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लेख-निबंध >> गाँधी का भारत भिन्नता में एकता

गाँधी का भारत भिन्नता में एकता

सुमंगल प्रकाश

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :84
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4892
आईएसबीएन :81-237-4678-4

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बापू की कही हुई बातों का इस छोटी-सी पुस्तक में सुंदर संग्रह है

Gandhi Ka Bharat Bhinnta mein Ekta

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तावना

मुझे खुशी है कि गांधी जन्म-शताब्दी की राष्ट्रीय समिति की राष्ट्रीय एकीकरण उपसमिति ने ‘गांधी का भारत: भिन्नता में एकता’ के नाम से गांधीजी के विचारों की यह छोटी-सी पुस्तक तैयार की है और नेशनल बुक ट्रस्ट इसे प्रकाशित कर रहा है।
गांधीजी शांति, सामंजस्य और समन्वय के लिए ही जिए और इन्हीं आदर्शों की रक्षा के लिए उन्होंने अपनी कीमती जान न्यौछावर कर दी। उनकी शिक्षा, मर्म रूप में, सभी कालों और सभी देशों के लिए है, क्योंकि काल और स्थान की सीमाओं में वह बंधी नहीं है। उन्होंने जो रास्ता दिखाया उससे हम अकसर भटके, पर मुझे इसमें शक नहीं है कि अगर एक शक्तिशाली और अखंड राष्ट्र के रूप में हमें कायम रहना है तो हमें उनकी ऊंची और सही सलाह पर चलना होगा।
बापू की कही हुई बातों के इस छोटे-से, पर सुंदर, संग्रह को मैंने अपने स्कूलों और कालेजों के नौजवानों और उन सबके सामने पेश करता हूं जो दिल से इस देश की एकता चाहते हैं।
ज़ाकिर हुसैन

भूमिका

इस संग्रह के लिए छांटे गए अंशों को विभिन्न विषयों के हिसाब से अलग-अलग वर्गों में बांट दिया गया है और हर वर्ग के अंतर्गत जो भी छांटे गए अंश रखे गए हैं, काल-क्रम से रखे गए हैं। इन्हें जिन स्त्रोतों से लिया गया है उनकी सूची, आवश्यक टिप्पणियों के साथ, अंत में दी गई है।
गांधीजी के बुनियादी विचारों में, उनके चालीस साल के सक्रिय सार्वजनिक जीवन के दौरान, कोई परिवर्तन नहीं हुआ था, पर परिस्थितियों के अनुसार, उन्हें प्रकट करने के ढंग और उनके प्रयोग में फ़र्क पड़ता रहता था। भारत जब अपनी आज़ादी की लड़ाई लड़ रहा था, उसकी आबादी के बड़े-बड़े हिस्सों को सांप्रदायिक, धार्मिक या भाषा-संबंधी राग-द्वेष की दीवारों ने एक-दूसरे से अलग कर रखा था; इन दीवारों ने लोगों के आज़ादी के संकल्प को कमजोर बना दिया था और उन्हें दूसरी बातों में फंसाए रखा था। गांधीजी ने देखा कि इन भिन्नताओं को दूर किए बिना काम नहीं चलेगा और जहां संघर्ष है वहां सामंजस्य लाना होगा; उन्होंने दिल की एकता के लिए प्रयत्न किए, कामचलाऊ समझौतों के लिए नहीं; क्योंकि वे साफ़ देख रहे थे कि इस तरह एकता के बिना अगर स्वराज्य आया भी तो वह असली स्वराज्य नहीं होगा।
राष्ट्रीयता उनके लिए संपूर्ण मानव-जाति के साथ बढ़ती हुई व्यक्ति की आत्मीयता के रास्ते का एक सहज और उपयोगी पड़ाव भर थी। अपने परिवार की स्वेच्छापूर्वक सेवा करना तो पहले से ही भारतीय समाज में धर्म माना जाता था। इस धर्म को छोड़ देने की बात नहीं थी, बल्कि युग-धर्म के रूप में देशभक्ति को भी स्वीकार करके उसी धर्म को और भी व्यापक तथा उत्कृष्ट रूप देना था। संपूर्ण मानवता के साथ एकात्मता स्थापित करना ही अन्तिम लक्ष्य था, पर वहां तक पहुंचने के लिए जिस मध्यवर्ती साधन का इस्तेमाल करना था, वह था स्वधर्म के आधार पर अपने देश को स्वाधीन करना। व्यक्ति की संपूर्णता को ‘सर्वोच्च महत्व देना था’; मानव-जाति की सारी प्रगति का वही आरंभ स्थान था और वही लक्ष्य स्थान। सामाजिक वातावरण भी महत्त्वपूर्ण था, पर गौण रूप में ही। खुराक की ही तरह वह एक सार्थक जीवन के लिए साधन भर था। या कहें कि साध्य, उस खुराक को ‘खाने वाला’, एक आध्यात्मिक सत्ता के रूप में, तथा ज्ञान का एक केंद्र और नैतिक जीवन का स्त्रोत, व्यक्ति ही था।
किसी स्वस्थ समाज में मानव-संबंधों का आधार क्या होना चाहिए, इस संबंध में गांधीजी के विचार कोरे विचार भर नहीं थे; वे उनके दृढ़ विश्वास थे, जिनका आधार उनका निजी अनुभव था, और उनके लिए वह सदा आत्मत्याग करने के लिए तैयार रहते थे। गांधीजी से हमें अपने मसलों का कोई बना-बनाया हल नहीं लेना है, बल्कि उन्हें सुलझाने का एक रास्ता और एक लगन, जो हमारी अंतरात्मा तक पहुंच जाए और हमारी अक़्ल को कबूल हो सके, जो आपस में झगड़ने वालों की बुनियादी एकता पर ज़ोर दे और सभी को यह सिखाए कि जिन बातों से सबका भला होता है उनका महत्व सभी के लिए है।

1.साधारण

गांधीजी अपने को भारत के साथ-साथ पूरे विश्व का नागरिक मानते थे। भारत के लिए उनके दिल में अगाध प्रेम था और विदेशी प्रभुत्व से उसे मुक्त करने के लिए उन्होंने अपना सारा जीवन ही दे दिया, पर अंग्रेजों, और अन्य देशों के लोगों से भी, उनका प्रेम कम नहीं था और भारत की स्वाधीनता के लिए उन्होंने जो लड़ाई लड़ी वह सारी मानवता की ओर से लड़ी-मनुष्य द्वारा मनुष्य पर किए जाने वाले अत्याचार और शोषण के खिलाफ़।
क्या गांधी राष्ट्रवादी थे ? ‘‘और किसी का चाहे जो बिगड़े, पर भारत का भला होना ही चाहिए’’, या ‘‘मैं अपने देश के साथ हूं, चाहे वह ग़लत करे या सही,’’ इसी प्रकार के शब्दों में आमतौर पर राष्ट्रीय भावना खुलकर सामने आती है। पर गांधीजी इस प्रकार की भावना के समर्थक नहीं थे। उनकी देशभक्ति का मतलब था भारत के लिए ऐसा प्रेम, जिसमें किसी दूसरे देश के लिए नफ़रत न हो, और उसका प्रकाश करने वाली भाषा यह थी-‘‘मेरा देश, जिसे मैं ठीक रखूंगा या ठीक करूंगा,’’ और ‘‘सारी मानव-जाति के भले के लिए, और उसी के एक हिस्से के तौर पर, भारत का भला।’’ वह पक्के राष्ट्रवादी इसलिए थे कि भारत की राष्ट्रीयता में उनकी आस्था थी और उसे ठोस रूप देने के लिए उन्होंने मेहनत की थी; वह उस राष्ट्रीयता के हिमायती थे जिसमें भाषाधार, धार्मिक और सांस्कृतिक भिन्नताओं में मेल बिठाकर उनसे ऊपर उठ जाना था; क्योंकि कभी-कभी हम उनके चलते अपनी राष्ट्रीयता एकात्मता को ही भूल बैठते हैं। यही एक तरीका था जिससे मानव-संबंधों को ठीक दिशा देने वाले सिद्धांतों को ठोक-बजाकर गढ़ने के लिए भारत एक प्रयोगशाला बन सकता।

2.धर्मों का समन्वय

गांधीजी ‘एक भगवद्पुरुष’ थे और उनका आंतरिक जीवन परम धार्मिक था; वही उनके सांसारिक कार्यों को शक्ति और सार्थकता देता था। धर्म ही में उन्हें अपना सच्चा रूप दिखाई देता था। वह सिद्धांतवाद और आचार-व्यवहार के बीच, शब्द और भाव के बीच, भेद करते थे, क्योंकि ‘शब्द मारने वाले हैं, भाव जीवन देने वाला है।’ शास्त्रों के वचन को गांधीजी बिना सोचे-विचारे स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। ‘‘हर धर्म के हर नियम को आज के बौद्धिक युग में तर्क की कसौटी पर खरा उतरना होगा,’’ उन्होंने कहा था, ‘‘और अगर उसे सार्वभौम स्वीकृति पानी है, तो सार्वभौम न्याय की भी कसौटी पर !’’ वे सिर्फ भाव के कायल थे। गांधीजी को यह भाव या भावना सर्वोत्तम रूप में नरसी मेहता के उस भजन में दिखाई देती थी जिसमें सच्चा वैष्णव उसे बताया गया है जो दूसरों के दुःख में दुःखी हो सकता है। इन ‘दूसरों’, परमात्मा के दुःखी जीवों, की ही उन्होंने ‘दरिद्र नारायण’ के रूप में सेवा करनी चाही। उनकी अधिक-से-अधिक संख्या के साथ, अधिक-से-अधिक मात्रा में, तादात्म्य स्थापित करते रहने का ही उन्होंने निरंतर, जीवन भर, प्रयास किया। संकीर्ण स्वार्थ-भावना की जकड़ से छुटकारा पाने की इस साधना में गांधीजी बराबर लगे रहे। वह उनकी, राजनैतिक और सामाजिक, सभी तरह की क्रियाशीलता में पूरी तरह घुल-मिल गई। इस क्षेत्र में भगवद्गीता के कृष्ण उनके पथ-प्रदर्शक थे और कर्मयोग उनका दर्शन था।
साथ-ही-साथ दूसरे धर्मों के लिए भी उनके दिल में आदर था और उनकी उत्तम बातों के लिए उनके हृदय में श्रद्धा थी। उनका विश्वास था कि सभी धर्मों में परमात्मा की झांकी मिलती है; सिर्फ उनके वर्णन अलग-अलग हैं। धर्मों को लेकर अगर झगड़े होते हैं तो उनकी जिम्मेदारी धर्मों पर नहीं, आदमियों पर है। वह यही चाहते थे कि सब लोग अपने-अपने धर्मों को सच्चाई और लगन के साथ मानकर चलें-चाहे वह धर्म इस्लाम हो, या ईसाई, या ज़रथुस्त्र, या हिंदू, और इस प्रकार देश में धार्मिक समन्वय लाएं। उनकी साहिष्णुता का कारण उनकी उदासीनता नहीं बल्कि उस सत्य की गहरी अनुभूति थी जो ऊपरी भिन्नताओं के बावजूद सभी धर्मों में पाई जाती है।

3.सामाजिक बंधन और बाधाएं

हिंदुओं के उन दिनों के आचरण में गांधीजी के दिल को सबसे ज़्यादा चोट उन निम्न जातियों के प्रति किए जाने वाले व्यवहार से पहुंचती थी, जिन्हें ‘अंत्यज’, ‘अतिशूद्र’, ‘चांडाल’, ‘पंचमांग’ आदि कितने ही अलग-अलग नाम मिले हुए थे और जिन्हें न सिर्फ अछूत माना जाता था बल्कि अपने पास फटकने तक नहीं दिया जाता था। अस्पृश्यता को ‘हिंदू धर्म के शरीर पर फोड़ा’ और ‘कभी न धुलने वाला धब्बा’ बताते हुए गांधीजी ने उसे पूरी तरह मिटा देने के लिए कार्य किया, और इस प्रकार, सार्वजनिक कुओं से पानी भरने, कुछ खास सड़कों पर चलने, और मंदिरों में प्रवेश पाने के अधिकार की कितनी ही अहिंसात्मक लड़ाइयां लड़ने के बाद, उन्होंने एक ऐसी सुदूरव्यापी सामाजिक क्रांति कर दी, जैसे भारत में पहले कभी नहीं हुई थी।
अस्पृश्यता को खत्म करने की अपनी लड़ाई में तो गांधीजी कभी भी नहीं झुके, पर इसे वह हिंदू-समाज का बिल्कुल अंदरूनी मामला ही मानकर चले। इसलिए जब राजनैतिक उद्देश्यों से अस्पृश्य जातियों को हिंदू-धर्म से निकालकर बाहर ले जाने की कोशिशें की गईं तब गांधीजी ने उनका विरोध किया, और जब, ब्रिटिश सरकार की ओर से, उनके लिए पृथक् निर्वाचन-पद्धति के प्रस्ताव रखे गए तब ‘अस्पृश्यता को हमेशा के लिए कायम रखने’ और हिंदू-धर्म का ‘अंगभंग’ करने की इस कोशिश के विरोध में उन्होंने अपनी जान की ही बाज़ी लगा दी। 1932 का ‘पूना समझौता’ और 1936 की ‘त्रावणकोर मंदिर प्रवेश घोषणा’ भारतीय इतिहास की चिरस्मरणीय घटनाएं थीं।

4. हिंदू-मुस्लिम एकता

भारत का यह दुर्भाग्य ही था कि स्वाधीनता के राष्ट्रीयता आंदोलन की वृद्धि के साथ-ही-साथ सांप्रदायिक तनाव में भी वृद्धि होती गई थी। इसलिए गांधीजी के पथ-प्रदर्शन में देश के नेताओं ने उस तनाव को दूर करने और देश के दोनों प्रमुख संप्रदायों के बीच मेलजोल कायम रखने के लिए ज़बरदस्त कोशिशें कीं। 1924 में गांधीजी का 21 दिन का अनशन हृदय-परिवर्तन कराने के लिए ही हुआ और उसे देशवासियों के दिल में यह बात बिठा देने में सफलता मिल गई कि हिंदू-मुस्लिम एकता गांधीजी के संपूर्ण राजनैतिक कार्यक्रम की आत्मा है। और इसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए अंत में उन्होंने अपने प्राणों की पूर्णाहुति दी थी।

5 भाषा

देश की एकता को बढ़ाने और उसे दृढ़ करने के लिए, विभिन्न भाषाएँ बोलने वाले लोगों के बीच, और शासकों तथा शासितों के बीच भी, मेल-मिलाप बढ़ाने की दृष्टि से गांधीजी ने लोगों के बीच, के इस्तेमाल के लिए एक सामान्य भारतीय भाषा की ज़रूरत महसूस की। इस मसले पर, अन्य सभी मसलों की तरह, उन्होंने आम जनता के दृष्टिकोण से ही विचार किया, और अपने निजी अनुभव के आधार पर वह इस नतीजे पर पहुंचे कि यह सर्व-सामान्य भाषा एकमात्र हिंदुस्तानी ही हो सकती है-जो ज़्यादा-से-ज़्यादा सीधी-सादी हो और जिसमें न संस्कृत के शब्दों की भारमार हो और न फ़ारसी-स्त्रोत से आए हुए शब्दों की। साथ-ही-साथ गांधी यह भी नहीं चाहते थे कि संस्कृत, या अंग्रेजी तक को, हम छोड़ बैठें, वह हमारी सभी ‘महान भाषाओं’ के प्रेमी थे। किंतु वह हिंदुस्तानी को उसी प्रकार अखिल भारतीय भाषा का स्थान देना चाहते थे, जिस प्रकार आदर्श अंग्रेजी को ‘अंतर्राष्ट्रीय कामकाज’ के लिए रहने देने के पक्ष में थे।

6 आर्थिक समानता

गांधीजी एक व्यावहारिक आदर्शवादी थे और उन्होंने देख लिया था कि राष्ट्रीय एकता की स्थापना करने और उसे कायम रखने के लिए अमीरों और ग़रीबों के बीच की खाई को अधिक-से-अधिक घटाना ज़रूरी है। ‘सर्वोदय’ में आर्थिक समानता का आदर्श अंतर्निहित है, जिसे कोई भी अहिंसात्मक शासन-प्रणाली क्यों न हो, बराबर अपने सामने रखना है। जो कोई भी राष्ट्र की सेवा करने का दावा रखता है उसे सबसे पहले नीचे-से-नीचे तबके के साथ आत्मीयता लानी है। इसी संदर्भ में उन्होंने कताई और इसी तरह के दूसरे ‘रोटी देने वाले श्रम’ पर इतना ज़ोर दिया, ताकि मेहनत-मशक़्क़त करने वाली आम जनता के साथ आत्मीयता पैदा करने के ये प्रतीक बन जा सकें। पूंजीपति और मज़दूर दोनों को ही उन्होंने समाज के प्रति उनके कर्तव्यों की याद दिलाई, क्योंकि वे ही उनके अधिकारों से स्त्रोत हैं। सभी प्रकार की संपत्ति और मानव-उपलब्धियां, प्राकृतिक और सामाजिक जीवन दोनों की ही देन हैं, इसलिए इनके स्वामियों को इनका ट्रस्टी ही समझा जाना चाहिए, जिनका यह धर्म है कि वे समाज के कल्याण के लिए ही इनका इस्तेमाल करें।
राष्ट्रीय एकीकरण का तात्पर्य समझाने वाले गांधीजी के लेखांशों के इस संकलन को तैयार और संपादित करने का काम श्री के. स्वामिनाथन् के तत्त्वावधान में हमारे अनुरोध पर और हमारी ओर से, ‘सपूंर्ण गांधी वाङ् मय’ से संबद्ध कार्यकर्ताओं ने किया है। यह समिति उनका हार्दिक आभार मानती है।
के. सन्थानम
सभापति,
गांधी जन्म-शताब्दी की राष्ट्रीय
समिति की राष्ट्रीय एकीकरण उप-समिति

1. सामान्य

1. ‘हिंद स्वराज’ से

संपादक:.....अंग्रेजों ने हमें सिखाया है कि हम एक राष्ट्र के रूप में कभी थे ही नहीं और एक राष्ट्र का रूप लेने में हमें सदियां लग जाएंगी यह बात बेबुनियाद है। उनके भारत आने से पहले हम एक राष्ट्र के रूप में ही थे। एक ही विचार हमें प्रेरणा देते थे। हमारी ज़िंदगी एक ही तरह की थी। हम एक राष्ट्र के रूप में थे इसीलिए एक राज्य की स्थापना कर सके थे। बाद को उन्होंने ही हमें अलग-अलग कर दिया।
पाठक: इसे ज़रा साफ़ कीजिए।
संपादक: मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि राष्ट्र होने के नाते हमारे अंदर अलगाव था ही नहीं, पर हमारा आशय यह है कि हमारे बड़े-बड़े लोग देश भर में, पैदल या बैलगाड़ियों पर, भ्रमण किया करते थे। वे लोग एक-दूसरे की भाषा सीखते थे और उनके बीच आपस में अलगाव नहीं रहता था।
आपके ख़याल से हमारे उन दूरदर्शी पुरखों की मंशा क्या रही होगी जब उन्होंने दक्षिण में सेतुबंध (रामेश्वर) की, पूरब में जगन्नाथ की, और उत्तर में हरिद्वार की स्थापना तीर्थस्थानों के रूप में की ? यह तो आप मानेंगे ही कि वे बेवकूफ़ नहीं थे। वे जानते थे कि ईश्वर की उपासना घर-बैठे भी उतनी ही अच्छी तरह से हो सकती थी। उन्होंने ही हमें सीख दी थी कि जिनके हृदय में धर्म वास है उनके घरों में ही गंगा बहती है। पर उन्होने देखा कि भारत एक अखंड देश है जिसे प्रकृति ने ही वैसा रचा है। इसलिए उनका कहना था कि उसे एक राष्ट्र का रूप लेना ही होगा। इसी विचार से उन्होंने भारत के विभिन्न भागों में तीर्थस्थानों की स्थापना की, और लोगों के अंदर राष्ट्रीय भावना की ज्योति जगाने का एक ऐसा ढंग अपनाया जो संसार के और किसी भी देश को नहीं मालूम था। हम भारतीय जिस तरह एक हैं उस तरह तो कोई दो अंग्रेज भी एक नहीं हैं। सिर्फ आप और मैं, और हमीं जैसे दूसरे लोग, जो अपने सभ्य और ऊंचे दरजे का आदमी समझते हैं, यह मान बैठे हैं कि हम कई राष्ट्रों में बंटे हुए हैं।

पाठक: आपने मेरे सामने उस भारत का ख़ाका खींचा है, जो मुसलमानों के इस देश में आने के पहले था, पर आज तो हमारे यहां मुसलमान हैं, पारसी हैं, ईसाई हैं। वे सब एक ही राष्ट्र कैसे कहे जा सकते हैं ? हिंदू और मुसलमान तो पुराने दुश्मन हैं। हमारी कहावतों तक से यह बात सिद्ध होती है। अपनी उपासना करने के लिए मुसलमान जहां पश्चिम की ओर मुंह करते हैं वहां हिंदू पूरब की ओर। मुसलमान हिंदुओं को हिकारत की निगाह से देखते हैं कि वे मूर्तिपूजक हैं। हिंदू गोमाता की पूजा करते हैं, पर मुसलमान उसकी हत्या कर डालते हैं। हिंदू अहिंसा के सिद्धांत को मानने वाले हैं, मुसलमान उसे नहीं मानते। इस तरह, कदम-कदम पर तो हमें भिन्नता ही दिखाई पड़ती है। तब भारत एक राष्ट्र कैसे है ?
संपादक: भारत में कई धर्मों को मानने वाले रहते हैं, इससे यह सिद्ध नहीं होता कि वह एक राष्ट्र नहीं रहा। विदेशियों के आ जाने भर से किसी राष्ट्र का अस्तित्व नहीं खत्म हुआ करता; उलटे ही उसमें घुलमिल कर एक हो जाते हैं। कोई देश तभी राष्ट्र कहलाता है जब वह इस कसौटी पर खरा उतरता हो। ऐसे देश में दूसरों को आत्मसात कर लेने की क्षमता तो होनी ही चाहिए। भारत सदा से ऐसा ही देश रहा है। दरअसल धर्मों की संख्या उतनी ही है जितनी व्यक्तियों की; पर जिनके अंदर राष्ट्रीय भावना की चेतना मौजूद है वे एक-दूसरे के धर्म में दख़ल नहीं देते। अगर हिंदू यह समझते हैं कि भारत में सिर्फ़ हिंदुओं को ही रहने का अधिकार है तो वह किसी सपने की दुनिया में रह रहे हैं। हिंदू, मुसलमान, पारसी और ईसाई-वे सभी जिन्होंने भारत को अपना देश माना है, एक ही देश के रहने वाले भाई-भाई हैं, और उन्हें, और कुछ नहीं तो अपने ही हित में, आपस में एका बनाए रखकर यहां रहना होगा। संसार के किसी भी भाग में राष्ट्रीयता और धर्म पर्यावाची शब्द नही है; और न भारत में ही कभी ऐसा रहा है।
पाठक: अब मैं गोरक्षा के संबंध में आपके विचार जानना चाहूंगा।
संपादक: मैं खुद भी गाय का सम्मान करता हूं, अर्थात्, उसके प्रति मेरी श्रद्धा है। गाय भारत की रक्षक है, क्यों, कृषि-प्रधान देश होने के कारण, भारत को गाय के आसरे रहना पड़ता है। गाय एक ऐसा पशु है जो सैकड़ों तरह से परम उपयोगी है। हमारे मुसलमान भाई भी इतना तो मानेंगे ही।

पर जिस प्रकार मैं गाय का आदर करता हूं, ठीक उसी प्रकार अपने देशवासियों का। आदमी भी गाय की ही तरह उपयोगी है, चाहे वह मुसलमान हो या हिंदू। तो फिर, क्या गाय को बचाने के लिए मैं किसी मुसलमान से लड़ाई करूं, या उसे मार डालूं ? ऐसा करके तो मैं उस मुसलमान का ही नहीं, इस गाय का भी दुश्मन बन जाऊंगा। इसलिए गोरक्षा का मुझे तो एक ही तरीका मालूम है कि मैं अपने उस मुसलमान भाई को जाकर समझाऊं कि देश की ख़ातिर गाय की रक्षा करने में वह भी मेरा साथ दे। अगर वह मेरी बात नहीं सुनता तो फिर मेरे सामने सिवा इसके कोई चारा नहीं रह जाता कि मैं उस गाय को उसके हाल पर छोड़ दूं, क्योंकि और कुछ करना मेरी सामर्थ्य से बाहर है। अगर उस गाय के लिए मेरे हृदय में करुणा-ही-करुणा उमड़ पड़ती है तो मैं उसे बचाने के लिए अपने प्राण झोंक दूंगा, पर अपने भाई के प्राण नहीं लूंगा। मेरा विश्वास है कि हमारे धर्म का विधान यही है।
लोग जब अपनी-अपनी जगह पर अड़ने लगते हैं तब मुश्किल पैदा हो जाती है। अगर मैं एक तरफ खींचूं तो मेरा मुसलमान भाई दूसरी तरफ खींचेगा। अगर मैं नम्रता के साथ उसके सामने झुक जाऊं, तो वह और भी ज़्यादा झुक जाएगा; और अगर वह नहीं झुकता, तब भी यह तो नहीं ही कहा जा सकता कि खुद झुककर मैंने ग़लती की। हिंदू अड़ने लगे, तो गोहत्याएं बढ़ गईं। मेरी राय में, गोरक्षा समितियों को गोहत्या समिति समझना चाहिए। यह हमारी शान के ख़िलाफ है कि हमें ऐसी समितियों की ज़रूरत पड़े। मेरा ख़्याल है कि ऐसी समितियों की ज़रूरत हमें तभी पड़ी जब हम गायों की रक्षा करना भूल गए।
मेरा सगा भाई जब गोहत्या करने जा रहा हो तब मैं क्या करूं ? उसको मार डालूं, या उसके पांवों पर गिरकर उससे अनुनय-विनय करूं ? अगर आप यह मानते हों कि मुझे यह दूसरा तरीका ही अख़्तियार करना चाहिए, तो अपने मुसलमान भाई के साथ भी तो मुझे वैसा ही करना होगा !
Party Games

प्रस्तवाना

मुझे खुशी है कि गांधी जन्म-शताब्दी की राष्ट्रीय समिति की राष्ट्रीय एकीकरण उपसमिति ने ‘गांधी का भारत: भिन्नता में एकता’ के नाम से गांधीजी के विचारों की यह छोटी-सी पुस्तक तैयार की है और नेशनल बुक ट्रस्ट इसे प्रकाशित कर रहा है।
गांधीजी शांति, सामंजस्य और समन्वय के लिए ही जिए और इन्हीं आदर्शों की रक्षा के लिए उन्होंने अपनी कीमती जान न्यौछावर कर दी। उनकी शिक्षा, मर्म रूप में, सभी कालों और सभी देशों के लिए है, क्योंकि काल और स्थान की सीमाओं में वह बंधी नहीं है। उन्होंने जो रास्ता दिखाया उससे हम अकसर भटके, पर मुझे इसमें शक नहीं है कि अगर एक शक्तिशाली और अखंड राष्ट्र के रूप में हमें कायम रहना है तो हमें उनकी ऊंची और सही सलाह पर चलना होगा।
बापू की कही हुई बातों के इस छोटे-से, पर सुंदर, संग्रह को मैंने अपने स्कूलों और कालेजों के नौजवानों और उन सबके सामने पेश करता हूं जो दिल से इस देश की एकता चाहते हैं।
ज़ाकिर हुसैन

भूमिका

इस संग्रह के लिए छांटे गए अंशों को विभिन्न विषयों के हिसाब से अलग-अलग वर्गों में बांट दिया गया है और हर वर्ग के अंतर्गत जो भी छांटे गए अंश रखे गए हैं, काल-क्रम से रखे गए हैं। इन्हें जिन स्त्रोतों से लिया गया है उनकी सूची, आवश्यक टिप्पणियों के साथ, अंत में दी गई है।
गांधीजी के बुनियादी विचारों में, उनके चालीस साल के सक्रिय सार्वजनिक जीवन के दौरान, कोई परिवर्तन नहीं हुआ था, पर परिस्थितियों के अनुसार, उन्हें प्रकट करने के ढंग और उनके प्रयोग में फ़र्क पड़ता रहता था। भारत जब अपनी आज़ादी की लड़ाई लड़ रहा था, उसकी आबादी के बड़े-बड़े हिस्सों को सांप्रदायिक, धार्मिक या भाषा-संबंधी राग-द्वेष की दीवारों ने एक-दूसरे से अलग कर रखा था; इन दीवारों ने लोगों के आज़ादी के संकल्प को कमजोर बना दिया था और उन्हें दूसरी बातों में फंसाए रखा था। गांधीजी ने देखा कि इन भिन्नताओं को दूर किए बिना काम नहीं चलेगा और जहां संघर्ष है वहां सामंजस्य लाना होगा; उन्होंने दिल की एकता के लिए प्रयत्न किए, कामचलाऊ समझौतों के लिए नहीं; क्योंकि वे साफ़ देख रहे थे कि इस तरह एकता के बिना अगर स्वराज्य आया भी तो वह असली स्वराज्य नहीं होगा।
राष्ट्रीयता उनके लिए संपूर्ण मानव-जाति के साथ बढ़ती हुई व्यक्ति की आत्मीयता के रास्ते का एक सहज और उपयोगी पड़ाव भर थी। अपने परिवार की स्वेच्छापूर्वक सेवा करना तो पहले से ही भारतीय समाज में धर्म माना जाता था। इस धर्म को छोड़ देने की बात नहीं थी, बल्कि युग-धर्म के रूप में देशभक्ति को भी स्वीकार करके उसी धर्म को और भी व्यापक तथा उत्कृष्ट रूप देना था। संपूर्ण मानवता के साथ एकात्मता स्थापित करना ही अन्तिम लक्ष्य था, पर वहां तक पहुंचने के लिए जिस मध्यवर्ती साधन का इस्तेमाल करना था, वह था स्वधर्म के आधार पर अपने देश को स्वाधीन करना। व्यक्ति की संपूर्णता को ‘सर्वोच्च महत्व देना था’; मानव-जाति की सारी प्रगति का वही आरंभ स्थान था और वही लक्ष्य स्थान। सामाजिक वातावरण भी महत्त्वपूर्ण था, पर गौण रूप में ही। खुराक की ही तरह वह एक सार्थक जीवन के लिए साधन भर था। या कहें कि साध्य, उस खुराक को ‘खाने वाला’, एक आध्यात्मिक सत्ता के रूप में, तथा ज्ञान का एक केंद्र और नैतिक जीवन का स्त्रोत, व्यक्ति ही था।
किसी स्वस्थ समाज में मानव-संबंधों का आधार क्या होना चाहिए, इस संबंध में गांधीजी के विचार कोरे विचार भर नहीं थे; वे उनके दृढ़ विश्वास थे, जिनका आधार उनका निजी अनुभव था, और उनके लिए वह सदा आत्मत्याग करने के लिए तैयार रहते थे। गांधीजी से हमें अपने मसलों का कोई बना-बनाया हल नहीं लेना है, बल्कि उन्हें सुलझाने का एक रास्ता और एक लगन, जो हमारी अंतरात्मा तक पहुंच जाए और हमारी अक़्ल को कबूल हो सके, जो आपस में झगड़ने वालों की बुनियादी एकता पर ज़ोर दे और सभी को यह सिखाए कि जिन बातों से सबका भला होता है उनका महत्व सभी के लिए है।

1.साधारण

गांधीजी अपने को भारत के साथ-साथ पूरे विश्व का नागरिक मानते थे। भारत के लिए उनके दिल में अगाध प्रेम था और विदेशी प्रभुत्व से उसे मुक्त करने के लिए उन्होंने अपना सारा जीवन ही दे दिया, पर अंग्रेजों, और अन्य देशों के लोगों से भी, उनका प्रेम कम नहीं था और भारत की स्वाधीनता के लिए उन्होंने जो लड़ाई लड़ी वह सारी मानवता की ओर से लड़ी-मनुष्य द्वारा मनुष्य पर किए जाने वाले अत्याचार और शोषण के खिलाफ़।
क्या गांधी राष्ट्रवादी थे ? ‘‘और किसी का चाहे जो बिगड़े, पर भारत का भला होना ही चाहिए’’, या ‘‘मैं अपने देश के साथ हूं, चाहे वह ग़लत करे या सही,’’ इसी प्रकार के शब्दों में आमतौर पर राष्ट्रीय भावना खुलकर सामने आती है। पर गांधीजी इस प्रकार की भावना के समर्थक नहीं थे। उनकी देशभक्ति का मतलब था भारत के लिए ऐसा प्रेम, जिसमें किसी दूसरे देश के लिए नफ़रत न हो, और उसका प्रकाश करने वाली भाषा यह थी-‘‘मेरा देश, जिसे मैं ठीक रखूंगा या ठीक करूंगा,’’ और ‘‘सारी मानव-जाति के भले के लिए, और उसी के एक हिस्से के तौर पर, भारत का भला।’’ वह पक्के राष्ट्रवादी इसलिए थे कि भारत की राष्ट्रीयता में उनकी आस्था थी और उसे ठोस रूप देने के लिए उन्होंने मेहनत की थी; वह उस राष्ट्रीयता के हिमायती थे जिसमें भाषाधार, धार्मिक और सांस्कृतिक भिन्नताओं में मेल बिठाकर उनसे ऊपर उठ जाना था; क्योंकि कभी-कभी हम उनके चलते अपनी राष्ट्रीयता एकात्मता को ही भूल बैठते हैं। यही एक तरीका था जिससे मानव-संबंधों को ठीक दिशा देने वाले सिद्धांतों को ठोक-बजाकर गढ़ने के लिए भारत एक प्रयोगशाला बन सकता।

2.धर्मों का समन्वय

गांधीजी ‘एक भगवद्पुरुष’ थे और उनका आंतरिक जीवन परम धार्मिक था; वही उनके सांसारिक कार्यों को शक्ति और सार्थकता देता था। धर्म ही में उन्हें अपना सच्चा रूप दिखाई देता था। वह सिद्धांतवाद और आचार-व्यवहार के बीच, शब्द और भाव के बीच, भेद करते थे, क्योंकि ‘शब्द मारने वाले हैं, भाव जीवन देने वाला है।’ शास्त्रों के वचन को गांधीजी बिना सोचे-विचारे स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। ‘‘हर धर्म के हर नियम को आज के बौद्धिक युग में तर्क की कसौटी पर खरा उतरना होगा,’’ उन्होंने कहा था, ‘‘और अगर उसे सार्वभौम स्वीकृति पानी है, तो सार्वभौम न्याय की भी कसौटी पर !’’ वे सिर्फ भाव के कायल थे। गांधीजी को यह भाव या भावना सर्वोत्तम रूप में नरसी मेहता के उस भजन में दिखाई देती थी जिसमें सच्चा वैष्णव उसे बताया गया है जो दूसरों के दुःख में दुःखी हो सकता है। इन ‘दूसरों’, परमात्मा के दुःखी जीवों, की ही उन्होंने ‘दरिद्र नारायण’ के रूप में सेवा करनी चाही। उनकी अधिक-से-अधिक संख्या के साथ, अधिक-से-अधिक मात्रा में, तादात्म्य स्थापित करते रहने का ही उन्होंने निरंतर, जीवन भर, प्रयास किया। संकीर्ण स्वार्थ-भावना की जकड़ से छुटकारा पाने की इस साधना में गांधीजी बराबर लगे रहे। वह उनकी, राजनैतिक और सामाजिक, सभी तरह की क्रियाशीलता में पूरी तरह घुल-मिल गई। इस क्षेत्र में भगवद्गीता के कृष्ण उनके पथ-प्रदर्शक थे और कर्मयोग उनका दर्शन था।
साथ-ही-साथ दूसरे धर्मों के लिए भी उनके दिल में आदर था और उनकी उत्तम बातों के लिए उनके हृदय में श्रद्धा थी। उनका विश्वास था कि सभी धर्मों में परमात्मा की झांकी मिलती है; सिर्फ उनके वर्णन अलग-अलग हैं। धर्मों को लेकर अगर झगड़े होते हैं तो उनकी जिम्मेदारी धर्मों पर नहीं, आदमियों पर है। वह यही चाहते थे कि सब लोग अपने-अपने धर्मों को सच्चाई और लगन के साथ मानकर चलें-चाहे वह धर्म इस्लाम हो, या ईसाई, या ज़रथुस्त्र, या हिंदू, और इस प्रकार देश में धार्मिक समन्वय लाएं। उनकी साहिष्णुता का कारण उनकी उदासीनता नहीं बल्कि उस सत्य की गहरी अनुभूति थी जो ऊपरी भिन्नताओं के बावजूद सभी धर्मों में पाई जाती है।

3.सामाजिक बंधन और बाधाएं

हिंदुओं के उन दिनों के आचरण में गांधीजी के दिल को सबसे ज़्यादा चोट उन निम्न जातियों के प्रति किए जाने वाले व्यवहार से पहुंचती थी, जिन्हें ‘अंत्यज’, ‘अतिशूद्र’, ‘चांडाल’, ‘पंचमांग’ आदि कितने ही अलग-अलग नाम मिले हुए थे और जिन्हें न सिर्फ अछूत माना जाता था बल्कि अपने पास फटकने तक नहीं दिया जाता था। अस्पृश्यता को ‘हिंदू धर्म के शरीर पर फोड़ा’ और ‘कभी न धुलने वाला धब्बा’ बताते हुए गांधीजी ने उसे पूरी तरह मिटा देने के लिए कार्य किया, और इस प्रकार, सार्वजनिक कुओं से पानी भरने, कुछ खास सड़कों पर चलने, और मंदिरों में प्रवेश पाने के अधिकार की कितनी ही अहिंसात्मक लड़ाइयां लड़ने के बाद, उन्होंने एक ऐसी सुदूरव्यापी सामाजिक क्रांति कर दी, जैसे भारत में पहले कभी नहीं हुई थी।
अस्पृश्यता को खत्म करने की अपनी लड़ाई में तो गांधीजी कभी भी नहीं झुके, पर इसे वह हिंदू-समाज का बिल्कुल अंदरूनी मामला ही मानकर चले। इसलिए जब राजनैतिक उद्देश्यों से अस्पृश्य जातियों को हिंदू-धर्म से निकालकर बाहर ले जाने की कोशिशें की गईं तब गांधीजी ने उनका विरोध किया, और जब, ब्रिटिश सरकार की ओर से, उनके लिए पृथक् निर्वाचन-पद्धति के प्रस्ताव रखे गए तब ‘अस्पृश्यता को हमेशा के लिए कायम रखने’ और हिंदू-धर्म का ‘अंगभंग’ करने की इस कोशिश के विरोध में उन्होंने अपनी जान की ही बाज़ी लगा दी। 1932 का ‘पूना समझौता’ और 1936 की ‘त्रावणकोर मंदिर प्रवेश घोषणा’ भारतीय इतिहास की चिरस्मरणीय घटनाएं थीं।

4. हिंदू-मुस्लिम एकता

भारत का यह दुर्भाग्य ही था कि स्वाधीनता के राष्ट्रीयता आंदोलन की वृद्धि के साथ-ही-साथ सांप्रदायिक तनाव में भी वृद्धि होती गई थी। इसलिए गांधीजी के पथ-प्रदर्शन में देश के नेताओं ने उस तनाव को दूर करने और देश के दोनों प्रमुख संप्रदायों के बीच मेलजोल कायम रखने के लिए ज़बरदस्त कोशिशें कीं। 1924 में गांधीजी का 21 दिन का अनशन हृदय-परिवर्तन कराने के लिए ही हुआ और उसे देशवासियों के दिल में यह बात बिठा देने में सफलता मिल गई कि हिंदू-मुस्लिम एकता गांधीजी के संपूर्ण राजनैतिक कार्यक्रम की आत्मा है। और इसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए अंत में उन्होंने अपने प्राणों की पूर्णाहुति दी थी।

5 भाषा

देश की एकता को बढ़ाने और उसे दृढ़ करने के लिए, विभिन्न भाषाएँ बोलने वाले लोगों के बीच, और शासकों तथा शासितों के बीच भी, मेल-मिलाप बढ़ाने की दृष्टि से गांधीजी ने लोगों के बीच, के इस्तेमाल के लिए एक सामान्य भारतीय भाषा की ज़रूरत महसूस की। इस मसले पर, अन्य सभी मसलों की तरह, उन्होंने आम जनता के दृष्टिकोण से ही विचार किया, और अपने निजी अनुभव के आधार पर वह इस नतीजे पर पहुंचे कि यह सर्व-सामान्य भाषा एकमात्र हिंदुस्तानी ही हो सकती है-जो ज़्यादा-से-ज़्यादा सीधी-सादी हो और जिसमें न संस्कृत के शब्दों की भारमार हो और न फ़ारसी-स्त्रोत से आए

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