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धर्मनिरपेक्ष धर्म

कर्त्तार सिंह दुग्गल

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4865
आईएसबीएन :81-237-4750-0

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सिख पंथ धर्म पर आधारित पुस्तक

Dharm Nirpeksh Dharm

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सिख पंथ धर्म से अधिक एक जीवन-शैली है। इस पंथ की मान्यताएं एक सात्विक, देश-निष्ठ और अनुशासित जीवन जीने के मार्ग प्रशस्त करती है। भाषा, धर्म, रहन-सहन में विविधता वाले भारत जैसे देश में सामाजिक और राजनैतिक प्रगति के लिए सांप्रदायिक सौहार्द अत्यावश्यक है। सभी महान धर्मों का मूल आधार विश्व-एकता और आपसी भाईचारा है। यह पुस्तक एक ऐसे ही धर्म ‘सिख’ के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप पर प्रकाश डालती है। पुस्तक में पंजाबी भाषा व पंजाबियत की अस्मिता पर विचारोत्तेजक तथ्य हैं।

प्रस्तावना

धर्मनिरपेक्षता को विभिन्न लोगों ने अपनी-अपनी तरह से परिभाषित किया है किंतु इसका अर्थ ‘सभी धर्मों को निरस्त’ कर देना नहीं है। धर्मनिरपेक्ष भारत में इसका अर्थ जो हमने समझा है, वह है सभी धर्मों के लिए सम्मान।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी एक कट्टर हिंदू होने के बावजूद न केवल अन्य धर्मों का अध्ययन व आदर किया करते थे, बल्कि उनकी प्रार्थना सभाओं में जिन धर्मों के भजन गाये जाते थे, वे हैं बौद्ध, जैन, ईसाई, मुस्लिम, पारसी व सिख। जवाहरलाल नेहरू, जो स्वयं को नास्तिक कहा करते थे, वे भी अपने श्रद्धालु देशवासियों की भाँति ही पूजा-स्थलों पर जाया करते थे। बचपन में उनका भी यज्ञोपवीत हुआ था और उनके अंतिम संस्कार के दौरान तथा उसके उपरांत सभी वैदिक क्रियाएं संपन्न की गई थीं। आध्यात्मिक प्यास इंदिरा गांधी को हर जगह ले गई, जहां पर वह मन की शांति पा सकती थीं, फिर चाहे वह हिंदू पूजा स्थल रहा हो, मुसलमानों की इबादतगाह अथवा सिखों का गुरुद्वारा या फिर संत-साध्वी। व्यक्तिगत रूप से हमारा धर्म चाहे जो रहा हो, परंतु एक समाज के रूप में हम धर्मनिरपेक्ष हैं।

सिख धर्म विश्व के तमाम महान धर्मों में सर्वाधिक आधुनिक, सबसे युवा और वैज्ञानिक धर्म है। सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक को जिस चीज़ का लाभ मिला, वह तय था कि उन्होंने सभी धर्मों के पवित्र स्रोतों का गहरा अध्ययन किया। जीवन पर्यंत तीर्थ यात्राएं करते हुए, उन्होंने जहां पूर्व में प्राचीन हिंदू मंदिर पुरी की यात्रा की, तो पश्चिम में मक्का, धुर हिमालय में मानसरोवर तथा श्रीलंका में बौद्ध मंदिरों की यात्राएं कीं। पंजाब में हिंदुओं और मुसलमानों के लिए समान रूप से श्रद्धेय गुरु नानक के लिए आज भी कहा जाता है-बाबा नानक शाह फ़कीर, हिंदू का गुरु, मुसलमान का पीर। गुरु नानक का युग पंजाब के लिए अत्यंत यातनापूर्ण समय था। पंजाब पर बाबर ने आक्रमण कर दिया था। उसने बर्बरतापूर्ण हत्याएं और बलात्कार किए तथा संपत्तियों को नष्ट किया। गुरु नानक के भीतर के कवि ने मुग़ल फौजों द्वारा की गई इस बर्बरता की निडर होकर भर्त्सना की। एक क्षण को लगा जैसे उन्होंने ईश्वरीय न्याय के खिलाफ़ ही खिलाफ़ ही बग़ावत कर दी हो। उन्होंने कहा-
एती मार पई कुरलाणें तैं की दरद न आया ?
(इतनी यातना, ऐसा क्रंदन ! क्या तुझे पीड़ा नहीं हुई ?)
(आसा)

बावजूद इसके, गुरु नानक ने अपनी वृहद रचनावली में इस्लाम के ख़िलाफ एक शब्द नहीं कहा। उन्होंने तुर्क व पठानों की निंदा अवश्य की जिन्होंने उनके राष्ट्र पर आक्रमण किया था, परंतु मुसलमानों के ख़िलाफ़ हरगिज़ नहीं, जिन्हें वे हिंदुओं तथा अन्य लोगों की तरह अपना देशवासी मानते थे। दूसरी ओर जब उन्होंने पवित्र मक्का जाने की योजना बनाई तो, कहा जाता है कि मुस्लिम तीर्थ यात्रियों की भांति उन्होंने भी नीले वस्त्र धारण किए थे-
नील बस्तर लै कपड़े पहिरे तुरक पठाणी अमल किया
(उन्होंने तुर्कों और पठानों की तरह ही नीले कपड़े पहने)
(आसा दी वार)

हिन्दू के रूप में जन्मे गुरु नानक का सिद्धांत था धार्मिक समन्वय। जीवन भर वे इसी सिद्धांत के प्रचार में पूरे मनोयोग से लगे रहे। ख़ालसा के जनक गुरु गोविंद सिंह स्वयं ही गुरु, स्वयं ही चेला का एक अनूठा उदाहरण थे। उन्होंने पहले सिखों को अमृत-पान करवाया और सिख धर्म की दीक्षा दी और फिर स्वयं उनके चरणों में बैठकर उनसे अमृत-पान करके सिख धर्म में दीक्षित हुए। पूरे मन की गहराई से वे लोकतंत्र में आस्था रखते थे और एकाधिक बार उन्होंने अपनी शोहरत का श्रेय लोगों को दिया (इन्हीं की किरपा के सजे हम हैं)। संसार त्यागने से पहले गुरु गोविंद सिंह ने अपनी संपूर्ण आध्यात्मिक एवं सांसारिक सत्ता गुरु ग्रंथ साहब तथा पंथ द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों को सौंप दी, जिन्हें ‘पांच प्यारे’ कहा जाता है।
पंजाब के हिंदू और सिखों के बीच आज की खींचतान यद्यपि अत्यंत दुर्भायपूर्ण है, परंतु इसमें नया कुछ नहीं है। जब-जब शरारती तत्व हावी हो जाते हैं, यह तनाव सिर उठा लेता है। कुछ दशकों पूर्व सिखों को घरों की छत पर चढ़कर ऐलान करना पड़ा था- हम हिंदू नहीं हैं। ऐसा उन्हें अपनी अस्मिता पर किसी वास्तविक अथवा काल्पनिक हमले का मुकाबला करने के लिए करना पड़ा था। ऐसे समय पूरन सिंह जैसे कवि एवं देशभक्त को कहना पड़ा था-
‘‘सिख संस्कृति पर महान हिंदू संस्कृति के सहज प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता।

‘‘सिख किसी भी तरह से पराया नहीं है। वह भारत में जन्मा है, वह शानदार भारतीय सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा है, वह कभी भी प्रह्लाद और मीरा रहित नहीं हो सकता। गुरु गोविंद सिंह ने अपने सिखों को संस्कृत का अध्ययन करने के लिए बनारस भेजा। कहा जाता है कि उन्होंने स्वयं ‘कृष्ण लीला’ का अनुवाद किया।’’ ‘‘भारत हमारी मातृभूमि है, संस्कृत हमारी भाषा का स्रोत है, लेकिन हमारी दृष्टि आधुनिक है, साथ ही यह प्रह्लाद और मीरा की तरह प्राचीन भी है।
भारत की राजनीतिक एकता के लिहाज से यदि कोई यह कहे कि हम हिंदू नहीं है, अथवा उतने ही मुसलमान नहीं हैं तो यह शरारतपूर्ण होगा। हिंदुओं के साथ मतभेदों को बढ़ा-चढ़ा कर बताना, भले ही गंभीर नहीं है, शरारतपूर्ण जरूर है।
सिखों को जो बात परेशान करती है वह है उनकी अस्मिता का प्रश्न। ऐसे अग्रणी बुद्धिजीवियों की कमी नहीं जिन्हें डर है कि आधुनिकता की आंधी कहीं सिखों के पांव न उखाड़ दे और वे अपनी अस्मिता खो दें। इससे बड़ा भ्रम कोई और नहीं हो सकता। यदि गुरुद्वारों में जुटने वाली श्रद्धालुओं की भीड़ को देखा जाए तो सिख जीवन शैली का दिन-प्रतिदिन विकास हो रहा है। आज सिखों में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो सिख परंपरा की रक्षा की खातिर किसी भी बलिदान के लिए प्रस्तुत हैं। दिल्ली का गुरुद्वारा बंगला साहेब, जो कुछ दशकों पहले तक शांत हुआ करता था, आज वहां हर समय श्रद्धालुओं की भीड़ रहती है। और यही स्थिति देश में अन्य सिख तीर्थ स्थलों व गुरुद्वारों की है।

इतिहास में पहली बार आज एक ऐसा राज्य है जहां सिख बहु-संख्या में हैं और पंजाबी उस राज्य की भाषा है। यह एक ऐसी चीज़ है जिसे महाराजा रणजीत सिंह जैसा महान शासक भी अपने समुदाय के लिए नहीं कर पाया। अब समय है कि इसका सदोपयोग किया जाए न कि व्यर्थ की बातों में समुदाय की ऊर्जा को गंवा दिया जाए।

सिख एक ज़िंदा-दिल तेजस्वी कौम है, जिसकी परंपरा पर किसी को भी गर्व हो सकता है। वे मेहनती एवं उद्यमी हैं। आत्म-बलिदान जैसी विरल भावना से पूर्ण, वे मित्र और प्रगतिशील हैं। मुख्यता यह उनके प्रयास का ही फल है कि देश के अन्न उत्पादन में इतनी प्रगति हुई। संवेदनशील सीमा-रेखा की सुरक्षा करने वाले ये एक अर्थ में भारत की खड़ग बांह हैं। भारत के स्वाधीनता संग्राम में इनका योगदान विलक्षण है। स्वाधीन भारत में घुसपैठियों के साथ संघर्ष में, चाहे वे उत्तर-पूर्व से आए हों, अथवा उत्तर-पश्चिम से, इनका बलिदान बेमिसाल है। ये सभी राष्ट्रीय उद्यमों में आगे रहते हैं। संकीर्ण एवं प्रांतीय आधार पर ऐसा यशस्वी अतीत व उतनी ही शानदार वर्तमान परंपरा वाले लोगों की छवि पर धब्बा लगाना मानवता नहीं हो सकती।
कर्तार सिंह दुग्गल

(1)

सौहार्द एवं एकता का मसीहा

बाबा नानक शाह फ़कीर
हिंदू का गुरु
मुसलमान का पीर

पंजाब में गुरु नानक को हिंदुओं और मुसलमानों द्वारा इसी तरह याद किया जाता है। कहते हैं कि जब गुरु नानक की मृत्यु हुई तो हिंदू उनका दाह-संस्कार करना चाहते थे, जबकि मुसलमान की जिद थी कि उन्हें दफ़नाया जाए। कोई आश्चर्य की बात भी इसमें नहीं थी क्योंकि जहां एक ओर वे एक श्रद्धावान हिंदू की भांति हरिद्वार, वाराणसी और पुरी गए, वहीं एक तुर्क या पठान की तरह नीले वस्त्र धारण कर मक्का और मदीना भी गए। उन्होंने सिद्धों के साथ गोष्ठियां कीं तथा लंबी-लंबी वार्ताएं कीं। उन्होंने मुस्लिम पीरों रहस्यवादियों से परिचय बढ़ाया और मनुष्य एवं ईश्वर की प्रकृति पर चर्चाएं कीं। जीवन भर जो उनके साथ साए की तरह रहे, उनमें एक था रबाब वादक मरदाना, जो कि मुसलमान था और दूसरा था बाला, जो कि हिंदू था। माना जाता है कि गुरु नानक की पहली जीवनी ‘जनम साखी भाई बाला’ के लेखक यही बाला थे। वे फ़ारसी के ज्ञाता थे और उसमें काव्य-रचना करते थे। वे संस्कृत में भी उतने ही पारंगत थे तथा वेदों-शास्त्रों के विद्वान थे। वे एक ऐसे बहुमुखी व्यक्तित्व थे, जिसकी सहज कल्पना नहीं की जा सकती।

बालपन से ही गुरु नानक तत्कालीन समाज में चली आ रही दकियानूसी रवायतों, अर्थहीन क्रिया-कलापों तथा रूढ़ियों को एक-एक कर नकारते चले गए। अपने पिता सहित, उन्होंने कम लोगों को नाराज नहीं किया। उन्होंने हिंदू पुजारी को हैरान कर दिया तो उधर मौलवी को परेशान। छुटपन में ही उनकी बहन बीबी नानकी और गांव के मुसलमान प्रधान राय बुलार ने उनके दैवी रूप को पहचान लिया। यह बहस आज तक जारी है कि पहले उनका शिष्य कौन बना-उनकी बहन बीबी नानकी अथवा राय बुलार।

गुरुनानक ने दिखावे तथा कर्म-कांड की कड़ी आलोचना की, चाहे वह हिंदू धर्म में हो या मुस्लिम धर्म में। वे एकेश्वरवादी थे और स्वच्छ, ईमानदार जीवन में विश्वास रखते थे। उन्होंने चारों ओर देखा और कहा, न कोई हिंदू है, न मुसलमान। वे चाहते थे हिंदू अच्छे हिंदू बनें, मुसलमान अच्छे मुसलमान। वे ज़ोर देकर कहते थे कि हिंदुत्व और इस्लाम केवल बाह्म वेषाकार नहीं हैं। प्रचलित रीति-रिवाजों के अनुसार सवर्ण जाति के नाते गुरु नानक को यज्ञोपवीत धारण करना पड़ा। यह ईसाइयों की दीक्षा के अनुरूप अनुष्ठान था, जिसका अर्थ होता है हिंदु का आध्यात्मिक जन्म। जिस समय परिवार के पुरोहित ने गुरु नानक को जनेऊ पहनाना चाहा, उन्होंने ‘सूती’ धागा पहनने से इनकार कर दिया। उनका इस रस्म में कोई विश्वास नहीं था। उनका इस धागे से कुछ लेना-देना नहीं था, जिसका देर-सवेर नष्ट हो जाना तय था। गुरु नानक ने कहा:
दया कपाह संतोख सूत जतु गंडो सतु पटु।।
एक जनेऊ जी का हई ता पांडे घतु।।
(हे पांडे, यदि तेरे पास ऐसा जनेऊ है जिसमें कपास दया का हो, सूत संतोष का, गांठ संयम की, सच से जो बटा गया हो, तो मुझे पहना दो।) (आसा) एक बार सुलतानपुर के नवाब और उसके काज़ी ने गुरु नानक को अपने साथ नमाज़ पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। गुरु नानक को कोई आपत्ति नहीं थी। वे उन लोगों के साथ रहने को राजी थे जिन्हें ईश्वर पर विश्वास था। खैर, जिस समय नमाज़ आरंभ हुई तो गुरु नानक एक ओर खड़े होकर चुपचाप उन्हें देखते रहे। होठों पर उनके मुसकान खेल रही थी। जैसे ही नमाज़ खत्म हुई, काज़ी ने गुरु नानक से जाकर पूछा-‘‘सहमति के बावजूद आपने हमारे साथ नमाज़ क्यों अदा नहीं की ?’’ गुरु नानक ने उसे विनम्र भाव से कहा, ‘‘मैंने तुम्हारा साथ इसलिए नहीं दिया क्योंकि जिस समय तुम नमाज़ पढ रहे थे तुम्हारा मन तुम्हारी बछेड़ी में अटका हुआ था, जिसे तुम पीछे छोड़ आए थे। तुम्हें डर सता रहा था कि कहीं वह तुम्हारे आंगन के कुएं में न जा गिरे।’’ नवाब ने कहा, ‘‘अगर ऐसी बात थी, तो आप मेरा साथ दे सकते थे,’’ ‘‘मगर आप तो काबुल में घोड़े खरीद रहे थे,’’ गुरु नानक ने बताया। नवाब की समझ में सच्चाई आ गई। इस अवसर पर गुरु नानक ने फरमाया:
मेहर मसीत सिदक मुसल्ला हक हलाल कुराण सरम सुनत सील रोज़ा होए मुसलमान।।
करणी काबा सच पीर कलमा करम निवाज।।
तसबीह सा तिस भावसी नानक रखै लाज।।
पंज निवाजा वखत पंज पंजा पंजे लाऊ।।
पहिला सच हलाल दुई तीजी ख़ैर खुदाए।।
चौथी नीयत रासि मन पंजवीं सिफ़त सनाई।।
करणी कलमा आख के तां मुसलमान सदाए।।
नानक जेते कूड़ियार कूड़े कूड़ी पायि।।
(खुदा के मेहर मस्जिद हो, भक्ति का मुसल्ला हो, कुरान हो, उच्च आचरण, सहानुभूति, विनम्रता, शिष्टाचार का रोजा हो ऐसा मुसलमान बने शुभ कर्म तुम्हारे काबा हों और सच्चाई तुम्हारी मार्गदर्शक और जिसकी नीयत साफ हो, वही सच्चा मुसलमान कहलाने का हकदार है, खुदा उसकी लाज रखता है।)
(माझ)

इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि सच्चे हिंदू और मुसलमान दोनों गुरु नानक में अपार श्रद्धा रखते थे। मुसलमान उन्हें वलीउल्लाह खुदा का प्यारा मानते थे और अभी हाल तक पंजाब में रहने वाले हिंदुओं की बड़ी संख्या अपने एक बच्चे को सिख धर्म में दीक्षित करती थी, ताकि वह गुरु नानक के आदर्शों पर चले।

तत्कालीन समय में संचार व्यवस्था जैसी भी थी, उसके बावजूद गुरु नानक ने अनेक यात्राएं उत्तर, दक्षिण पूर्व एवं पश्चिम दिशाओं में भाईचारे व एकेश्वर का अपना संदेश मौखिक रूप से पहुंचाने के उद्देश्य से कीं। पूर्व में वे नागालैंड तक जा पहुंचे, दक्षिण में उन्होंने श्रीलंका तथा लक्ष्यद्वीप तक की दूरी तय कर डाली। उत्तर में कश्मीर को लांघकर हिमालय के भीतर मानसरोवर तक जा पहुंचे, जहां उन्होंने दुनिया से विमुख तपस्वियों से भेंट की। और पश्चिम में, साक्ष्यों के अनुसार वे बगदाद तक गए थे। ये सभी कठिन यात्राएं आपसी समझ और भाईचारा विकसित करने में सहायक सिद्ध हुई। वे जहां-जहां भी गए, वहां आज भी उन्हें श्रद्धा से याद किया जाता है। पूर्व की यात्रा के दौरान, कहा जाता है कि गुरु नानक गोरखमता भी गए। यहां गोरखनाथ का मंदिर, पीलीभीत से अधिक दूर नहीं है। इस स्थान पर तपस्वियों के साथ गुरु नानक की बड़ी ज़बरदस्त बहसें हुई थीं। श्रद्धालु आज भी जमा होते हैं। गुरु नानक ने कहा था :
जोग न खिंथा जोग न डंडे जोग न भस्म चढ़ाइए।।
जोग न मुंदी मूंड मुंडाइऐ जोग न सिंगी वाइए।।
अंजन माहि निरंजन रहिए जोग जुगत इव पाइए, गलीं जोग न होई।।
(योगी न भगवा धारण करने से बना जा सकता है और न कान छिदवा कर कुंडल पहन लेने और सिर मुंडवा लेने से बना जा सकता है। योगी वही बन सकता है जो कीचड़ में रहकर भी कीचड़ से बचा रहता है। केवल बातों से कोई योगी नहीं बन सकता।)
(सूही)

असम से लौटते समय गुरु नानक उड़ीसा में पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर भी गए। यह हिंदुओं के सर्वाधिक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थलों में से एक है। गुरु नानक ने पाया कि यहां ईश्वर में सच्चे विश्वास की जगह कर्मकांड पर पुजारी अधिक ध्यान देते हैं। देवता को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने भव्य आयोजन किए हुए थे, जिसमें वे दिन में कई बार बड़े से थाल में मोमबत्तियां, फूल और कई प्रकार की सुवासित सामग्री सजाकर आरती किया करते थे। मगर इस क्रिया में भाग लेने वाले किसी भी भक्त का मन उसमें उपस्थित नहीं रहता था। गुरु नानक वहां से चले आए और मंदिर के बाहर बैठकर गाने लगे। मरदाना ने रबाब छेड़ दी :
गगन में थाल
रवि चंद बने तारिका मंडल जनक मोती
धूप मल आनलो पवन चवरो करे
सगल बनरायि फूलंत ज्योति
कैसी आरती होइ
भवखंडना तेरी आरती।
(धनासरी)

इसी बीच पुजारी और भक्तगण भी आकर गुरु नानक के आस-पास जमा हो गए। वे ईश्वर का स्तुतिगान सुन हर्ष में डूब गए।
गुरु नानक जब मक्का पहुंचे तो बेहद थक चुके थे। इस पावन शहर तक पहुंचने के लिए उन्हें काफी कठिन यात्रा करनी पड़ी थी। उन्हें गहरी नींद ने घेर लिया और हुआ यूं कि बजाए काबा की ओर सिर करके सोने के, जैसी कि रवायत थी, वे उस ओर पांव करके सो गए। आधी रात के समय जीवन, जो वहां का चौकीदार था, उसने जब देखा कि यात्री खुदा के घर की ओर पांव किए सो रहा है, तो उसे बड़ा आघात पहुंचा। ‘‘खुदा के घर की ओर पांव करके सोने की तुम्हें जुर्रत कैसे हुई ?’’ वह चीखा। उसके हाथ उनके पैरों तक पहुंचे, इससे पहले ही गुरु नानक की नींद खुल गई। ‘‘मेरे भाई, मैं लंबी यात्रा से थक गया हूं, कृपा कर मेरे पांव उस ओर मोड़ दो जिधर खुदा का घर न हो।’’ उसका सिर चकराने लगा। ‘‘जहां खुदा न हो !’’ उसने उसका निवास चहुं दिशाओं में देखा। उसने गुरु नानक के पांव घुमाने के लिए थामे ही थे, मगर बजाय घुमाने के वह उन पर गिर पड़ा। उन्हें चूमने लगा। उसने गुरु नानक के पांव आंसुओं से धो दिए। अन्य हाजी और मक्का के महापुरुष गुरु नानक को अपने बीच पाकर अत्यंत प्रसन्न थे। उन लोगों ने उनसे अनेक प्रश्न पूछे। ‘‘न मैं हिंदू न मुसलमान’’ गुरु नानक ने कहा।

‘‘दोनों में से कौन उत्तम है ?’’ (हिंदू बड़ा कि मुसलमनोई), उनके पास जमा लोग जानना चाहते थे। गुरु नानक ने उत्तर दिया, ‘‘शुद्ध अमला बाझों दोनों रोई (शुद्ध आचार के बिना कोई भी उत्तम नहीं है।’’। गुरु जी ने ईश्वर प्रेम, नम्रता, प्रार्थना एवं सच्चा जीवन-यापन करने पर बल दिया। उसके उपरांत उन्होंने फारसी में भजन गाया।

यक अरज़ गुफतम पोषि तो दर गौष कुन करतार।।
हका कबीर करीम तू बेऐब परवरदगार।।
दुनिया मकामे फानी तहकीक दिलदानी।।(1)

ममसर मुई अस्राइल गिरफतह दिल होचि न दानी।।
जन पिसर पिदर बरादरां कस नेस दसतंगीर।।
आखिर बिअफतम कस ना दरद चूं सवद तकबीर।। (2)

सब रोज गसतम दर हवा करदेम बदी ख़याल।।
गाहे ना नेकी कार करदम मम ई चिनी अहवाल।। (3)

बदबखत हम चु बखील गाफिल बेनजर बेबाक।।
नानक बुगोयद जन तुरा तेरे चाकरां पा खाक।। (4)
(ऐ मेरे खुदा, मेरी विनती सुन तू सच्चा है तू रहीम है तू करीम है, तू निर्दोष सृष्टा है मैं जानता हूं यह दुनिया नश्वर है मैं इस सच को जानता हूं मृत्यु अवश्यंभावी है, इसमें न पत्नी कुछ कर सकती है न पिता न भाई एक दिन मुझे भी जाना है, होनी को कोई टाल नहीं सकता। मैंने दिन-रात बुरा सोचते गवां दिए हैं मैंने कभी कुछ अच्छा नहीं किया यही है मेरी वास्तविकता मैं बदकिस्मत, कृपण, लापरवाह, तंग-नजर और असभ्य हूं परंतु, मैं तुम्हारा हूं तुम्हारे लाखों चाहने वालों के चरणों की धूल हूं।)
(तिलंग)

गुरु नानक ने जातिवाद का तीव्रतम विरोध किया जो कि हिंदू समाज को अनंत काल से जकड़े हुए था। छोटी जाति में जन्मे व्यक्ति से जीवन भर भेद-भाव बरता जाता था। वर्षों साथ-साथ रहते आने के कारण जातिवाद के विषाणु मुस्लिम समाज में भी घर कर गए थे। उनमें भी सैय्यद और मौलवी, शेख और मुसल्ली थे। गुरु नानक ने सब को नकार दिया।
जीवन के आरंभ में ही एक बार गुरु नानक सैदपुर पधारे। उन्होंने तय किया कि वे भाई लालो के घर ठहरेंगे, जो कि एक बढ़ई था। हुआ यूं कि जिस रोज गुरु नानक शहर में आए, उस दिन शहर के मुखिया मलिक भागो, जिसने अकूत दौलत एकत्रित कर रखी थी, कुर्बानी का भोज आयोजित किया हुआ था। उसमें उसने सभी महापुरुषों को आमंत्रित कर रखा था। गुरु नानक ने उस भोज से अपने को परे ही रखा और अपने मेजबान के यहां साधारण भोजन ही किया। मलिक भागो को जब इसका पता चला तो वह आग-बबूला हो गया। गुरु नानक ने उसकी रत्ती भर परवाह नहीं की। सांसारिक दौलत के विषय में उनका मानना था:
पापां बाझों होवै नाहीं, मुइयां साथ ना जाई।।
(बिना पाप के दौलत जमा नहीं होती और मरने के बाद साथ नहीं जाती)
भगवान महावीर और बुद्ध के समान गुरु नानक धनवान घर में पैदा नहीं हुए थे। वे एक गांव के पटवारी के घर पैदा हुए थे, जो कि राजस्व पदानुक्रम में निचला पद होता है। बच्चों के साथ खेल के दौरान उनकी मैत्री सदा निर्धन एवं निम्न जाति के बच्चों के साथ हुआ करती। गुरु नानक का रहस्योद्घाटन जब सुलतानपुर में हुआ और वे प्रकाश में आए तो जो भी उनके पास आता वे उसे सीधा-सा एक उपदेश देते-सब को मेहनत करके कमाना चाहिए और अपनी कमाई को दूसरों के साथ बांटना चाहिए तथा मात्र चिंतन करते रहने से काम-काज करते रहना अधिक श्रेयस्कर है।
उनकी हमदर्दी सदा गरीब और अभावग्रस्त लोगों के साथ रहती थी। वे मानवता के दु:ख से दु:खी होते थे। भारत पर बाबर द्वारा आक्रमण के दौरान गुरु नानक ने भयंकर हत्याएं होती देखीं। लगता है जैसे कि उनके भीतर के कवि ने ईश्वरीय न्याय के खिलाफ बगावत कर दी थी। गुरु नानक ने उसे बर्बर अत्याचार और पंजाब की जनता के कष्टों को स्वर देते हुए एक उत्कृष्ट काव्य रचना की सृष्टि की है:
खुरासान खसमाना कीया हिंदुस्तान डराया।।
आपै दोस न देई करता जम करि मुगल चढ़ाया।।
एती मार पई कुरलाणै तैं की दरद न आया।।
करता तूं सभना का सोई।।
जो सकता सकते को मारे।।
ता मन रोस न होई।।
सकता सिंहु मारे पैवगै खसमै सा पुरसाई।।
(उसने ख़ुरासान पर कब्जा कर लिया हिंदुस्तान को भयभीत किया। ईश्वर ! कयामत की तरह मुगलों को भेजने के लिए तुम स्वयं को दोषी नहीं मानते ? इतनी हत्याएं, इतना क्रंदन देखकर क्या तुम्हें पीड़ा नहीं होती ? पूरी सृष्टि के सृष्टा तुम हो मैं कभी शिकायत न करता यदि एक बलवान को मारता परंतु, यदि एक खूंखार शेर असहाय भेड़-बकरियों को मारेगा तो उसका दोषी तो मालिक ही होगा न !)
(आसा)

ऐसे विदेशी आक्रमणकारी के बारे में, जो कि यहां बसने और साम्राज्य की नींव रखने आया हो, ये सब कहने के लिए कम साहस नहीं चाहिए। बाबरवाणी में इसके अलावा अनेक अन्य रचनाएं हैं जिनमें आक्रमणकारी के साथ ही तत्कालीन ईश्वरहीन हिंदू समाज की भर्त्सना की गई है जिसने स्वयं अपनी मुसीबत बुलाई थी:

जिन सिर सोहनि पटिया मांगी पायि संधूर।।
से सिर काती मुनियन गल विच आवै धूड़ि।।
महिला अंदर हौदियां बहिण न मिलण हदूरि (1)
(जिनके सिर पर सुंदर केश राशि थी, मांग में सिंदूर था, उनके सिर मूंड दिए गए और चेहरों पर धूल डाल दी गई। उनको राम याद रहा न अल्लाह का नाम।)
(आसा)

अपने जीवन के अंतिम दिनों में गुरु नानक रावी के किनारे करतारपुर आकर बस गए। इस बस्ती को गुरु जी ने स्वयं उस जमीन के टुकड़े पर बसाया था, जो उनके एक शिष्य ने उन्हें भेंट किया था। कहते हैं कि सामुदायिक जीवन शैली का यह सर्वप्रथम प्रयास था। गुरु नानक सहित सभी लोग मिल-जुलकर खेती करते थे और साझा रसोई से भोजन किया करते थे। अपनी पुस्तक दि हिस्ट्री आफ दि सिख्स में खुशवंत सिंह लिखते हैं :

‘‘जाति विहीन समाज के आदर्श के लिए भक्तों ने केवल बातें ही बघारीं, लेकिन गुरु नानक ने जातिवाद की अनैतिक जकड़ से मुक्ति के लिए व्यावहारिक कदम उठाए। मुफ्त सामुदायिक भोज, अर्थात् गुरु का लंगर द्वारा इसकी व्यवस्था सभी केंद्रों में की गई थी, जहां पर उनके शिष्यों को जात-पात के भेद को भूल कर साथ बैठकर भोजन करने के लिए प्रेरित किया जाता था।’’
गुरु नानक स्वयं को कमजोर से भी कमजोर व्यक्ति के साथ खड़ा पाते हैं। वे स्वयं को ‘नानक दास’, ‘नानक गरीब’ कहते हैं। संघटन निश्चित करने का उपाय यही है कि शीर्षासीन व्यक्ति सबसे निचले स्तर से आरंभ करे। गुरु नानक कहते हैं :

नीचा अंदर नीची जाति नीची हूं अति नीच।।
नानक तिन के संगि साथि वडिया सिओं क्या रीस।।
जिथै नीच समालियन तिथै नदरि तेरी बखशीष।।
(माझ)

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