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सदाबहार >> कर्बला कर्बलाप्रेमचंद
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मुस्लिम इतिहास पर आधारित मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखा गया यह नाटक ‘कर्बला’ साहित्य में अपना विशेष महत्त्व रखता है।
अब्दु०– जागीर ज्यादा नहीं, तो परवरिश तो हो ही जाती है। वह फौरन छिन जाएंगी। कितनी मेहनत से हमने मेवों का बाग लगाया है। यह कब गंवारा होगा कि हमारी मेहनत का फल दूसरे खायें। कलाम पाक की कलम, मेरे बाग पर बड़ों-बड़ों को रश्क है।
कमर– बाग के लिए ईमान बेचना पड़े, तो बाग की तरफ़ आंख उठाकर देखना भी गुनाह है।
अब्दु०– क़मर, मामला इतना आसान नहीं है, जितना तुमने समझ रखा है। जायदाद के लिए इंसान अपनी जान देता है, भाई-भाई दुश्मन हो जाते हैं, बाप-बेटों में, मियां बीवी में तिफ़ाक पड़ जाता है। अगर उसे लोग इतनी आसानी से छोड़ सकते, तो दुनिया जन्नत बन जाती है।
कमर– यह सही है, मगर ईमान के मुकाबले जायदाद ही की नहीं, जिंदगी की भी कोई हस्ती नहीं। दुनिया की चीजें एक दिन छूट जाएंगी, मगर ईमान हो हमेशा साथ रहेगा।
अब्दु०– शहरबदर होना पड़ा। तो यह मकान हाथ से निकल जाएगा। अभी पिछले साल बनकर तैयार हुआ है। देहातों में, जंगल में बुद्दुओं की तरह मारे-मारे घूमना पड़ेगा। क्या जला-वतनी कोई मामूली चीज है?
कमर– दीन के लिए लोगों से सल्तनतें तर्क कर दी हैं, सिर कटाए हैं, और हंसते-हंसते सूलियों पर चढ़ गए हैं। दीन की दुनिया पर हमेशा जीत रही है, और रहेंगी।
अब्दु०– वहब अपनी अम्माजान की बातें सुन रहे हो?
वहब– जी हां, सुन रहा हूं, और दिल में फ़ख्र कर रहा हूँ कि मैं ऐसी दीन-परवर मां का बेटा हूं। मैं आपसे सच अर्ज करता हूं कि कीस, हज्जाज, हुर, अशअस जैसे रऊसा को बेयत क़बूल करते देखकर मैं भी नीम राजी हो गया था, पर आपकी बातों ने हिम्मत मजबूत कर दी। अब मैं सब कुछ झेलने को तैयार हूं।
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