हास्य-व्यंग्य >> आदमी और बूट आदमी और बूटके.एल.गर्ग
|
3 पाठकों को प्रिय 256 पाठक हैं |
श्री गर्ग बुराइयों पर सजगता के साथ प्रहार करते हैं। श्री गर्ग की व्यंग्य रचनाएँ एक तरह से विसंगतियों का कोलाज हैं।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
स्वातन्त्रोत्तर हिन्दी व्यंग्य लेखक में परसाई और शरद जोशी प्रभृति
व्यंग्यकारों की परम्परा को अपनी अकूत क्षमता के साथ आगे ले जाने वाले
उल्लेखनीय व्यंग्यकारों में एक सुपरिचित हस्ताक्षर श्री के.एल. गर्ग
के व्यंग्य पाठकों से जीवित संवाद करते चलते हैं। अपने समय के विद्रूप को
श्री गर्ग ने पूरी ईमानदारी के एवं तल्खी के साथ प्रस्तुत करने का साहस
दिखाया है। हाँ, हँसाने के नाम पर वे व्यंग्य में हास्य या विनोद का सायास
समावेश करके उसकी अस्मिता से खिलवाड़ नहीं करते। अन्य विधाओं के बनिस्बत
व्यंग्य लेखन एक साहसिक कला-कर्म है। हँसाना या मसखरी करना अलग बात है।
श्री गर्ग ऐसे ही सामर्थ व्यंग्यकार हैं। वे पंजाबी एवं हिन्दी के श्रेष्ठ
व्यंग्यकार तो हैं ही, मगर इसके साथ ही दोनों भाषाओं की श्रेष्ठ रचनाओं का
भी अनुवाद करते हैं।
सही व्यंग्य रचना अपने कथ्य के द्वारा उस सत्य को बेपरदा करती है, जो समाज में एक पाप की तरह अवगुंठित रहता है व्यंग्यकार एक शल्य चिकित्सक की तरह काम करता है, ताकि बीमारी का उपचार हो सके, राजनीति और समाज की अनेक असंगत एवं बीमार प्रवृतियाँ विकसित हो रही हैं। इनका उपचार जरूरी है। इस हेतु श्री गर्ग जैसे कुशल व्यंग्यकार ही कारगर चिकित्सक की तरह उभर कर सामने आते हैं। श्री गर्ग बुराइयों पर सजगता के साथ प्रहार करते हैं। श्री गर्ग की व्यंग्य रचनाएँ एक तरह से विसंगतियों का कोलाज हैं।
प्रस्तुत व्यंग्य संग्रह आदमी और बूट के माध्यम से श्री गर्ग के चुनिन्दा व्यंग्य पाठकों तक पहुँच रहे हैं। इन से रूबरू होकर पाठक व्यंग्य की गौरवशाली परम्परा का अवलोकन कर सकेंगे, और समकालीन व्यंग्य साहित्य के महत्त्वपूर्ण सहयात्री के प्रदेय का आस्वादन भी ले सकेंगे, विश्वास है कि हिन्दी जगत श्री गर्ग की सामर्थ एवं असरदार व्यंग्य रचनाओं के बहाने समकालीन आहत समय को समझने की कोशिश करेगा। व्यंग्य विद्या ने सामाजिक परिवर्तन में अपनी भागीदारी भी सुनिश्चित करने की कोशिश की है। यह दावा भी श्री गर्ग की रचनाओं को पढने के बाद और अधिक पुष्ट होगा, इसमें दो राय नहीं।
सही व्यंग्य रचना अपने कथ्य के द्वारा उस सत्य को बेपरदा करती है, जो समाज में एक पाप की तरह अवगुंठित रहता है व्यंग्यकार एक शल्य चिकित्सक की तरह काम करता है, ताकि बीमारी का उपचार हो सके, राजनीति और समाज की अनेक असंगत एवं बीमार प्रवृतियाँ विकसित हो रही हैं। इनका उपचार जरूरी है। इस हेतु श्री गर्ग जैसे कुशल व्यंग्यकार ही कारगर चिकित्सक की तरह उभर कर सामने आते हैं। श्री गर्ग बुराइयों पर सजगता के साथ प्रहार करते हैं। श्री गर्ग की व्यंग्य रचनाएँ एक तरह से विसंगतियों का कोलाज हैं।
प्रस्तुत व्यंग्य संग्रह आदमी और बूट के माध्यम से श्री गर्ग के चुनिन्दा व्यंग्य पाठकों तक पहुँच रहे हैं। इन से रूबरू होकर पाठक व्यंग्य की गौरवशाली परम्परा का अवलोकन कर सकेंगे, और समकालीन व्यंग्य साहित्य के महत्त्वपूर्ण सहयात्री के प्रदेय का आस्वादन भी ले सकेंगे, विश्वास है कि हिन्दी जगत श्री गर्ग की सामर्थ एवं असरदार व्यंग्य रचनाओं के बहाने समकालीन आहत समय को समझने की कोशिश करेगा। व्यंग्य विद्या ने सामाजिक परिवर्तन में अपनी भागीदारी भी सुनिश्चित करने की कोशिश की है। यह दावा भी श्री गर्ग की रचनाओं को पढने के बाद और अधिक पुष्ट होगा, इसमें दो राय नहीं।
आदमी के हक में
पूँजीवादी सिस्टम की अंधी दौड़ ने मनुष्य को एक अदना मशीन बना दिया है।
उसे पदार्थवादी सुख के नाम पर कुछेक सुविधाएँ जुटा कर उससे उसकी चैन नींद
और मानसिक शान्ति छीन ली गई है। आज मनुष्य चाबी का एक खिलौना बनकर रह गया है। जिसकी कीमत पहनने वाले एक बूट से भी कम हो गई है। आज मनुष्य सस्ता है, बूट महँगा। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मूल्य सबके सब धराशायी
हो गए हैं।
ऐसे में व्यंग्यकार क्या करें ?
वह उन विसंगतियों, विद्रूपताओं और लोलुपताओं को नंगा करे जिनके कारण श्रेष्ठतम मनुष्य की ऐसी हालत हुई है। वह किसी वाद का भोंपू न बने, लक्ष्मी-पितामाओं का ढँढोरची न बने, व्यंग्यकार को ऐसी व्यवस्था अपनी कलम से पैदा करनी होगी। मनुष्य, मनुष्य बना रहे, पशु या मशीन न बने, ऐसे हालात व्यंग्यकार को पैदा करने होंगे।
हम यही तो कर रहे हैं।
ऐसे में व्यंग्यकार क्या करें ?
वह उन विसंगतियों, विद्रूपताओं और लोलुपताओं को नंगा करे जिनके कारण श्रेष्ठतम मनुष्य की ऐसी हालत हुई है। वह किसी वाद का भोंपू न बने, लक्ष्मी-पितामाओं का ढँढोरची न बने, व्यंग्यकार को ऐसी व्यवस्था अपनी कलम से पैदा करनी होगी। मनुष्य, मनुष्य बना रहे, पशु या मशीन न बने, ऐसे हालात व्यंग्यकार को पैदा करने होंगे।
हम यही तो कर रहे हैं।
के. एल. गर्ग
1
कैसे बने टिकाऊ सरकार
सभी सरकारे असफल हो गईं तो नेताजी को राष्ट्रीय सरकार का मोह जाग गया।
राष्ट्रीय सरकार के विषय में अपनी बहुमूल्य राय देते हुए नेताजी ने प्रवचन
कियाः
‘‘पिछली सरकारें टॉमी सरकारें साबित हुई हैं। इसलिए राष्ट्रीय सरकार का नुस्खा आजमाना चाहिए।’’
‘‘टॉमी सरकार का क्या अर्थ है ?’’ किसी ने पूछा।
‘‘टॉमी सरकार वह सरकार होती है जो एक ही इशारे पर पूँछ उठाए डोले और दूसरे इशारे पर तुरन्त पूँछ समेट ले।’’
‘‘जरा विस्तार से समझाए।’’
‘‘किसी पार्टी का जरा सा इशारा मिला नहीं कि पूँछ उठाई और अपनी सरकार से अलग हो गए और हरियाणे के एक सिपाही के इशारे पर सरकार की पूँछ घसीट ली और झट एक्ट-प्रधानमन्त्री हो गए। जरा-जरा सी बात पर पूँछ उठा लेना और जरा-जरा सी बात पर पूँछ समेट लेना, यही होता है टॉमी सरकार।’’
नेताजी का तर्क काफी प्रभावशाली था।
‘‘राष्ट्रीय सरकार का स्वरूप कैसा होना चाहिए ?’’
‘रूप चाहे स्वरूप हो या चाहे कुरूप। पर एक बात निश्चित है कि ‘ए’ पार्टी उनमें शामिल नहीं की जानी चाहिए। ‘ए’ पार्टी के अतिरिक्त राष्ट्रीय सरकार स्थित और पक्की सिद्ध होगी। ‘ए’ पार्टी को राष्ट्रीय सरकारों से बाहर रखना चाहिए।’
‘‘ ‘ए’ पर्टी को क्यों सम्मिलित नहीं किया जाना चाहिए ?’’
‘‘इसके सदस्य नेकर पहनते हैं, फिराकपरस्ती फैलाते हैं। हाथ में छोटे-छोटे डण्डे लिए डोलते हैं। डण्डा जुल्म का प्रतीक है हिंसा का आधार है। भय का प्रचारक है।’’
‘‘ पर क्या नेकर और डण्डे के कारण ही इस पार्टी में सम्मिलित नहीं किया जाना चाहिए ?’’
‘‘यह कौन सी ड्रेस हुई जी। आदमी की पहचान नेशनल ड्रेस से होती है। नेशनल ड्रेस पहनकर ही पार्टी नेशनल हो सकती है। नेकर तो वैसे भी लड़के और लड़कियों की ड्रेस है।’’
‘‘पर इस पार्टी वाले तो स्वयं को पक्के राष्ट्रवादी कहते हैं।’’
‘‘स्वयं कहने से क्या होता है। कहने से यदि हर व्यक्ति प्रधानमन्त्री बन जाए तो तुम्हारी तो बारी भी नहीं आएगी। बस इन लोगों के साथ यही तो समस्या है।’’
हमारे पत्रकार ने ‘ए’ के साथ सम्पर्क किया और राष्ट्रीय सरकार के विषय में उनकी राय जाननी चाही। उन्होंने नेकर की जेब से हाथ निकालकर डंडा बगल में दबाते हुए कहाः
‘‘नया विचार है बन्धु, राष्ट्रीय सरकार बना लेनी चाहिए। पर ‘बी’ दल को इससे बाहर ही रखना चाहिए। ‘बी’ दल को छोड़कर यदि कोई राष्ट्रीय सरकार बनती है तो हमारी पार्टी को क्या ऐतराज हो सकता है। सभी राष्ट्रवादी पर्टियाँ ही इनमें शामिल होनी चाहिए।’’
‘‘ ‘बी’ पार्टी को क्यों नहीं शामिल किया जाए ?’’
‘‘इस पार्टी वाले पैन्ट-शर्ट पहनते हैं। पैन्ट-शर्ट अंग्रेजी की ड्रेस है। गुलाम जहनियत की निशानी है। बस इसलिए।’’
‘‘पर ड्रेस पहनने से क्या होता है ? आप भी कमाल करते हैं, इतने समझदार होकर। ड्रेस आदमी के मन का शीशा होती है, इतना भी नहीं जानते। जैसी पोशाक, वैसी आदमी की सोच वैसे विचार। वे पचास सालों के बाद भी अंग्रेज परस्त हैं !’’ ‘बी’ पार्टी वालों के पास हमारे पत्रकार राष्ट्रीय सरकार की जानकारी लेने को पहुँचते तो उन्होंने अपनी इच्छा इस प्रकार प्रकट की, ‘‘यदि ‘सी’ पार्टी राष्ट्रीय पार्टी में शामिल न की जाए तो हम इस विषय में पार्टी की हंगामी बैठक में विचार। चर्चा कर सकते हैं।’’
‘‘ ‘सी’ पार्टी ही क्यों ?’’
‘‘ यह पूँजीपतियों की पार्टी है। देश को टुकड़ों में बाँटकर राज्य करना चाहती है। जनता को जातियों और वर्गो में विभाजित कर रही है देश को तोड़ना चाहती है। हम देश को जोड़ना चाहते हैं, ये तोड़ना चाहते हैं।’’
पत्रकार महोदय किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके।
‘‘पिछली सरकारें टॉमी सरकारें साबित हुई हैं। इसलिए राष्ट्रीय सरकार का नुस्खा आजमाना चाहिए।’’
‘‘टॉमी सरकार का क्या अर्थ है ?’’ किसी ने पूछा।
‘‘टॉमी सरकार वह सरकार होती है जो एक ही इशारे पर पूँछ उठाए डोले और दूसरे इशारे पर तुरन्त पूँछ समेट ले।’’
‘‘जरा विस्तार से समझाए।’’
‘‘किसी पार्टी का जरा सा इशारा मिला नहीं कि पूँछ उठाई और अपनी सरकार से अलग हो गए और हरियाणे के एक सिपाही के इशारे पर सरकार की पूँछ घसीट ली और झट एक्ट-प्रधानमन्त्री हो गए। जरा-जरा सी बात पर पूँछ उठा लेना और जरा-जरा सी बात पर पूँछ समेट लेना, यही होता है टॉमी सरकार।’’
नेताजी का तर्क काफी प्रभावशाली था।
‘‘राष्ट्रीय सरकार का स्वरूप कैसा होना चाहिए ?’’
‘रूप चाहे स्वरूप हो या चाहे कुरूप। पर एक बात निश्चित है कि ‘ए’ पार्टी उनमें शामिल नहीं की जानी चाहिए। ‘ए’ पार्टी के अतिरिक्त राष्ट्रीय सरकार स्थित और पक्की सिद्ध होगी। ‘ए’ पार्टी को राष्ट्रीय सरकारों से बाहर रखना चाहिए।’
‘‘ ‘ए’ पर्टी को क्यों सम्मिलित नहीं किया जाना चाहिए ?’’
‘‘इसके सदस्य नेकर पहनते हैं, फिराकपरस्ती फैलाते हैं। हाथ में छोटे-छोटे डण्डे लिए डोलते हैं। डण्डा जुल्म का प्रतीक है हिंसा का आधार है। भय का प्रचारक है।’’
‘‘ पर क्या नेकर और डण्डे के कारण ही इस पार्टी में सम्मिलित नहीं किया जाना चाहिए ?’’
‘‘यह कौन सी ड्रेस हुई जी। आदमी की पहचान नेशनल ड्रेस से होती है। नेशनल ड्रेस पहनकर ही पार्टी नेशनल हो सकती है। नेकर तो वैसे भी लड़के और लड़कियों की ड्रेस है।’’
‘‘पर इस पार्टी वाले तो स्वयं को पक्के राष्ट्रवादी कहते हैं।’’
‘‘स्वयं कहने से क्या होता है। कहने से यदि हर व्यक्ति प्रधानमन्त्री बन जाए तो तुम्हारी तो बारी भी नहीं आएगी। बस इन लोगों के साथ यही तो समस्या है।’’
हमारे पत्रकार ने ‘ए’ के साथ सम्पर्क किया और राष्ट्रीय सरकार के विषय में उनकी राय जाननी चाही। उन्होंने नेकर की जेब से हाथ निकालकर डंडा बगल में दबाते हुए कहाः
‘‘नया विचार है बन्धु, राष्ट्रीय सरकार बना लेनी चाहिए। पर ‘बी’ दल को इससे बाहर ही रखना चाहिए। ‘बी’ दल को छोड़कर यदि कोई राष्ट्रीय सरकार बनती है तो हमारी पार्टी को क्या ऐतराज हो सकता है। सभी राष्ट्रवादी पर्टियाँ ही इनमें शामिल होनी चाहिए।’’
‘‘ ‘बी’ पार्टी को क्यों नहीं शामिल किया जाए ?’’
‘‘इस पार्टी वाले पैन्ट-शर्ट पहनते हैं। पैन्ट-शर्ट अंग्रेजी की ड्रेस है। गुलाम जहनियत की निशानी है। बस इसलिए।’’
‘‘पर ड्रेस पहनने से क्या होता है ? आप भी कमाल करते हैं, इतने समझदार होकर। ड्रेस आदमी के मन का शीशा होती है, इतना भी नहीं जानते। जैसी पोशाक, वैसी आदमी की सोच वैसे विचार। वे पचास सालों के बाद भी अंग्रेज परस्त हैं !’’ ‘बी’ पार्टी वालों के पास हमारे पत्रकार राष्ट्रीय सरकार की जानकारी लेने को पहुँचते तो उन्होंने अपनी इच्छा इस प्रकार प्रकट की, ‘‘यदि ‘सी’ पार्टी राष्ट्रीय पार्टी में शामिल न की जाए तो हम इस विषय में पार्टी की हंगामी बैठक में विचार। चर्चा कर सकते हैं।’’
‘‘ ‘सी’ पार्टी ही क्यों ?’’
‘‘ यह पूँजीपतियों की पार्टी है। देश को टुकड़ों में बाँटकर राज्य करना चाहती है। जनता को जातियों और वर्गो में विभाजित कर रही है देश को तोड़ना चाहती है। हम देश को जोड़ना चाहते हैं, ये तोड़ना चाहते हैं।’’
पत्रकार महोदय किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके।
2
त्याग मूर्ति
वे मूर्ति देवी से त्याग मूर्ति बन गई थीं।
मा त्याग मूर्ति का समस्त व्याख्यान वैराग्य से शुरू होकर त्याग पर समाप्त हो जाता है। उनके प्रवचन का मूल मुद्दा कुछ इस तरह होता हैः
‘‘प्रेमी भक्तजन, यह संसार दुःखों का घर है। दुःख इच्छा से उत्पन्न होते हैं। इच्छा कामिनी है; मन को व्याकुल करती है। इच्छा का त्याग करो। त्याग में ही सुख का रहस्य छुपा हुआ है। महासुख की प्राप्ति के लिए त्याग का द्वार खटखटाएँ। फिर सीधे स्वर्गलोक जाएँ।’’
भक्तजनों के पास ए.सी. कारे हैं, विशाल कोठियाँ हैं, जवान सुन्दर बीवियाँ हैं। इस नश्वर संसार में समस्त सुख-साधन उनकी जकड़ और पकड़ में हैं। नौकर-चाकर हैं। फिर भी बेचारे भक्तजन भटक रहे हैं। ए.सी. के शांय-शांय में बैठे त्याग का पाठ पढ़ रहे हैं। रात को क्लब से लेट आने के कारण आँखों में नींद रड़क रही है। पर वे इसे भक्ति का खुमार कह रहे हैं। गुरु नानाक जी ने भी कहा था, ‘‘नाम खुमारी नानका चढ़ी रहे दिन रात।’’ भक्तजनों की अंखियाँ खुमार से मुँदी हुई हैं। माँ त्याग मूर्ति का व्याख्यान इस खुमारी में पल-प्रतिपल वृद्धि किए जा रहा है। रास्ते में दो भक्तजन ‘ज़ेन्न’ में आते हुए बातिया भी रहे थेः
‘‘बस समझो यही दो घड़ियाँ शान्ति की होती हैं। बाकी सारा दिन तो मारामारी ही पड़ी रहती है। बड़ी मुश्किल से टाइम का शेडयूल निकाला है।’’
‘‘पर भाई, यहाँ भी मन कहाँ टिकता है। जोड़-तोड़ में ही भटकता रहता है। बहुत उलटाते हैं। भाई पर नहीं, भटकन तो बनी ही रहती है हरदम।’’
‘‘इसलिए तो मा त्यागमूर्ति का संवाद सुनने आते हैं। कहिए कुछ भी फर्क तो पड़ता ही है। कुछ न कुछ।’’
‘‘हाँ, हंडरेड में से प्वांइट जीरो-जीरो वन परसेंट....।’’ कहते हुए दूसरा लम्बा साँस खींचता है। पिछली रात पी हुई ह्विस्की की गंध पूरी कार में फैल जाती है।
मा त्याग मूर्ति संवाद रचाती हैं।
‘‘इच्छाओं का त्याग कीजिए। महात्मा बुद्ध, ईसा, गाँधी, मार्टिन लूथर...सब के सब यही कहते रहे हैं। महासुख की प्राप्ति का मार्ग इच्छाओं का त्याग करने से ही प्राप्त होता है।
एक श्रद्धालु ने पूछाः
‘‘आपका नाम मा त्याग मूर्ति कैसे ?’’
मा त्याग मूर्ति ऐसी भोले-भाले श्रद्धलुओं से प्रसन्न रहती हैं। मुस्करा के कहती हैं।
‘‘भक्तजन, नाम व्यक्ति के मन में अभिमान पैदा करता है। अभिमान क्रोध का कारण बनता है। क्रोध और इच्छा एक दूसरे के पूरक हैं। अपने नाम का ही त्याग कर दिया। मूर्ति देवी को अपने हाथों की तिलांजलि दे दी।’’
मा त्याग मूर्ति ?’’ भोला श्रद्धालु फिर पूछ लेता है।
मा त्याग मूर्ति ऐसी भोली सूरत वाले श्रद्धालुओं पर जान छिड़कती हैं।, वे सेवक के मन का भेद समझती हैं। इधर-उधर ताक झाँक के, एकान्त-भाव से कह देती हैं।
‘‘जैसा प्रोफेशन वैसा ही नाम होता है, भक्तजन.....’’ सच्चिदानन्द, प्रेमानन्द, प्रेम –मूर्ति..त्याग-मूर्ति .....नाम गिनते-गिनते व खुल के हँसती हैं। हँसने से उनकी छवि और भी निखर उठती है। पूरे नाम तो वे भी शायद नहीं जानतीं। ऋषि मुनियों के इस देश में हजारों नहीं लाखों नाम हैं सन्तों के। सब ही का प्रोफेशन जोर शोर से चल रहा है।
दीन-दुःखी सुबह सवेरे आलीशान, सुसज्जित ‘आश्रमों’ में ताँता बाँधे आते हैं। कभी-कभार वे व्याख्यान देने बाहर आते-जाते रहते हैं। भक्तजन सेवक उनके पधारने का समाचार दूरदर्शन के स्पेशल इश्तिहार वाले कॉलम में भेजते हैं। दूरदर्शन वाले स्पेशल फीस चार्ज करते हैं। पाँच-सात लाख रुपए इश्तिहारों पर खर्च होते हैं। भीड़ इकट्ठी न हो तो प्रवचन सेल कम पड़ जाती है। प्रवचन ढीला पड़ जाता है। प्रवचन ढीला पड़ जाए तो प्रबन्धक, प्रचारक और श्रोता सभी घाटे में चले जाते हैं।
मा त्याग मूर्ति भी रटन-पटन करती रहती हैं। पिछली बार उनके दिल्ली आने का बहुत शोर था। पर वे नहीं आ सके। दस लाख का प्रपोजल था। दिल्ली वाले प्रमोटर आठ दे रहे थे। सौदा पटते-पटते रह गया। मा त्याग मूर्ति ने अपने व्यक्तिगत श्रद्धालु को गुस्से भरे शब्दों में बताया थाः
‘‘त्याग का पाठ मुफ्त में ही बटोरना चाहते हैं, बुद्धू कहीं के....।’’
प्रमोटरों का अपना पश्चाताप थाः
‘‘मा त्याग मूर्ति की आजकल बहुत डिमांड है, एक तरह का करेज है जनता में आ जातीं तो अच्छा सीजन लग जाता। यूँ ही हिसाब किताब में ही मारे गए।’’
मा त्याग मूर्ति...।
श्रद्धालुजन उनके एक-एक शब्द का मूल्य समझते हैं। सुस्सजनों के लिए आश्रम की ओर से विशेष प्रबन्ध किया हुआ है। उनके व्याख्यानों की वीडियो, ऑडियो टेप्स उपलब्ध हैं। आश्रम की सेल्ज कम्पनी की ओर से इनका इश्तिहार लगातार बडे-बड़े चैनलों पर प्रसारित किया जा रहा है। एक सेवक बता रहा थाः
‘‘मेरे पास मा त्याग मूर्ति के व्याख्यानों की पूरी की पूरी कलेक्शन हैं तीन सौ के करीब टेप्स हैं....।’’
‘‘ये तो भाई महँगी ही बहुत हैं...।’’ कोई कह देता है।
‘‘गोली मारिए पैसे के, महँगाई के ....मन की शान्ति के मुकाबले कुछ भी महँगा नहीं....।’’
आश्रम के एक उच्च कर्मचारी ने भेद भरे लहजे में अपनी पत्नी को बताया था, ‘‘अब तक कोई दो करोड़ की टेप्स बिक चुकी हैं।’’ पत्नी का हैरानी से खुला मुँह अभी बन्द नहीं हुआ। डॉक्टर लोग इसे ओवर एक्साइटमेन्ट की बीमारी कह रहे हैं।,
मा त्याग मूर्ति ने पिछले दिनों अपनी ‘जेन्न’ कार का भी त्याग कर दिया है। त्याग करके कुछ पाना भी होता है। मा त्याग मूर्ति इस भारतीय दर्शन को अच्छी तरह समझती हैं। त्याग के मूल मन्त्र द्वारा वे अब बड़े लक्ष्य की ओर निरन्तर बढ़ती दिखाई दे रही हैं। अमेरिका की फरारी या रौश कार की ओर।
‘‘पर ये गाड़ियाँ तो अमेरिका में भी किसी-किसी के पास ही हैं।’’ कई जन प्रतिकार करता है तो दूसरा झट उत्तर में कह देता हैः
‘‘मा त्याग मूर्ति जैसा त्याग भी तो किसी के पास नहीं है। है कोई ऐसा त्यागी जन ?’’
उनके नज़दीकी श्रद्धालु को उन्हें मा कहना कुछ अटपटा सा लगता है। ‘‘माँ क्यों नहीं भला ?’’
माँ त्याग मूर्ति उसे प्यार से समझाते हैं
‘‘माँ शब्द बुढ़ापे का प्रतीक है। इस प्रोफेशन में प्रचारक ब्रह्मचारी को जवान, सुन्दर और रिष्ट-पुष्ट दीखना चाहिए। मा शब्द एकदम विलायती लगता है। अमेरिका रहते श्रद्धालुओं में काफी पॉपुलर है। फरारी या रौश मा रास्ते ही आएँगी, एक दिन...’’कहते कहते मा त्याग मूर्ति खुलकर हँसते हैं
एक वर्कर दूसरे से पूछ रहा थाः
‘‘मा त्याग मूर्ति का प्रवचन होगा आज। जाओगे सुनने ?’’
‘‘भइया हमारे पास कहाँ टेम इन कामों के लिए ? रोटी की चिन्ता हटे तो सोंचे करें कुछ। बच्चों को रोटी तो रोज़ चाहिए न.....।’’
मा त्याग मूर्ति ऐसे जनों को अन्न के कीड़े कहती हैं। कहाँ मा त्याग मूर्ति, जिसने अपने नाम तक का त्याग कर दिया । कहाँ ये मूर्खजन एक दिन के लिए अन्न का त्याग नहीं कर सकते...। वे कहती हैं
‘‘मूर्खजन ‘आवागमन’ में इसलिए फँसा, घड़ी पल के लिए¸ अन्न का त्याग नहीं कर सका। हे प्रभो....ऐसे पापियों को सदबुद्घि दें !
मा त्याग मूर्ति का समस्त व्याख्यान वैराग्य से शुरू होकर त्याग पर समाप्त हो जाता है। उनके प्रवचन का मूल मुद्दा कुछ इस तरह होता हैः
‘‘प्रेमी भक्तजन, यह संसार दुःखों का घर है। दुःख इच्छा से उत्पन्न होते हैं। इच्छा कामिनी है; मन को व्याकुल करती है। इच्छा का त्याग करो। त्याग में ही सुख का रहस्य छुपा हुआ है। महासुख की प्राप्ति के लिए त्याग का द्वार खटखटाएँ। फिर सीधे स्वर्गलोक जाएँ।’’
भक्तजनों के पास ए.सी. कारे हैं, विशाल कोठियाँ हैं, जवान सुन्दर बीवियाँ हैं। इस नश्वर संसार में समस्त सुख-साधन उनकी जकड़ और पकड़ में हैं। नौकर-चाकर हैं। फिर भी बेचारे भक्तजन भटक रहे हैं। ए.सी. के शांय-शांय में बैठे त्याग का पाठ पढ़ रहे हैं। रात को क्लब से लेट आने के कारण आँखों में नींद रड़क रही है। पर वे इसे भक्ति का खुमार कह रहे हैं। गुरु नानाक जी ने भी कहा था, ‘‘नाम खुमारी नानका चढ़ी रहे दिन रात।’’ भक्तजनों की अंखियाँ खुमार से मुँदी हुई हैं। माँ त्याग मूर्ति का व्याख्यान इस खुमारी में पल-प्रतिपल वृद्धि किए जा रहा है। रास्ते में दो भक्तजन ‘ज़ेन्न’ में आते हुए बातिया भी रहे थेः
‘‘बस समझो यही दो घड़ियाँ शान्ति की होती हैं। बाकी सारा दिन तो मारामारी ही पड़ी रहती है। बड़ी मुश्किल से टाइम का शेडयूल निकाला है।’’
‘‘पर भाई, यहाँ भी मन कहाँ टिकता है। जोड़-तोड़ में ही भटकता रहता है। बहुत उलटाते हैं। भाई पर नहीं, भटकन तो बनी ही रहती है हरदम।’’
‘‘इसलिए तो मा त्यागमूर्ति का संवाद सुनने आते हैं। कहिए कुछ भी फर्क तो पड़ता ही है। कुछ न कुछ।’’
‘‘हाँ, हंडरेड में से प्वांइट जीरो-जीरो वन परसेंट....।’’ कहते हुए दूसरा लम्बा साँस खींचता है। पिछली रात पी हुई ह्विस्की की गंध पूरी कार में फैल जाती है।
मा त्याग मूर्ति संवाद रचाती हैं।
‘‘इच्छाओं का त्याग कीजिए। महात्मा बुद्ध, ईसा, गाँधी, मार्टिन लूथर...सब के सब यही कहते रहे हैं। महासुख की प्राप्ति का मार्ग इच्छाओं का त्याग करने से ही प्राप्त होता है।
एक श्रद्धालु ने पूछाः
‘‘आपका नाम मा त्याग मूर्ति कैसे ?’’
मा त्याग मूर्ति ऐसी भोले-भाले श्रद्धलुओं से प्रसन्न रहती हैं। मुस्करा के कहती हैं।
‘‘भक्तजन, नाम व्यक्ति के मन में अभिमान पैदा करता है। अभिमान क्रोध का कारण बनता है। क्रोध और इच्छा एक दूसरे के पूरक हैं। अपने नाम का ही त्याग कर दिया। मूर्ति देवी को अपने हाथों की तिलांजलि दे दी।’’
मा त्याग मूर्ति ?’’ भोला श्रद्धालु फिर पूछ लेता है।
मा त्याग मूर्ति ऐसी भोली सूरत वाले श्रद्धालुओं पर जान छिड़कती हैं।, वे सेवक के मन का भेद समझती हैं। इधर-उधर ताक झाँक के, एकान्त-भाव से कह देती हैं।
‘‘जैसा प्रोफेशन वैसा ही नाम होता है, भक्तजन.....’’ सच्चिदानन्द, प्रेमानन्द, प्रेम –मूर्ति..त्याग-मूर्ति .....नाम गिनते-गिनते व खुल के हँसती हैं। हँसने से उनकी छवि और भी निखर उठती है। पूरे नाम तो वे भी शायद नहीं जानतीं। ऋषि मुनियों के इस देश में हजारों नहीं लाखों नाम हैं सन्तों के। सब ही का प्रोफेशन जोर शोर से चल रहा है।
दीन-दुःखी सुबह सवेरे आलीशान, सुसज्जित ‘आश्रमों’ में ताँता बाँधे आते हैं। कभी-कभार वे व्याख्यान देने बाहर आते-जाते रहते हैं। भक्तजन सेवक उनके पधारने का समाचार दूरदर्शन के स्पेशल इश्तिहार वाले कॉलम में भेजते हैं। दूरदर्शन वाले स्पेशल फीस चार्ज करते हैं। पाँच-सात लाख रुपए इश्तिहारों पर खर्च होते हैं। भीड़ इकट्ठी न हो तो प्रवचन सेल कम पड़ जाती है। प्रवचन ढीला पड़ जाता है। प्रवचन ढीला पड़ जाए तो प्रबन्धक, प्रचारक और श्रोता सभी घाटे में चले जाते हैं।
मा त्याग मूर्ति भी रटन-पटन करती रहती हैं। पिछली बार उनके दिल्ली आने का बहुत शोर था। पर वे नहीं आ सके। दस लाख का प्रपोजल था। दिल्ली वाले प्रमोटर आठ दे रहे थे। सौदा पटते-पटते रह गया। मा त्याग मूर्ति ने अपने व्यक्तिगत श्रद्धालु को गुस्से भरे शब्दों में बताया थाः
‘‘त्याग का पाठ मुफ्त में ही बटोरना चाहते हैं, बुद्धू कहीं के....।’’
प्रमोटरों का अपना पश्चाताप थाः
‘‘मा त्याग मूर्ति की आजकल बहुत डिमांड है, एक तरह का करेज है जनता में आ जातीं तो अच्छा सीजन लग जाता। यूँ ही हिसाब किताब में ही मारे गए।’’
मा त्याग मूर्ति...।
श्रद्धालुजन उनके एक-एक शब्द का मूल्य समझते हैं। सुस्सजनों के लिए आश्रम की ओर से विशेष प्रबन्ध किया हुआ है। उनके व्याख्यानों की वीडियो, ऑडियो टेप्स उपलब्ध हैं। आश्रम की सेल्ज कम्पनी की ओर से इनका इश्तिहार लगातार बडे-बड़े चैनलों पर प्रसारित किया जा रहा है। एक सेवक बता रहा थाः
‘‘मेरे पास मा त्याग मूर्ति के व्याख्यानों की पूरी की पूरी कलेक्शन हैं तीन सौ के करीब टेप्स हैं....।’’
‘‘ये तो भाई महँगी ही बहुत हैं...।’’ कोई कह देता है।
‘‘गोली मारिए पैसे के, महँगाई के ....मन की शान्ति के मुकाबले कुछ भी महँगा नहीं....।’’
आश्रम के एक उच्च कर्मचारी ने भेद भरे लहजे में अपनी पत्नी को बताया था, ‘‘अब तक कोई दो करोड़ की टेप्स बिक चुकी हैं।’’ पत्नी का हैरानी से खुला मुँह अभी बन्द नहीं हुआ। डॉक्टर लोग इसे ओवर एक्साइटमेन्ट की बीमारी कह रहे हैं।,
मा त्याग मूर्ति ने पिछले दिनों अपनी ‘जेन्न’ कार का भी त्याग कर दिया है। त्याग करके कुछ पाना भी होता है। मा त्याग मूर्ति इस भारतीय दर्शन को अच्छी तरह समझती हैं। त्याग के मूल मन्त्र द्वारा वे अब बड़े लक्ष्य की ओर निरन्तर बढ़ती दिखाई दे रही हैं। अमेरिका की फरारी या रौश कार की ओर।
‘‘पर ये गाड़ियाँ तो अमेरिका में भी किसी-किसी के पास ही हैं।’’ कई जन प्रतिकार करता है तो दूसरा झट उत्तर में कह देता हैः
‘‘मा त्याग मूर्ति जैसा त्याग भी तो किसी के पास नहीं है। है कोई ऐसा त्यागी जन ?’’
उनके नज़दीकी श्रद्धालु को उन्हें मा कहना कुछ अटपटा सा लगता है। ‘‘माँ क्यों नहीं भला ?’’
माँ त्याग मूर्ति उसे प्यार से समझाते हैं
‘‘माँ शब्द बुढ़ापे का प्रतीक है। इस प्रोफेशन में प्रचारक ब्रह्मचारी को जवान, सुन्दर और रिष्ट-पुष्ट दीखना चाहिए। मा शब्द एकदम विलायती लगता है। अमेरिका रहते श्रद्धालुओं में काफी पॉपुलर है। फरारी या रौश मा रास्ते ही आएँगी, एक दिन...’’कहते कहते मा त्याग मूर्ति खुलकर हँसते हैं
एक वर्कर दूसरे से पूछ रहा थाः
‘‘मा त्याग मूर्ति का प्रवचन होगा आज। जाओगे सुनने ?’’
‘‘भइया हमारे पास कहाँ टेम इन कामों के लिए ? रोटी की चिन्ता हटे तो सोंचे करें कुछ। बच्चों को रोटी तो रोज़ चाहिए न.....।’’
मा त्याग मूर्ति ऐसे जनों को अन्न के कीड़े कहती हैं। कहाँ मा त्याग मूर्ति, जिसने अपने नाम तक का त्याग कर दिया । कहाँ ये मूर्खजन एक दिन के लिए अन्न का त्याग नहीं कर सकते...। वे कहती हैं
‘‘मूर्खजन ‘आवागमन’ में इसलिए फँसा, घड़ी पल के लिए¸ अन्न का त्याग नहीं कर सका। हे प्रभो....ऐसे पापियों को सदबुद्घि दें !
गधा बनाम शरीफ आदमी
‘शराफत छोड़ दी हमने, हाँ जी, शराफत छोड़ दी हमने’,
फिल्मी
गीत सुनते ही हमें हमारे गणित- अध्यापक मुरलीधर बहुत याद आने लगते हैं।
नालायक बच्चों पर दाँत/दाड़ किटकिटाते वे अपने ऊपर के तीन दाँत और दो
दाड़ें खो बैठे थे। पोपले मुँह से पुचपुच की आवाज निकालते हुए वे ढीठ
बच्चों को कहा करते थे, ‘‘शुनबट्टा कहीं का...कैसे
शरीफों की
तरह खटता जा रहा है...भाग जा....भाग जा.....नहीं तो और खिटेगा...खिटेगा
कहे देता हूँ...।’’
वे ‘पिट’ को खिट कहते थे। पीरियड खत्म होते ही ढीठ लड़के मार खाकर भी मास्टर जी की नकलें उतारा करते थे। जब भी कोई किसी से जरा नाराज होता या थोड़े शरारती रौ में होता तो वह दूसरे की बाँह मचकोड़ कर या मुक्का तानते हुए कह देता थाः ‘‘क्यों खानी है खिट ?’’ पीरियड समाप्त होते ही पिछले बेंच वाला कोई शरारती लड़का दबी सी आवाज में कह देता था, ‘‘चल अब फुट...।’’
मास्टर मुरलीधर के कमरे से बाहर होते ही पिछले बेंचों से आवाजों का एक बगूला सा उठ खड़ा होता थाः ‘‘खा लो फुट..फुट ...नहीं तो जाओगे पिट-पिट...।’’
‘‘शराफत छोड़ दी हमने’, फिल्मी गीत सुनते ही हमें हमारा जालिम बाप याद आने लगता है। उसकी आँखें हमेशा लाल रहती थीं। गुस्से के कारण उनमें से हरदम खून टपकता लगता था। वह हम बच्चों से हमेशा नाराज ही रहता था। क्रोध से जलता हमेशा यही कहता, ‘‘गधे के गधे ही रहोगे। बन्दे नहीं बनोगे।’’
बिल्ली सी भयभीत हमारी मां कभी-कभार कह देती थीं, ‘‘इत्ते शरीफ तो हैं,
वे ‘पिट’ को खिट कहते थे। पीरियड खत्म होते ही ढीठ लड़के मार खाकर भी मास्टर जी की नकलें उतारा करते थे। जब भी कोई किसी से जरा नाराज होता या थोड़े शरारती रौ में होता तो वह दूसरे की बाँह मचकोड़ कर या मुक्का तानते हुए कह देता थाः ‘‘क्यों खानी है खिट ?’’ पीरियड समाप्त होते ही पिछले बेंच वाला कोई शरारती लड़का दबी सी आवाज में कह देता था, ‘‘चल अब फुट...।’’
मास्टर मुरलीधर के कमरे से बाहर होते ही पिछले बेंचों से आवाजों का एक बगूला सा उठ खड़ा होता थाः ‘‘खा लो फुट..फुट ...नहीं तो जाओगे पिट-पिट...।’’
‘‘शराफत छोड़ दी हमने’, फिल्मी गीत सुनते ही हमें हमारा जालिम बाप याद आने लगता है। उसकी आँखें हमेशा लाल रहती थीं। गुस्से के कारण उनमें से हरदम खून टपकता लगता था। वह हम बच्चों से हमेशा नाराज ही रहता था। क्रोध से जलता हमेशा यही कहता, ‘‘गधे के गधे ही रहोगे। बन्दे नहीं बनोगे।’’
बिल्ली सी भयभीत हमारी मां कभी-कभार कह देती थीं, ‘‘इत्ते शरीफ तो हैं,
|
लोगों की राय
No reviews for this book