लोगों की राय

सदाबहार >> कर्बला

कर्बला

प्रेमचंद

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4828
आईएसबीएन :9788171828920

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

448 पाठक हैं

मुस्लिम इतिहास पर आधारित मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखा गया यह नाटक ‘कर्बला’ साहित्य में अपना विशेष महत्त्व रखता है।


जैनब– भैया, यह कौन-सा सहरा है कि इसे देखकर खौफ से कलेजा मुंह को आ रहा है। बानू बहुत घबराई हुई है, और असगर छाती से मुंह नहीं लगाता।

हुसैन– बहन! यही कर्बला का मैदान है।

जैनब– (दोनों हाथों से सिर पीटकर) भैया, मेरी आंखों के तारे, तुम पर मेरी जान निसार हो। हमें तक़दीर ने यहां कहां लाके छोड़ा, क्यों कहीं और चलते?

हुसैम– बहन, कहां जाऊं? चारो तरफ से नाके बंद हैं। जियाद का हुक्म कि मेरा लश्कर यहीं उतरे। मजबूत हूं, लड़ाई में बहस नहीं करना चाहता।

जैनब– हाय भैया! यह बड़ी मनहूस जगह है। मुझे लड़कपन से यहां की खबर है। हाय भैया! इस जगह तुम मुझसे बिछुड़ जाओगे। मैं बैठी देखूंगी, और तुम बर्छियां खाओगे। मुझे मदीने भी न पहुंचा सकोगे? रसून की औलाद यहीं तबाह होगी, उनकी नामूस यहीं लूटेगी। हाय तकदीर!

इस दश्त में तुम मुझसे बिछुड़ जाओगे भाई,
गर खाक भी छानूं तो न हाथ आवेगा भाई।
बहनों को मदीने में न पहुंचाओगे भाई,
मैं देखूंगी और बरछिया तुम खाओगे भाई।
औलाद से बानू की यह छूटने की जगह है,
नामूसे-नबी की यही लूटने की जगह है।


[बेहोश हो जाती हैं। लोग पानी के छींटे देते हैं]

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book