे। वासू को पिता की ओर देखने की भी इच्छा न हुई। लगा कि वह सब भूल गया है, अब उसका ध्यान दीवार पर लगा था जहां पर छिपकलियां थीं।
कमरे से टप-टप की आवाज सुनाई पड़ी। साथ में कभी-कभी हंसने की और अपने आप से बातें करने की भी आवाज़ें आने लगीं। पंडित जी को इन आवाज़ों में फर्क नज़र आया तो वह डर गए। उन्होंने खिड़की से अंदर झांका। पहले-पहले उन्हें समझ में ही नहीं आया कि वासू किस चीज़ की तलाश कर रहा है ? उन्होंने अधीरता से पत्नी को पास बुलाया, तुंगक्का ने आते ही चिल्लाते हुए कहा, ‘‘वहां देखिए, वह छिपकली पकड़ रहा है।’’
छिपकली शब्द कान में पड़ते ही पंडित जी का शरीर घृणा से कांप उठा और वे बिना विश्वास किये देखने लगे। हां, वासू उसी क्षण से दूसरा ही आदमी लग रहा था। उसके चेहरे में भग्नता थी, आंखों में कोई विलक्षण झांकी थी। उसने दस-पन्द्रह छिपकलियों को पकड़ ज़मीन पर ढेर डाल दिया था। वह कभी-कभी पिता की ओर देखता और दांत दिखा कर किटकिटाता था। फिर दीवार पर छिपकली की तलाश करता था।
बेटे की अक्ल पर भूत सवार हो गया है, यह विचार जब पंडित जी के मन में आया तो वह बहुत घबराए। छिपकली तो विष जन्तु है, जहरीली है। पागल वासू ने भूख के मारे उसे ही खा लिया तो ? उन्होंने इस डर से जल्दी ही ताला खोल दिया। दरवाज़े के खुलने पर भी वासू ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, वह अपने ही खेल में लगा रहा।
धीरे-धीरे पंडित जी को बेटे से डर लगने लगा। अब उसके व्यवहार में पूरा परिवर्तन आ गया था। वह दूसरों के साथ हिलता-मिलता नहीं था। बातचीत और नटखटपन से मानों वह अपरिचित था। खाते वक्त भी उसकी आंखें दीवार पर टिकी रहती थीं। पंडित जी को आश्चर्य होता था कि उसके कानों में छिपकली की चाल की आहट कैसे सुनाई पड़ती है। अलमारी के पीछे, फोटो के पीछे कोई भी आवाज़ हुई तो बस, तुरंत वहां दौड़ पड़ता। अगर छिपकली दिखाई पड़ती तो तुरंत उसे पकड़ कर जमीन पर पटक देता था, तभी उसे तसल्ली मिलती थी।
एकाएक छिपकली को देखने पर उसे क्यों ईर्ष्या शुरू हुई ? पंडित जी ने कितनी बार सोचा, पर कुछ भी समझ न पाए। पत्नी ने एक बार, बेटे को डॉक्टर के पास ले जाकर जांच कराने की सलाह दी। मगर पंडित जी ने यह कहकर उसका मुंह बन्द कर दिया कि उसे कुछ भी नहीं हुआ है, सन्नी के जैसे खाता है, घूमता है और उनको भय था कि बेटे को डॉक्टर के पास ले जाने पर लोग उन्हें ‘पागल का बाप’ कहेंगे।
वासू के प्रति पंडित जी की घृणा बढ़ने लगी। उन्हें शक था कि वासू के कारण वो अपने ही गांव में सिर उठाकर चल नहीं सकेंगे, ऐसी स्थिति का निर्माण हो गया है। इसलिए पंडित जी ने कमरे में जाकर दरवाज़ा बन्द कर चुप से रहने की आदत डाल ली। जब लोगों को वासू के इस करतब का पता चला तो कुछ नटखट लोग उसे देखने के इरादे से उनके घर बार-बार आने लगे। कुछ लोगों को निराशा भी हुई कि पंडित जी के घर में छिपकलियों का नाश हो गया। मगर वे अपनी कोतूहलता दबा न सके, वासू को अपने घर बुलाने लगे। अगर मन हो तो वासू सबकी मांग पूरी करता था।
पंडित जी पूरी तरह से हार गए थे। चिंता के कारण वे दुबले हो गए। शरीर झुक गया। बाहर जाकर लोगों का सामना करने की शक्ति न रही। हमेशा अन्दर ही रहने लगे थे। तन की चमड़ी सफेद हो गई थी। उपासना और परायण में भी मन नहीं लगता था। सब कुछ छोड़ दिया। एक प्रकार से मतिभ्रम की स्थिति में रहने लगे। धीरे-धीरे इस सोच के कारण वे और भी बूढ़े हो गए कि वासू उनका किसी जन्म का शत्रु है।
अब वासू पंडित जी को मनुष्य जैसा नहीं लग रहा था। वह राक्षस है, या जानवर है, यह बात मन में आते ही वह उदास हो जाते थे। लगता था कि यह उनकी विफलता का ही नतीजा है। दो दिन खाना नहीं दिया गया, इस पर वासू ने उनसे बदला लेने के लिए ऐसा रवैया अपनाया, देख पंडित जी हतप्रभ रह गए थे। अब उसे सुधारना असंभव था, कोई उपाय नहीं था, वे निराश हो गए।
अब उनके सामने न चाहते हुए भी हर समय वासू का चेहरा आ जाता था। उसकी आंख, उसका चाल-चलन, उसकी चमक, छिपकलियों को ढूंढ़ने की उसकी एकाग्रता, शिकारी के जैसे चलने की उस की चाल, लपक कर एकाएक पकड़ने की उसकी कला—ये सब सोच कर के पंडित जी कभी-कभी सपने में भी डर जाते थे।
तुंगक्का ने इतने दिनों तक बेटे के भविष्य के बारे में सोचा, पर अब पति की दयनीय स्थिति को देख बहुत ही डर गई। पति पहले हाथी जैसे हट्टे-कट्टे थे, मगर अब वह बकरी की तरह हो गए थे। जब उसने बेटे का अनोखा शौक देखा और उसे यह देखने की आदत भी हो गई तो उसने भी उस ओर ध्यान देना बन्द कर दिया। वह निर्लिप्त हो गई। मगर वह पति के साथ ऐसा नहीं कर सकती थी। पति जब खाने की थाली देखते तो उन्हें उल्टी आ जाती थी। धीरे-धीरे वह सूखी लकड़ी के समान हो गए थे। उनकी यह हालत देख तुंगक्का रोज़ एक-एक भगवान से मनौती करने लगी।
तुंगक्का को पता था कि पति में बेटे का चेहरा देखने का साहस बाकी नहीं बचा है, वे उससे दूर-दूर भाग रहे हैं, उस पर उनकी ममता नहीं रह गई है, उपदेश देने और दंड देने की इच्छा भी उनमें नहीं है, वे उसकी छाया से भी डरते हैं, उसके सामने खुद अपराधी होकर सिर झुका देते हैं....।
पति का हमेशा अकेले कमरे में बैठना, चिंता करना और जीने की राह से विमुख होकर इस तरह व्यवहार करना तुंगक्का को ठीक नहीं लगा। उसे लगा कि पति को इस तरह छोड़ देने से उन्हें कुछ भी हो सकता है। अब देरी करना उचित नहीं है, उसने तुरंत पड़ोसी के एक लड़के से अपने बड़े भाई शीनघा को फोन करवा के बुलवा लिया। दूसरे ही दिन शाम के वक्त भाई शीनघा आ पहुंचा।
वासू छोटी-सी नींद के बाद दीवार पर नजर टिकाए बैठा था। मामा को देख खड़ा हो गया। वासू के बारे में जो कुछ सुना था, उसका ख्याल आते ही शीनघा को कुछ अजीब-सा अनुभव हुआ।
‘‘बहनोई जी कहां हैं ?’’ शीनघा के पूछने पर वासू ने आंखों से कमरे की ओर इशारा किया। जब शीनघा वहां पहुंचा तो पंडित जी आंखें खोलकर लेटे हुए थे। वे अपने जीवन के सब सपने, आशाएं खो बैठे थे, शीनघा को यह बात तुरंत ही पता चल गई।
‘‘आप कैसे हैं ? मैं शीनघा आया हुआ हूं,’’ जब मामा पिता के पास जाकर बैठ गया तो वासू दरवाज़े की तरफ पीठ करके खड़ा हो गया।
‘‘यह एकाएक क्या हो गया आपको ? क्या हुआ है ? कमजोरी से आप छिपकली की तरह हो गए है न ?’’ शीनघा ने व्यग्रता में उन्हें देखा।
पंडित जी को लगा कि मानो एकाएक किसी ने उसकी छाती पर जोर से मार दिया है। उनके मुंह से ‘हाय’ की आवाज़ निकली और उन्होंने बेटे की ओर देखा। उन्हें लगा ‘छिपकली’ शब्द सुनते ही वासू की आंखें बड़ी हो गई हैं। उसके मुंह में जीभ खेल रही थी। उसने पिता पर से नज़र नहीं हटाई और मानों ‘लक्ष्य’ को पकड़ने के लिए आगे और पिता के पसरे पांव की ओर बैठ गया। पंडित जी को लगा कि बेटा एकटक उन्हें ही घूर रहा है। उसकी आंखों में जो अनोखी चमक थी, उसे देखते-देखते वह सिर से पांव तक पसीने से तर हो गए। लगा कि प्रकृति में कोई असंगता हो गई है। वासू ने जम्हाई लेने के लिए हाथ ऊपर उठाया तो पंडित जी को लगा कि वे क्षीण होते जा रहे हैं और वासू प्रेत के समान बड़ा होता जा रहा है। अब वह उन्हें पटक देगा, यह सोचते ही पंडित जी चीखने-चिल्लाने लगे।
शीनघा, जो उनके पास बैठा था, एकाएक घटी इस घटना से हक्का-बक्का रह गया। पंडित जी अंट-शंट बकने लगे। उसने पंडित जी को पुकारा, ‘बहनोई जी, बहनोई जी !’ मगर तब तक पंडित जी अपना होश-हवास खो बैठे थे। उनकी चेतना खो गई थी। वे लेटे ही लेटे थोड़ी सी सांस लेने के लिए छटपटाने लगे, मानों उन्होंने अपने प्राणांत की सूचना दे दी हो।
एक कलम के आस-पास
‘‘देखो, इस कलम में एक अपूर्व शक्ति है इससे तुम जिस किसी का नाम लिखोंगे, वह कुछ ही दिनों में मर जाएगा’’ स्वामीराव ने गंभारता से कहा।
चंदर ने यह बात सुनी तो उसने आश्चर्य से कोट की जेब से गोल्डन कलम निकाल कर अंगुलियों में पकड़कर देखा जिसे स्वामीराव ने आग्रहपूर्वक रखा था। कलम देखने में अत्याकर्षक तो था...,मगर....
‘‘अंकल आप क्या कह रहे हैं ?’’ चंदर को विश्वास न हुआ।
यह मत समझो....‘‘मेरी बात परिहास की है’’
स्वामीराव ने उसी गंभीरता से कहा, ‘‘यह एक सिद्ध बाबा की कृपा से मिली अद्भुत चीज़ है मगर मुझे मालूम था कि इसे पाने के लिए योग्यता, समर्थथता और साहस की जरूरत है मैं तो कुछ विचारों में कमजोर हूं, इसलिए सोचा कि तुम्हारे पिताजी को दे दूं मगर वैसा मौका ही नहीं आ पाया अब तो....वे इस दुनिया में नहीं रहे’’
चंदर भोलेपन से सुन रहा था। स्वामीराव अपनी गंभीरता त्याग कर मुस्कराये और उसकी पीठ थप-थपाते हुए कहा, ‘‘मगर अब कोई चिंता नहीं है। तुम भी उस पिता के योग्य पुत्र हो। इसलिए निश्चिंतता से यह कलम तुम्हें दे रहा हूं’’ चंदर ने शर्मा एण्ड वर्मा संस्था में एम.डी. का जब अधिकार स्वीकारा तो उस खुशी के मौके पर कई लोग आए थे और अभिनंदन की बातें कह रहे थे। मगर चंदर का मन स्वामीराव के बारे में ही सोच रहा था। जहां तक चंदर की जानकारी थी, राव इंडस्ट्रीज़ और शर्मा एण्ड वर्मा इंडस्ट्रीज़ के बीच कभी समरसता नहीं थी। शर्मा एण्ड वर्मा के विषय में राव के मन में ज्यादा असहिष्णुता है। पिताजी ने एक बार कहा था कि हमें पीछे ढकेलने में वह किसी भी वाम मार्ग को अपनाने में बाज नहीं आएगा। यह बात अब चंदर को याद आ रही थी। कहते हैं, स्वामीराव ने एक बार वर्मा अंकल को हमसे अलग कराने का प्रयत्न किया था, मगर प्रयत्न सफल नहीं हुआ।
पार्टी के खत्म होने पर रात बारह बजे का समय हो गया था। एक-एक करके सभी चलने लगे तो स्वामीराव फिर सामने आया और चंदर से आत्मीयता से कहा, ‘‘एक बात तुम हमेशा याद रखो। सिर्फ प्रयोग या हॉबी के लिए इसका उपयोग मत करो। कभी यह भी मत सोचो कि यह सिर्फ़ कलम है। तुम्हें यह अच्छी तरह मालूम हो कि इस कलम में दूसरे की किस्मत बदलनेकी अद्भुत क्षमता है। क्योंकि जो इससे लिखता है, उसके लिए यह कलम निब व्यक्त करती है और यह एक बम के समान अनर्थ कर सकती है। और तुम इसका सदा याद रखना।’’
स्वामीराव ने इतने विस्तार से यह बात कही थी, फिर भी यह कलम एक विनाशकारी अस्त्र है, इस बात पर चंदर को विश्वास नहीं हुआ और वह छटपटाने लगा। राव ने थोड़ी सी मुस्कराहट के साथ फिर कहा, ‘‘भूल कर भी तुम अपना या मेरा नाम इस कलम से न लिखना। लिखा तो...’’
इस बात से चंदर भी उत्साहित हुआ।
ऑफिस आए दो दिन हो गए, मगर वर्मा अंकल ने एक बार भी दर्शन न दिए तो चंदर तुच्छता की भावना से छटपटाने लगा। सुंदर को बुलाकर पूछने पर उसने कहा, ‘‘पिता जी जरा थक गए हैं। डॉक्टर ने सलाह दी है कि एक महीने तक आराम करें’’
‘‘तो तुमने यह खबर मुझे पहले क्यों नहीं दी ?’’ चंदर ने आक्षेप व्यक्त किया।
‘‘तुम एम.डी. होने की खुशी में थे ये मेरी इच्छा तुम्हारे मूड को खराब करने की नहीं हुई...’’
सुंदर के नीरस उत्तर से चंदर चिंतित हुआ। शाम तक इसी चिंता में था फिर सोचा कि वर्मा अंकल के घर जाकर उनका हाल-चाल पूछूं, मगर दास दिखाई पड़ा और कहा, ‘‘इस तरह घर जाना अच्छा नहीं लगता, सर।’’
चंदर ने तुरंत आश्चर्य से दास का चेहरा देखा। यह दास आम आदमी नहीं है, पिता की यह बात उसे याद आई और उसे लगा कि पिता की इस बात से खास मतलब है। यह दास बहुत समय से पिताजी का सहायक रहा था। इसे शर्मा एण्ड वर्मा संस्थान के कई लोगों के स्वभाव और रहस्य का पता है। जब मैं अधिकार में आया तो तभी दास को बदलने की सूचना वर्मा अंकल से मिली थी, मगर पिता के प्रति उसे जो आदर था, इससे उसका पालन नहीं किया था।
‘‘अब आप पहले जैसा मन चाहा बर्ताव करेंगे तो यह कुछ अनुचित लगेगा, सर। आगे से आपको इसी संस्था कि प्रतिष्ठा के अनुकूल बर्ताव करना चाहिए क्योंकि आप एक बड़ी संस्था के एम.डी. हैं और मुझे पता चला है कि वर्मा जी को आराम लेने की आवश्यकता नहीं है। उन्हें हुआ यह है कि.....’’
चंदर को कोतूहल हुआ। उसने आगे बताने के लिए दास को उकसाया, ‘‘मुझे लगता है कि सर की यह पराजय का चिन्ह है। मैंने सुना है कि आपके पिताजी के बाद इस संस्था का एम.डी. कौन बने, इस मामले में वाद-विवाद और मनमुटाव हुआ है, पर यह सब आपका निजी मामला है। मैं कैसे.....?
‘‘ठीक है चंदर ने बैठे-बैठे सिर हिलाया। वर्मा अंकल का बेटा सुंदर भी मेरे हम उम्र वाला है। मैं अपनी संवेदनाओं को ज्यादा महत्त्व दे रहा था, इसलिए व्यावहारिक रूप से उससे कुछ पिछड़ गया हूं, यह बात सही है। इसी कारण से वह मुझसे ज्यादा होशियार है, इस निश्चय से वर्मा ने बेटे को एम.डी. की कुर्सी पर बैठाने का स्वप्न देखा है, यह किसकी गलती है ?
‘‘आपके पिताजी पर अधिक दबाव था, सर उनके बेटे को अगर एम.डी. न किया गया तो अपनी साझेदारी से बाहर आ जाएंगे, इस प्रकार एक बार वर्मा अंकल ने आपके पिताजी को ज्यादा डराया था, ऐसा कहते हैं।’’
‘‘तो यह बात है ! अब तक मुझे इस बात की जानकारी ही नहीं थी’’ चंदर ज़रा डर गया।
‘‘आखिर तो आपके पिताजी ने वर्माजी को किसी प्रकार खुश किया, यह सच है। मगर यह निश्चय कब तक ठोस रहेगा, को कल्पना भी नहीं कर सकता।’’
चंदर को तुरंत एक बात की याद आई। लगता है, शायद अपने बेटे को ही एम.डी. करने की स्थिति में पिताजी ने। उन्होंने कहा था, ‘‘देख बेटे मेरे और वर्मा के खून-पसीने से इस संस्था की स्थापना हुई है। हम दोनों एक साथ हैं, इस बात से कुछ लोग जल रहे हैं। किसी भी तरह हम दोनों को अलग करने का प्रयास भी किया है। मगर वर्मा ने मेरा साथ नहीं छोड़ा। संस्था के प्रति उनकी निष्ठा अचल है। इसलिए तुम भविष्य में कोई ऐसा काम न करना, जिससे वर्मा के मन को ठेस पहुंचे। मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं कि मैं भी कुछ बातों में स्वार्थी था, इसलिए वर्मा दुखी हुआ है। फिर भी उसने मेरी बात को नहीं टाला। हमेशा के लिए वर्मा इस संस्था का आधार स्तंभ है।’’
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लोगों की राय
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