योग >> योगदर्शन योगदर्शनस्वामी रामदेवजी
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इस पुस्तक में योग विद्या का वर्णन किया गया है.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
महर्षि पतंजलि अध्यात्मिक विद्या के रहस्यमय महापुरुष हैं। वे देखने में
विरोधाभासी परन्तु परम विवेकी, पूर्ण वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाले साथ
में ही प्रेम एवं सर्मपण का भी पाठ पढ़ाने वाले हैं। वे साधना के पथ पर
संघर्ष एवं समर्पण को, प्रार्थना एवं पुरुषार्थ को बराबर महत्त्व देते
हैं। वे कहते हैं मन से पार जाने के लिए अर्थात् वृत्तिनिरोध के लिए
अभ्यास एवं वैराग्य की आवश्यकता है,
‘योगाश्चित्तवृत्तिनिरोध:’,
‘अभ्यास-वैराग्याभ्यां तन्निरोध:’। महर्षि पतंजलि
कहते हैं योगत्व को पाने के लिए, स्वरूपोंपलब्धि के लिए ‘स तु
दीर्घकाल-नैरन्तर्य सत्कारासेवितो दृढ़भूमिः’ लम्बे समय तक
निरन्तर श्रद्धापूर्वक यात्रा करनी पड़ेगी, तभी साधना का लक्ष्य तुम पा
सकोगे। अगले ही क्षण वे कह उठते हैं कि आत्मदर्शन के लिए समय की अपेक्षा
समर्पण अधिक महत्त्वपूर्ण है, वे कहते हैं ‘ईश्वरप्राणिधानाद्
वा’ ‘तीव्रसंवेगनामासन्न:’ जिस दिन
तुम्हारे भीतर समर्पण अधिक होगा, जितना तीव्र संकल्प होगा, लक्ष्य के
प्रति भूख जितनी प्रबल होगी, जितना गहरा प्रेम व मुमुक्षत्व होगा, जितनी
आस्था बलवती होगी, उतना ही शीघ्र तुम स्वरूप को उपलब्ध हो जाओगे। महर्षि
पतंजलि की संपूर्ण साधना इस सत्य पर केन्द्रित है कि तुम्हारे ही भीतर सब
कुछ है, वेद, शास्त्र, ज्ञान, भगवान् आनन्द व शान्ति के तुम स्वयं केन्द्र
हो। महर्षि पतंजलि का योग मन से पार प्रारब्ध होता है। उच्छिष्ट के संवाहक
नहीं, वे परम्पराओं के निर्वाहक नहीं, वे विध्वंसक हैं, वे तुम्हारे
आग्रहों को तोड़ते हैं, वे तुम्हें सब कुछ छोड़ने के लिए प्रेरित करते हैं।
वे कहते हैं ‘प्रमाणविपयर्यविकल्पनिद्रास्मृतय:’ प्रमाण, विपयर्य, निद्रा व स्मृति से उपर उठो। व्यक्ति जीता है प्रमाणों में, उसे प्रमाण चाहिए वेदों का, शास्त्रों का, उपनिषदों का, कुरान, पुराण, गीता व बाइबल के प्रमाण के बिना वह किसी सत्य को, धर्म मानने के लिए तैयार नहीं होता। मनुष्य आँखों से देखकर, कानों से सुनकर या अनुमान आदि प्रमाणों को ही ज्ञान का, जीवन का केन्द्र मानकर बैठ गया है। इससे आगे वह सोचने के लिए तैयार नहीं है। महर्षि पतंजलि कहते हैं कि तुम सब प्रमाणों को छोड़कर आगे बढ़ जाओ। जब तक तुम आत्म शास्त्र को नहीं पढ़ोगे, ये बाहर के शास्त्र तुम्हें भ्रमित करेंगे, तुम लड़ोगे, शास्त्रों में संघर्ष करोगे। विघटन होगा केवल बाहर के शास्त्रों से। अब तुम स्वयं से परिचित हो जाओ।
तुम शास्त्रों के केन्द्र तक पहुँचो, जहाँ से वेद, शास्त्र, गीता, कुरान व बाइबल का ज्ञान पैदा हुआ। तुम उस चेतना में प्रवेश करो, फिर तुम्हारे लिए शास्त्र संवाद के क्षेत्र होंगे, विवाद के नहीं। वे व्यक्ति अहंकार को तोड़ते हैं, वे मृत्यु के साथ नव जीवन देते हैं, वे कहते हैं तुम प्राण से आगे बढ़ो। विपर्यय अर्थात् मिथ्याज्ञान का बोझ न ढोवो, तुम विकल्प अर्थात् कल्पनाओं में जीना छोड़ो, तुम निद्रा की तन्द्रा को भी तोड़ो। आज तक तुम्हारे जीवन में जो कुछ घटित हुआ, वह अतीत की बात हो चुकी है। तुम वहाँ मत पड़े रहो, तुम्हें वर्तमान में प्रवेश करना है। वर्त्तमान जीवन्तता है, चैतन्यता है, सत्य है। अतः इन वृत्तियों में ही न उलझो, जीवन को वर्त्तमान में खोजो। वे अतीत व अनागत के बीच तुम्हें अपने चेतन केन्द्र या अस्तित्व से जुड़ने के लिए प्रेरित करते हैं। वे तुम्हें स्वावलम्बी बनाते हैं। महर्षि पतंजलि तुम्हें बैसाखियाँ छोड़, आत्म निर्भर बनने के लिए प्रेरित करते हैं। शास्त्र, गुरु, परम्परा, माला, तिलक, मन्दिर, मस्जिद, मठ, गुरुद्वारा, गिरजाघर, ये सब बैसाखियाँ हैं, महर्षि पतंजलि तुम्हें एक सच्चा धार्मिक और आस्तिक बनाते हैं, परन्तु वे कोई अभिनय नहीं करते, वे कहते हैं धर्म के केन्द्र तुम स्वयं हो। वे धर्म को प्रतीकों में विभाजित नहीं करते। वे तुम्हें अपनी मंजिल की ओर खुद कदम बढ़ाने के लिए प्रेरित करते हैं। वे कहते हैं ‘तप:-स्वाध्याय-ईश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग:’ निरन्तर सुख-दु:ख, मान-अपमान, शीत, उष्ण, अनुकूलता, प्रतिकूलता, जय-पराजय, में सम रहो। तप करो, आत्म चिन्तन करो। तप, संघर्ष, पुरुषार्थ, व कर्त्तव्य का निर्वहन करते हुए तुम आत्मबोध की राह पर आगे बढ़ो, साथ ही भगवान् के प्रति गहरा समर्पण रखो। इस पूरी प्रक्रिया से तुम्हारे मन के मल धुल जायेंगे, क्लेश क्षीण हो जायेंगे।
महर्षि पतंजलि किसी मूर्ति या प्रतिमा के दर्शन को ध्यान नहीं कहते, वे कहते हैं क्लेशों की पूर्ण परिसमाप्ति, यही है ईश्वर की प्राप्ति। ‘समाधिभावनार्थ: क्लेशतनूकरणार्थश्च’ अविद्या-अस्मिता-राग-द्वेष अभिनिवेशा: पंच क्लेशा:’ महर्षि कहते हैं क्रियायोग का लक्ष्य है समाधि अर्थात् संबोधि, स्वरूपोलब्धि तथा क्लेशों की परिसमाप्ति। इसी चित्त की अशुद्धि को दूर करने के लिए वे अष्टांग योग का उपदेश देते हैं, वे कहते हैं ‘योगांगानुष्ठानाद् अशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्ति: आ विवेकख्याते:’। महर्षि पतंजलि यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि स्वरूप वाले अष्टांग योग का वर्णन करते हुए कहते हैं- ‘अहिंसासत्यास्तेय-ब्रह्मचर्यापरिग्रहा: यमा:’ ‘शौचसन्तोषतप:- स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमा:’ ‘देश-काल-समयानवछिन्ना: सार्वभौमा: महाव्रतम्’ अहिंसा, सत्य आदि सार्वभौम महाव्रत हैं। इनके पालन के बिना आत्मिक एवं वैश्विक शान्ति असम्भव है।
‘एकं सद् विप्रा: बहुधा वदन्ति’ महर्षि पतंजलि का योग की समस्त प्रक्रियाओं एवं विधाओं के पीछे एक ही मुख्य उद्देश्य है कि अंधेरा व अशुद्धि मिटनी चाहिए। संयम, भ्रम, आग्रह टूटने चाहिए। बस फिर तुम्हें कहीं जाने की आवश्यकता नहीं, सब समाधान तुम्हारे पास हैं। वे धारणा, ध्यान व समाधि के एकत्रीकरण से संयम करके सिद्धियों की उपलब्धि की बात करते हैं। ‘त्रयमेकत्र संयम:’ ‘तज्जयात् प्रज्ञालोक:’, ‘तस्य भूमिषु विनियोग:’ संयम के द्वारा वे अतीत-अनागत के ज्ञान की विधि बताते हैं, वे अन्तर्धान होने का उपाय समझाते हैं, वे आकाशगमन, परकाया प्रवेश की प्रक्रिया भी सिखाते हैं, वे अणिमा, लघिमा, गरिमा आदि सिद्धियाँ भी प्राप्त करवाते हैं। महर्षि पतंजलि शरीर विज्ञान, ब्रह्माण्ड विज्ञान के रहस्यों की पर्तों को भी खोलते हैं वे बिना आलम्बन के जल पर चलना भी सिखाते हैं, वे अग्नि में न जलना भी सिखाते हैं। वे पूर्व जन्म की रहस्यमयी बातों में भी साधकों को निपुणता दिलाते हैं।
वे कहते हैं ‘प्रमाणविपयर्यविकल्पनिद्रास्मृतय:’ प्रमाण, विपयर्य, निद्रा व स्मृति से उपर उठो। व्यक्ति जीता है प्रमाणों में, उसे प्रमाण चाहिए वेदों का, शास्त्रों का, उपनिषदों का, कुरान, पुराण, गीता व बाइबल के प्रमाण के बिना वह किसी सत्य को, धर्म मानने के लिए तैयार नहीं होता। मनुष्य आँखों से देखकर, कानों से सुनकर या अनुमान आदि प्रमाणों को ही ज्ञान का, जीवन का केन्द्र मानकर बैठ गया है। इससे आगे वह सोचने के लिए तैयार नहीं है। महर्षि पतंजलि कहते हैं कि तुम सब प्रमाणों को छोड़कर आगे बढ़ जाओ। जब तक तुम आत्म शास्त्र को नहीं पढ़ोगे, ये बाहर के शास्त्र तुम्हें भ्रमित करेंगे, तुम लड़ोगे, शास्त्रों में संघर्ष करोगे। विघटन होगा केवल बाहर के शास्त्रों से। अब तुम स्वयं से परिचित हो जाओ।
तुम शास्त्रों के केन्द्र तक पहुँचो, जहाँ से वेद, शास्त्र, गीता, कुरान व बाइबल का ज्ञान पैदा हुआ। तुम उस चेतना में प्रवेश करो, फिर तुम्हारे लिए शास्त्र संवाद के क्षेत्र होंगे, विवाद के नहीं। वे व्यक्ति अहंकार को तोड़ते हैं, वे मृत्यु के साथ नव जीवन देते हैं, वे कहते हैं तुम प्राण से आगे बढ़ो। विपर्यय अर्थात् मिथ्याज्ञान का बोझ न ढोवो, तुम विकल्प अर्थात् कल्पनाओं में जीना छोड़ो, तुम निद्रा की तन्द्रा को भी तोड़ो। आज तक तुम्हारे जीवन में जो कुछ घटित हुआ, वह अतीत की बात हो चुकी है। तुम वहाँ मत पड़े रहो, तुम्हें वर्तमान में प्रवेश करना है। वर्त्तमान जीवन्तता है, चैतन्यता है, सत्य है। अतः इन वृत्तियों में ही न उलझो, जीवन को वर्त्तमान में खोजो। वे अतीत व अनागत के बीच तुम्हें अपने चेतन केन्द्र या अस्तित्व से जुड़ने के लिए प्रेरित करते हैं। वे तुम्हें स्वावलम्बी बनाते हैं। महर्षि पतंजलि तुम्हें बैसाखियाँ छोड़, आत्म निर्भर बनने के लिए प्रेरित करते हैं। शास्त्र, गुरु, परम्परा, माला, तिलक, मन्दिर, मस्जिद, मठ, गुरुद्वारा, गिरजाघर, ये सब बैसाखियाँ हैं, महर्षि पतंजलि तुम्हें एक सच्चा धार्मिक और आस्तिक बनाते हैं, परन्तु वे कोई अभिनय नहीं करते, वे कहते हैं धर्म के केन्द्र तुम स्वयं हो। वे धर्म को प्रतीकों में विभाजित नहीं करते। वे तुम्हें अपनी मंजिल की ओर खुद कदम बढ़ाने के लिए प्रेरित करते हैं। वे कहते हैं ‘तप:-स्वाध्याय-ईश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग:’ निरन्तर सुख-दु:ख, मान-अपमान, शीत, उष्ण, अनुकूलता, प्रतिकूलता, जय-पराजय, में सम रहो। तप करो, आत्म चिन्तन करो। तप, संघर्ष, पुरुषार्थ, व कर्त्तव्य का निर्वहन करते हुए तुम आत्मबोध की राह पर आगे बढ़ो, साथ ही भगवान् के प्रति गहरा समर्पण रखो। इस पूरी प्रक्रिया से तुम्हारे मन के मल धुल जायेंगे, क्लेश क्षीण हो जायेंगे।
महर्षि पतंजलि किसी मूर्ति या प्रतिमा के दर्शन को ध्यान नहीं कहते, वे कहते हैं क्लेशों की पूर्ण परिसमाप्ति, यही है ईश्वर की प्राप्ति। ‘समाधिभावनार्थ: क्लेशतनूकरणार्थश्च’ अविद्या-अस्मिता-राग-द्वेष अभिनिवेशा: पंच क्लेशा:’ महर्षि कहते हैं क्रियायोग का लक्ष्य है समाधि अर्थात् संबोधि, स्वरूपोलब्धि तथा क्लेशों की परिसमाप्ति। इसी चित्त की अशुद्धि को दूर करने के लिए वे अष्टांग योग का उपदेश देते हैं, वे कहते हैं ‘योगांगानुष्ठानाद् अशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्ति: आ विवेकख्याते:’। महर्षि पतंजलि यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि स्वरूप वाले अष्टांग योग का वर्णन करते हुए कहते हैं- ‘अहिंसासत्यास्तेय-ब्रह्मचर्यापरिग्रहा: यमा:’ ‘शौचसन्तोषतप:- स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमा:’ ‘देश-काल-समयानवछिन्ना: सार्वभौमा: महाव्रतम्’ अहिंसा, सत्य आदि सार्वभौम महाव्रत हैं। इनके पालन के बिना आत्मिक एवं वैश्विक शान्ति असम्भव है।
‘एकं सद् विप्रा: बहुधा वदन्ति’ महर्षि पतंजलि का योग की समस्त प्रक्रियाओं एवं विधाओं के पीछे एक ही मुख्य उद्देश्य है कि अंधेरा व अशुद्धि मिटनी चाहिए। संयम, भ्रम, आग्रह टूटने चाहिए। बस फिर तुम्हें कहीं जाने की आवश्यकता नहीं, सब समाधान तुम्हारे पास हैं। वे धारणा, ध्यान व समाधि के एकत्रीकरण से संयम करके सिद्धियों की उपलब्धि की बात करते हैं। ‘त्रयमेकत्र संयम:’ ‘तज्जयात् प्रज्ञालोक:’, ‘तस्य भूमिषु विनियोग:’ संयम के द्वारा वे अतीत-अनागत के ज्ञान की विधि बताते हैं, वे अन्तर्धान होने का उपाय समझाते हैं, वे आकाशगमन, परकाया प्रवेश की प्रक्रिया भी सिखाते हैं, वे अणिमा, लघिमा, गरिमा आदि सिद्धियाँ भी प्राप्त करवाते हैं। महर्षि पतंजलि शरीर विज्ञान, ब्रह्माण्ड विज्ञान के रहस्यों की पर्तों को भी खोलते हैं वे बिना आलम्बन के जल पर चलना भी सिखाते हैं, वे अग्नि में न जलना भी सिखाते हैं। वे पूर्व जन्म की रहस्यमयी बातों में भी साधकों को निपुणता दिलाते हैं।
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