आचार्य श्रीराम किंकर जी >> मानस के चार घाट मानस के चार घाटश्रीरामकिंकर जी महाराज
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परम पूज्य महाराज श्रीरामकिंकर जी महाराज के द्वारा लिखी गई धर्म पर आधारित पुस्तक...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
श्री गुरु चरण कमलेभ्यो नमः
सादर वन्दन
रेगिस्तान की तपती दुपहरी में मार्ग भटके पथिक को अपने घर पहुँचने पर,
प्रतिक्षारत चातक और सीप को स्वाति नक्षत्र की कृपा प्राप्त होने पर, तथा
प्यासी प्रकृति के आंगन में ऋतुराज वसन्त के आगमन पर, जितनी आन्तरिक
तृप्ति और आनन्द की अनुभूति होती है, उससे किंचित भी कम आनन्द हमें नहीं
हुआ, जब प्रातः स्मरणीय परम श्रद्धेय सद्गुरु श्री रामकिंकर जी महाराज का
पदार्पण हमारे जीवन में हुआ। हमें सद्गुरु की उतनी ही प्रतीक्षा थी जितनी
जितनी की पाषाण बनी अहिल्या को रामचरण धूलि के स्पर्श की थी।
पूज्य महाराज के चरण आशीष के अथाह रत्नाकर में हमारे परिवार ने डुबकी लगाकर अपनी झोली को आन्नद मणि एवं निश्चिंतता के पारस से भरा हुआ पाया।
प्राप्त परिस्थिति में श्री गुरु स्मृति का आलम्बन जीवन में समत्व का निर्माण करता है। हमारे जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में भी महाराज श्री की स्पष्ट कृपा-वृष्टि हमारे परिवार पर बनी रही। यथा महाराज श्री के असीम कृपापात्र, हमारे आत्मज प्रिय ‘पवनचन्द्र’ के अन्तिम प्रयाण पर श्री गुरु की पुण्य उपस्थिति, परमपद उसका गन्तव्य बन सके, यह अजस्र आशीर्वाद देने, महाराज श्री का इस अवसर पर साक्षात् उपस्थिति होना, इस महान कृपा का सजीव प्रमाण है। हम तो इतना स्वीकाराते हैं कि महाराज श्री की कृपा पाने का संस्कार और सामर्थ्य भी महाराज श्री की कृपा का ही उच्छिष्ट है।
पवन को गमन करते समय महाराज श्री के परम स्नेह, अपनत्व एक आशीष में चन्दन वन का पर्याप्त स्पर्श प्राप्त हुआ। साधारण पवन मलयानिल हो पाया इससे अधिक उसके जीवन की पुण्याई और हमारा सौभाग्य और क्या हो सकता है ? महाराज श्री के ही सान्निध्य में सजे उसके संस्कारों का ही यह फल था कि महाराज श्री की ही स्मृति को पाथेय बनाकर इस लोक से वह महाप्रयाण कर पाया। महाराज श्री ने हमारे पुण्यों की सम्पदा में निश्चित ही श्री वृद्धि की है-
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अन्ता।। (उत्तरकाण्ड 44-3)
हम तो निश्चित ही यह कहेंगे कि महाराज श्री ने ब्रह्माजी की तरह हमारे संस्कारों का सृजन किया, विष्णु जी की तरह उनकी सुरक्षा की तथा शंकर जी की तरह प्रतिकूल संस्कारों का समापन किया। हमारी प्रत्येक श्वास और हृदय का स्पन्दन महाराज श्री के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता रहे यही याचना है।
महाराज श्री ने हमें स्वीकारा यही हम अकिंचन पर महती कृपा का प्रमाण है। हमारे इस अधूरे व्याकरण और जर्जर शब्दों के पास उतना संस्कार ही कहाँ, जो आभार प्रदर्शन की रीति भी निभा पायें !
पूज्य महाराज के चरण आशीष के अथाह रत्नाकर में हमारे परिवार ने डुबकी लगाकर अपनी झोली को आन्नद मणि एवं निश्चिंतता के पारस से भरा हुआ पाया।
प्राप्त परिस्थिति में श्री गुरु स्मृति का आलम्बन जीवन में समत्व का निर्माण करता है। हमारे जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में भी महाराज श्री की स्पष्ट कृपा-वृष्टि हमारे परिवार पर बनी रही। यथा महाराज श्री के असीम कृपापात्र, हमारे आत्मज प्रिय ‘पवनचन्द्र’ के अन्तिम प्रयाण पर श्री गुरु की पुण्य उपस्थिति, परमपद उसका गन्तव्य बन सके, यह अजस्र आशीर्वाद देने, महाराज श्री का इस अवसर पर साक्षात् उपस्थिति होना, इस महान कृपा का सजीव प्रमाण है। हम तो इतना स्वीकाराते हैं कि महाराज श्री की कृपा पाने का संस्कार और सामर्थ्य भी महाराज श्री की कृपा का ही उच्छिष्ट है।
पवन को गमन करते समय महाराज श्री के परम स्नेह, अपनत्व एक आशीष में चन्दन वन का पर्याप्त स्पर्श प्राप्त हुआ। साधारण पवन मलयानिल हो पाया इससे अधिक उसके जीवन की पुण्याई और हमारा सौभाग्य और क्या हो सकता है ? महाराज श्री के ही सान्निध्य में सजे उसके संस्कारों का ही यह फल था कि महाराज श्री की ही स्मृति को पाथेय बनाकर इस लोक से वह महाप्रयाण कर पाया। महाराज श्री ने हमारे पुण्यों की सम्पदा में निश्चित ही श्री वृद्धि की है-
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अन्ता।। (उत्तरकाण्ड 44-3)
हम तो निश्चित ही यह कहेंगे कि महाराज श्री ने ब्रह्माजी की तरह हमारे संस्कारों का सृजन किया, विष्णु जी की तरह उनकी सुरक्षा की तथा शंकर जी की तरह प्रतिकूल संस्कारों का समापन किया। हमारी प्रत्येक श्वास और हृदय का स्पन्दन महाराज श्री के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता रहे यही याचना है।
महाराज श्री ने हमें स्वीकारा यही हम अकिंचन पर महती कृपा का प्रमाण है। हमारे इस अधूरे व्याकरण और जर्जर शब्दों के पास उतना संस्कार ही कहाँ, जो आभार प्रदर्शन की रीति भी निभा पायें !
महाराज श्री कि चरण रज के अभिलाषी
वीना-जगदीश चन्द्रा
वीना-जगदीश चन्द्रा
।।श्री रामःशरणं मम।।
पुण्य स्मरण
पवन सदैव अदृश्य रहकर भी,
करता प्राणों का सञ्चार।
श्रमित व्यक्ति के श्रम हरता है
करता सौरभ का संञ्चार।
पवन नाम पाया तुमने भी,
सार्थक हुआ तुम्हारा नाम।
हुए अदृश्य भले हो जग से,
पहुँच गए प्रभु के धाम।।
करता प्राणों का सञ्चार।
श्रमित व्यक्ति के श्रम हरता है
करता सौरभ का संञ्चार।
पवन नाम पाया तुमने भी,
सार्थक हुआ तुम्हारा नाम।
हुए अदृश्य भले हो जग से,
पहुँच गए प्रभु के धाम।।
‘पवन’ की स्मृति शीतलता और सुगन्ध के सौरभ से
ओत-प्रोत है।
इतनी थोड़ी अवस्था में उसका बिछोह इतना दुखदायी है, कि उसे शब्दों के
माध्यम से व्यक्त कर पाना सम्भव नहीं है। श्री जगदीश चन्द्रा और श्रीमती
वीणा चन्द्रा श्रद्धा, भक्ति और अविचल निष्ठा के दृष्टान्त हैं। पवन जैसे
पुत्र के असमय को उन्होंने जिस आस्था से झेल लिया वह विरले व्यक्तियों के
लिए ही संभव है। ‘पवन’ तो प्रभु के धाम का ही पथिक
था, उसे
प्रभु ने शीघ्रता से बुला लिया। अतः उसकी स्मृति को रामभद्र राघव से
जोड़ना उनके माता-पिता के श्रद्धालु हृदय के लिए स्वाभाविक है। मेरे लिए
इससे बढ़कर सन्तोष की कोई बात नहीं हो सकती थी कि रामकथा के माध्यम से उसे
श्रद्धाञ्जलि अपर्ति करूँ।
रामकिंकर
आशीर्वाद
लोक मानस में रामकथा के रचयिता के रूप में गोस्वामी जी तुलसीदास
प्रतिष्ठित हैं। किन्तु स्वयं गोस्वामी जी इसे स्वीकार नहीं करते। उनकी
मान्यता यह है कि इसके रचयिता तो भगवान शिव हैं। वे मात्र अनुवादक हैं। पर
इतना तो वे स्वीकार करते ही हैं कि इस दिव्य सरोवर में घाटों की कल्पना
उनकी अपनी है
सुठि सुन्दर संवाद वर....
घाट मनोहर चारि। (श्री रा.च.मा.बा.कां.)
घाट मनोहर चारि। (श्री रा.च.मा.बा.कां.)
सरोवर में घाट का होना परमावश्यक है। सरोवर में सोपान के माध्यम से ही
व्यक्ति सरलतापूर्वक अवगाहन कर सकते हैं। विभिन्न व्यक्ति सरोवर के
सन्निकट अलग-अलग उद्देश्यों से जाते हैं। कुछ ऐसे हैं जिन्हें सरोवर की
शोभा अपनी ओर आकृष्ट करती है, तो कुछ स्नान के लिए और कोई अपनी प्यास
मिटाने जाते हैं। कोई गोताखोर उसकी गहराई में पैठकर तैराकी का आनन्द लेना
चाहे, यह स्वाभाविक है। काव्य से हटकर सरल अर्थों में इसका तात्पर्य यह है
कि श्री राम चरित्र को देखने वाले अनगिनत लोग है, जिनकी दृष्टियों में
भिन्नता है। उस अनंत चरित्र को देखने, वाले अनगिनत लोग हैं, जिनकी
दृष्टियों में भिन्नता है। उस अनंत चरित्र में सब कुछ उपलब्ध है। इसलिए वे
चार घाटों के माध्यम से सुधीजनों को निमंत्रण देते हैं कि वे रामकथा की
स्वच्छता मिठास और गहराई का रसास्वादन करें। प्रवचन और लेखन दोनों ही
माध्यमों से प्रभु मुझसे सेवा कार्य लेते रहे हैं। दोनों ही माध्यमों में
जो अन्तर होता है उसे यों प्रतिपादित किया जा सकता है।
लेखन के क्षणों में व्यक्ति अकेला होता है, उसे अभिव्यक्ति देने के लिए वह भाषा और लेखनी का आश्रय लेता है और अपने अन्तस्थ भावों को व्यक्त करता है।
प्रवचन में वक्ता की स्थिति सर्वथा भिन्न होती है। उसके समक्ष श्रोताओं की एक बड़ी संख्या होती है। उन श्रोताओं में विभिन्न रुचि और योग्यता के व्यक्ति होते हैं। वक्ता को उन सभी का ध्यान रखना पड़ता है। लेखक भले ही तात्विक दृष्टि से लिखे पर वक्ताओं को तत्त्व के साथ रस का समाञ्जस्य बनाए ही रखना पड़ता है। गोस्वामी जी ने राम कथा के लिए ‘बुध विश्राम सकल जन रञ्जनि’’ की जिस विशेषता की ओर संकेत किया है, उसका समग्र दर्शन तो कथा प्रवचन के क्षणों में ही होता है।
प्रस्तुत ग्रन्थ भी प्रवचन संग्रह के रूप में प्रकाशित हो रहा है। भोपाल के प्रवचन प्रसंग में प्रबुद्ध श्रोताओं की संख्या ही अधिक होती है। यों भी मेरे माध्यम में दिए जाने वाले प्रवचनों में जनरञ्जन की यात्रा अल्प होती है। फिर जहाँ जिज्ञासु प्रबुद्ध श्रोता अधिक हों, वहां इसकी अपेक्षा भी नहीं होती। भोपाल के सुधी श्रोताओं में एक विशेष श्रोता हैं श्री आर० ए० खन्ना अनेक उच्च पदों पर आसीम रहते हुए उन्होंने अपनी प्रशासनिक क्षमता का परिचय तो, दिया ही है। पर उनकी कथा के प्रति प्रीति भी अनोखी है। सुनने के साथ वे उसे कैसेट में संग्रहित कर लेते हैं। उसे लिपिबद्ध करते हैं। इस प्रवचन संग्रह के प्रकाशन में यह भूमिका भी उन्होंने की है। इसके लिए उन्हें शत्-शत् साधुवाद किन्तु प्रवचनों को पुस्तकालय रूप देना भी एक कठिन कार्य है इसलिए उसे सम्पादन की आवश्यकता होती है वक्तृत्व के क्षणों में भाषा और शब्द के साथ जो समस्या होती है, उसका समाधान करना पड़ता है। यह कार्य प्रो० अमर सिंह के द्वारा किया गया। पर बाद में लगा कि इसमें और परिमार्जन की आवश्यकता है। यह कार्य मेरी शिष्या मन्दाकिनी के द्वारा किया गाया। मेरे प्रिय शिष्य मैथिलीशरण का भी इसमें पूरा सहयोग था। ये अपने ही हैं अतः आभार के स्थान पर इन्हें आशीर्वाद देना ही उचित है। आशा है, इसमें पाठकों को पठन और श्रवण का मिला-जुला आनन्द प्राप्त होगा।
लेखन के क्षणों में व्यक्ति अकेला होता है, उसे अभिव्यक्ति देने के लिए वह भाषा और लेखनी का आश्रय लेता है और अपने अन्तस्थ भावों को व्यक्त करता है।
प्रवचन में वक्ता की स्थिति सर्वथा भिन्न होती है। उसके समक्ष श्रोताओं की एक बड़ी संख्या होती है। उन श्रोताओं में विभिन्न रुचि और योग्यता के व्यक्ति होते हैं। वक्ता को उन सभी का ध्यान रखना पड़ता है। लेखक भले ही तात्विक दृष्टि से लिखे पर वक्ताओं को तत्त्व के साथ रस का समाञ्जस्य बनाए ही रखना पड़ता है। गोस्वामी जी ने राम कथा के लिए ‘बुध विश्राम सकल जन रञ्जनि’’ की जिस विशेषता की ओर संकेत किया है, उसका समग्र दर्शन तो कथा प्रवचन के क्षणों में ही होता है।
प्रस्तुत ग्रन्थ भी प्रवचन संग्रह के रूप में प्रकाशित हो रहा है। भोपाल के प्रवचन प्रसंग में प्रबुद्ध श्रोताओं की संख्या ही अधिक होती है। यों भी मेरे माध्यम में दिए जाने वाले प्रवचनों में जनरञ्जन की यात्रा अल्प होती है। फिर जहाँ जिज्ञासु प्रबुद्ध श्रोता अधिक हों, वहां इसकी अपेक्षा भी नहीं होती। भोपाल के सुधी श्रोताओं में एक विशेष श्रोता हैं श्री आर० ए० खन्ना अनेक उच्च पदों पर आसीम रहते हुए उन्होंने अपनी प्रशासनिक क्षमता का परिचय तो, दिया ही है। पर उनकी कथा के प्रति प्रीति भी अनोखी है। सुनने के साथ वे उसे कैसेट में संग्रहित कर लेते हैं। उसे लिपिबद्ध करते हैं। इस प्रवचन संग्रह के प्रकाशन में यह भूमिका भी उन्होंने की है। इसके लिए उन्हें शत्-शत् साधुवाद किन्तु प्रवचनों को पुस्तकालय रूप देना भी एक कठिन कार्य है इसलिए उसे सम्पादन की आवश्यकता होती है वक्तृत्व के क्षणों में भाषा और शब्द के साथ जो समस्या होती है, उसका समाधान करना पड़ता है। यह कार्य प्रो० अमर सिंह के द्वारा किया गया। पर बाद में लगा कि इसमें और परिमार्जन की आवश्यकता है। यह कार्य मेरी शिष्या मन्दाकिनी के द्वारा किया गाया। मेरे प्रिय शिष्य मैथिलीशरण का भी इसमें पूरा सहयोग था। ये अपने ही हैं अतः आभार के स्थान पर इन्हें आशीर्वाद देना ही उचित है। आशा है, इसमें पाठकों को पठन और श्रवण का मिला-जुला आनन्द प्राप्त होगा।
-रामकिंकर
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- अनुवचन
- घाट मनोहर चारि
- महाराजश्री : एक परिचय
- प्रथम प्रवचन
- द्वितीय प्रवचन
- तृतीय प्रवचन
- चतुर्थ प्रवचन
- पंचम प्रवचन
- षष्ठम प्रवचन
- सप्तम प्रवचन
अनुक्रम
विनामूल्य पूर्वावलोकन
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