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पात्र-विपात्र

एस.सोज

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :115
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4878
आईएसबीएन :81-237-4773-x

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असाध्य रोग से पीड़ित एक मासूम बच्चे के करुण जीवन पर केन्द्रित उपन्यास...

Patra-Vipatra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

एस.सोज, पंजाबी के उन समकालीन लेखकों में से हैं, जिन्होंने अपनी सृजनात्मक विलक्षणता द्वारा पंजाबी उपन्यास के क्षेत्र में अपनी नई पहचान बनाई। इस क्षेत्र में उन्होंने अपनी यात्रा का आरंभ सन् 1987 में प्रकाशित ‘मकान इक खाली जेहा’ उपन्यास के साथ किया। यह लीक से हटकर लिखा गया उपन्यास था, जिसे पंजाबी पाठकों और आलोचकों से भरपूर प्रशंसा मिली। इसके बाद उनके कई उपन्यास-कोलाज, पातर-विपातर, मरसीआ, ऊने-सखने- आदि प्रकाशित हुए, जिनमें उसी तरह की प्रयोगशील वृत्ति दिखाई पड़ती है। उनका सारा उपन्यास लेखन, विषय वस्तु के सरोकारों और रचना विधा की ओर ध्यान आकर्षित करने वाला है। यूं तो हर साहित्यिक रचना किसी-न-किसी प्रकार से विशेष होती है, पर कोई-कोई रचना ऐसी होती है, जो पूर्व प्रचलित परंपरा में नए प्रयोग का संदेश लेकर आती है, और सृजन के लिए प्रतिमान स्थापित करने के प्रति अग्रसर होती है। एस.सोज का उपन्यास लेखन कुछ इसी प्रकार की प्रयोगशीलता का प्रमाण प्रस्तुत करता है। इसका सीधा उदाहरण ‘पात्र-विपात्र’ उपन्यास है। इस उपन्यास की प्रयोगशील वृत्ति और सृजनात्मक विलक्षणता का निर्णय करने के लिए पंजाबी उपन्यास की परंपरा पर एक नजर जरूरी है।

उपन्यास का स्वरूप आधुनिक काल में विकसित हुआ है। इसमें न तो प्राचीन मिथ-कथा की भांति किसी दैवी पात्र की अलौकिक कथा का बखान किया जाता है, और न ही मध्यकालीन रोमांस-कथा की भांति किसी आदर्श नायक की गाथा बखान की जाती है। इसमें मानव-जीवन का यथार्थ वृतांत प्रस्तुत किया जाता है। इस विधा का विकास सबसे पहले पश्चिम में, औद्योगिक क्रांति और सरमायादारी अर्थ-व्यवस्था के वातावरण में हुआ। इसीलिए इसे सरमायादारी (या पूंजीपति) युग का महाकाव्य भी कहा जाता है।

पंजाबी में उपन्यास लेखन का आरंभ अंग्रेजी शासन के समय में पश्चिमी साहित्य-सभ्यता के प्रभाव से हुआ। सन् 1859 में जॉन बनियन के विश्व प्रसिद्ध उपन्यास ‘पिलग्रिमिज प्रोगेस’ का पंजाबी अनुवाद ‘यीसूई मुसाफिर दी यात्रा’ प्रकाशित हुआ और सन् 1882 में किसी अज्ञात मिशनरी द्वारा लिखित एक और उपन्यास ‘ज्योतिर्दोय’ प्रकाशित हुआ, जो बंगाली जीवन के माध्यम से भारतीयों को ईसाइयत का संदेश देता है। पंजाबी उपन्यास को आगे बढ़ाने वाले भाई वीर सिंह ने अवचेतन और सचेतन तौर से इसके साथ रचनात्मक संवाद स्थापित करते हुए, ‘सुंदरी’, ‘विजय सिंह’ तथा ‘सतवंत कौर’ जैसे उपन्यासों की रचना की। ये उपन्यास सिख सभा लहर के सुधारवादी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए गौरवमय सिख इतिहास का वृत्तांत बखान करने के लिए प्रसिद्ध हैं। इनमें उपन्यास के साथ बहुत से मध्यकालीन रोमांस कथा के कथानक की परंपरा का निर्वाह किया गया है, जिस कारण इनको ऐतिहासिक रोमांस कहना उचित है। भाई वीर सिंह के समकालीन उपन्यासकारों-भाई मोहन सिंह वैद तथा चरणसिंह शहीद आदि ने भी सिंह सभा लहर के अंतर्गत धर्म-सुधार और समाज-सुधार से संबंधित उपन्यासों की रचना की। इस प्रकार पंजाबी उपन्यास का उद्भव पश्चिमी साहित्य-सभ्यता के प्रभाव का साक्षी है, पर इन उपन्यासकारों ने बुनियादी घटनाओं का प्रत्युत्तर आदर्श तथा रोमांस के धरातल पर तलाश करने का प्रयास किया।

19वीं सदी के अंतिम दशक से लेकर अब तक की लगभग एक सदी की ऐतिहासिक यात्रा के दौरान पंजाबी उपन्यास अपने विकास के कई पड़ावों से गुजरा है। भाई वीर के बाद इसके ऐतिहासिक विकास का अगला पड़ाव नानक सिंह, सुरिंदर सिंह नरूला, संत सिंह सेखों, जसवंत सिंह कंवल, नरेन्द्रपाल सिंह तथा सोहनसिंह सीतल जैसे उपन्यासकारों के साथ संबंधित है। नानक सिंह ने मुंशी प्रेमचंद और शरतचंद्र जैसे महान भारतीय उपन्यासकारों से प्रभावित होकर, इस क्षेत्र में प्रवेश किया। उनके उपन्यास कौमी मुक्ति आंदोलन और समाज सुधार की लहरों के साथ सृजन का संबंध जोड़ते हुए लगभग आधी सदी के इतिहास की कथा का बखान करते हैं। भले ही उन्होंने समाज सुधार की थीम को नैतिक धरातल पर हल करने का आदर्शवादी मार्ग अपनाया है, पर उनके उपन्यास शहरी मध्य वर्ग के भावना-विचारों जो जुबान देने का प्रयास करते हैं और यथार्थ के परिवर्तित हो रहे माहौल की तस्वीर पेश करते हैं। इसी तरह नानक सिंह के समकालीन उपन्यासकार भी अपने-अपने ढंग से समकालीन यथार्थ के साथ सृजन का रिश्ता जोड़ते हैं।

इस दौर के उपन्यासकारों ने धर्म और सांप्रदायिक दृष्टि के बजाय धर्म-निरपेक्ष सोच और यथार्थवादी दृष्टि को कथा सृजन का आधार बनाया। चाहे इस दौर के उपन्यास की रचनाएं-रूढ़ियां किसी हद तक पिछले उपन्यासों से प्रभावित हैं। पर इन उपन्यासकारों ने साहित्य से बाहर के मनोरथों को एक तरफ रखकर उपन्यास की कला की विधागत विशेषताओं को केंद्र में लाने का प्रयास किया। इस दौर का उपन्यास आदर्श-प्रेरित नायक के आस-पास घूमता हुआ सामाजिक समस्याओं को संबोधित करता है। उदाहरण के तौर पर सुरिंदर सिंह नरूला का उपन्यास ‘पियो पुत्तर’ और संत सिंह सेखों का उपन्यास ‘लहू मिट्टी’ देखे जा सकते हैं। यदि नरूला के उपन्यास ‘पियो पुत्तर’ में शहरी जीवन की समस्याओं का यथार्थ प्रतिबिंब पेश होता है, तो सेखों का उपन्यास ‘लहू मिट्टी’ पंजाब के निम्न कृषक-वर्ग की संघर्षमयी तस्वीर पेश करता है।

सन् 1960 के बाद पंजाबी उपन्यास के क्षेत्र में कुछ ऐसी ही नवीन गतिविधियां उभरकर सामने आईं, जिनकी वजह से इसकी सोच बदलनी शुरू हो गई। इस नए दौर की शुरूआत सुरजीत सिंह सेठी के उपन्यास ‘इक खाली प्याला’ और गुरदयाल सिंह के उपन्यास ‘मढ़ी दा दीवा’ के साथ हुआ। पंजाबी के प्रसिद्ध आलोचक जोगिंदर सिंह राही के शब्दों में, ‘ये दोनों उपन्यास क्रमवार उस समय के पंजाबी उपन्यास की विधि एवं वस्तु में बुनियादी तब्दीली की कामना और घटना के सूचक हैं। सेठी चेतना-प्रवाह की पश्चिमी गल्प-विधा के द्वारा और गुरदयाल सिंह कथानक में दुखांतक विरोधाभासों के ताने-बाने और संगठन द्वारा पंजाबी उपन्यास की विधि वस्तु में एक आधुनिक प्रकार का परिवर्तन लाने की कोशिश करते हैं।’’ यह दौर पंजाबी उपन्यास के क्षेत्र में नए प्रकार की गल्प-चेतना और प्रयोगशीलता के लेखन से पूरा होता है।

 गुरदयाल सिंह आंचलिक उपन्यास की विधि के अंतर्गत मालवा के लोक धारावाहिक और सभ्यता-विचारक परंपराओं को पीछे रखकर दलित और दमित वर्गों की सहायता का वृत्तांत प्रस्तुत करता है। अनहोनियों के चितेरे के तौर पर जाना जाने वाला यह उपन्यासकार पंजाबी उपन्यास को सृजन की नई संभावनाओं की राह दिखाता है। इसी लीक पर चलते हुए राम सरूप अणखी, कर्मजीत सिंह कुस्सा, चंदन नेगी और सोहन सिंह हंस जैसे उपन्यासकारों ने महत्वपूर्ण उपन्यासों की रचना की। इसके अलावा इस दौर के उपन्यास ने आधुनिक चेतना और संवेदना के साथ सरोकार जोड़ती महानगर के जीवनानुभव की भावनात्मक समस्याओं को गल्प सृजन का आधार बनाया। ग्रामीण समाज-सभ्यता का निकट अध्ययन करने वाले आंचलिक उपन्यास के साथ-साथ नगर और महानगर के जीवन-अनुभव को बहु-पक्षीय विस्तार सहित मूर्तिमान करने वाला उपन्यास भी सामने आता है। इसी दौर में अमृता प्रीतम, दलीप कौर टिवाणा, अजीत कौर और बलजीत कौर बल्ली जैसी लेखिकाओं द्वारा नारी संवेदना वाले उपन्यासों की रचना पंजाबी उपन्यास को उनकी देन थी।
समकालीन पंजाबी उपन्यास में सृजन के नए प्रतिमान स्थापित करने वालों में प्रवासी उपन्यासकारों ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। पंजाब की धरती से विस्थापित विदेश में जा बसे इन उपन्यासकारों में स्वर्ण चंदन, दर्शन धीर, हरजीत अटवाल, नदीम परमार, नक्शदीप पंजकोरा, कैलाश पुरी, सुशील कौर और अजरनैल सिंह सेखा जैसे उपन्यासकारों का नाम लिया जा सकता है। इन उपन्यासकारों ने ऊंचे समाज-सभ्याचार में विचरते पंजाबी मनुष्य की, संकट और संताप भरी जिंदगी का संघर्षशील बिंब प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है।

पाकिस्तानी पंजाबी उपन्यास के विकास को भी हम विश्व पंजाबी साहित्य का अभिन्न अंग समझते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से यहां के उपन्यास लेखन की परंपरा भारतीय पंजाब से हटकर है। पाकिस्तानी उपन्यास लेखन की परंपरा स्थापित करने वालों में फख़ जमान, मुस्तनसर हुसैन तारड, अफजल अहिसन रंधावा, सलीम खां गिम्मी आदि उपन्यासकारों का उल्लेख किया जा सकता है। समूचे पंजाबी उपन्यास के संदर्भ में फख़ जमान के प्रयोगशील धारा वाले उपन्यास-सत्त गवाचे लोक, इक मरे बंदे की कहानी, बंदीवान, बेवतना, कमजात आदि-विशेष महत्त्व रखते हैं। ये पश्चिम के अस्तित्ववादी उपन्यास की रचना-जगत से संवाद बनाते हुए नई किस्म के पंजाबी उपन्यास का सृजन करते हैं।

समूचे तौर पर कहा जा सकता है कि पंजाबी उपन्यास अपने ऐतिहासिक सफर के दौरान सृजन के कई महत्वपूर्ण पड़ावों से गुजर चुका है। पश्चिमी साहित्य-सभ्याचार से प्रभावित और प्रेरित होकर इसने एक सदी पहले अपना सफर आरंभ किया था, पर उसकी विशेषता यह है कि उसने अपनी धरती और अपने समाज-सभ्याचार के साथ ही सृजन का सरोकार जोड़ा है। उनके कथानक चाहे देसी विरासत के हों, चाहे पश्चिम के विकसित उपन्यासों के, महत्वपूर्ण बात तो थीम के सरोकार की है जो निश्चय ही अपनी धरती के साथ जुड़े हैं।
पंजाबी उपन्यास के उद्भव और विकास के बारे में यह संक्षिप्त टिप्पणी करने के बाद हम एस.सोज के उपन्यास लेखन की विलक्षणता का वर्णन सहज ही कर सकते हैं। सोज ने ना तो गुरदयाल सिंह की भांति आंचलिकता को कथा-सृजन का मॉडल बनाया और ना ही किसी बाहरी पश्चिमी मॉडल को अपनाने की चेष्टा की। उन्होंने उपन्यास लेखन के नए प्रयोगशील संदर्भ तलाश करने का प्रयत्न किया है।

थीम-संकल्पना किसी साहित्यिक रचना का ऐसा विषयगत प्रसार होता है, जो उसको सार्थकता प्रदान करता है। यह साहित्यिक कृति के भीतर का विवेक है, जो मानवीय सरोकारों के रूप में प्रभावित होता है। किसी परंपरागत थीम के आधार को प्रयोगशील मोड़ देने के लिए कथा-दृष्टि की नवीनता आवश्यक होती है, जो अनुभव, चेतना के बोध जैसे नए धरातलों की तलाश के साथ ही संभव हो सकती है। सोज के उपन्यासों में इस प्रकार की प्रयोगशील थीम-संकल्पना दृष्टिगोचर होती है। इस पक्ष से उनके दो उपन्यास-‘मकान इक खाली जेहा’ और ‘पातर-विपातर’ (पात्र-विपात्र) विशेष तौर पर वर्णन योग्य है।

‘मकान इक खाली जेहा’ एस. सोज का पहला उपन्यास है। यह जागीरदारी व्यवस्था और विचारधारा से पीड़ित नारी की स्थिति और मानसिकता का वर्णन करता है। यह बात चाहे किसी हद तक पंजाबी के पारंपरिक उपन्यासों में भी मिल जाती है, पर सोज के इस उपन्यास की थीम-संकल्पना का यह मूल आधार नहीं, गौण आधार ही बनता है। उपन्यासकार ने आज के दौर में विकसित हो रहे नए यथार्थ-बोध के धरातल पर खड़े होकर पारंपरिक कथा और कथानक को नया मोड़ देने की कोशिश की है। यहां उपन्यासकार ने व्यवस्था के हाथों पीड़ित नारी को वृत्तांत के केंद्र में रखने की बजाय स्त्री-पुरुष संबंधों के बहु-आयामी संदर्भों का विश्लेषण करने का प्रयत्न किया है। उपन्यास की कथा के केंद्र में मानव अस्तित्व के वे ईश्वरीय सरोकार हैं, जो जिंदगी को अर्थ और सार्थकता प्रदान करते हैं। वे ईश्वरीय सरोकार निरोल परंपरा अथवा संस्था द्वारा परिभाषित नहीं होते, बल्कि अस्तित्व के विद्रोह के जगाए हुए प्रश्नों का रूप धरकर सामने आते हैं।

उपन्यास की नायिका रोशनी, अपनी मां के स्वार्थी और अनैतिक व्यवहार के कारण, किसी वर्जना से भरपूर संभावित घटना से डरकर, बड़ी उम्र के ‘खाते-पीते’ जागीरदार भट्ठल के साथ ‘गैर-रस्मी’ तौर पर दूसरा विवाह करवाने के लिए मजबूर हो जाती है। जिंदगी के सहज उमंग से भरी हुई उसकी मासूमियत ही उसकी दुश्मन बन जाती है। वह अपना हमउम्र तलाश करने की बजाए हालात के साथ समझौता कर लेती है, वह समझौता उसके जीवन में भावुकता के कांटे बिखेर देता है। उसकी गैर-पारंपरिक सामाजिक स्थिति और उसका शारीरिक आकर्षण, उसकी मुसीबत बन जाता है। वर्जित-अवर्जित रिश्तों और कामना के घेरे में घिरी वह जीवन की मासूम खुशियां तलाश करती है-कभी भट्ठल के उलझे हुए भावुक रिश्ते में, कभी हरनेक के खुश रहने वाले स्वभाव में, कभी पिंटू के बेटों समान स्नेह में और कभी खुद वृतांतक (डॉक्टर) के चेहरे में झलकते गहरे-गंभीर लगाव में। रोशनी की इस तलाश को उपन्यासकार ने चेतना-प्रवाह के तकनीक द्वारा पेश किया है-

‘‘वह सोचती : क्या जवान औरत को जवान मर्द के साथ ही ब्याह करवाना चाहिए ? तो क्या यह संजोग जरूरी है ? क्या ऐसे ही एक-दूसरे के साथ नहीं रहा जा सकता ? तो क्या उसी के साथ संबंध जोड़ना होता है, जिसका ब्याह न हुआ हो ? हालांकि इस सब सोच का उलटा भी तो हो सकता है। मन:स्थिति भी तो विद्रोह कर सकती है। जरूरतें भी तो सिर ऊंचा कर सकती हैं। हर एक के मन की स्थिति भी तो एकसार नहीं होती कि सभी पर एक जैसे ही रीत लागू कर दिए जाएं। किसी को पदार्थ-सुख लुभाते हैं, तो किसी को परमार्थ। कोई मन की मुक्ति चाहता है, तो कोई शरीर की....कौन अपनी ऊपरी परत उतारकर अंदरूनी परत के साथ हमकलाम हो सकता है।’’ (पृ.47) रोशनी की यह सोच उसकी स्थिति और मानसिकता के बीच उस संघर्ष को मूर्तिमान करती है, जिसकी बुनियाद परंपरा और आधुनिकता के द्वंद्व पर टिकी हुई है। इस उपन्यास में कोई भी पात्र पूरे तौर पर नायक अथवा खलनायक बनकर नहीं उभरता। ना शराबी, कबाबी, भट्ठल; ना उसकी बदलाखोर बीवी नंद; ना नंद की जिंदगी में अशांति लाने वाली रोशनी। इन पात्रों की अपनी-अपनी व्याख्या है, अपना-अपना सच है और अपनी सीमा, जिसके पार जाकर विचरना उनके बस में नहीं। यह सभी पात्र अपनी अतृप्ति में विचरते हैं। उपन्यास लेखन का वृत्तांतकार भी इन तिकोने संबंधों का मूक दर्शक नहीं रहता, बल्कि खुद ही किसी किस्म की अतृप्ति का शिकार होता है। उपन्यास में इसकी प्रस्तुति इन पंक्तियों द्वारा होती है:

‘‘मन निरंतर संवाद रचाकर बैठा रहा। इस पर कचहरी ही लगा ली थी। हो गया, हवा गया। क्या लेना इस सबसे। छोड़ दे, फेंक दे। पर कहां। अंतर की अदालत गवाही भुगत रही थी: रोशिए, तेरा अस्तित्व परिपूर्णता का अभिलाषी है, मोहताज है। इधर अपनी परिपूर्णता और अस्तित्व की एक दहाड़ है, विरल है, थोड़ है। भाव जैसे टूट जाते हैं परछाइयों के पीछे। क्या आदम और हव्वा की भांति अलिफ हो, नंग-मनंग, बेनियाज हो, वर्जित फल वाले बाग में नहीं विचरा जा सकता ?....’’
वैसे इस उपन्यास की थीम-संकल्पना जागीरदारी व्यवस्था के हाथों पीड़ित नारी की व्यथा को पीछे की ओर फेंक देती है। अग्रभूमि में आ जाता है आधुनिक चेतना और संवेदना का वह बेबाक यथार्थ-बोध, जो परंपराओं और संस्थाओं को नए सिरे से कुदेरना चाहता है। पंजाबी उपन्यास में इस प्रकार की थीम-संकल्पना की प्रस्तुति पहली बार सामने आई है, जो इसकी प्रयोगशीलता का प्रमाण है।

इसी प्रकार विलक्षण थीम-संकल्पना की प्रस्तुति एस.सोज के दूसरे उपन्यास ‘पात्र-विपात्र’ में हुई है। यह उपन्यास असाध्य दिमागी बीमारी से पीड़ित एक मासूम बच्चे की करुण कहानी का बयान करता है। उपन्यास के मुख्य पात्र, शैली को एक दिन अचानक बेहोशी का दौरा पड़ जाता है। उसके इलाज के लिए मां-बाप उसको पी जी आई के न्यूरो-सर्जरी वार्ड में भर्ती करा देते हैं। उसकी बीमारी की पहचान करने के लिए अलग-अलग तरह के टेस्ट किए जाते हैं। दिमाग का ऑपरेशन करने से पहले उसके सिर के बाल काट दिए जाते हैं, जो शैली के लिए ही नहीं, उसके मां-बाप के लिए भी हद दर्जे के धार्मिक संताप वाली बात थी। शैली के दिमाग की जांच करने वाले टेस्ट अथाह पीड़ा देने वाले हैं। जब डॉक्टर सफल नहीं होते, तब उसके इलाज के लिए हर प्रकार के उपचारों की आजमाइश शुरू हो जाती है। इनमें आयुर्वेद और होम्योपैथी जैसी अन्य प्रणालियों की सहायता ली जाती है। लोक-चिकित्सा के नुस्खे आजमाए जाते हैं, जब इनमें से कोई भी इलाज-प्रणाली सफल नहीं होती, तब शैली की बीमारी को भूत-प्रेत का साया समझकर अखौति सयानों के पास ले जाया जाता है। जहां कहीं भी किसी इलाज का पता लगता है, वहां-वहां ही शैली को ले जाया जाता है। करामाती माने जाने वाले साधु-संतों, ज्योतिषियों और साईं-बाबा जैसे अखौती करामाती बाबाओं के पास भी उस दुःख का निदान ढूंढ़ने की कोशिश की जाती है। पर इन सारे उपायों के बावजूद शैली की हालत बिगड़ती चली जाती है। वह पागलपन की अवस्था से गुजरता हुआ आखिरकार छत से गिरकर मर जाता है।

ऊपरी तौर पर देखा जाए तो यह उपन्यास एक मासूम बच्चे की ला-इलाज बीमारी और उसकी करुणा मौत का वृत्तांत प्रस्तुत करता है। लेकिन उपन्यासकार ने इस साधारण-सी करुण कहानी को मानवीय जिंदगी के गंभीर सरोकारों से जोड़कर प्रस्तुत किया है, जो अर्थ-सार्थकता के अनेक संदर्भों को उजागर करती है। उपन्यास लेखन की प्रमुख दिलचस्पी रोग और उपचार के साथ संबंधित रूढ़ियों, लोक-प्रचलित रवायतों और वहमों-भ्रमों की सजीव प्रस्तुति के बावजूद मानव अस्तित्व के रहस्य को ढूंढ़ने में दिखाई देती है। जब शैली अपनी सेहतमंद अवस्था में घूमता है, तो वह एक सजीव व्यक्ति है, जो भिन्न-भिन्न रिश्तों का केंद्र है। पर जैसे ही उसकी दिमागी बीमारी उस पर हावी होती जाती है, उसके अस्तित्व का विघटन शुरू हो जाता है। उपन्यास के पाठ में प्रमुख पात्र के अस्तित्व में होने वाले इस विघटन को प्रस्तुत किया जाता है। पहले वह ‘पात्र’ से ‘विपात्र’ बनता है, और अंत में ‘अपात्र’ बनकर रह जाता है। उसके साथ मोह, प्यार का दम भरने वाले, अब उसको पागलखाने या यतीमखाने छोड़ आने की दलीलों में पड़ जाते हैं। उपन्यासकार ने इस करुण कहानी को दार्शनिक संदर्भ में रखकर मनुष्य के अस्तित्व की अवस्था का विश्लेषण किया है। उपन्यास लेखन के वृत्तांत का अंदरूनी विवेक, मानवीय अस्तित्व के रहस्य को चेतना और संचेतना के हवाले से परिभाषित करता दिखाई देता है। अपनी समझ और यथार्थ का बोध ही मनुष्य को अस्तित्व प्रदान करते हैं। इन मूल मानवीय तत्त्वों के आस-पास ही सामाजिक रिश्ते-नातों का विस्तार होता है।

एस.सोज के इस उपन्यास की सृजनात्मक विलक्षणता का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू उनके उपन्यास लेखन के प्रयोगशील स्वभाव के साथ संबंध रखता है। इस उपन्यास का वृत्तांत-दृष्टिकोण विशेष महत्व रखता है। लेखक ने उपन्यास के वृत्तांत का संगठन प्रस्तुत करने के लिए ऐसे वृतांतकार का चुनाव किया है, जो उपन्यास की कथा का महत्वपूर्ण पात्र भी है। वह उपन्यास कार्य से निर्लिप्त नहीं, बल्कि कर्ता, द्रष्टा और भोक्ता होने की भिन्न-भिन्न स्थितियों से गुजरता है। वह अपने विलक्षण अस्तित्व का धारक होने के साथ-साथ कहीं अपनी वस्तु-स्थिति में पैदा होने वाले दुख, संताप और विषाद को भोगता है, और कहीं छुपे हुए काम के साथ मानसिक व्यथा छुपाकर निर्लिप्त होने की चेष्टा करता है। एस.सोज का यह उपन्यास इसमें एक पात्र को ही वृतांतकार की तरह प्रयुक्त करता है। वृतांतक संगठन की यह जुगत जहां उपन्यास कार्य को भरोसे योग्य और प्रामाणिक बनाने का भ्रम रचती है, वहीं वस्तु-यथार्थ को करने की गुहार भी लगाती है। यही कारण है कि सरल कथानक के बावजूद, यह उपन्यास अनेकार्थी संगठन प्रस्तुत करता है। एक मासूम मनोरोगी के विगठित हो रहे अस्तित्व का करुणा दृश्य प्रस्तुत करने के साथ-साथ, यह मानसिक संताप में घिरी मन:स्थिति का विश्लेषण भी करता है, और प्रतीकात्मक तौर से वर्तमान व्यवस्था की संकट भरी स्थिति को भी मूर्तिमान करता है। इसमें ही उपन्यास की प्रयोगशील विलक्षणता का रहस्य छुपा हुआ है।

जगबीर सिंह

पात्र


आज शैली का आपरेशन है। प्रीतम के हाथों में अलग गुटका और गुड्डी के हाथों में अलग गुटका। दोनों सुखमनी का पाठ कर रही थीं। बीजी नहा-धोकर शीशे के सामने खड़ी थीं, जैसे सारे कामकाज रोज की तरह ही हों। हालांकि वे अभी तक सीढ़ियां चढ़कर ऊपर वार्ड तक नहीं आई थीं, जैसे कल और आज में उनके लिए कोई फर्क, कोई अंतर ही न आया हो। ठीक ही तो था, सब कुछ उसी तरह चल-फिर रहा था। वैसे ही कैंटीनवालों ने भट्ठी लगाई थी। वैसे ही पहली लोकल बस का हार्न अस्पताल के मरीजों को और उनकी सेवा करनेवालों को बुला रहा था। गोरी-गोरी, खिल-खिल करती दूध की बोतलें क्रेटों में वैसे ही इंतजार करती हुईं, हालांकि उन्हें अभी तो वैन से उतारा ही था।
पापा जी हमेश की भांति चुप थे। धीर-गंभीर मूक, जैसे शांत महासागर। शायद मुंहजबानी पाठ कर रहे थे। पापा जी और मैं, दोनों सुबह सवेरे न्यूरोसर्जरी के आपरेशन थियेटर के बाहर काले-स्याह संगमरमरी बैंच पर आ बैठे। हम देख आए थे, शैली को एनीस्थीसिया दिया जा रहा था।

वह इतनी गहरी नींद में था, जैसे अपनी मां की गोद में कभी-कभी लाड़ से सो जाया करता था। कभी उसके कंधों से निकर तक लटकते रेशम से कोमल बाल होते थे। और अब सिर बिल्कुल बौद्ध भिक्षुओं की भांति घुटा हुआ था। सिर पर जैसे किसी ने सब्जा बुरक दिया हो। लंबे-लंबे विलायती गुड़ियों जैसे लच्छियों की जगह सब्जे का गुंबद जैसा, कनपटियों के पास से ऊंचा नीचा। जैसे, रांझा जोगी बन गया हो, बस कान छेदने रह गए हों और फिर इस जोगी को जैसे हमारे लायक भी न रहना हो।
मम्मी, कंघी न किया करो, प्लीज। बड़ा दर्द होता है भई। बस, ब्रश से ही जूड़ा कर दिया करो न।
बेटा, इतने घने बाल ब्रश से ठीक नहीं होते !

साला, लड़की लगता है। भगवान से भूल हो गई लगता है। भगवान भी कशमकश में होगा। सिर से चेहरे तक तो उसका इरादा जैसे लड़की बनाने का ही लगता था। देखना जरा इसके इतने घने लंबे बाल। इसके गालों के गड्ढे तो देखना। इतवार को इसकी फोटो खिंचवाओ, सलवार-कमीज पहना कर।
सुनो जी ! अगर कहीं यह हमारी बेटी होती तो और पांच सालों में इसकी दहेज की चिंता न शुरू हो जाती।
मम्मी, नहीं, मुझे लड़की नहीं बनना। कभी सलवार-कमीज नहीं पहननी। मुझे तो अपने पापा का बेटा ही बनना है। मेरे प्यारे-प्यारे पापा। है न पापा ?
हू इज विद दिस लिटल चाइल्ड ? इसकी फाईल लाओ भई। फाईल पेशेंट के साथ नहीं है, और डाक्टर लोग हम पर गुस्सा करता है।

शैली के चेहरे की ओर देखा, वह जैसे मेडिटेशन में हो। अंतर्ध्यान, अंतर्मुग्ध, पर अंतर्ध्यान में भी जैसे चेतना में हो। अनंत निद्रा। सुन्न-समाध। जैसे इस नींद के बाद जागेगा, तो नाम-बर-नाम हो जाएगा। रोग-मुक्त, नया-नकोर। कायाकल्प।
‘टूटी गाढनहार प्रभु सुआमी।’ भापा जी बीच-बीच में ऊंची-ऊंची कोई सुखमनी की तुक बोल जाते। जो कोई तुक उनके भीतर पैठ जाती, पुर जाती, हौसला बन जाता, या मुझे हौसला बंधाने के लिए वे ऐसा करते। ‘प्रभ भावे बिनु सासु ते राखे। प्रभ भावै...।’

दिल किया, मैं अपने शैली के गाल सहला दूं, चूम लूं। उसके हाथ पैरों के साथ ही अपने होंठ लगाए रखूं, तब तक न हटाऊं जब तक वह बिल्कुल ठीक नहीं हो जाए।
हू सेज दिस इज ए सिक चाइल्ड। इसका रंग-रूप तो देखो। ए कम्पलीट हेल्दी पिक्चर। हाऊ इनोसेन्ट। माई लार्ड। ए चाइल्ड क्राइस्ट।
डाक्टर ? आर यू सीइंग दिस लिटल ऐंजल ? ए केस आफ ब्रेन ट्यूमर।
माई लार्ड। एट सच ए टेंडर ऐज ?

शैली आपरेशन थियटर में चला गया। मैं कैंटीन चला आया हूं। चाय का एक प्याला, दूसरा प्याला। फिर आपरेशन थियटर की ओर जाती लिफ्ट।..कि सारे रिश्तेदार बाहर बैठे पाठ कर रहे थे। कब्र जैसी खामोशी थी।
रिश्तेदारों के बच्चों के लिए तो जैसे यह मेला हो। बिस्कुट, टाफियां, दूध की बोतलें। मांएं झिड़कतीं, दुलारतीं, सहलातीं। पौनों में लिपटी हुई रोटियां। सेठी साहब अपने बच्चे छोड़कर शहर चले गये। आपरेशन होने तक उनको अपना काम खत्म कर आना था। आखिर यहां खाली बैठकर करना भी क्या है ? बड़ी बोर जगह है। न कोई जोर से हंस सके, न कोई बोल सके। बोरियत से बचने के लिए। कोई-कोई तो बहाना करके कुछ देर के लिए खिसक भी गए। कोई अपना काम पूरा करने के लिए; किसी से मिलने-विलने के लिए; रोज-गार्डन, रॉक-गार्डन देखने-दिखाने के लिए चले गए।
मुझसे क्यों पाठ नहीं होता ? क्या वह मेरा कुछ नहीं लगता ? इतना निर्मोही क्यों हुआ जा रहा हूं ? खटका क्यों है ? जैसे बेचैनी-सी लगी हो।

किसी के पास न खड़ा हो सकूं, न बैठ सकूं। घूम-फिरकर फिर कैंटीन की ओर। आए-गए को बुलाना ठीक नहीं। आखिर किराया भाड़ा खर्च करके आए हैं वे सारे। कोई फर्ज बनता है ?
और तुरंत पल भर में औरतें नीचे के कमरों में बच्चों के कपड़े धोने चली गईं। कोई साबुन ढूंढ़ रही है, तो कोई तेल-तौलिया। फिर थोड़ी देर में दोपहर की रोटी का समय हो गया। प्रीतम ने कहा : जाओ सबको नीचे कैंटीन में बारी-बारी से रोटी खिला लाओ। गहमा-गहमी थी, जैसे शैली का बर्थडे हो। कोई फंक्शन हो। कोई हंगामा हो।
यह ट्यूमर होता क्या है ?

आप बस यह समझ लो कि एक तरह का फोड़ा होता है-नासूर कह लो। जब यह किसी कारण से ब्रेन में हो जाए, तब एक तरह का एब्सट्रेक्शन क्रिएट कर देता है। ब्लड सर्कुलेशन जब वहां आकर पल भर को रुक जाता है तब पेशेंट को दौरे पड़ जाते हैं। कन्वलशन होने लगती है। फॉर ए ले-मैन दिस इज एनफ।
डाक्टर अप्पास्वामी उस समय मुझे मसीहा जैसा लगा। मेरा एक परिचित मुझे उसके घर ले गया था।
कई ट्यूमर मैलिगनंट होते हैं, तो कई साइलंट और माइल्ड। मैलिगनंट, प्राब्लम्स क्रिएट करते हैं। माइल्ड तो आसानी से रिमूव हो जाते हैं। कई सर्फेस पर होते हैं, तो कई डीप।
ऑपरेशन थियटर से कोई अटेंडेंट बाहर आया, सफेद कपड़े़। मुंह के आगे जैनियों जैसी पट्टी। हम में से जाने कौन दौड़कर उसके पास गया, लेकिन वह फिर अंदर चला गया।

अब तो टेस्ट होने पर ही पता चलेगा कि ट्यूमर किस नेचर का है।
ऑपरेशन से कुछ दिन पहले डाक्टर गुलाटी ने बुलाकर पूछा था : आप इस बच्चे के फादर हैं ? देखो, टू बिगिन विद, ऑपरेशन होगा तो माइनर ही, यू नो, बट इट मे लीड टू ए मेजर वन, एज वैल। अंडरस्टैंड ?
ऐसा लगा जैसे किसी कास्मिक हाथ ने शून्य में लटका दिया हो। जैसे हर चीज का अजनबीकरण हो गया हो। शब्दों के अर्थ बदल गए हों। कल से आज तक में साफ अंतर आ गया हो। दृष्टिकोण में अंतर आ गया हो।
लुक। वी डोंट विश। गॉड फारबिड, बच्चे की हीयरिंग पावर चली जाए। यू नो, साइट चली जाए। रिकोगनिशन...। अंडरस्टैंड ?
प्लैनेट किसी और तारे से टकराया। मनुष्य की उत्पत्ति से पहले का समय। रोशनी। अंधकार। टुकड़े-टुकड़े। किरच-किरच। अणु-अणु। चीना-चीना।


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