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सदाबहार >> कर्बला

कर्बला

प्रेमचंद

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4828
आईएसबीएन :9788171828920

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मुस्लिम इतिहास पर आधारित मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखा गया यह नाटक ‘कर्बला’ साहित्य में अपना विशेष महत्त्व रखता है।

छठा दृश्य

(संध्या का समय। सूर्यास्त हो चुका है। कूफ़ा का शहर– कोई सारवान ऊँट का गल्ला लिए दाखिल हो रहे है।)

पहला– यार गलियों से चलना, नहीं तो किसी सिपाही की नज़र पड़ जाये, तो महीनों बेगार झेलनी पड़े।

दूसरा– हाँ-हाँ, वे बला के मूजी है। कुछ लादने को नहीं होता, तो यों ही बैठ जाते हैं, और दस-बीस कोस का चक्कर लौट आते हैं। ऐसा अंधेर पहले कभी न होता था। मजूरी तो भाड़ में गई, ऊपर से लात और गालियां खाओ।

तीसरा– यह सब महज पैसे आँटने के हथकंडे हैं। न-जाने कहां के कुत्ते आ के सिपाहियों में दाखिल हो गए। छोटे-बड़े एक ही रंग में रंगे हुए है।

चौथा– अमीर के पास फरियाद लेकर जाओ, तो उल्टे और बौछार पड़ती है। अजीब मुसीबत का सामना है। हज़रत हुसैन जब तक न आएंगे, हमारे सिर से ये बला न टलेगी।

[मुसलिम पीछे से आते हैं।]

मुस०– क्यों यारों, इस शहर में कोई खुदा का बंदा ऐसा है, जिसके यहां मुसाफिरों के ठहरने को जगह मिल जाये?

पहला– यहां के रईसों की कुछ न पूछो। कहने को दो-चार बड़े आदमी हैं, मगर किसी के यहां पूरी मजूरी नहीं मिलती। हां, जरा गालियां कम देते हैं।

मुस०– सारे शहर में एक भी सच्चा मुसलमान नहीं है?

दूसरा– जनाब, यहां कोई शहर के काजी तो हैं नहीं, हां, मुख्तार की निस्बत सुनते हैं कि बड़े दीनदार आदमी है। हैसियत तो ऐसी नहीं, मगर खुदा ने हिम्मत दी है। कोई गरीब चला जाये, तो भूखा न लौटेगा।

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