कविता संग्रह >> बंजर धरती पर इन्द्रधनुष बंजर धरती पर इन्द्रधनुषकन्हैयालाल नंदन
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कन्हैयालाल नन्दन की सर्वश्रेष्ठ कवितायें....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
जन्म सन् 1933 में, उत्तर प्रदेश के फतेहपुर
जिले के एक गाँव परसदेपुर में
हुआ। उन्होंने डी.ए.वी.कॉलेज, कानपुर से बी.ए.प्रयाग विश्वविद्यालय से
एम.ए. और भावनगर से युनिवर्सिटी से पी.एच.डी.उपाधि ली। चार वर्ष तक मुंबई
विश्वविद्यालय से संलग्र कॉलेजों में हिंदी-अध्यापन के बाद 1961 से 1972
तक टाइम्स आफ इंडिया प्रकाशन समूह के ‘धर्मयुग’ में
सहायक संपादक रहे; 1972 से दिल्ली में क्रमशः ‘पराग’,
‘सारिका’ और ‘दिनमान’ के संपादक
रहे। तीन वर्ष दैनिक नवभारत टाइम्स में फीचर-संपादक रहे। छः वर्ष तक हिंदी
‘संडे मेल’ के प्रधान संपादक रह चुकने के बाद 1995 से
‘इंडसइंड मीडिया’ में डायरेक्टर हैं। दो दर्जन से
अधिक पुस्तकें प्रकाशित जिनमें ‘लुकुआ का शहरनामा’,
‘घाट-घाट का पानी’, अंतरंग’,
’नाट्य-परिवेश’, ‘आग के रंग’,
’अमृता शेरगिल’ और ‘समय की
दहलीज’ बहुचर्चित और प्रशंसित। अनेक पुरस्कारों के साथ साहित्य
में अवदान के लिए ‘परिवार-पुरस्कार’ से पुरस्कृत,
‘पद्यमश्री’ से अलंकृत और ‘नेहरू
फेलोशिप’ से सम्मानित।
इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं
बात उन दिनों की है जब मैं मुंबई नगर में
रहता था (जो तब
बम्बई था) और दफ्तर से घर जाते समय फुरसती अंदाज़ में फ्लोरा फाउंटेन के
फुटपाथों में बिकनेवाली पुरानी किताबों पर कुछ समय गुज़ारता था। यह एक तरह
की आदत थी जो दिल्ली आने पर भी मेरा पीछा न छोड़ पायी। इस आदत ने मुझे कुछ
अच्छी-अच्छी मनपसंद किताबें रास्ते में उपलब्ध करायीं। उन्हीं में एक
किताब थी अंग्रेज़ी में ‘रैंडम रीडिंग’। किताब क्या
थी
अंग्रेजी गद्य और पद्य की चुनिंदा पंक्तियों और उद्धरणों का एक छोटा सा
संचयन था। उसमें वर्ड्सवर्थ, बायरन और कीट्स भी थे तो शेक्सपियर, सार्त्र
और सैमुअल बेकेट भी। बर्तोल्त ब्रेख़्त और फ्रांज़ काफ्का के छोटे-छोटे
गद्यांश भी बीच-बीच में पिरोए हुए थे। कोई तरकीब नहीं थी, जो जैसा हाथ आया
और उद्धरणीय लगा, किताब में समाहित कर लिया गया। वह दो रुपये में खरीदी
गयी किताब आज भी मुझे फुरसत के वक्त उलझा कर अपने में केंद्रित कर लेती है।
तभी से चाहत थी कि हिन्दी में भी ऐसे उद्धरणों की किताब प्रकाशित की जानी चाहिए। चाहतों की आदत होती है कि वे न पूरी होने पर भी मरती नहीं। जब मैं दिल्ली में ‘सारिका’ कथा पत्रिका का संपादक बनाया गया तो मैंने एक कॉलम लिखना शुरू किया ‘ज़रिया-नज़रिया’। मेरे पत्रकार मित्र योगेन्द्र बाली साहब, जो उन दिनों टाइम्स ऑफ इंडिया दैनिक के मुख्य संवाददाता थे और हमेशा मेरी काव्य चेतना और उसकी परख के प्रशंसक रहे, बोले-‘‘नंदन जी आप अपने कॉलम के अंत में अपनी पसन्द की कुछ काव्य पंक्तियां भी दिया कीजिए। आपकी पसन्द की हुई पंक्तियां पाठकों को बेशक पसन्द आएंगी और इससे किसी भी कवि और उसकी कविता को आपका पाठक भी मिलेगा।’’ बात मेरे मन को भी भा गयी और इस तरह मैंने अपने कॉलम के अंत में ‘मेरी पसंद’ शीर्षक से उस सप्ताह पढ़ी हुई किसी अच्छी कविता का सबसे अधिक प्रभावशाली अंश देना शुरू किया। विभिन्न छोटी-बड़ी पत्रिकाओं से लेकर पूर्व और सद्यः प्रकाशित काव्य संग्रहों तक से उठायी गयी पंक्तियों को पाठकों ने इतना पसंद किया कि मेरे कॉलम की सबसे बड़ी पहचान वे उद्धरण पंक्तियां ही बन गयीं। स्थान के अभाव के कारण पूरी-पूरी कविता देना संभव नहीं था और वह मेरा अभीष्ट भी नहीं था। अभीष्ट था छोटे से उद्धरण के माध्यम से कवि की बात को रेखांकित करके रखना जो पाठक के मन पर असरकारी बने और कविता के प्रति सिकुड़ता जा रहा पाठक समुदाय विस्तृत हो। एक कवि के नाते पूरी कविता में से छोटा सा अंश निकाल कर पढ़वाना कभी-कभी पूरी कविता की संवेदना के प्रति अपराध बोध भी जगाता था क्योंकि वह कई बार मूल कविता से अलग नया प्रभाव जड़ सकता था। लेकिन उद्धृत अंश चेतना की कौंध का काम ज़रूर करेगा, ऐसा विश्वास रहता था। वह क्रम सार्थक सिद्ध हुआ जब मुझे पता चला कि अनेक पाठकों ने उन काव्यांशों को काट-काट कर अपने पास संग्रहीत कर रखा है। अनेक पाठकों ने उद्धृत पंक्तियों से अपने व्यक्तित्व के संवरने के उदाहरणों से मुझे अभिभूत किया और इस विश्वास को दृढ़ किया कि कविता मनुष्य की चेतना को संवारती ही नहीं, उसका श्रृंगार भी करती है, श्रेष्ठ भी बनाती है।
...और इस तरह मैं एक तरह से अच्छी कविता का ‘कैटेलेटिक एजेंट’, उत्प्रेरक बिन्दु बन गया, बनता चला गया। कॉलम के अंत में वे पंक्तियां रोशनी के छोटे-छोटे चिरागों जैसी ख्याति पाती रहीं। किसी ने लिखा कि तनहाई के आलम में वे पंक्तियां लगता है शब्दों के स्वर्ण-मुकुट पहने खड़ी हैं। किसी ने इन्हें चेतना की स्वर्ण रेखाएं बताया, किसी को ये अंधेरों में रोशन आस्थाओं का पर्याय जैसी लगीं। मेरे लिए वह हमेशा परायी पूंजी का आलोक था जो बंजर धरती पर भी इंद्रधनुष के रंग बिखेरने की ताब रखता था। कभी जब मैं स्वयं इन्हें उलट-पलट कर पढ़ने लगता हूं तो लगता मैं सुनहरी बारिश की बूंदों में नहा रहा हूं, अंदर तक भींग रहा हूं, अपनी चेतना की पर्त-पर्त में सँवर रहा हूं।
जानता हूं, कि सिवा चयन और संचयन के ‘मेरा इसमें कुछ नहीं’। और इसीलिए जब भी इस प्रक्रिया में मुझे प्रशंसा का कोई अंश मिला, मैंने आंतरिक मन से उन शब्द-शिल्पियों को ही अर्पित किया, जिनकी वे पंक्तियाँ थीं। इन्हें पुस्तक रूप में संकलित करके विशाल पाठक समुदाय तक पहुंचाने के पीछे मेरी वह पुरानी चाहत नहीं है जो ‘रैंडम रीडिंग’ को पढ़कर पैदा हुई थी और आज तक मरी नहीं थी कि लोग अच्छी कविता से जुड़ें। इसके पीछे किसी तरह का कोई व्यावसायिक कारण दूर-दूर तक नहीं है और न इस प्रकाशन से किसी तरह के लाभ की कोई उम्मीद की जा सकती है। हिन्दी में कविता की कोई किताब बिक्री से अपनी लागत खड़ी कर सके, इतना ही काफी माना जाता है। ऐसे में भी डायमंड पाकेट बुक्स के मालिक नरेन्द्र कुमार जी ने इसके सुरुचिपूर्ण प्रकाशन में रुचि दिखायी, इसके लिए मैं उन्हें अपना साधुवाद अर्पित करता हूं कि उन्होंने मेरी दृष्टि से श्रेष्ठ काव्यांशों को नया पाठक-संसार देने का उत्साह दिखाया।
मैं अपने उन सभी रचनाकारों के प्रति आदर और कृतज्ञता ज्ञापित करता हूं जिनकी जाने कहां-कहां से बटोरी सर्जनात्मक संपदा के ये आंशिक उद्धरण जाने कितने पाठकों की संवेदना सँवारने का आधार बनेंगे। डेढ़ सौ से ऊपर इन रचनाकारों के काव्यांशों के चयन में उनकी उपलब्धता का सहज संयोग और मेरे मन में उनकी श्रेष्ठता की सहज कौंध ही कारक रही है। इनमें अ से ज्ञ अक्षरों तक...का हर पीढ़ी और हर प्रकार का रचनाकार सम्मिलित है। अज्ञेय, अली सरदार जाफ़री और अशोक वाजपेयी से लेकर त्रिलोचन और ज्ञान प्रकाश विवेक तक; वे भी जिन्हें मैं पढ़ता और आदर करता रहा हूं और वे भी अनुगूँज ने आकर्षित किया है। उन सभी के शब्दों के प्रति मेरी यह एक तरह की वंदना है। विश्वास यह है कि यह मेरी ‘रैंडम रीडिंग’ हिन्दी पाठकों को एक विशेष आनंद से उत्फुल्ल करेगी और हिन्दी कविता के बंजर में इन्द्रधनुषी रंग बिखेरेगी और कविता के प्रति आकर्षण का नया आधार बनेगी, साथ ही कवियों को संपूर्णता में पढ़ने की उनमें ललक पैदा करेगी। यही अभीप्सा मेरा अभीष्ट है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं !
तभी से चाहत थी कि हिन्दी में भी ऐसे उद्धरणों की किताब प्रकाशित की जानी चाहिए। चाहतों की आदत होती है कि वे न पूरी होने पर भी मरती नहीं। जब मैं दिल्ली में ‘सारिका’ कथा पत्रिका का संपादक बनाया गया तो मैंने एक कॉलम लिखना शुरू किया ‘ज़रिया-नज़रिया’। मेरे पत्रकार मित्र योगेन्द्र बाली साहब, जो उन दिनों टाइम्स ऑफ इंडिया दैनिक के मुख्य संवाददाता थे और हमेशा मेरी काव्य चेतना और उसकी परख के प्रशंसक रहे, बोले-‘‘नंदन जी आप अपने कॉलम के अंत में अपनी पसन्द की कुछ काव्य पंक्तियां भी दिया कीजिए। आपकी पसन्द की हुई पंक्तियां पाठकों को बेशक पसन्द आएंगी और इससे किसी भी कवि और उसकी कविता को आपका पाठक भी मिलेगा।’’ बात मेरे मन को भी भा गयी और इस तरह मैंने अपने कॉलम के अंत में ‘मेरी पसंद’ शीर्षक से उस सप्ताह पढ़ी हुई किसी अच्छी कविता का सबसे अधिक प्रभावशाली अंश देना शुरू किया। विभिन्न छोटी-बड़ी पत्रिकाओं से लेकर पूर्व और सद्यः प्रकाशित काव्य संग्रहों तक से उठायी गयी पंक्तियों को पाठकों ने इतना पसंद किया कि मेरे कॉलम की सबसे बड़ी पहचान वे उद्धरण पंक्तियां ही बन गयीं। स्थान के अभाव के कारण पूरी-पूरी कविता देना संभव नहीं था और वह मेरा अभीष्ट भी नहीं था। अभीष्ट था छोटे से उद्धरण के माध्यम से कवि की बात को रेखांकित करके रखना जो पाठक के मन पर असरकारी बने और कविता के प्रति सिकुड़ता जा रहा पाठक समुदाय विस्तृत हो। एक कवि के नाते पूरी कविता में से छोटा सा अंश निकाल कर पढ़वाना कभी-कभी पूरी कविता की संवेदना के प्रति अपराध बोध भी जगाता था क्योंकि वह कई बार मूल कविता से अलग नया प्रभाव जड़ सकता था। लेकिन उद्धृत अंश चेतना की कौंध का काम ज़रूर करेगा, ऐसा विश्वास रहता था। वह क्रम सार्थक सिद्ध हुआ जब मुझे पता चला कि अनेक पाठकों ने उन काव्यांशों को काट-काट कर अपने पास संग्रहीत कर रखा है। अनेक पाठकों ने उद्धृत पंक्तियों से अपने व्यक्तित्व के संवरने के उदाहरणों से मुझे अभिभूत किया और इस विश्वास को दृढ़ किया कि कविता मनुष्य की चेतना को संवारती ही नहीं, उसका श्रृंगार भी करती है, श्रेष्ठ भी बनाती है।
...और इस तरह मैं एक तरह से अच्छी कविता का ‘कैटेलेटिक एजेंट’, उत्प्रेरक बिन्दु बन गया, बनता चला गया। कॉलम के अंत में वे पंक्तियां रोशनी के छोटे-छोटे चिरागों जैसी ख्याति पाती रहीं। किसी ने लिखा कि तनहाई के आलम में वे पंक्तियां लगता है शब्दों के स्वर्ण-मुकुट पहने खड़ी हैं। किसी ने इन्हें चेतना की स्वर्ण रेखाएं बताया, किसी को ये अंधेरों में रोशन आस्थाओं का पर्याय जैसी लगीं। मेरे लिए वह हमेशा परायी पूंजी का आलोक था जो बंजर धरती पर भी इंद्रधनुष के रंग बिखेरने की ताब रखता था। कभी जब मैं स्वयं इन्हें उलट-पलट कर पढ़ने लगता हूं तो लगता मैं सुनहरी बारिश की बूंदों में नहा रहा हूं, अंदर तक भींग रहा हूं, अपनी चेतना की पर्त-पर्त में सँवर रहा हूं।
जानता हूं, कि सिवा चयन और संचयन के ‘मेरा इसमें कुछ नहीं’। और इसीलिए जब भी इस प्रक्रिया में मुझे प्रशंसा का कोई अंश मिला, मैंने आंतरिक मन से उन शब्द-शिल्पियों को ही अर्पित किया, जिनकी वे पंक्तियाँ थीं। इन्हें पुस्तक रूप में संकलित करके विशाल पाठक समुदाय तक पहुंचाने के पीछे मेरी वह पुरानी चाहत नहीं है जो ‘रैंडम रीडिंग’ को पढ़कर पैदा हुई थी और आज तक मरी नहीं थी कि लोग अच्छी कविता से जुड़ें। इसके पीछे किसी तरह का कोई व्यावसायिक कारण दूर-दूर तक नहीं है और न इस प्रकाशन से किसी तरह के लाभ की कोई उम्मीद की जा सकती है। हिन्दी में कविता की कोई किताब बिक्री से अपनी लागत खड़ी कर सके, इतना ही काफी माना जाता है। ऐसे में भी डायमंड पाकेट बुक्स के मालिक नरेन्द्र कुमार जी ने इसके सुरुचिपूर्ण प्रकाशन में रुचि दिखायी, इसके लिए मैं उन्हें अपना साधुवाद अर्पित करता हूं कि उन्होंने मेरी दृष्टि से श्रेष्ठ काव्यांशों को नया पाठक-संसार देने का उत्साह दिखाया।
मैं अपने उन सभी रचनाकारों के प्रति आदर और कृतज्ञता ज्ञापित करता हूं जिनकी जाने कहां-कहां से बटोरी सर्जनात्मक संपदा के ये आंशिक उद्धरण जाने कितने पाठकों की संवेदना सँवारने का आधार बनेंगे। डेढ़ सौ से ऊपर इन रचनाकारों के काव्यांशों के चयन में उनकी उपलब्धता का सहज संयोग और मेरे मन में उनकी श्रेष्ठता की सहज कौंध ही कारक रही है। इनमें अ से ज्ञ अक्षरों तक...का हर पीढ़ी और हर प्रकार का रचनाकार सम्मिलित है। अज्ञेय, अली सरदार जाफ़री और अशोक वाजपेयी से लेकर त्रिलोचन और ज्ञान प्रकाश विवेक तक; वे भी जिन्हें मैं पढ़ता और आदर करता रहा हूं और वे भी अनुगूँज ने आकर्षित किया है। उन सभी के शब्दों के प्रति मेरी यह एक तरह की वंदना है। विश्वास यह है कि यह मेरी ‘रैंडम रीडिंग’ हिन्दी पाठकों को एक विशेष आनंद से उत्फुल्ल करेगी और हिन्दी कविता के बंजर में इन्द्रधनुषी रंग बिखेरेगी और कविता के प्रति आकर्षण का नया आधार बनेगी, साथ ही कवियों को संपूर्णता में पढ़ने की उनमें ललक पैदा करेगी। यही अभीप्सा मेरा अभीष्ट है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं !
कन्हैयालाल नन्दन
कलाओं के प्रति सहज अनुरागी एवं कविता के
प्रति विशेष
समर्पित, उदारमना संवेदनशील मित्र दंपत्ति श्री काशीनाथ मेमानी और श्रीमती
किरन मेमानी को सप्रेम
(1)
झरती हुई पत्ती जानती है
कि वह मरने जा रही है ?
सरलीकृत समय में कठिन शब्द जानता है
कि एक दुर्बोध कविता में
उसका जाना उसका अंत है ?
राग के खंडहर में भटक गया सुर
पहचान पाता है कि यह उसका लोप है ?
जो नहीं है उसके कई नाम हैं...
पर सभी उसके होने को याद करते हुए।
कोई भी नहीं जो उसके न होने को व्यक्त करे।
कि वह मरने जा रही है ?
सरलीकृत समय में कठिन शब्द जानता है
कि एक दुर्बोध कविता में
उसका जाना उसका अंत है ?
राग के खंडहर में भटक गया सुर
पहचान पाता है कि यह उसका लोप है ?
जो नहीं है उसके कई नाम हैं...
पर सभी उसके होने को याद करते हुए।
कोई भी नहीं जो उसके न होने को व्यक्त करे।
(2)
हम अपने सपने से अधिक
कुछ नहीं जान पाये
सपना भी मिला तो एक साथ नहीं
इतने सारे टुकड़ों और हिस्सों में
सारे जीवन के
टुकड़ा-टुकड़ा अधूरे सच
पर फैला हुआ।
कुछ नहीं जान पाये
सपना भी मिला तो एक साथ नहीं
इतने सारे टुकड़ों और हिस्सों में
सारे जीवन के
टुकड़ा-टुकड़ा अधूरे सच
पर फैला हुआ।
(3)
अगर बच सका तो वही बचेगा
हम सबमें थोड़ा सा आदमी
जो रोब के सामने नहीं गिड़गिड़ाता...
जो धोखा खाता है पर प्रेम करने से नहीं चूकता...
जो दूध में पानी मिलाने से हिचकता है...
...जिसे खबर है कि
वृक्ष अपनी पत्तियों से गाता है अहरह
एक हरा गान
आकाश लिखता है नक्षत्रों की झिलमिल में
एक दीप्त वाक्य
पक्षी आँगन में बिखेर जाते हैं एक
अज्ञात व्याकरण
वही थोड़ा-सा आदमी
अगर बच सकेगा तो बचेगा।
हम सबमें थोड़ा सा आदमी
जो रोब के सामने नहीं गिड़गिड़ाता...
जो धोखा खाता है पर प्रेम करने से नहीं चूकता...
जो दूध में पानी मिलाने से हिचकता है...
...जिसे खबर है कि
वृक्ष अपनी पत्तियों से गाता है अहरह
एक हरा गान
आकाश लिखता है नक्षत्रों की झिलमिल में
एक दीप्त वाक्य
पक्षी आँगन में बिखेर जाते हैं एक
अज्ञात व्याकरण
वही थोड़ा-सा आदमी
अगर बच सकेगा तो बचेगा।
अशोक वाजपेयी
अपने समय के क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी और परिमल के पुराने सदस्य
प्रो. श्रीहरि की एक कविता :
‘‘मैंने अपनी सबसे ऊंची छत से
प्रेयसी को देखना चाहा
तो मंदिर का कँगूरा दिख गया
अब मेरी खोज
मुझमें पूजा बन कर व्याप्त है
और माथे पर
कँगूरे का तिलक लग गया है।’’
नभ ने छाया की चलने को दो चरण मिले
धरती बोली : चलता चल दूर बहुत घर है।
मानव का पथ है समय कि जिसके सीने पर
हर गड़ा हुआ इतिहास मील का पत्थर है।
आँसू की रेखाएं पीड़ा की छायाएँ
भरते लोहू का रंग रुलाई आती है
क्या तुम्हें नहीं मालूम कि टूटे सपनों की
कुछ ऐसे ही तस्वीर बनायी जाती है।
प्रेयसी को देखना चाहा
तो मंदिर का कँगूरा दिख गया
अब मेरी खोज
मुझमें पूजा बन कर व्याप्त है
और माथे पर
कँगूरे का तिलक लग गया है।’’
नभ ने छाया की चलने को दो चरण मिले
धरती बोली : चलता चल दूर बहुत घर है।
मानव का पथ है समय कि जिसके सीने पर
हर गड़ा हुआ इतिहास मील का पत्थर है।
आँसू की रेखाएं पीड़ा की छायाएँ
भरते लोहू का रंग रुलाई आती है
क्या तुम्हें नहीं मालूम कि टूटे सपनों की
कुछ ऐसे ही तस्वीर बनायी जाती है।
प्रो. श्रीहरि
‘‘एक खत जो किसी ने लिखा
ही नहीं
उम्र भर आँसुओं ने उसे ही पढ़ा
गंध डूबा हुआ एक मीठा सपन
कर गया प्रार्थना के समय आचमन
जब कभी गुनगुनाने लगे बाँस बन
और भी बढ़ गया प्यास का आयतन
पीठ पर कांच के घर उठाये हुए
कौन किसके लिए पर्वतों पर चढ़ा।’’
उम्र भर आँसुओं ने उसे ही पढ़ा
गंध डूबा हुआ एक मीठा सपन
कर गया प्रार्थना के समय आचमन
जब कभी गुनगुनाने लगे बाँस बन
और भी बढ़ गया प्यास का आयतन
पीठ पर कांच के घर उठाये हुए
कौन किसके लिए पर्वतों पर चढ़ा।’’
शतदल
एक सपना उगा जो नयन में कभी
आंसुओं से धुला और बादल हुआ।
धूप में छाँव जैसा अचानक मिला
था अकेला मगर बन गया क़ाफिला
चाहते हैं कि हम भूल जायें मगर
स्वप्न से हैं जुड़ा स्वप्न का सिलसिला
एक पल दीप की भूमिका में जिया
आँज लो आँख में नेह काजल हुआ।
एक सपना उगा जो नयन में कभी
आँसुओं से धुला और बादल हुआ।
आंसुओं से धुला और बादल हुआ।
धूप में छाँव जैसा अचानक मिला
था अकेला मगर बन गया क़ाफिला
चाहते हैं कि हम भूल जायें मगर
स्वप्न से हैं जुड़ा स्वप्न का सिलसिला
एक पल दीप की भूमिका में जिया
आँज लो आँख में नेह काजल हुआ।
एक सपना उगा जो नयन में कभी
आँसुओं से धुला और बादल हुआ।
शतदल
दिन ठहरते नहीं हैं किसी मोड़ पर।
क्या करें आँसुओं से इसे जोड़कर
दिन फिसलते हुए जा रहे हैं जहाँ।
आदमी की जरूरत नहीं है वहाँ।
एक पल हम भले शीश पर बाँध लें
पर समय को कभी बाँध पाये कहाँ ?
सोच कर देख लो क्या मिलेगा तुम्हें
प्यार के गुनगुने आचरण छोड़ कर।
क्या करें आँसुओं से इसे जोड़कर
दिन फिसलते हुए जा रहे हैं जहाँ।
आदमी की जरूरत नहीं है वहाँ।
एक पल हम भले शीश पर बाँध लें
पर समय को कभी बाँध पाये कहाँ ?
सोच कर देख लो क्या मिलेगा तुम्हें
प्यार के गुनगुने आचरण छोड़ कर।
शतदल
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