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सदाबहार >> कर्बला

कर्बला

प्रेमचंद

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4828
आईएसबीएन :9788171828920

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मुस्लिम इतिहास पर आधारित मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखा गया यह नाटक ‘कर्बला’ साहित्य में अपना विशेष महत्त्व रखता है।

आठवां दृश्य

[नौ बजे रात का समय। कूफ़ा की जामा मसजिद। मुसलिम, मुख्तार, सुलेमान और हानी बैठे हुए हैं। कुछ आदमी द्वार पर बैठे हुए हैं।]

सुले०– अब तक लोग नहीं आए?

हानी– अब जाने की कम उम्मीद है।

मुस०– आज जियाद का लौटना सितम हो गया। उसने लोगों को वादों के सब्ज बाग दिखाए होंगे।

सुले०– इसी को तो सियामत का आईन कहते हैं।

मुस०– इन जालिमों ने सियासत को ईमान से बिल्कुल जुदा कर दिया है। दूसरे खलीफ़ों ने इन दोनों को मिलाया था। सियासत को दग़ा से पाक कर दिया था।

मुख०– हजरत मुसलिम, अब आप अपनी तकरीर शुरू कीजिए, शायद लोग जमा हो जायें।

[मुसलिम मिंबर पर चढ़कर भाषण देते हैं]

‘‘शुक्र है उस पाक खुदा का, जिसने हमें आज दीन इस्लाम के लिए एक ऐसे बुजुर्ग को खलीफ़ा चुनने का मौका दिया है, जो इस्लाम का सच्चा दोस्त…।’’

[बहुत से आदमी मसजिद में घुस पड़ते हैं।]

पहला– बस हज़रत मुसलिम, जबान बंद कीजिए।

दूसरा– जनाब, आप चुपके से मदीने की राह लें। यजीद हमारे खलीफ़ा हैं और यजीद हमारा इमाम है।

सुले०– मुझे मालूम है कि जियाद ने आज तुम्हारी पीठ पर खूब हाथ फेरे हैं, और हरी-हरी घास दिखाई है, पर याद रखो, घास के नीचे जाल बिछा हुआ है।

[बाहर से ईंट और पत्थर की वर्षा होने लगती है।]

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