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सदाबहार >> कर्बला

कर्बला

प्रेमचंद

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4828
आईएसबीएन :9788171828920

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मुस्लिम इतिहास पर आधारित मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखा गया यह नाटक ‘कर्बला’ साहित्य में अपना विशेष महत्त्व रखता है।


का०– इस मलऊन को पकड़कर दो सौ दुर्रे लगाओ।

[कई सिपाही आदमियों के गोल बांधे हुए लाते हैं।]

का०– इन्होंने खुदा के किस हुक्म को तोड़ा है?

ए० सि०– हुजूर, ये सब आदमी सामनेवाली मसजिद में खड़े होकर रो रहे थे।

का०– रोना कुफ्र है, इन सबों की आँखें फोड़ डाली जाये।

[सैकड़ों आदमी मसजिद की तरफ से तलवारें और भाले लिए दौड़े आते हैं, और अदालत को घेर लेते हैं।]

सुलेमान– कत्ल कर दो इस मरदूद मक्कार को, जो अदालत के मसनद पर बैठा हुआ अदालत का खून कर रहा है।

भूसा– नहीं, पकड़ लो। इसे जिंदा जलाएंगे।

[कई आदमी क़ाजी पर टूट पड़ते हैं।]

का०– शरा के मुताबिक मुसलमान पर मुसलमान का खून हराम है।

सुले०– तू मुसलमान नहीं! इन सिपाहियों में से एक भी न जाने पाए।

ए० सि०– या सुलेमान, हमारी क्या खता है! जिस आक़ा के गुलाम हैं, उसका हुक्म न मानें, तो रोटियां क्योंकर चलें?

भूसा– जिस पेट के लिए तुम्हें खुदा के बंदों का ईजा पहुंचानी पड़े, उसको चाक कर देना चाहिए।

[सिपाहियों और बागियों में लड़ाई होने लगती है।]

सुले०– भाइयों, आपने इन जालिमों के साथ वहीं सलूक किया, जो वाजिब था, मगर भूल न जाइए कि जियाद इसकी इत्तला यजीद को जरूर देगा, और हमें कुचलने के लिए शाम से फ़ौज आएगी। आप लोग उसका मुकाबला करने को तैयार है?

[एक आवाज]

‘‘अगर तैयार नहीं हैं तो हो जायेंगे।’’

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