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निराला का गद्य साहित्य (सजिल्द)

गया प्रसाद गुप्त

प्रकाशक : जय भारतीय प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4847
आईएसबीएन :81-85957-40-1

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निराला का गद्य साहित्य....

Rajani

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


हिन्दी कथा-साहित्य के अंतर्गत निराला के उपन्यास अपने विशिष्ट स्थान के अधिकारी हैं। संख्या और उत्कृष्टता दोनों दृष्टियों से इनका उपन्यास साहित्य महत्त्वपूर्ण हैं। इनके प्रारम्भिक कहानियों और उपन्यासों में जहाँ विशुद्ध रूप से छायावादी विचार पद्धतिका अनुसरण किया गया है, वहाँ परवर्ती उपन्यास कृतियाँ यथार्थ के धरातल को संस्पर्श करती दिखाई देती हैं।
निराला जी और उनकी युग-चेतना के प्रतिनिधि के रूप में स्मरणीय है। उनके ‘अलका’ उपन्यास में युग-चेतना के उतार-चढ़ाव तथा युग स्वर को भली-भाँति देखा सुना जा सकता है।
प्रस्तुति कृति निराला का गद्य साहित्य हिन्दी साहित्य के प्रौढ़ विद्वान कवि कुशल लोकप्रिय सफल शिक्षक तथा तटस्थ आलोचक डॉ.गया प्रसाद गुप्त के अध्ययन, चिन्तन, मनन एवं स्तरीय विश्लेषण का प्रबल प्रमाण हैं।
इसमें परम्परागत एवं स्वीकृत मान्यताओं के अतिरिक्त सर्वथा स्वतन्त्र तर्क पुष्ट सिद्धान्त संहिता के आलोक में निराला के गद्य साहित्य का विश्लेषण किया है। साथ ही भारतीय संस्कृति में सन्निहित जीवनादर्शों एवं उदात्त स्थापित मानव मूल्यों के निराला के गद्य को संश्लेषण सूक्ष्म तथा विशद् निरूपण ध्यातव्य हैं।

निराला का गद्य साहित्य

डॉ. गया प्रसाद गुप्त द्वारा निराला का गद्य साहित्य विषय पर विवेचित यह मौलिक कृति पाठकों के सामने कई अछूते प्रश्नों को छोड़ जाती है। सामान्यता अब तक हिन्दी के आलोचकों ने उनकी कविता की मौलिक सर्जना पंक्ति की ही व्याख्या की है और उनके सर्जक व्यक्तित्व द्वारा गद्य साहित्य पर किए गए उनके कार्यों पर विशेष ध्यान नहीं दिया है। हिन्दी में, प्रथम बार निराला के सम्पूर्ण गद्य विश्लेषित करने का डॉ. गुप्त का यह प्रयास सर्वथा सराहनीय है। डॉ. गया प्रसाद गुप्त ने निराला की उन गद्य कृतियों को भी, जिसके प्रति सम्प्रति, आलोचकों का ध्यान नहीं गया है, अपने इस अध्ययन में समेटा है। उत्कृष्ट मूल्यांकन, निराला साहित्य में अभिव्यक्त समस्याओं का बहुकोणीय विवेचन, परम्परा और मौलिकता दोनों को आधार बनाकर विवेचित करने का यह अपने ढंग का सर्वथा नया प्रयास है।

आशा है, उनकी इस आलोचनात्मक कृति को हिन्दी जगत में सर्वथा सम्मान मिलेगा।
योगेन्द्र प्रताप सिंह
पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दीविभाग
इलाहाबाद, विश्वविद्यालय

प्राक्कथन

गद्य की प्रचुरता आधुनिक हिन्दी-साहित्य की महती विशेषता है और कदाचित् इसीलिए हिन्दी का आधुनिक काल गद्य-युग कहलाता है। आधुनिक युग में जिस मात्रा में गद्य-साहित्य निर्मित हुआ है उतना पद्य में नहीं। सर्वसाधारण के लिये लिखे गये साहित्य का जन-साधारण के विचार-विनिमय की भाषा गद्य में लिखा जाना स्वाभाविक भी था। आज का युग विज्ञान और बुद्धि का है। वैज्ञानिक आविष्कारों-प्रेस आदि के बाहुल्य के कारण गद्य के माध्यम से जन-साधारण तक विचारों का पहुँचना सुफल हो गया है। आज कल्पना और भावुकता का स्थान बुद्धि और तर्क ने ले लिया है। परिणामत: गद्य का अधिकाधिक प्रचार हुआ।

आधुनिक युग से पूर्व गद्य लिखने की परिपाटी का विशेष प्रचलन नहीं था, किन्तु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं कि इस युग से पूर्व हमारे देश में गद्य का अभाव था। सच तो यह है कि गद्य का अपेक्षित प्रचार तब संभव है, जब कि युग समृद्ध और सामंजस्यपूर्ण हो और उसमें पूरा-पूरा सांस्कृतिक जागरण तथा अभ्युत्थान हो चुका हो। जैसे-जैसे सभ्यता का उन्नयन होगा, कविता का ह्रास होगा। भारतीय इतिहास के मध्ययुग में हमारे सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन की एकता छिन्न-भिन्न हो चुकी थी। इसके अतिरिक्त जिस समय आधुनिक भारतीय भाषाएँ अपभ्रंशों से विकसित हो रही थीं उस समय साहित्य निर्माण की परम्परा पद्य में प्रचलित थी। यही कारण है कि हिन्दी साहित्य में गद्य का प्रचार अपेक्षाकृत पद्य के बहुत बाद में, जब राष्ट्रीय जीवन में सांस्कृतिक एकता की भावना का उदय हुआ, सम्पन्न हो सका।

गद्य साहित्य के बाद में आविर्भूत होने के अनेक कारण हैं। यह एक बड़े आश्चर्य का विषय है कि मनुष्य जीवन भर दैनिक कार्य-कलाप में गद्य का व्यवहार करता है किन्तु विश्व साहित्य में गद्य की अपेक्षा पद्य का प्रादुर्भाव पहले होता है। इसका कारण कदाचित् मानव के हृदय में भावनात्मक पक्ष का प्राबल्य है। इसके अतिरिक्त मानव में सौन्दर्य-प्रेम की प्रवृत्ति सनातन और चिरन्तन है। यह एक सर्वसम्मत तथ्य है कि भावनाओं की सुन्दर अभिव्यक्ति जितनी पद्य में संभव है उतनी गद्य में नहीं।

आधुनिक काल में छायावाद के आते-आते गद्य का प्रचार एवं प्रसार हो चुका था। छायावादी कवियों ने पद्य के साथ-साथ गद्य में भी रचनाएँ कीं। छायावाद का गद्य प्रौढ़-प्रांजल तथा प्रवाहपूर्ण था। प्रसाद, निराला, पंत तथा महादेवी वर्मा की गद्य-रचनाओं ने शिल्प तथा कथ्य की दृष्टि से युगान्तकारी परिवर्तन किया। इन छायावादी स्तम्भों के गद्य में कवित्व की झलक सर्वत्र परिलक्षित होती है। परिणामस्वरूप उनके गद्य साहित्य पर पी-एच.डी. की उपाधि के लिये शोध प्रबन्ध प्रस्तुत किये गये। निराला सर्वतोमुखी प्रतिभा के धनी थे। काव्य के अतिरिक्त गद्य की अनेक विधाओं पर उन्होंने लिखा, जिनमें कहानी, उपन्यास, संस्मरण, रेखाचित्र, निबन्ध, पत्रकारिता तथा आलोचना आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

संस्कृत में कहा गया है कि ‘‘गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति’’ अर्थात् गद्य ही कवियों की कसौटी है। उत्कृष्ट गद्य लिखने के कारण ही ‘‘वाणीच्छिष्टं जगतसर्वम्’’ कहा गया। छायावाद के चारों स्तम्भों के गद्य पर तो कार्य हुए परन्तु प्रत्येक की गद्य के ऊपर उत्कृष्ट कार्य देखने में नहीं आया। डॉ. सूर्य प्रसाद दीक्षित ने चारों के गद्य पर कार्य किया। डॉ. शीला व्यास ने भी उनके गद्य पर कार्य किया। श्रीमती प्रमिला ने भी कार्य किया है। प्रत्येक का गद्य इतना विशाल एवं उत्कृष्ट है कि उनपर अलग से कार्य करने की महती आवश्यकता का अनुभव किया जा रहा था। मैंने एम.ए. में निराला के पद्य के साथ-साथ गद्य का भी अध्ययन किया। उनकी ‘‘राम की शक्तिपूजा’’ काव्य के रूप में मेरुदण्ड है। साथ ही उनकी गद्य कृतियों से भी मैं प्रभावित हुआ। अत: मैंने उसी समय निर्णय लिया कि मैं निराला के गद्य साहित्य पर ही पी. एच. डी. की उपाधि के लिए शोध प्रबन्ध लिखूँगा। एम. ए. के उपरान्त मैं शीघ्र ही कार्य न कर सका क्योंकि ‘‘नाना कार्य कलाप की विविधता होती गयी’’ पुन: जब कार्य प्रारंभ किया तो निराला के विशाल गद्य साहित्य को समझने की क्षमता का अभाव प्रतीत होने लगा। गद्य की प्रांजलता के साथ-साथ उनकी लाक्षणिकता समझ में नहीं आती थी। मेरी आशा-निराशा रूप में परिणत होने लगी। उसी समय मुझे महाकवि कालिदास का स्मरण हो आया। रघुवंश महाकाव्य लिखने से पूर्व उन्होंने कहा-‘‘क्व सूर्यवंशी प्रभव: क्वचाल्प विषयाभलि: तितीर्षु दुस्तंर मोहात् डूडुपेनास्मि।’’ सागरम्।
मैंने महाकवि कालिदास से प्रेरणा ली और कार्य में जुट गया। गद्य की लाक्षणिकता तलस्पर्शी आलोचनात्मक अध्ययन के कारण अभिधा में प्रतीत होने लगी।

प्रस्तुत शोध प्रबन्ध को मैंने आठ अध्यायों में विभाजित किया है-
प्रथम अध्याय में पृष्ठभूमि, द्वितीय में निराला का जीवन-वृत्त, तृतीय में सामाजिक चेतना और युगबोध, चतुर्थ में गद्य विधाओं का वर्गीकरण, पंचम में कथा-साहित्य, षष्ठ में ‘‘कुल्लीभाट तथा बिल्लेसुर बकरिहा, सप्तम में निबन्ध, आलोचना तथा पत्रकारिता तथा अष्टम में उपसंहार वर्णित है।

इस शोध प्रबन्ध के प्रणयन में मैं मौलिकता का तो दावा नहीं कर सकता परन्तु मैंने विषय को नवीन दिशा अवश्य प्रदान की है। निराला के गद्य से संबंधित सभी पक्षों पर विचार किया गया है। उनके गद्य में अनेक पक्ष हैं। प्रत्येक पक्ष पर भी स्वतंत्र रूप में शोध प्रबन्ध लिखने की महती आवश्यकता है। शोध प्रबन्ध के किसी एक पक्ष पर भावी पीढ़ी के शोध-छात्र-छात्राओं को कार्य करना चाहिए। शोध प्रबन्ध में मैंने यत्र-तत्र तथ्यों का पुनराख्यान भी किया है। समस्त शोध प्रबन्ध की भाषा एवं शैली को प्रौढ़, प्रांजल तथा प्रवाहपूर्ण बनाने का भरसक प्रयत्न किया गया है। अत: शोध प्रबन्ध की तीनों बातों मौलिकता, तथ्यों का पुनराख्यान तथा भाषा शैली की प्रांजलता का ध्यान इस शोध प्रबन्ध में रखा गया है।
इस शोध प्रबन्ध के प्रणयन का सारा श्रेय गुरुवर डॉ. लक्ष्मण प्रसाद सिन्हा, डी. लिट्. प्रोफेसर एवं अध्यक्ष हिन्दी विभाग, मगध विश्वविद्यालय, बोधगया को है। उन्हीं के निर्देशन में यह शोध प्रबन्ध लिखा गया है। जब-जब मेरे सामने कठिनाइयाँ आयीं उनका परिहार गुरुवर ने किया। अत: उनके आशीर्वाद का भी परिणाम है कि यह शोध प्रबन्ध पूर्ण हो सका। मैं उनके प्रति अपनी प्रणति निवेदित करता हूँ। पूज्य माता श्रीमती सरोज सिन्हा ने भी मेरा उत्साहवर्द्धन तो किया ही साथ ही साथ सुझाव भी दिये। उनके प्रति भी मैं नतमस्तक हूँ। डॉ. वंशीधर लाल, डॉ. रामविनोद सिंह, डॉ. गोपीनाथ पाठक तथा डॉ. जनकमणि के प्रति भी मैं अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ जिन्होंने मेरी समय-समय पर बहुमुखी सहायता की। पूज्य पिता श्री जुग्गीलाल जी गुप्त, पूज्या माता श्रीमती राजपति गुप्ता और चाचा श्री सिपाही लाल गुप्त की प्रबल प्रेरणा ने मेरा मनोबल बढ़ाया। उनके प्रति भी मैं अपनी प्रणति निवेदित करता हूँ। जीवनसंगिनी श्रीमती शुकन्तला देवी गुप्ता ने मुझे गृह कार्यों से मुक्त किया और सामग्री सम्हालने में मेरी बहुमुखी सहायता की। अत: वे भी धन्यवाद की पात्रा हैं। इस अवसर पर सुपुत्री वीणा गुप्ता, स्नेहलता गुप्ता, अजय कुमार गुप्त तथा कमल कुमार गुप्त का स्मरण न करूँ तो बात अधूरी ही समझी जायेगी। इन सबको धन्यवाद देना अपने को ही धन्यवाद देना है।

इस शोध प्रबन्ध के संदर्भ में मुझे पुस्तकालयाध्यक्ष, मगध विश्वविद्यालय, बोधगया, पुस्तकालयाध्यक्ष हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, पुस्तकालयाध्यक्ष काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, पुस्तकालयाध्यक्ष, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी तथा पुस्तकालयाध्यक्ष राष्ट्रीय पुस्तकालय कलकत्ता के प्रति भी मैं अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ जिन्होंने मुझे अपने पुस्तकालयों से पुस्तकें देने का कष्ट किया।
इस शोध प्रबन्ध के प्रणयन मैं मैंने अनेक लेखकों, आलोचकों तथा प्रकाशकों की कृतियों से प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से सहायता ली है। मैं उन सबके प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। साथ ही श्री सरोज कुमार ‘‘पंकज’’ जो इस शोध-प्रबन्ध का टंकण रूप देकर मुझे समय पर प्रदान किये हैं, धन्यवाद के पात्र हैं।
अंत में:-आपरितोषात् विदुषां न साधुमन्ये प्रयोग विज्ञानम्....कालिदास
........शोधार्थी

प्रथम अध्याय
विषयावतरण

प्रस्तुत विषय से संबंधित सम्पन्न अनुसंधान

निराला के गद्य-साहित्य पर अधिक आलोचनात्मक सामग्री उपलब्ध नहीं है और जितनी उपलब्ध है वह भी गुण और परिमाण की दृष्टि से संतोषप्रद नहीं कही जा सकती। जहाँ उनके व्यक्तित्व पर गंगाप्रसाद पाण्डेय की ‘‘महाप्राण निराला’’ और डॉ. रामविलास शर्मा की ‘‘निराला की साहित्य-साधना’’ शीर्षक कृतियाँ उल्लेखनीय हैं तथा कवि-रूप पर नन्ददुलारे वाजपेयी की ‘‘कवि निराला’’ डॉ. भगीरथ मिश्र की ‘‘निराला-काव्य का अध्ययन’’, धनंजय वर्मा की ‘‘निराला: काव्य और व्यक्तित्व’’ आदि कृतियाँ उपलब्ध हैं, वहाँ उनकी गद्य-रचनाओं का मूल्यांकन निम्नलिखित कृतियों में हुआ है:
1. निराला का कथा-साहित्य-डॉ.कुसुम वार्ष्णेय।
2. निराला का गद्य-साहित्य-प्रमिला बिल्ला।
3. निराला का गद्य-डॉ. सूर्यप्रसाद दीक्षित।
4. निराला का गद्य-साहित्य (अप्रकाशित शोध-प्रबन्ध)-डॉ. प्रेमप्रकाश भट्ट।
5. निराला1 डॉ. रामविलास शर्मा।
6. निराला का साहित्य और साधना2-डॉ.विश्वम्भरनाथ उपाध्याय।
1.देखिए ‘‘निराला’’, डॉ. रामविलास शर्मा, पृ.-68-80, 125-153
2.देखिए ‘‘निराला का साहित्य और साधना’’, डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय, पृ.229-308

इनके अतिरिक्त हिन्दी गद्य-विषयक कतिपय कृतियों में भी निराला के गद्य-साहित्य का प्रासंगिक विवेचन प्राप्त होता है। इस दृष्टि से ये ग्रंथ उल्लेखनीय हैं-‘‘हिन्दी-कथा-साहित्य’’ (गंगा प्रसाद पाण्डेय), ‘‘हिन्दी-उपन्यास’’ (शिवनारायण श्रीवास्तव), ‘‘हिन्दी उपन्यास में कथा-शिल्प का विकास’’ (डॉ. प्रतापनारायण टंडन), ‘‘हिन्दी का गद्य साहित्य’’ (डॉ. रामचन्द्र तिवारी) आदि। निराला के गद्य से सम्बद्ध कुछ महत्वपूर्ण लेख भी प्रकाशित हुए हैं। यथा:-
1. निराला के गद्य-ग्रंथ-डॉ. भोलानाथ।
2. निबन्धकार निराल-डॉ. सरला शुक्ल।
3. श्री निराला का ‘‘अप्सरा’’-डॉ.विनयमोहन शर्मा।
4. निराला का कथा-साहित्य-डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय।

उपर्युक्त आलोचनात्मक कृतियों और लेखों की अपनी सीमाएँ हैं। इनमें से किसी में भी निराला के गद्य-साहित्य की सर्वांगीण समीक्षा नहीं की गयी है। डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय और प्रमिला बिल्ला की पुस्तकों में निराला की कहानियों, उपन्यासों, रेखाचित्रों और निबन्ध-साहित्य का विवेचन तो है, किन्तु उनके विवेचन में अपेक्षित विस्तार अथवा गहराई का अभाव है। डॉ. सूर्यप्रसाद दीक्षित ने निराला के गद्य-साहित्य तथा स्फुट गद्य रचनाओं (महाभारत, रामायण की अन्तर्कथाएँ, पत्र, भूमिकाएँ आदि) को अपनी कृति में समाहित नहीं किया है। डॉ. रामविलास शर्मा और डॉ. कुसुम वार्ष्णेय ने केवल निराला के कथा-साहित्य का विवेचन किया है। डॉ. भोलानाथ प्रभृति समीक्षकों के निबंधों में निराला के गद्य की किसी एक विधा के विवेचन से उनकी एकांगिता स्पष्ट है। उपर्युक्त कृतियों में एक अन्य अभाव यह है कि प्राय: निराला के गद्य में किसी एक रूप को लेने पर भी उसका सर्वांगपूर्ण विवेचन नहीं हुआ है। उदाहरणतया-प्रमिला बिल्ला की पुस्तक में निराला की कथात्मक रचनाओं की कथावस्तु के विवेचन को जितना विस्तार दिया गया है उतना पात्रों के मनोवैज्ञानिक चरित्र-चित्रण, तत्कालीन परिस्थितियों के अंकन आदि को महत्व नहीं मिला है। डॉ. प्रेमप्रकाश भट्ट कृत ‘‘निराला का गद्य-साहित्य’’ कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से पी. एच. डी. की उपाधि के लिए स्वीकृत अप्रकाशित शोध-प्रबन्ध है, फलस्वरूप जहाँ उपर्युक्त आलोचनात्मक सामग्री की तुलना में उन्होंने अधिक व्यापकता और गम्भीरता का परिचय दिया है वहाँ उनके प्रबन्ध की कुछ सीमाएँ भी हैं। उदाहरणस्वरूप उन्होंने अपने प्रबन्ध में निराला की निम्नलिखित कृतियों का उल्लेख नहीं किया है-चयन, भक्त ध्रुव, भीष्म, महाराणा प्रताप, भक्त प्रह्लाद, महाभारत, अनूदित रचनाएँ, ‘‘मतवाला’’ में प्रकाशित आलोचनात्मक सामग्री। इस प्रकार उनके अध्ययन को भी सर्वांगीण विकास नहीं कहा जा सकता। अत: यह स्पष्ट है कि निराला के समग्र गद्य-साहित्य के प्रामाणिक विवेचन की आवश्यकता अभी बनी हुई है।

प्रस्तुत शोध की उपयोगिता एवं आवश्यकता

निराला का बहुत-सा साहित्य अभी तक हिन्दी-पाठकों के लिए अपरिचित है। उदाहरणस्वरूप उन्होंने भक्त ध्रुव, भीष्म आदि जीवनियों की रचना की थी जिनका विवेचन प्रस्तुत प्रबन्ध में पहली बार किया जा रहा है। इसी प्रकार पत्र-पत्रिकाओं में निराला द्वारा लिखित पुस्तक-समीक्षाओं, ‘‘मतवाला’’ में ‘‘गरगज सिंह वर्मा साहित्य-शार्दूल’’ के उपनाम से लिखित आलोचनात्मक सामग्री, ‘‘चमेली’’ और ‘‘इन्दुलेखा’’ शीर्षक अपूर्ण उपन्यासों, पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित पत्र-साहित्य, निराला की गद्य-पद्य कृतियों के आरंभ में दी गयी भूमिकाओं, ‘‘महाभारत’’ और ‘‘रामायण’’ की अंतर्कथाओं के विवेचन की ओर भी इसके पूर्व ध्यान नहीं दिया गया था-डॉ. कुसुम वार्ष्णेय की कृति में ‘‘चमेली’’ उपन्यास का परिचयात्मक उल्लेख मात्र है।

निराला ने पद्य-रचना के साथ-साथ गद्य-क्षेत्र में भी उच्चकोटि की प्रतिभा का परिचय दिया है। किसी भी साहित्यकार द्वारा प्रणीत विविध विधाओं के रसमय साहित्य में प्रायः विचारधारा और रचना-शैली संबंधी एकता विद्यमान रहती है। निराला का साहित्य भी इसका अपवाद नहीं है। अतः उनके साहित्य के प्रेरक तत्त्वों और उसमें अंतमुक्त मूलभूत प्रवृत्तियों के अनुसंधान के लिए उनके गद्य-साहित्य और काव्य-कृतियों दोनों की ही विस्तृत समीक्षा अपेक्षित है। निराला की अधिकांश काव्य-कृतियों का आलोचकों द्वारा गुण और परिमाण की दृष्टि से मूल्यांकन हो चुका है, किन्तु उनके गद्य-साहित्य के मर्म का उद्घाटन अभी शेष है। यद्यपि निराला की गद्य-रचनाएँ परिमाण में काव्य कृतियों से कम नहीं हैं, किन्तु अभी तक इस दिशा में सम्यक् और सर्वांगपूर्ण समीक्षा नहीं हुई है। ‘‘अप्सरा’’ ‘‘अलका’’, ‘‘कुल्लीभाट’’, ‘‘पन्त और पल्लव’’, ‘‘चतुरी चमार’’ आदि उनकी कतिपय प्रसिद्ध कृतियों पर संक्षिप्त आलोचनात्मक लेख अथवा टिप्पणियाँ यत्र-तत्र उपलब्ध हो जाती हैं, किन्तु इस दिशा में हुए कार्य को संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। प्रस्तुत प्रबन्ध में निराला के सम्पूर्ण गद्य-साहित्य की समीक्षा की जायेगी जिससे यह भी होगा कि निराला के काव्य और गद्य में साम्य और वैषम्य की खोज की जा सकेगी और उनकी विविधरूपिणी प्रतिभा का उचित मूल्यांकन सम्भव हो सकेगा।

छायावाद युग में साहित्य की गद्य और पद्य संज्ञक दोनों विधाओं में प्रतिभाशाली साहित्यकारों द्वारा प्रभूत मात्रा में सर्जनात्मक साहित्य की रचना की गयी। किन्तु काव्य की आधारभूमि पर ही प्रस्तुत युग का नाम ‘‘छायावाद युग’’ पड़ने के कारण आलोचकों की दृष्टि मुख्यतया साहित्यकारों के कवि-रूप पर ही केन्द्रित रही। इसलिए निराला की काव्य-कृतियों की ही विस्तृत और सूक्ष्म समीक्षा उपलब्ध होती है। किन्तु गद्य के क्रमिक विकास में अन्य छायावादी कवियों की भाँति निराला का योगदान भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। प्रस्तुत प्रबन्ध का लक्ष्य उनके गद्य-साहित्य के माध्यम से छायावाद युग के गद्य-साहित्य को प्रकाश में लाना है। इसीलिए उनकी गद्य-रचनाओं की समीक्षा के सन्दर्भ में हमने छायावाद युग की अन्य रचनाओं को भी दृष्टिपथ में रखा है। छायावाद युग की भाव-समृद्ध और शैलीगत प्रयोगों के सही बोध के लिए छायावादी कवियों की गद्य-रचनाओं का विवेचन निश्चय ही उपयोगी सिद्ध होगा, क्योंकि गद्य के विकास में इन कवियों का योगदान प्रकरान्तर से छायावाद के स्वरूप-निर्धारण का ही अंग विशेष है।

प्रस्तुत प्रबन्ध का लक्ष्य निराला के गद्य-साहित्य की अनुसंधानपरक समीक्षा करना है। किन्तु गद्य-साहित्य के विवेचन से पूर्व हमने निराला के व्यक्तित्व का उद्घाटन आवश्यक समझा है। वस्तुतः निराला के व्यक्तित्व पर उनकी पारिवारिक परिस्थितियों और पर उनकी पारिवारिक परिस्थितियों और समकालीन सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक वातावरण की गहरी छाप थी। युवा पत्नी और पत्री की अकाल मौत ने यदि उनमें संवेदनशीलता भर दी तो भारतीयों पर अंग्रेजों के अत्याचार, सामाजिक रूढ़ियों, प्रकाशकों के दुर्व्यवहार, आर्थिक विपन्नता के कटु अनुभवों आदि ने भी उन्हें यथार्थवादी बनाने में भारी योग दिया। परिवर्तित होती हुई परिस्थितियों के साथ अब जब निराला के व्यक्तित्व और विचारधारा में उपरिवर्तन हुआ तो उनका साहित्य भी इनके प्रभाव से अछूता नहीं रह सका। उदाहरणस्वरूप उनकी आरंभिक रचनाओं में जहाँ कल्पना और प्रेम का आधिक्य है, वहाँ बाद की रचनाओं में यथार्थ की कटुता का तीखापन द्रष्टव्य है। साहित्य और जीवन के इस अटूट संबंध को लक्षित करके ही हमने प्रस्तुत प्रंबध के प्रथम अध्याय को निराला के व्यक्तित्व पूर्ण से संबंधित रखा है।
छायावाद युग रूढ़ियों के प्रतिरोध और नवीन दिशाओं की स्वस्थ अभिव्यक्ति का युग था। निराला इस दिशा में सर्वाधिक रुचि रखने वाले अग्रगण्य साहित्यकारों में से थे, अतः उनके साहित्य में प्राचीन की अपेक्षा नवीन विचारधारा का अधिक समावेश था। प्रस्तुत प्रबंध में इस सत्य की ओर पूरा ध्यान दिया गया है।

निराला के व्यक्तित्व में गद्य-लेखन के प्रेरक तत्व

निराला का कथाकार कहानी की विधा के अतिरिक्त उपन्यास की विधा में भी सिद्धहस्त रहा। प्रेमचन्द्र और शरत् के प्रभाव को स्वीकार करते हुए किन्तु अपनी मौलिकता को सुरक्षित रखते हुए निराला ने ‘‘अप्सरा’’ और ‘‘अलका’’ नामक उपन्यास-कृतियाँ सन् 1931 और 1932 ई. में समाज को समर्पित की। ‘‘अप्सरा’’ में वेश्या-समस्या पर सुधारवादी दृष्टिकोण से विचार किया गया है तथा ‘‘अलका’’ के द्वारा उपन्यासकार ने ताल्लुकदारों के कुत्सित मनोभावों का पर्दाफाश किया है। निराला के परवर्ती उपन्यास ‘‘चोटी की पकड़’’ में जमींदारों की विलासिता और उनके द्वारा समाज में प्रतिष्ठित अनैतिकता का मनोवैज्ञानिक वर्णन है। निराला द्वारा लिखित ‘‘निरुपमा’’ उपन्यास में सामाजिक यथार्थ के साथ बंगाली भावुकता का समन्वय दिखायी पड़ता है। यह कथा-सौष्ठव की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। ऐतिहासिक उपन्यास ‘‘प्रभावती’’ में निराला ने मध्ययुगीन सामन्ती जीवन का परिचय दिया है।

शैली के धनी कथाकार निराला ने रेखाचित्र की विधा में हिन्दी-जगत् को दो अमूल्य रत्न भेंट किये हैं-‘‘बिल्लेसुर बकरिहा’’ तथा ‘‘कुल्ली भाट्ट’’। रेखाचित्र, कथा-शिल्पी निराला की सूक्ष्म दृष्टि और कुशल लेखनी के परिचायक हैं। ‘‘चतुरी चमार’’ शीर्षक रेखाचित्र को कहानी-संग्रहों के बीच स्थान दिया गया है। किन्तु विधा की दृष्टि से ‘‘चतुरी चमार’’ भी एक सफल रेखाचित्र ही है। निराला जी के बालपयोगी कथा-साहित्य का भी महत्व कम नहीं है। सफल चरित्र लेखक के रूप में उन्होंने ‘‘ध्रुव’’, ‘‘प्रह्लाद’’ और ‘‘महाराणा प्रताप’’ का जीवनचरित लिखकर जीवनचरित्र की विधा को सम्पुष्ट किया है। इस प्रकार निश्चय ही निराला हिन्दी-कथा साहित्य के अप्रतिस्पर्द्धी योद्धा कथाकार थे।
निराला के साहित्यकार को उनके जीवन की परिस्थितियों ने गढ़ा था। उनका गृह परिवेश, उनका पारिवारिक जीवन, उनकी सामाजिक चेतना आदि ने उनकी प्रतिभा को सँवारा था। संघर्षों में रत रहकर आगे बढ़नेवाला महाप्राण निराला अपने जीवन की अनुभूतियों को गद्य और पद्य की विधाओं में व्यक्त करता रहा। उनके कथा-साहित्य में उनके जीवन की विभिन्न झाँकियाँ प्राप्त होती हैं। साहित्य सम्राट तुलसीदास उदरपूर्ति के लिए ‘‘बारे से ललात बिललात द्वार द्वारे दीन की भाँति दर दर घूमे।’’ साहित्य-स्रष्टा निराला की भी जीवन भर यही दशा रही।

‘‘देवी’’ नामक कहानी में निराला ने अपने संबंध में विचार व्यक्त किया है-‘‘मुझे बराबर पेट के लाले रहे पर फाकेमस्ती में भी मैं परियों के ख्वाब देखता रहा।’’ अपनी स्थिति का तथा अन्य साहित्यकारों की वैभवशीलता का परिचय उन्होंने इस कहानी के माध्यम से दिया। ‘कुल्ली भाट्ट’’ में उन्होंने आजादी-पसंद व्यक्तित्व का भी परिचय दिया है। गाँव के ताल्लुकेदार पं. भगवानदीन दुबे की पतुरिया के यहाँ भी जनेऊ के बाद खान-पान रखने वाले निराला का व्यक्तित्व ‘‘कुल्लीभाट’’ के द्वारा ही पाठकों के समक्ष उजागर हुआ। उनके पिता के स्वभाव का भी परिचय इसके माध्यम से पाठकों को मिला। इसी रेखाचित्र के मध्य निराला के सम्पूर्ण जीवन की झाँकी प्राप्त हो गयी है। ससुराल में पत्नी और सासुजी के बीच उनकी उपस्थिति, कुल्ली से उनका साथ और कुल्ली के देहावसान पर उनके एकादशाह के अवसर पर निराला की भूमिका का परिचय ‘‘कुल्लीभाट’’ शीर्षक पुस्तक में मिलता है।

मनोहरा देवी के भजन और ज्ञान से प्रभावित होकर निराला का हिन्दी के प्रति अनुराग उमड़ा। इन्फ्लुएंजा की विभीषिका में उनके परिवार के अनेक सदस्य काल-कवलित हुए। भतीजों को लेकर वे कर्मपथ के पथिक बने। इन सभी स्थितियों का कथन उन्होंने ‘‘कुल्ली भाट’’ में किया है।
उनकी कहानियों में ‘‘राजा साहब को ठेंगा दिखाया’’, ‘‘हिरनी’’ आदि कहानियाँ, महिषादल स्टेट में राजा साहब के यहाँ के अनुभव को प्रकाशित करने में सफल रही है। सुकुल की बीबी में निराला जी की मैत्री-भावना, परोपकार-वृत्ति तथा प्रगतिशील दृष्टि का दर्शन होता है। ‘‘कला की रूपरेखा’’, ‘‘स्वामी सारदानन्दजी महाराज और मैं’’ आदि कहानियों के अध्ययन से निराला के व्यक्तित्व-सामाजिक और आध्यात्मिक-का सुन्दर परिचय प्राप्त होता है। निराला जी की उपन्यास-कृतियों में प्रत्यक्षत: निराला का चरित्र उद्भासित नहीं है, किन्तु उनकी विचारधारा को प्रकट करने वाले अनेक पात्र उपस्थित हैं।

निराला ने समाज के क्षणों में जी कर भोगे हुए सत्य को अपने कथा-साहित्य के पटल पर उपस्थित किया है। उनके अनुभव और उनकी कल्पना का ताना-बाना लेकर उनके साहित्य का पट बुना गया है। कथा-शिल्पी निराला का सम्पूर्ण जीवन निर्धनता, संघर्ष और अत्याचार को झेलते हुए बीता था, अत: उनकी स्वाभाविक सहानुभूति दलितों, शोषितों और ग्रामीणों के प्रति थी। उदारचेता निराला ने मनुष्य को इसीलिए मनुष्य-रूप में पहचाना था और इसके अवगुणों के बावजूद भी उसके महत् व्यक्तित्व को प्रकाशित करने का प्रयास किया था। उनके कथा-साहित्य के पात्र भले ही दरिद्र समाज द्वारा पतित तथा उपेक्षित वर्ग के रहे हैं, किन्तु उनमें अपूर्व जीवन्त शक्ति थी। निराला के संघर्षशील व्यक्तित्व की छाप उनके आदर्श चरित्रों पर पड़ी है। उनकी प्रतिभा को ऐसे ही जीवन्त व्यक्तियों ने प्रभावित किया था। इनके अतिरिक्त जिन लोगों से वे प्रभावित हुए, वे थे साहित्यिक, आध्यात्मिक प्रतिभा के धनी महापुरुष।

निराला जी की साहित्यिक चेतना को प्रभावित करने वाले साहित्यकारों में गोस्वामी तुलसीदासजी का सर्वोपरि स्थान है। अपनी पत्नी मनोहरा देवी द्वारा प्रस्तुत भजन ‘‘श्रीरामचन्द्र कृपालु भजु मन’’ से निराला प्रभावित हुए। तुलसी का काव्य-कला और उनका अद्वैत दर्शन निराला के लिए आदर्श रूप सिद्ध हुआ तथा उनके अध्यात्म का चिन्तन करते हुए वे अपनी जीवन-यात्रा में गतिमान बने रहे। कवीन्द्र रवीन्द्र को निराला ने अपनी श्रद्धा अर्पित की। उनके कवित्व से वे प्रभावित रहे किन्तु ब्रह्मसमाज के प्रति रवि बाबू की आस्था से निराला सहमत न हो सके। उन्होंने यथावसर व्यंग्यात्मक टिप्पणियाँ कीं। साहित्यकारों में अन्य जिन व्यक्तियों से निराला जी प्रभावित हुए उनमें मैथिलीशरण गुप्त और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी अपने युग के प्रगतिशील समाज-सुधारक थे, अत: प्रगतिशील विचारों के पोषक निराला को उन्होंने आकृष्ट किया।

आध्यात्मिक दृष्टि से निराला जी पर स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द और स्वामी प्रेमानन्दजी का अत्यधिक प्रभाव था। इन महापुरुषों की दार्शनिकता से पृरभावितक निराला का व्यक्तित्व अध्यात्म और दर्शन की दृष्टि से महिमा-मण्डित हो उठा था। उन्होंने अपने कथा-साहित्य तथा अन्य गद्य-साहित्यों में इन महानुभावों से प्राप्त दार्शनिक तत्व को प्रतिष्ठित किया है।

निराला जी पर अन्य जिन लोगों का प्रभाव पड़ा, उनमें प्रमुख थे, ‘‘बालकृष्ण प्रेस’’ के व्यवस्थापक श्री महादेवप्रसाद सेठ। उनकी तथा मुंखी नवजादिकलाल की प्रेरणा से निराला जी को नयी दिशा प्राप्त हुई। ‘‘मतवाला’’ का प्रकाशन आरंभ किया गया तथा विभिन्न छद्मनामों से निराला ने साहित्य की श्री वृद्धि की। ‘‘मतवाला’’ के ही अनुकरण पर सूर्यकान्त त्रिपाठी को ‘‘निराला’’ उपनाम प्राप्त हुआ और यह नाम साहित्य-जगत् के लिए श्रद्धेय हो उठा।

अध्यात्म, साहित्य और दर्शन-क्षेत्र में जिन लोगों से निराला प्रभावित हुए, उनकी विचारधाराओं का प्रतिफलन निराला कथा-साहित्य में हुआ है, किन्तु परिवेश, परिवार और समाज के जीवन्त व्यक्तित्व ने निराला के कथाकार को अधिक प्रेरित किया है। यही कारण है कि उनके कथा साहित्य में समाज का यथार्थ अधिक मुखर है।
वेदान्त से प्रभावित निराला ने ब्रह्मतत्व रूप मानते थे तथा ब्रह्म में लीन होने के लिए शक्ति की सीमा को पार करना आवश्यक समझते थे। मानव जीवन के विकास के लिए मनुष्य की बाहरी और भीतरी प्रकृति का शाश्वत संघर्ष चलता रहता है, इस विश्वास के साथ संघर्ष में विकास का दर्शन निराला ने किया है।

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