सदाबहार >> कर्बला कर्बलाप्रेमचंद
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मुस्लिम इतिहास पर आधारित मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखा गया यह नाटक ‘कर्बला’ साहित्य में अपना विशेष महत्त्व रखता है।
जियाद– साद, दुनिया में कोई खुशी बगै़र तकलीफ के नहीं हासिल होती। शहद के साथ मक्खी के डंक का जहर भी है। तुम शहद का मजा उठाना चाहते हो, मगर डंक की तकलीफ नहीं उठाना चाहते। बिना मौत की तकलीफ उठाए जन्नत में जाना चाहते हो। तुम्हें मजबूर नहीं करता। इस इनाम पर हुसैन से जंग करने के लिये आदमियों की कमी नहीं है। मुझे फ़रमान वापस दे दो, और आराम से घर बैठकर रसूल और खुदा की इबादत करो।
साद– या अमीर! सोचिए, इस हालत में मेरी कितनी बदनामी होगी। सारे शहर में खबर फैल गई कि मैं ‘रै’ का नाज़िम बनाया गया हूं। मेरे यार-दोस्त मुझे मुबारकबाद दे चुके। अब जो मुझसे फ़रमान ले लिया जायया, तो लोग दिल में क्या कहेंगे?
जियाद– यह सवाल तो तुम्हें अपने दिल से पूछना चाहिए।
साद– या अमीर मुझे कुछ और मुहलत दीजिए।
जियाद– तुम इस तरह टाल-मटोल करके देर करना चाहते हो। कलाम पाक की कसम है, अब मैं तुम्हारे साथ ज्यादा सख्ती से पेश आऊंगा। अगर शाम को हुसैन से जंग करने के लिये तैयार होकर न आए, तो तेरी जायदाद जब्त कर लूंगा, तेरा घर लुटवा दूंगा, यह मकान पामाल हो जायेगा, और तेरी जान की भी खैरियत नहीं।
[जियाद का प्रस्थान]
साद– (दिल में) मालूम होता है, मेरी तकदीर में रूस्याह होना ही लिखा है। अब महज़ ‘रै’ की निजामत का सवाल है। अब अपनी जायदाद और जान का सवाल है। इस जालिम ने हानी को कितनी बेरहमी से कत्ल किया। कसीर का भी अपनी अईनपरवरी की गिरां कीमत देनी पड़ी। शहरवालों ने जबान तक न हिलाई। वह तो महज हुसैन के अजीज थे। यह मामला उससे कहीं नाजुक है। जियाद बेरहम हो जायेगा, तो जो कुछ न कर गुजरे, वह थोड़ा है। मैं ‘रै’ को ईमान पर कुर्बान कर सकता हूं, पर जान और जायदाद को नहीं कुरबान कर सकता। काश मुझसे हानी और कसीर की-सी हिम्मत होती।
[शिमर का प्रवेश]
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