विविध >> मैं नास्तिक क्यों हूं मैं नास्तिक क्यों हूंबिपिन चन्द्र
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भगतसिंह के जीवन पर आधारित पुस्तक....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भगत सिंह ने केवल भारत के महानतम देशभक्त तथा
क्रांतिकारी समाजवादियों में
से एक थे, बल्कि भारत के प्रारंभिक मार्क्सवादी विचारकों में भी उनका
प्रमुख स्थान था। भगत सिंह ने जेल में चार-पुस्तकें वे एक पर्चा लिखा था।
दुर्भाग्यवश उनकी चारों पुस्तकें जेल से चोरी-छिपे बाहर लाने के क्रम में
गुम हो गईं। शहादत के कुछ दिनों या हफ्ते पहले लिखा गया पर्चा
‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ सौभाग्य से उनके पिता के
हाथों चोरी-छिपे जेल से बाहर आ गया। उन्होंने इस पर्चे का प्रकाशन जून
1931 में साप्ताहिक अखबार ‘द पीपुल’ में करवाया था।
एक बुजुर्ग क्रांतिकारी लाला रामसरन दास ने अपनी कविता की पुस्तक
‘द ड्रीमलैंड’ की भूमिका लिखने के लिए भगत सिंह से
अनुरोध किया था। ये दोनों आलेख भगत सिंह की तीक्ष्ण बुद्धि, गहन अध्ययन,
जटिल विषयों पर उनकी समझ वे उन्हें आम लोगों की समझ के अनुरूप भाषा में
व्यक्त करने की क्षमता को दर्शाते हैं।
भगत सिंह की 100वीं जयंती और उनकी शहादत के 75 वें वर्ष की याद में उनके दो आलेखों को प्रो. विपिन चंद्रा की भूमिका के साथ प्रस्तुत करते हुए नेशनल बुक ट्रस्ट स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता है।
भगत सिंह की 100वीं जयंती और उनकी शहादत के 75 वें वर्ष की याद में उनके दो आलेखों को प्रो. विपिन चंद्रा की भूमिका के साथ प्रस्तुत करते हुए नेशनल बुक ट्रस्ट स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता है।
प्रस्तावना
भगत सिंह एक महान देशभक्त और क्रान्तिकारी
थे। लेकिन वे
बुद्धिमत्ता की खान भी थे। बचपन से ही वे पुस्तकों में खोए रहते थे। लाला
लाजपत राय द्वारा स्थापित किया गया पुस्तकालय ‘द्वारकादास
लायब्रेरी’ जैसे उनका घर बन गया था। उनके साथी बताते हैं कि किस
तरह
हर समय उनके कुरते की जेबों में किताबें भरी रहती थीं। बगैर पुस्तकों के
रहना उन्हें किसी गुनाह की तरह लगता था। पढ़ने के लिए उनका यह जुनून उनके
जेल-प्रवास में भी बरकरार रहा, जहां उन्होंने अपनी जिन्दगी के आखिरी लगभग
दो साल बिताए थे। वे 24 वसन्त देखने से पहले ही शहीद हो गए थे। ये दो आलेख
उनकी जेल में लिखी उस डायरी से लिए गए हैं, जिसमें वे कारावास के दौरान
पढ़ी गई पुस्तकों में से टिप्पणियां दर्ज किया करते थे।
मुकदमें के दौरान उनके द्वारा अदालत में दिया गया बयान, अखबारों तथा उनके द्वारा मित्रों व रिश्तेदारों को लिखे गए खत इस बात के साक्षी हैं कि सरदार भगत सिंह की सोच कितनी विस्तृत थी, उन्हें समाज और सामाजिक व राजनीतिक आन्दोलनों के बारे में कार्यों से धीरे-धीरे दूर होते गए व मार्क्सवाद के करीब आ गए। भगत सिंह ने जेल में चार पुस्तकें व एक पर्चा लिखा था। दुर्भाग्यवश उनका यह लेखन जेल से चोरी-छिपे बाहर लाने के क्रम में नष्ट हो गया। इस सामग्री को अपने पास रखने के जुर्म में भारी जुर्माने के डर से यह सामग्री एक हाथ से दूसरे हाथ में जाती रही और इस दौरान कहीं गुम हो गई।
शहारत के कुछ दिनों या हफ्ते पहले लिखा गया पर्चा ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ सौभाग्य से उनके पिता के हाथों चोरी-छिपे जेल से बाहर आ गया। उन्होंने इस पर्चे का प्रकाशन जून 1931 में साप्ताहिक अखबार ‘द पीपुल’ में करवाया था। इस अखबार की स्थापना लाला लाजपत राय ने की थी तथा इसके सम्पादक थे लाला फकीर चन्द। पर्चे के प्रकाशन के तत्काल बाद अखबार पर पाबन्दी लगा दी गई थी, फिर भी इस पर्चे का प्रकाशन व वितरण गैरकानूनी रूप से अनवरत जारी रहा। कई बार इसके कुछ अंशों को भी छापा जाता रहा।
एक बुजुर्ग क्रान्तिकारी लाला रामसरन दास ने अपनी कविता की पुस्तक ‘द ड्रीमलैंड’ की भूमिका लिखने के लिए भगत सिंह से अनुरोध किया था। दोनों आलेख-‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ और ‘ड्रीमलैंड की भूमिका’ भगत सिंह की तीक्ष्ण बुद्धि, गहन अध्ययन, जटिल विषयों पर उनकी समझ व उन्हें आम लोगों की समझ के अनुरूप भाषा में व्यक्त करने की क्षमता को दर्शाते हैं। साथ ही ये आलेख भगत सिंह की संवेदनशीलता, अपने वरिष्ठ साथियों के प्रति सम्मान तथा जिन बातों से असहमति हो, उन्हें प्रकट करने के स्पष्ट दृष्टिकोण की भी बानगी हैं। उदाहरण के लिए धर्म में विश्वास रखने वालों के प्रति उनके विचार, जिससे वे सिद्धान्ततः असहमत थे।
भगत सिंह की 100 वीं जयंती और उनकी शहादत के 75 वें वर्ष की याद में उनके दो आलेखों को भारत की जनता के सामने प्रस्तुत करते हुए नेशनल बुक ट्रस्ट स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता है।
भगत सिंह के करीबी साथी जितेन्द्र नाथ सान्याल द्वारा लिखी गई उनकी जीवनी के नए संस्करण का हिन्दी में प्रकाशन नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा पहले ही किया जा चुका है। इसके अलावा उनकी शहादत पर केन्द्रित लोकप्रिय हिन्दी गीतों व कविताओं का संकलन ‘फांसी लाहौर की’ और इसी संकलन का पंजाबी संस्करण ‘शहीद-ए-आजम भगत सिंह काव’ का प्रकाशन भी ट्रस्ट द्वारा किया गया है। भगत सिंह के भाषणों, लेखों और पत्रों के संकलनों को सभी भारतीय भाषाओं में जल्दी ही प्रकाशित करने की भी योजना है।
मुकदमें के दौरान उनके द्वारा अदालत में दिया गया बयान, अखबारों तथा उनके द्वारा मित्रों व रिश्तेदारों को लिखे गए खत इस बात के साक्षी हैं कि सरदार भगत सिंह की सोच कितनी विस्तृत थी, उन्हें समाज और सामाजिक व राजनीतिक आन्दोलनों के बारे में कार्यों से धीरे-धीरे दूर होते गए व मार्क्सवाद के करीब आ गए। भगत सिंह ने जेल में चार पुस्तकें व एक पर्चा लिखा था। दुर्भाग्यवश उनका यह लेखन जेल से चोरी-छिपे बाहर लाने के क्रम में नष्ट हो गया। इस सामग्री को अपने पास रखने के जुर्म में भारी जुर्माने के डर से यह सामग्री एक हाथ से दूसरे हाथ में जाती रही और इस दौरान कहीं गुम हो गई।
शहारत के कुछ दिनों या हफ्ते पहले लिखा गया पर्चा ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ सौभाग्य से उनके पिता के हाथों चोरी-छिपे जेल से बाहर आ गया। उन्होंने इस पर्चे का प्रकाशन जून 1931 में साप्ताहिक अखबार ‘द पीपुल’ में करवाया था। इस अखबार की स्थापना लाला लाजपत राय ने की थी तथा इसके सम्पादक थे लाला फकीर चन्द। पर्चे के प्रकाशन के तत्काल बाद अखबार पर पाबन्दी लगा दी गई थी, फिर भी इस पर्चे का प्रकाशन व वितरण गैरकानूनी रूप से अनवरत जारी रहा। कई बार इसके कुछ अंशों को भी छापा जाता रहा।
एक बुजुर्ग क्रान्तिकारी लाला रामसरन दास ने अपनी कविता की पुस्तक ‘द ड्रीमलैंड’ की भूमिका लिखने के लिए भगत सिंह से अनुरोध किया था। दोनों आलेख-‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ और ‘ड्रीमलैंड की भूमिका’ भगत सिंह की तीक्ष्ण बुद्धि, गहन अध्ययन, जटिल विषयों पर उनकी समझ व उन्हें आम लोगों की समझ के अनुरूप भाषा में व्यक्त करने की क्षमता को दर्शाते हैं। साथ ही ये आलेख भगत सिंह की संवेदनशीलता, अपने वरिष्ठ साथियों के प्रति सम्मान तथा जिन बातों से असहमति हो, उन्हें प्रकट करने के स्पष्ट दृष्टिकोण की भी बानगी हैं। उदाहरण के लिए धर्म में विश्वास रखने वालों के प्रति उनके विचार, जिससे वे सिद्धान्ततः असहमत थे।
भगत सिंह की 100 वीं जयंती और उनकी शहादत के 75 वें वर्ष की याद में उनके दो आलेखों को भारत की जनता के सामने प्रस्तुत करते हुए नेशनल बुक ट्रस्ट स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता है।
भगत सिंह के करीबी साथी जितेन्द्र नाथ सान्याल द्वारा लिखी गई उनकी जीवनी के नए संस्करण का हिन्दी में प्रकाशन नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा पहले ही किया जा चुका है। इसके अलावा उनकी शहादत पर केन्द्रित लोकप्रिय हिन्दी गीतों व कविताओं का संकलन ‘फांसी लाहौर की’ और इसी संकलन का पंजाबी संस्करण ‘शहीद-ए-आजम भगत सिंह काव’ का प्रकाशन भी ट्रस्ट द्वारा किया गया है। भगत सिंह के भाषणों, लेखों और पत्रों के संकलनों को सभी भारतीय भाषाओं में जल्दी ही प्रकाशित करने की भी योजना है।
-विपिन चंद्रा
भूमिका
भगत सिंह न केवल भारत के महानतम देशभक्त तथा
क्रांतिकारी
समाजवादियों में से एक थे, बल्कि भारत के प्रारंभिक मार्क्सवादी विचारकों
में भी उनका प्रमुख स्थान था। दुभाग्यवश अभी तक लोग उनके व्यक्तित्व के इस
अंतिम पहलू से कम ही परिचित हैं। यही वजह है कि विभिन्न प्रकार के
प्रतिक्रियावादी, रूढ़िवादी तथा साम्प्रदायिक तत्त्व अपनी स्वयं की
राजनीति तथा विचारधाराओं के लिए भगत सिंह तथा उनके चंद्रशेखर आजाद जैसे
साथियों के नाम का गलत ढंग और फरेब से, अपनी उद्देश्यपूर्ति के लिए उपयोग
करते रहे हैं।
भगत सिंह का देहांत 23 वर्ष की अल्पायु में ही हो गया था। जब उन्होंने गांधीवादी राष्ट्रवाद छोड़कर क्रांतिकारी आंतकवाद का रास्ता अपनाया तो शीघ्र ही उनका राजनीतिक चिंतन तथा उसका व्यावहारिक रूप सामने आने लगा। परंतु 1927-28 से ही वे क्रांतिकारी शूरवीरता से अधिक मार्क्सवाद की ओर आकृष्ट होने लगे। 1925 से 1929 के दौरान भगत सिंह ने विशेष रूप से रूसी क्रांति तथा सोवियत संघ पर पुस्तकों का गहन अध्ययन किया, यद्यपि उन दिनों ऐसी पुस्तकों को अपने पास रखना अपने आप में एक क्रांतिकारी तथा कठिन कार्य था। 1920 के दशक में भगत सिंह भारत में क्रांतिकारी आंदोलनों, सशस्त्र संघर्ष तथा मार्क्सवाद की गहन समझ रखने वाले व्यक्तियों में से थे। उन्होंने अपने क्रांतिकारी मित्रों तथा युवा साथियों को भी इस प्रकार का साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित किया। अपने मकदमे की सुनवाई के दौरान उन्होंने लाहौर उच्च न्यायालय में खुलकर कहा, ‘‘क्रांति की तलवार विचारों की सान पर ही पैनी होती है।’’ 1928 के आखिरी दिनों में भगत सिंह तथा उनके साथी समाजवाद को अपनी गतिविधियों के अन्तिम उद्देश्य के रूप में स्वीकार कर चुके थे और उन्होंने अपने संगठन का नाम भी ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ से बदल कर ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ रख लिया था।
इसके बाद सन् 1929 में अपनी गिफ्तारी से पहले और उसके बाद भी, भगत सिंह मार्क्सवाद की ओर अग्रसर रहे और उसके हर पहलू की पूरी-पूरी जानकारी जुटाने की लगातार कोशिश करते रहे। इस दौरान उन्होंने राष्ट्रवादी आंदोलन, हिंसा तथा अहिंसा, क्रांतिकारी आतंकवाद, धर्म, सांप्रदायिकता, पूर्ववर्ती क्रांतिकारियों तथा समकालीन विचारधाराओं तथा स्वयं अपने विचारों की समीक्षा की।
यह भारतीयों के लिए बड़ी त्रासदी ही कही जाएगी कि एक विलक्षण प्रतिभा का उपनिवेशवादी शासकों के हाथों इतनी जल्दी अंत हो गया।
इस छोटी पुस्तिका में भगत सिंह द्वारा लिखे गए दो लेखों से पाठकों को परिचित कराया गया है, जिनसे वे अभी तक अनभिज्ञ थे। ये दोनों लेख भगत सिंह ने 1930-31 में फांसी की प्रतीक्षा करते हुए जेल में लिखे थे। जैसा कि उनके अनगिनत पत्रों, वक्तव्यों तथा लेखों से प्रकट होता है, इन दोनों लेखों में भी वे एक ऐसे क्रांतिकारी के रूप में सामने आते हैं जो पूर्ण रूप से मार्क्सवाद के प्रति बचनबद्ध है और जो इस प्रणाली को इसकी संपूर्ण जटिलताओं के साथ व्यावहारिक रूप प्रदान करने की योग्यता भी रखता है।
भगत सिंह का देहांत 23 वर्ष की अल्पायु में ही हो गया था। जब उन्होंने गांधीवादी राष्ट्रवाद छोड़कर क्रांतिकारी आंतकवाद का रास्ता अपनाया तो शीघ्र ही उनका राजनीतिक चिंतन तथा उसका व्यावहारिक रूप सामने आने लगा। परंतु 1927-28 से ही वे क्रांतिकारी शूरवीरता से अधिक मार्क्सवाद की ओर आकृष्ट होने लगे। 1925 से 1929 के दौरान भगत सिंह ने विशेष रूप से रूसी क्रांति तथा सोवियत संघ पर पुस्तकों का गहन अध्ययन किया, यद्यपि उन दिनों ऐसी पुस्तकों को अपने पास रखना अपने आप में एक क्रांतिकारी तथा कठिन कार्य था। 1920 के दशक में भगत सिंह भारत में क्रांतिकारी आंदोलनों, सशस्त्र संघर्ष तथा मार्क्सवाद की गहन समझ रखने वाले व्यक्तियों में से थे। उन्होंने अपने क्रांतिकारी मित्रों तथा युवा साथियों को भी इस प्रकार का साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित किया। अपने मकदमे की सुनवाई के दौरान उन्होंने लाहौर उच्च न्यायालय में खुलकर कहा, ‘‘क्रांति की तलवार विचारों की सान पर ही पैनी होती है।’’ 1928 के आखिरी दिनों में भगत सिंह तथा उनके साथी समाजवाद को अपनी गतिविधियों के अन्तिम उद्देश्य के रूप में स्वीकार कर चुके थे और उन्होंने अपने संगठन का नाम भी ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ से बदल कर ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ रख लिया था।
इसके बाद सन् 1929 में अपनी गिफ्तारी से पहले और उसके बाद भी, भगत सिंह मार्क्सवाद की ओर अग्रसर रहे और उसके हर पहलू की पूरी-पूरी जानकारी जुटाने की लगातार कोशिश करते रहे। इस दौरान उन्होंने राष्ट्रवादी आंदोलन, हिंसा तथा अहिंसा, क्रांतिकारी आतंकवाद, धर्म, सांप्रदायिकता, पूर्ववर्ती क्रांतिकारियों तथा समकालीन विचारधाराओं तथा स्वयं अपने विचारों की समीक्षा की।
यह भारतीयों के लिए बड़ी त्रासदी ही कही जाएगी कि एक विलक्षण प्रतिभा का उपनिवेशवादी शासकों के हाथों इतनी जल्दी अंत हो गया।
इस छोटी पुस्तिका में भगत सिंह द्वारा लिखे गए दो लेखों से पाठकों को परिचित कराया गया है, जिनसे वे अभी तक अनभिज्ञ थे। ये दोनों लेख भगत सिंह ने 1930-31 में फांसी की प्रतीक्षा करते हुए जेल में लिखे थे। जैसा कि उनके अनगिनत पत्रों, वक्तव्यों तथा लेखों से प्रकट होता है, इन दोनों लेखों में भी वे एक ऐसे क्रांतिकारी के रूप में सामने आते हैं जो पूर्ण रूप से मार्क्सवाद के प्रति बचनबद्ध है और जो इस प्रणाली को इसकी संपूर्ण जटिलताओं के साथ व्यावहारिक रूप प्रदान करने की योग्यता भी रखता है।
1
अपने पहले लेख में भगत सिंह ने धर्म तथा
नास्तिकता पर
विचार किया है। यहां वे अपने निरीश्वरवाद की रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं,
यद्यपि अपने बाल्यकाल के आरंभिक दिनों में वे धर्म से तथा बाद में शचींद्र
नाथ सान्याल जैसे पूर्ववर्ती क्रांतिकारी आतंकवादियों से प्रभावित हुए थे।
1920 के दशक में सान्याल की पुस्तक ‘बंदी जीवन’ सभी
क्रांतिकारियों के लिए आधारभूत पाठ्य पुस्तक मानी जाती थी। शुरुआत में
क्रांतिकारी आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त करने के लिए धर्म तथा रहस्यवाद पर
भरोसा करते थे, जिसे वे अपनी साहसिक गतिविधियों द्वारा प्रदर्शित भी करते
थे। इस लेख में तथा इसी प्रकार दूसरे लेख में भी भगत सिंह ने प्रारंभिक
क्रांतिकारियों के दृष्टिकोण से संबंधित अपनी समझ को पूरी तरह प्रदर्शित
किया है तथा उनकी धार्मिकता के स्त्रोत का भी चित्रण किया है। वे कहते हैं
कि वैज्ञानिक समझ के बगैर राजनीतिक गतिविधियों में स्वयं को आत्मिक रूप से
जीवन रखने तथा व्यक्तिगत मोह के विरुद्ध संघर्ष करने, हताशा पर विजय पाने,
शारीरिक सुख-सुविधाओं, परिवार तथा जीवन को बलिदान करने के लिए उन्हें
तर्कहीन धार्मिक विश्वासों तथा रहस्यवाद की आवश्यकता थी। जब भी कोई
व्यक्ति अपने जीवन को संकट में डालने तथा दूसरे सभी प्रकार के बलिदानों के
लिए तैयार होता है तो उसे गहरे प्रेरणा-स्त्रोतों की आवश्यकाता होती है,
जिसे धर्म तथा रहस्यवाद पूरा करता है। पुराने क्रांतिकारी अपनी इस जरूरत
की पूर्ति के लिए धर्म और रहस्यवाद का सहारा लेते थे।1 परंतु जो लोग अपनी
गतिविधियों की प्रकृति से परिचित थे, जो क्रांतिकारी विचारधारा की ओर
अग्रसर हो चुके थे, जो विश्वासपूर्वक निडर होकर फांसी पर चढ़ सकते थे,
जिन्हें किसी भी प्रकार की सांत्वना अथवा मुक्ति की तमन्ना नहीं थी और जो
दलितों की आजादी तथा उद्धार के लिए लड़ रहे थे (क्योंकि वे इसके अलावा कुछ
और नहीं कर सकते थे), उन्हें धर्म तथा रहस्यवाद के सहारे की जरूरत नहीं रह
गई थी।
उस समय भगत सिंह स्वयं फांसी के फंदे की प्रतीक्षा कर रहे थे। वे जानते थे कि ऐसे क्षण में भगवान की शरण लेना बहुत सरल है। ‘‘भगवान से मनुष्य को गहरी सांत्वना तथा आश्रय मिल सकता है।’’ दूसरी ओर, अपनी स्वयं की आंतरिक शक्ति पर निर्भर रहना सरल काम नहीं है। उन्होंने कहा, ‘‘तूफानों तथा आंधियों में अपने पांव पर खड़े रहना बच्चों का खेल नहीं है।’’ वे यह भी जानते थे कि इस कार्य के लिए अत्यधिक नैतिक शक्ति की आवश्यकता थी तथा आधुनिक क्रांतिकारी एक अनूठे नैतिक रास्ते पर चल रहे थे। यह रास्ता मनुष्य को ‘मानव जाति की सेवा तथा दुखी मानवता की स्वतंत्रता’ के प्रति समर्पण के लिए प्रेरित
---------
1.हालांकि भगत सिंह ने उन्हें इन लेखों में प्रत्यक्ष रूप से प्रस्तुत किया है, फिर भी वे एक दूसरे महत्त्वपूर्ण पहलू अर्थात् राष्टवादी प्रेरणा के स्त्रोत के रूप में धर्म और सांप्रदायिकता के बीच के अंतर को स्पष्ट करते हैं। आरंभिक क्रांतिकारियों ने धर्म तथा रहस्यवाद का प्रयोग प्रेरणा और विचारधारा के लिए किया, परंतु वे सांप्रदायिक नहीं थे. उनके लिए धर्म उनकी राजनीति का आधार न होकर आंतरिक शक्ति का एक स्त्रोत था। इसने उन्हें सभी भारतवासियों की राष्ट्रीय आजादी के लिए योद्धा बनने के लिए प्रेरित किया, न कि सांप्रदायिक राजनीति का संगठनकर्ता बनने के लिए; जो भारतीयों के दूसरे वर्गों के प्रति घृणा फैलाते हैं। जब उनके धार्मिक तथा रहस्यवादी विश्वासों ने उन्हें साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ने के लिए प्रेरित किया, उस समय सांप्रदायिक तत्त्व व्यक्तिगत रूप से साम्राज्यवाद समर्थक थे और एकजुट भारतीयों को विभाजित करके साम्राज्यवाद के विरुद्ध नहीं बल्कि दूसरे भारतीयों की ओर अपनी राजनीति की धार को मोड़कर जानबूझ कर साम्राज्यवाद को लाभ पहुंचाते थे।
करता था। इस रास्ते पर वही नर-नारी चल रहे थे, जो साहस के साथ ‘दमनकर्ताओं, शोषकों तथा जालिमों’ को ललकार रहे थे, जो ‘मानसिक जड़ता’ का विरोध कर रहे थे तथा आत्म-चिंतन पर बल दे रहे थे। जैसा कि भगत सिंह ने आगे कहा, ‘‘आलोचना तथा स्वतंत्र चिंतन एक क्रांतिकारी की दो अनिवार्य विशेषताएं हैं।’’
भगत सिंह कहते हैं कि एक विवेकशील, तर्कसंगत जीवन जीना सरल काम नहीं है। अंधविश्वासी रहकर, सांत्वना अथवा राहत प्राप्त करना सरल है। परंतु यह हमारा कर्तव्य है कि हम निरंतर एक तार्किक जीवन जिएं और इसी कारण भगत सिंह, अपने लेख के अंत में, अपने आप को नास्तिक तथा यथार्थवादी (भौतिकवादी) घोषित करते हुए कहते हैं, ‘‘वे एक ऐसे व्यक्ति की भांति खड़े होना चाहते हैं जिसका सिर आखिर तक ऊंचा रहता है, फांसी के सख्ते पर भी।’’
उस समय भगत सिंह स्वयं फांसी के फंदे की प्रतीक्षा कर रहे थे। वे जानते थे कि ऐसे क्षण में भगवान की शरण लेना बहुत सरल है। ‘‘भगवान से मनुष्य को गहरी सांत्वना तथा आश्रय मिल सकता है।’’ दूसरी ओर, अपनी स्वयं की आंतरिक शक्ति पर निर्भर रहना सरल काम नहीं है। उन्होंने कहा, ‘‘तूफानों तथा आंधियों में अपने पांव पर खड़े रहना बच्चों का खेल नहीं है।’’ वे यह भी जानते थे कि इस कार्य के लिए अत्यधिक नैतिक शक्ति की आवश्यकता थी तथा आधुनिक क्रांतिकारी एक अनूठे नैतिक रास्ते पर चल रहे थे। यह रास्ता मनुष्य को ‘मानव जाति की सेवा तथा दुखी मानवता की स्वतंत्रता’ के प्रति समर्पण के लिए प्रेरित
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1.हालांकि भगत सिंह ने उन्हें इन लेखों में प्रत्यक्ष रूप से प्रस्तुत किया है, फिर भी वे एक दूसरे महत्त्वपूर्ण पहलू अर्थात् राष्टवादी प्रेरणा के स्त्रोत के रूप में धर्म और सांप्रदायिकता के बीच के अंतर को स्पष्ट करते हैं। आरंभिक क्रांतिकारियों ने धर्म तथा रहस्यवाद का प्रयोग प्रेरणा और विचारधारा के लिए किया, परंतु वे सांप्रदायिक नहीं थे. उनके लिए धर्म उनकी राजनीति का आधार न होकर आंतरिक शक्ति का एक स्त्रोत था। इसने उन्हें सभी भारतवासियों की राष्ट्रीय आजादी के लिए योद्धा बनने के लिए प्रेरित किया, न कि सांप्रदायिक राजनीति का संगठनकर्ता बनने के लिए; जो भारतीयों के दूसरे वर्गों के प्रति घृणा फैलाते हैं। जब उनके धार्मिक तथा रहस्यवादी विश्वासों ने उन्हें साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ने के लिए प्रेरित किया, उस समय सांप्रदायिक तत्त्व व्यक्तिगत रूप से साम्राज्यवाद समर्थक थे और एकजुट भारतीयों को विभाजित करके साम्राज्यवाद के विरुद्ध नहीं बल्कि दूसरे भारतीयों की ओर अपनी राजनीति की धार को मोड़कर जानबूझ कर साम्राज्यवाद को लाभ पहुंचाते थे।
करता था। इस रास्ते पर वही नर-नारी चल रहे थे, जो साहस के साथ ‘दमनकर्ताओं, शोषकों तथा जालिमों’ को ललकार रहे थे, जो ‘मानसिक जड़ता’ का विरोध कर रहे थे तथा आत्म-चिंतन पर बल दे रहे थे। जैसा कि भगत सिंह ने आगे कहा, ‘‘आलोचना तथा स्वतंत्र चिंतन एक क्रांतिकारी की दो अनिवार्य विशेषताएं हैं।’’
भगत सिंह कहते हैं कि एक विवेकशील, तर्कसंगत जीवन जीना सरल काम नहीं है। अंधविश्वासी रहकर, सांत्वना अथवा राहत प्राप्त करना सरल है। परंतु यह हमारा कर्तव्य है कि हम निरंतर एक तार्किक जीवन जिएं और इसी कारण भगत सिंह, अपने लेख के अंत में, अपने आप को नास्तिक तथा यथार्थवादी (भौतिकवादी) घोषित करते हुए कहते हैं, ‘‘वे एक ऐसे व्यक्ति की भांति खड़े होना चाहते हैं जिसका सिर आखिर तक ऊंचा रहता है, फांसी के सख्ते पर भी।’’
2
भगत सिंह द्वारा किए गए धर्म के विश्लेषण तथा
उसके मूल
कारक में हमें उसकी शक्तिशाली, क्रांतिकारी वचनवद्धता और ऐतिहासिक,
भौतिकवादी तथा वैज्ञानिक ढंग से उनके सोचने की क्षमता की झलक मिलती है।
उनके धर्म में, धर्म की रचना शासक तथा शोषक वर्गों द्वारा लोगों को केवल धोखा देने के लिए ही नहीं, बल्कि एक वर्ग विशेष के विशेषाधिकारों तथा सत्ता को न्यायसंगत ठहराने तथा लोगों को सामाजिक रूप से चुप रखने के लिए की गई है। वास्तविक जीवन में धर्म इस उद्देश्य की पूर्ति भी करता है और इसीलिए वह इन वर्गों का मित्र तथा हथियार बन जाता है। परंतु धर्म, विशेष रूप से प्राचीन मनुष्य द्वारा अपने प्राकृतिक वातावरण, अपनी सामाजिक गतिविधि तथा सामाजिक संगठनों को पूर्ण रूप से न समझने की अयोग्यता का परिणाम है। मनुष्य अपने जीवन को भी नियंत्रित नहीं रख सका तथा अपनी कमियों को भी दूर नहीं कर सका। तब ईश्वर एक ‘लाभदायक’मिथक बन गया। यह मिथक ‘प्राचीन युग में समाज के लिए लाभदायक था।’
यही नहीं, ‘भगवान का विचार मुसीबत में मनुष्य के लिए बहुत सहायक होता है।’ ईश्वर तथा धर्म ने बेसहारा व्यक्ति को जीवन का साहस के साथ मुकाबला करने योग्य बना दिया। ‘कठिन परिस्थितियों का साहस के साथ मुकाबला करने, संकटों का दृढ़ता पूर्वक सामना करने, समद्धि तथा संपन्नता में मनुष्य के घमंड पर अंकुश रखने के लिए ईश्वर को एक काल्पनिक अस्तित्व प्रदान किया गया।’ ‘विश्वास कठिनाई को कम कर देता है, उसे सुखद भी बना सकता है। ईश्वर से मनुष्य को सांत्वना तथा ढाढस भी प्राप्त हो सकते हैं।’ इस प्रकार, असहाय, वंचित तथा निराश व्यक्तियों के लिए ईश्वर ‘एक पिता, माता, बहन भाई, मित्र तथा सहायक के रूप में कार्य करता है।’2
परंतु भगत सिंह कहते हैं, ‘‘जब विज्ञान विकसित होने लगता है और जब दलित तथा पीड़ित व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने लगते हैं, जब मनुष्य अपने पैरों पर खड़े होने का प्रयत्न करता है तथा यथार्थवादी बन जाता है (भगत सिंह ने यथार्थवादी शब्द ‘विवेकशील’ तथा ‘भौतिकवादी’ के स्थान पर प्रयोग किया है), ऐसे में तो ईश्वररूपी कृत्रिम बैसाखी और काल्पनिक रक्षक की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। आत्म-मुक्ति के इस संघर्ष में ‘धर्म के संकीर्ण सिद्धांत’ तथा ईश्वर में विश्वास के विरुद्ध लड़ाई अनिवार्य हो जाती है।’’ भगत सिंह कहते हैं, ‘‘किसी भी प्रगतिशील व्यक्ति को प्राचीन आस्थाओं को चुनौती देनी पड़ती है, उनकी आलोचना करनी पड़ती है तथा उनमें अविश्वास भी प्रदर्शित करना पड़ता है, एक के बाद एक, वह प्रचलित विश्वास के सभी पक्षों का तार्किक विश्लेषण करता है....एक व्यक्ति, जो यथार्थवादी होने का दावा करता है, उसे सम्पूर्ण प्राचीन विश्वास को चुनौती देनी पड़ती है...उसके लिए सबसे प्रथम तथा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वह प्राचीन ढांचे को गिरा दे तथा नए दर्शन के लिए स्थान साफ कर दे।’’
2.युवा भगत सिंह मार्क्स के चिंतन के कितने निकट हैं। 1844 में मार्क्स ने लिखा था: ‘‘धर्म संसार की सामान्य परिकल्पना, इसका सार-संग्रह, एक लोकप्रिय रूप में इसका तर्कशास्त्र, इसकी आध्यात्मिक शक्ति, इसका जोश, इसका नैतिक दंड-विधान पूरक, सांत्वना तथा औचित्य के सर्वव्यापी स्त्रोत हैं...धार्मिक कष्ट एक ही समय में, वास्तविक कष्ट के सर्वव्यापी स्त्रोत हैं...धार्मिक कष्ट एक ही समय में, वास्तविक कष्ट तथा वास्तविक कष्ट के विरुद्ध एक विरोध की अभिव्यक्ति है। धर्म एक पीड़ित प्राणी की आह तथा हृदयहीन संसार का हृदय है, ठीक उसी तरह जैसे कि यह आत्मदीन परिस्थितियों की आत्मा है। यह लोगों के लिए अफीम है। लोगों की काल्पनिक प्रसन्नता के रूप में धर्म को समाप्त करना उसकी वास्तविक प्रसन्नता को मांगने जैसा है।’’ कलेक्टेड वर्क्स, खंड 3, 1975, पृ. 175-76। यद्यपि भगत सिंह इस परिच्छेद को नहीं पढ़ सकते थे, फिर भी वे अधिकतर लोगों की अपेक्षा इस बात को अच्छी तरह समझते थे कि जब मार्क्स धर्म को ‘लोगों के लिए अफीम’ कहते हैं तो इसका क्या अर्थ है।
उनके धर्म में, धर्म की रचना शासक तथा शोषक वर्गों द्वारा लोगों को केवल धोखा देने के लिए ही नहीं, बल्कि एक वर्ग विशेष के विशेषाधिकारों तथा सत्ता को न्यायसंगत ठहराने तथा लोगों को सामाजिक रूप से चुप रखने के लिए की गई है। वास्तविक जीवन में धर्म इस उद्देश्य की पूर्ति भी करता है और इसीलिए वह इन वर्गों का मित्र तथा हथियार बन जाता है। परंतु धर्म, विशेष रूप से प्राचीन मनुष्य द्वारा अपने प्राकृतिक वातावरण, अपनी सामाजिक गतिविधि तथा सामाजिक संगठनों को पूर्ण रूप से न समझने की अयोग्यता का परिणाम है। मनुष्य अपने जीवन को भी नियंत्रित नहीं रख सका तथा अपनी कमियों को भी दूर नहीं कर सका। तब ईश्वर एक ‘लाभदायक’मिथक बन गया। यह मिथक ‘प्राचीन युग में समाज के लिए लाभदायक था।’
यही नहीं, ‘भगवान का विचार मुसीबत में मनुष्य के लिए बहुत सहायक होता है।’ ईश्वर तथा धर्म ने बेसहारा व्यक्ति को जीवन का साहस के साथ मुकाबला करने योग्य बना दिया। ‘कठिन परिस्थितियों का साहस के साथ मुकाबला करने, संकटों का दृढ़ता पूर्वक सामना करने, समद्धि तथा संपन्नता में मनुष्य के घमंड पर अंकुश रखने के लिए ईश्वर को एक काल्पनिक अस्तित्व प्रदान किया गया।’ ‘विश्वास कठिनाई को कम कर देता है, उसे सुखद भी बना सकता है। ईश्वर से मनुष्य को सांत्वना तथा ढाढस भी प्राप्त हो सकते हैं।’ इस प्रकार, असहाय, वंचित तथा निराश व्यक्तियों के लिए ईश्वर ‘एक पिता, माता, बहन भाई, मित्र तथा सहायक के रूप में कार्य करता है।’2
परंतु भगत सिंह कहते हैं, ‘‘जब विज्ञान विकसित होने लगता है और जब दलित तथा पीड़ित व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने लगते हैं, जब मनुष्य अपने पैरों पर खड़े होने का प्रयत्न करता है तथा यथार्थवादी बन जाता है (भगत सिंह ने यथार्थवादी शब्द ‘विवेकशील’ तथा ‘भौतिकवादी’ के स्थान पर प्रयोग किया है), ऐसे में तो ईश्वररूपी कृत्रिम बैसाखी और काल्पनिक रक्षक की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। आत्म-मुक्ति के इस संघर्ष में ‘धर्म के संकीर्ण सिद्धांत’ तथा ईश्वर में विश्वास के विरुद्ध लड़ाई अनिवार्य हो जाती है।’’ भगत सिंह कहते हैं, ‘‘किसी भी प्रगतिशील व्यक्ति को प्राचीन आस्थाओं को चुनौती देनी पड़ती है, उनकी आलोचना करनी पड़ती है तथा उनमें अविश्वास भी प्रदर्शित करना पड़ता है, एक के बाद एक, वह प्रचलित विश्वास के सभी पक्षों का तार्किक विश्लेषण करता है....एक व्यक्ति, जो यथार्थवादी होने का दावा करता है, उसे सम्पूर्ण प्राचीन विश्वास को चुनौती देनी पड़ती है...उसके लिए सबसे प्रथम तथा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वह प्राचीन ढांचे को गिरा दे तथा नए दर्शन के लिए स्थान साफ कर दे।’’
2.युवा भगत सिंह मार्क्स के चिंतन के कितने निकट हैं। 1844 में मार्क्स ने लिखा था: ‘‘धर्म संसार की सामान्य परिकल्पना, इसका सार-संग्रह, एक लोकप्रिय रूप में इसका तर्कशास्त्र, इसकी आध्यात्मिक शक्ति, इसका जोश, इसका नैतिक दंड-विधान पूरक, सांत्वना तथा औचित्य के सर्वव्यापी स्त्रोत हैं...धार्मिक कष्ट एक ही समय में, वास्तविक कष्ट के सर्वव्यापी स्त्रोत हैं...धार्मिक कष्ट एक ही समय में, वास्तविक कष्ट तथा वास्तविक कष्ट के विरुद्ध एक विरोध की अभिव्यक्ति है। धर्म एक पीड़ित प्राणी की आह तथा हृदयहीन संसार का हृदय है, ठीक उसी तरह जैसे कि यह आत्मदीन परिस्थितियों की आत्मा है। यह लोगों के लिए अफीम है। लोगों की काल्पनिक प्रसन्नता के रूप में धर्म को समाप्त करना उसकी वास्तविक प्रसन्नता को मांगने जैसा है।’’ कलेक्टेड वर्क्स, खंड 3, 1975, पृ. 175-76। यद्यपि भगत सिंह इस परिच्छेद को नहीं पढ़ सकते थे, फिर भी वे अधिकतर लोगों की अपेक्षा इस बात को अच्छी तरह समझते थे कि जब मार्क्स धर्म को ‘लोगों के लिए अफीम’ कहते हैं तो इसका क्या अर्थ है।
3
दूसरे कई मुद्दों पर बहस के दौरान भगत सिंह
अपने
पूर्ववर्ती क्रांतिकारियों के कार्यों के संबंध में अपनी सहानुभूतिपूर्ण
परंतु विवेचनात्मक समझ का प्रदर्शन करते हैं। इसमें उनकी ऐतिहासिक वातावरण
में दार्शनिक तथा राजनीतिक विचारों को सामने लाने की क्षमता तथा आधारभूत
मार्क्सवादी चिंतन स्पष्ट रूप से प्रदर्शित होता है।
अपने दूसरे लेख ‘एन इंट्रोडक्शन टू द ड्रीमलैंड’ में (यह बुजुर्ग क्रांतिकारी लाला रामसरन दास की काव्यकृति पर लिखा गया लेख है। लाला जी को 1915 में काले पानी की सजा हुई थी) भगत सिंह ने साफ तौर पर विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने के मूल विचार पर आधारित प्रारंभिक ‘शुद्ध’ राष्ट्रवाद से उस राष्टवाद की ओर परिवर्तन की रूपरेखा प्रस्तुत की है जो एक साथ ही प्रचलित सामाजिक व्यवस्था के संपूर्ण पुनर्गठन के प्रति भी वचनबद्ध था। एक राजनीतिक-दार्शनिक टीकाकार के बनिस्बत एक कवि की तरह लिखते हुए भगत सिंह, सबसे पहले, प्रारंभिक क्रांतिकारियों के साथ अपनी पीढ़ी की निरंतरता को स्थापित करते हैं। प्रारंभिक क्रांतिकारियों के साथ अपनी पीढ़ी ने राष्ट्रवाद, देशवासियों से प्रेम तथा बलिदान की सीख ली है। इसके पश्चात वे उनके साथ अपने दार्शनिक, राजनीतिक तथा वैचारिक मतभेदों का उल्लेख करते हैं।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, अपने लेख के आरंभ में ही भगत सिंह प्रेरणा-स्त्रोत के रूप में अपने आध्यात्मिक विश्वास तथा धार्मिकता और भौतिकवाद, तर्क तथा विज्ञान के प्रति अपनी दृढ़ वचनबद्धता के अंतर को स्पष्ट कर देते हैं।
वे हिंसा तथा अहिंसा के समकालीन, जटिल तथा हैरान करने वाले प्रश्नों पर भी अपने विचार प्रकट करते हैं। मामले की तह तक पहुंचते हुए वे बताते हैं कि किस प्रकार क्रांतिकारी एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की रचना करना चाहते हैं जिसमें हिंसा पूर्ण रूप से समाप्त हो जाएगी, जिसमें तर्क तथा न्याय की प्रधानता होगी तथा सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान तर्क तथा शिक्षा द्वारा किया जाएगा। परंतु साम्राज्यवादी, पूंजीवादी तथा दूसरे शोषक इसकी अनुमति नहीं देंगे। वे लोग व्यक्तियों की शिक्षा तथा शांतिप्रिय साधनों द्वारा समाजवाद को विकसित करने के प्रयास को बेरहमी से कुचल देते हैं। इसलिए क्रांतिकारियों को ‘अपने कार्यक्रम के एक अनिवार्य अंग के रूप में’ हिंसा को अपनाना है। जब भगत सिंह कहते हैं कि क्रांतिकारियों को ‘‘हिंसा को एक भयावह अनिवार्यता के रूप में प्रयोग करना है’’ तो वे बड़े सुंदर ढंग से सम्पूर्ण समस्या का सार प्रस्तुत कर देते हैं। एक बार जब समाजवादी शक्ति की स्थापना हो जाएगी तो उसके बाद समाज को विकसित करने के लिए शिक्षा तथा अनुनय का प्रयोग किया जाएगा।
नास्तिरता पर अपने लेख में भी उन्होंने इस मुद्दे को इसी प्रकार उठाया है। क्रांतिकारियों की नई पीढ़ी न ‘केवल हिसंक तरीकों के रोमांस को बदल दिया है, जो कि हमारे पूर्ववर्तियों में प्रचलित था’, और अब वे यह विश्वास करने लगे हैं कि ‘जब भी बल को एक भयावह अनिवार्यता के रूप में प्रयोग किया गया, वह न्यायसंगत था’, जबकि सभी प्रकार के जनआंदोलनों के लिए ‘एक नीति के रूप में अहिंसा अनिवार्य थी।’ इस प्रकार क्रांतिकारी हिंसा को महिमामंडित नहीं करते; क्रांति का आधार हिंसा की उपासना नहीं है। इसी प्रकार क्रांतिकारी आवश्यक हिंसा से परहेज भी नहीं करते। जहां भी इतिहास तथा शासक वर्ग उन्हें मजबूर करते हैं, वे प्रचलित सामाजिक व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए एक ‘भयावह अनिवार्यता’ के रूप में हिंसा का प्रयोग भी करते हैं।
अपने दूसरे लेख ‘एन इंट्रोडक्शन टू द ड्रीमलैंड’ में (यह बुजुर्ग क्रांतिकारी लाला रामसरन दास की काव्यकृति पर लिखा गया लेख है। लाला जी को 1915 में काले पानी की सजा हुई थी) भगत सिंह ने साफ तौर पर विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने के मूल विचार पर आधारित प्रारंभिक ‘शुद्ध’ राष्ट्रवाद से उस राष्टवाद की ओर परिवर्तन की रूपरेखा प्रस्तुत की है जो एक साथ ही प्रचलित सामाजिक व्यवस्था के संपूर्ण पुनर्गठन के प्रति भी वचनबद्ध था। एक राजनीतिक-दार्शनिक टीकाकार के बनिस्बत एक कवि की तरह लिखते हुए भगत सिंह, सबसे पहले, प्रारंभिक क्रांतिकारियों के साथ अपनी पीढ़ी की निरंतरता को स्थापित करते हैं। प्रारंभिक क्रांतिकारियों के साथ अपनी पीढ़ी ने राष्ट्रवाद, देशवासियों से प्रेम तथा बलिदान की सीख ली है। इसके पश्चात वे उनके साथ अपने दार्शनिक, राजनीतिक तथा वैचारिक मतभेदों का उल्लेख करते हैं।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, अपने लेख के आरंभ में ही भगत सिंह प्रेरणा-स्त्रोत के रूप में अपने आध्यात्मिक विश्वास तथा धार्मिकता और भौतिकवाद, तर्क तथा विज्ञान के प्रति अपनी दृढ़ वचनबद्धता के अंतर को स्पष्ट कर देते हैं।
वे हिंसा तथा अहिंसा के समकालीन, जटिल तथा हैरान करने वाले प्रश्नों पर भी अपने विचार प्रकट करते हैं। मामले की तह तक पहुंचते हुए वे बताते हैं कि किस प्रकार क्रांतिकारी एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की रचना करना चाहते हैं जिसमें हिंसा पूर्ण रूप से समाप्त हो जाएगी, जिसमें तर्क तथा न्याय की प्रधानता होगी तथा सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान तर्क तथा शिक्षा द्वारा किया जाएगा। परंतु साम्राज्यवादी, पूंजीवादी तथा दूसरे शोषक इसकी अनुमति नहीं देंगे। वे लोग व्यक्तियों की शिक्षा तथा शांतिप्रिय साधनों द्वारा समाजवाद को विकसित करने के प्रयास को बेरहमी से कुचल देते हैं। इसलिए क्रांतिकारियों को ‘अपने कार्यक्रम के एक अनिवार्य अंग के रूप में’ हिंसा को अपनाना है। जब भगत सिंह कहते हैं कि क्रांतिकारियों को ‘‘हिंसा को एक भयावह अनिवार्यता के रूप में प्रयोग करना है’’ तो वे बड़े सुंदर ढंग से सम्पूर्ण समस्या का सार प्रस्तुत कर देते हैं। एक बार जब समाजवादी शक्ति की स्थापना हो जाएगी तो उसके बाद समाज को विकसित करने के लिए शिक्षा तथा अनुनय का प्रयोग किया जाएगा।
नास्तिरता पर अपने लेख में भी उन्होंने इस मुद्दे को इसी प्रकार उठाया है। क्रांतिकारियों की नई पीढ़ी न ‘केवल हिसंक तरीकों के रोमांस को बदल दिया है, जो कि हमारे पूर्ववर्तियों में प्रचलित था’, और अब वे यह विश्वास करने लगे हैं कि ‘जब भी बल को एक भयावह अनिवार्यता के रूप में प्रयोग किया गया, वह न्यायसंगत था’, जबकि सभी प्रकार के जनआंदोलनों के लिए ‘एक नीति के रूप में अहिंसा अनिवार्य थी।’ इस प्रकार क्रांतिकारी हिंसा को महिमामंडित नहीं करते; क्रांति का आधार हिंसा की उपासना नहीं है। इसी प्रकार क्रांतिकारी आवश्यक हिंसा से परहेज भी नहीं करते। जहां भी इतिहास तथा शासक वर्ग उन्हें मजबूर करते हैं, वे प्रचलित सामाजिक व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए एक ‘भयावह अनिवार्यता’ के रूप में हिंसा का प्रयोग भी करते हैं।
4
इसके साथ ही भगत सिंह शुरूआती दौर से
क्रांतिकारी चिंतन के
अव्यावहारिक चरित्र एवं सामाजिक आंदोलनों तथा सामाजिक विकास की विभिन्न
अवस्थाओं में आदर्शवादी विचारकों की सकारात्मक भूमिका पर प्रकाश डालते
हैं। परंतु जब ‘वैज्ञानिक मार्क्सवादी समाजवाद’ के
आधार पर
क्रांतिकारी आंदोलन वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा दर्शन को अपनाने लगते हैं तो
वे अव्यावहारिक चिंतन के पतन की ओर भी संकेत करते हैं।
भगत सिंह अव्यावहारिक चिंतन के एक पहलू पर बड़े विस्तार से विचार करते हैं: शारीरिक श्रम को मानसिक श्रम से किस प्रकार जोड़ा जाए ? वे स्वीकार करते हैं कि एक समाजवादी समाज की स्थापना के लिए दोनों की दूरी को समाप्त करना बुनियादी आवश्यकता है। परंतु वे महसूस करते हैं कि रामसरन दास द्वारा सुझाए गए यांत्रिक और काल्पनिक साधनों द्वारा अर्थात् सभी मानसिक श्रम करने वालों से प्रतिदिन चार घंटे शारीरिक श्रम करवाकर इस दूरी को समाप्त नहीं किया जा सकता। शारीरिक तथा मानसिक श्रम की प्रकृति में भिन्नता है। इस समस्या का मूल कारण दोनों के बीच की मौजूदा असमानता है। इस समस्या का समाधान तभी हो सकता है जब दोनों को उत्पादनकारी श्रम समझा जाए तथा इस विचार का विरोध किया जाए कि मानसिक कार्य करने वालों से श्रेष्ठ होते हैं।
भगत सिंह अव्यावहारिक चिंतन के एक पहलू पर बड़े विस्तार से विचार करते हैं: शारीरिक श्रम को मानसिक श्रम से किस प्रकार जोड़ा जाए ? वे स्वीकार करते हैं कि एक समाजवादी समाज की स्थापना के लिए दोनों की दूरी को समाप्त करना बुनियादी आवश्यकता है। परंतु वे महसूस करते हैं कि रामसरन दास द्वारा सुझाए गए यांत्रिक और काल्पनिक साधनों द्वारा अर्थात् सभी मानसिक श्रम करने वालों से प्रतिदिन चार घंटे शारीरिक श्रम करवाकर इस दूरी को समाप्त नहीं किया जा सकता। शारीरिक तथा मानसिक श्रम की प्रकृति में भिन्नता है। इस समस्या का मूल कारण दोनों के बीच की मौजूदा असमानता है। इस समस्या का समाधान तभी हो सकता है जब दोनों को उत्पादनकारी श्रम समझा जाए तथा इस विचार का विरोध किया जाए कि मानसिक कार्य करने वालों से श्रेष्ठ होते हैं।
5
अंत में, भगत सिंह मार्क्स, एंगेल्स लेनिन की
सर्वश्रेष्ठ
परंपराओं से संबंध रखने वाले आलोचनात्मक क्रांतिकारी हैं। युवाओं को
‘द ड्रीमलैंड’ के अध्ययन के लिए प्रेरित करते हुए वे
चेतावनी
देते हैं, ‘‘आंख मूंदकर इसका अनुसरण करने के लिए इसे
मत पढ़ो
तथा जो कुछ इसमें लिखा है उसे पूर्ण रूप से सत्य मत मानो। इसे पढ़ो, इसकी
समीक्षा करो, इस पर विचार करो और इसकी मदद से अपने विचारों को स्वयं
विकसित करो।’’
-विपिन चंद्रा
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