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सदाबहार >> कर्बला कर्बलाप्रेमचंद
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मुस्लिम इतिहास पर आधारित मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखा गया यह नाटक ‘कर्बला’ साहित्य में अपना विशेष महत्त्व रखता है।
अब्बास– (खत पढ़कर) आखिर तुम दुनिया की तरफ झुके। याद रखो, की दरगार में शिमर नहीं, तुम खतावार समझे जाओगे।
साद– या हजरत, यह जानता हूं पर जियाद के गुस्से का मुकाबला नहीं कर सकता। वह बिल्ला है, मैं चूहा हूं, वह बाज है, मैं कबूतर हूं। वह एक इशारे से मेरे खानदान का निशान मिटा सकता है। अपनी हिफ़ाजत की फिक्र ने मुझे मजबूर कर दिया है, मेरे दीन और ईमान को फ़ना कर दिया है।
अब्बास– खुलासा यह है कि तुम हमारा मुहासिरा करना चाहते हो। ठहरो, मैं जाकर भाई साहब को इत्तिला दे दूं।
[अब्बास हुसैन के खेमे की तरफ जाते हैं।]
शिमर– (साद के पास आकर) क्या अब कोई दूसरी चाल चलने की सोच रहे हैं?
साद– नहीं, हजरत हुसैन को हमारी आमद और मंशा की इत्तिला देने गए हैं।
शिमर– यह मौके को हमारे हाथों से छीनने का हीला है। शायद कबीलों से इमदाद तलब करने का क़स्द कर रहे हैं। एक दिन की देर भी उन्हें मौके का बादशाह बना सकती है।
[अब्बास खेमे से वापस आते हैं।]
अब्बास– मैंने हजरत हुसैन को तुम्हारा पैग़ाम दिया। हज़रत को इसका बेहद सदमा है कि उनकी कोई शर्त मंजूर नहीं की गई। सुलह की इससे ज्यादा कोशिश उनके इमकान में न थी। गो हम सब जंग के लिये तैयार है, लेकिन उन्होंने एक दिन की मुहलत मांगी है कि दुआ और नमाज में गुजारे। सुबह को हमें खुदा का जो हुक्म होगा, उसकी तामील करेंगे।
साद– इसका जवाब मैं अपनी फ़ौज के दूसरे सरदारों से मशविरा करके दूंगा।
[अब्बास अपने खेमों की तरफ़ जाते हैं, और हुर, हज्जाज, अशअस, कीस सब साद के पास आकर खड़े हो जाते हैं।]
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