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सदाबहार >> कर्बला कर्बलाप्रेमचंद
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मुस्लिम इतिहास पर आधारित मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखा गया यह नाटक ‘कर्बला’ साहित्य में अपना विशेष महत्त्व रखता है।
पांचवां दृश्य
[१२ बजे रात का समय। लड़ाई ज़रा देर के लिए बंद है। दुश्मन की फ़ौज ग़ाफिल है। दरिया का किनारा। अब्बास हाथों में मशक लिए दरिया के किनारे खड़े हैं।]
अब्बास– (दिल में) हम दरिया से कितने करीब हैं। इतनी ही दूर पर यह दरिया मौजें मार रहा है, पर हम पानी के एक-एक बूंद को तरसते रहते हैं। दो दिन से किसी के मुंह में पानी का कतरा नहीं गया, बच्चे वगैरह पानी के लिए बिलबिला रहे हैं, औरतों के लब खुश्क हुए जाते हैं, खुद हजरत हुसैन का बुरा हाल हो रहा है। मगर कोई अपनी तकलीफ़ किसी से नहीं कहती। बेचारी सकीना तड़प रही थी। काश ये जालिम इसी तरह गाफ़िल पड़े रहते, और मैं मशक लिए हुए बचकर निकल जाता। जी चाहता है, दरिया-का-दरिया पी जाऊं, पर गै़रत गवारा नहीं करती कि घर के सब आदमी तो प्यासों मर रहे हों, और मैं यहीं अपनी प्यास बुझाऊं। घोड़े ने भी पानी में मुंह नहीं डाला। वफा़दार जानवर! तू हैवान होकर इतना ग़ैरतमंद है, मैं इंसान होकर बेग़ैरतमंद हो जाऊं।
[दरिया से पानी लेकर घाट पर चढ़ते हैं।]
एक सिपाही– यह कौन पानी लिए जाता है?
अब्बास– (खामोश)
कई आदमी– क्या कोई पानी ले रहा है? खड़ा रह।
[कई सिपाही अब्बास को घेर लेते हैं।]
एक– यह तो हुसैन के लश्कर का आदमी है– क्यों जी, तुम्हारा क्या नाम है?
अब्बास– मैं हजरत हुसैन का भाई अब्बास हूं।
कई आदमी– छीन लो मशक।
अब्बास– इतना आसान न समझो। एक-एक बूंद पानी के लिए एक-एक सिर देना पड़ेगा। पानी इतना महंगा कभी न बिका होगा।
[अब्बास तलवार खींचकर दुश्मनों पर झपट पड़ते हैं, और उनके घेरे से निकल जाने की कोशिश करते हैं।]
[शिमर दौड़ा हुआ आता है।]
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