सदाबहार >> कर्बला कर्बलाप्रेमचंद
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मुस्लिम इतिहास पर आधारित मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखा गया यह नाटक ‘कर्बला’ साहित्य में अपना विशेष महत्त्व रखता है।
जैनब– भैया, यह कौन-सा सहरा है कि इसे देखकर खौफ से कलेजा मुंह को आ रहा है। बानू बहुत घबराई हुई है, और असगर छाती से मुंह नहीं लगाता।
हुसैन– बहन! यही कर्बला का मैदान है।
जैनब– (दोनों हाथों से सिर पीटकर) भैया, मेरी आंखों के तारे, तुम पर मेरी जान निसार हो। हमें तक़दीर ने यहां कहां लाके छोड़ा, क्यों कहीं और चलते?
हुसैम– बहन, कहां जाऊं? चारो तरफ से नाके बंद हैं। जियाद का हुक्म कि मेरा लश्कर यहीं उतरे। मजबूत हूं, लड़ाई में बहस नहीं करना चाहता।
जैनब– हाय भैया! यह बड़ी मनहूस जगह है। मुझे लड़कपन से यहां की खबर है। हाय भैया! इस जगह तुम मुझसे बिछुड़ जाओगे। मैं बैठी देखूंगी, और तुम बर्छियां खाओगे। मुझे मदीने भी न पहुंचा सकोगे? रसून की औलाद यहीं तबाह होगी, उनकी नामूस यहीं लूटेगी। हाय तकदीर!
गर खाक भी छानूं तो न हाथ आवेगा भाई।
बहनों को मदीने में न पहुंचाओगे भाई,
मैं देखूंगी और बरछिया तुम खाओगे भाई।
औलाद से बानू की यह छूटने की जगह है,
नामूसे-नबी की यही लूटने की जगह है।
[बेहोश हो जाती हैं। लोग पानी के छींटे देते हैं]
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