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हास्य-व्यंग्य >> क्या करेगी चाँदनी

क्या करेगी चाँदनी

हुल्लड़ मुरादाबादी

प्रकाशक : अरुणोदय प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :108
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4741
आईएसबीएन :00-0000-00-0

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सीधे शब्दों में तथा व्यंग्यात्मक लहजे में बड़ी बात कह देना मजाक नहीं है किंतु हुल्लड़ जी के लिए बहुत ही सहज है ये कला। भाषा ऐसी है कि हिन्दी उर्दू में भेदभाव नहीं। भाव ऐसा है कि हृदय को छू जाए।

Kya Karigi chadani

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

प्यारे हुल्लड़,
अभी तक तो तुमने हिन्दी के कवि सम्मेलन ही लूटे थे लेकिन लगता है कि अब मुशायरों की भी खैर नहीं। मुझे इस बात की बहुत खुशी है कि छंद या मीटर भले ही बदला हो लेकिन तुम्हारे साहित्य का शाश्वत रंग यानी व्यंग्य नहीं बदला। गजलों में भी वो गजब ढा रहा है। मेरी शुभकामनाएँ और आशिर्वाद सदैव तुम्हारे साथ रहे और रहेंगे। लिखो औऱ खूब लिखो, जमकर लिखो और खुलकर लिखो जमाने की हकीकत पर लिखो।
गोपाल दास व्यास

आदरणीय हुल्लड़ जी,
आपकी नई पुस्तक के लिए निम्न पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं कितने ही ऐसे कवि हैं जो दूध पीते हैं पर विष उगलते हैं इन्हीं को इंगित करते हुए हुल्लड़ जी फरमाते हैं।
चार बच्चों को बुलाते तो दुआएँ मिलतीं, साँप को दूध पिलाने की जरूरत क्या थी ?
सीधे शब्दों में तथा व्यंग्यात्मक लहजे में बड़ी बात कह देना मजाक नहीं है किंतु हुल्लड़ जी के लिए बहुत ही सहज है ये कला। भाषा ऐसी है कि हिन्दी उर्दू में भेदभाव नहीं। भाव ऐसा है कि ह्रदय को छू जाए। सचमुच हुल्लड़जी एक महान कलाकार हैं।

हँसी का हैरतअंगेज तेवर हुल्लड़ मुरादाबादी


पंजाब की धरती का एक विस्थापित परिवार जो मुरादाबाद में जाकर स्थापित हुआ उसी का एक अंग सुशील कुमार चड्ढा है जो हिंदी काव्याकाश के मंचों से निरंतर एकता, सौहार्द, हँसी और खिलखिलाहट के स्वरों में अपने शाश्वत रंग भर रहा है। हँसी और हंगामों के इस चलते-फिरते खजाने को लोग सुशील कुमार चड्ढा के नाम से नहीं अपितु हुल्लड़ मुरादाबादी के नाम से जानते हैं। पद्मश्री गुरुवर गोपाल प्रसाद व्यास तथा वीररसावतार श्रद्धेय ब्रजेंद्र अवस्थी की प्रेरणा ने और काका हाथरसी की हँसती-खिलखिलाती कविताओं ने कभी इस युवा कवि के सुप्त सितार को छेड़ दिया था और अब 1997 में हुल्लड़ हास्य का पर्याय बन चुका है। अपने तैंतीस वर्षीय काव्य पाठ में हुल्लड़ ने अपने हंगामे में ढेर सारे कीर्तिमान स्थापित किए हैं। अविश्वसनीय उपलब्धियाँ अर्जित की हैं। कभी-कभी तो वह स्वयं आश्चर्यचकित हो उठता है कि ऐसी तो कोई विशिष्ट प्रतिभा उसमें नहीं है जिसकी बदौलत उसे यह सम्मान और शोहरत सहज में ही हासिल हो गई है और शायद इसी कारण वह ईश्वरीय विधान और आध्यात्म के नाम अपनी आस्था की आदरांजलियाँ समर्पित करने लगा है और मानने लगा है कि हम लोग कुछ भी करनेवाले कर्ता या नियंता कतई नहीं है महज नाटक के जीवंत पात्र हैं।
काका हाथरसी के करिश्मों से प्रभावित होकर काव्य मंचों की जो यात्रा हुल्लड़ मुरादाबादी ने की है उसमें कुछ अर्थों में काका हाथरसी को भी पीछे छोड़ दिया है। कविताओं के रेकार्ड बनाने की शुरूआत काका ने की तो हुल्लड़ ने भी अपने विशिष्ट अंदाज और प्रस्तुतीकरण के साथ रेकार्डों की दुनिया में प्रवेश किया। जो लोकप्रियता और चर्चा हुल्लड़ को इस माध्यम से मिली है वह सर्वविदित है। एच.एम.वी.द्वारा रिलीज किए गए इन रिकार्डों को सुनकर आप इस चमत्कार का अंदाजा स्वयं लगा सकते हैं।
1. हँसी का खजाना 7 ई.पी.ई.2156
2. हुल्लड़ का हंगामा 7 ई.पी.ई.2159
3. कहकहे 7 ई.पी.ई.2171
4. हुल्लड़ मुरादाबादी से मिलिए 7 ई.पी.ई.2172
5. लौंग प्ले रिकार्ड (L.P)
एच.एम.वी.कैसेट 4 टी.सी.1916
एच.एम.वी.कैसेट 4 टी.सी.501 वी 2028
हुल्लड़ की धुँआँधार लोकप्रियता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि स्वयं काका ने अपने आपको प्रस्तुत करवाने में भाई हुल्लड़ के सहयोग की आकांक्षा के साथ ही साथ सुरेन्द्र शर्मा के चार लाइणा कैसेट में भी प्रथम स्वर हुल्लड़ का ही है।
हास्य व्यंग्य का चर्चित और सुविख्यात काका हाथरसी पुरस्कार और हास्य रत्न की उपाधि से हुल्लड़ को विभूषित किया जा चुका है। वह हिंदुस्तान के पहले हास्य कवि हैं जिनका एच.एम.वी.कम्पनी ने (L.P) रेकार्ड तैयार किया है। हुल्लड़ के चमत्कारिक प्रभाव और लोकप्रियता को देखकर स्वयं काका ने उसका परिचय कुछ पंक्तियों में इस प्रकार दिया है :
श्रोताओं को हँसाते खुद रहते गंभीर
कैसेट इनका बज रहा, वहाँ लग रही भीड़
वहाँ लग रही भीड़, खींचते ऐसे खाके
सम्मेलन हिल जाए, इस कदर लगे ठहाके
रेकार्ड और कैसेट के साथ-साथ हुल्लड़ फिल्म ‘संतोष’ (मनोज कुमार, हेमामालिनी, शत्रुघ्न सिन्हा, प्रेम चोपड़ा) तथा बंधन बाँहों का (राजकिरण, स्वप्ना, राजेशपुरी ब्रह्मचारी) में अभिनय कर चुके हैं तथा आई.एस.जौहर कृत नसबंदी का टाइटिल सौंग ‘क्या मिल गया सरकार इमरजेंसी लगा के’ उन्होंने ही लिखा है। देश के लाखों-करोड़ों श्रोताओं को आज इस आपाधापी से भरे भयाक्रांत माहौल में हँसाना टेढ़ी खीर है। मगर हमारे हुल्लड़ भाई इस मुश्किल काम को बड़ी खूबसूरती से और कारीगरी के साथ पूरा करने में लगे हुए हैं।
प्रचार-प्रसार के सारे माध्यमों का सहारा लेकर वे न केवल हिंदुस्तान बल्कि देश की सीमा रेखाओं के पार अमेरिका पहली बार 18 नगरों में सन् 84 और सन् 86 में न्यूयार्क ड्रैटोयट, हयूस्टन तथा शिकागो, दो बार हांगकांग तथा बैंकाक और नेपाल की काव्य यात्रा करके चर्चित और लोकप्रिय हो चुके हैं। उनके हँसी के खजाने से निकली हास्य व्यंग्य की प्रकाशित पुस्तकों के नाम इस प्रकार हैं:
1. हुल्लड़ का हुल्लड़
2. तथाकथित भगवानों के नाम (पुरस्कृत)
3. सत्य की साधना
4. हज्जाम की हजामत
5. इतनी ऊँची मत छोड़ो
6. त्रिवेणी (सभी लाइब्रेरी संस्करण)
डायमंड पाकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित हुल्लड़ की श्रेष्ठ हास्य-व्यंग्य रचनाएँ:
1. हुल्लड़ के कहकहे
2. ढूँढ़ते रह जाओगे
3. हुल्लड़ के जोक्स
4. त्रिवेणी
5. हज्जाम की हजामत तथा
6. ढोलवती एंड पोलवती सुबोध पाकेट बुक्स दिल्ली
7. हुल्लड़ की हरकतें राहुल पेपर बैक्स दिल्ली
यह पुस्तकें आम आदमी को आत्मीयता और उल्लास से अनुप्राणित कर रही हैं।
आज जब हास्य को नेस्तनाबूद करने की तमाम कोशिशें चल रही हैं तब हुल्लड़ भाई आम जनता के होठों पर हँसी के फूल खिलाने का महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। यह उनका इस देश के पीड़ित और परेशान आदमी के लिए बहुत बड़ा योगदान है। हुल्लड़ का मानना है कि श्रोताओं को हँसाने का सामान कविताओं के माध्यम से अवश्य मुहैया किया जाना चाहिए ताकि ये कविता से अपने आपको जोड़ने की मानसिकता विकसित कर सकें। किंतु कविता का मूल उद्देश्य हँसी या मनोरंजन ही नहीं होना चाहिए। यदि श्रोता या पाठक को हँसी के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलता तो वह कविता बेमानी है, व्यर्थ है। हुल्लड़ के रेकार्ड का दूसरा पहलू इसी संजीदगी और संस्कार को उजागर करता है। एक तरफ आप उसकी हैरतअंगेज हंगामापरक कविताओं से फुक्का फाड़ हँसी के लिए मजबूर हो जाएँगे तो दूसरी तरफ उसी कविता की करुणाजन्य संवेदनाएँ आपको भीतर तक हिलाकर रख देंगी यही हुल्लड़ की मौलिक विशिष्टता है। इधर उसकी कविताओं में एक सूफियाना अंदाज और आध्यात्म भी उभरने लगा है जो उसके प्रौढ़ और परिष्कृत होने की सूचना है लेकिन इसके बावजूद शुगर कोटिंग की उसकी कला के कारण जन-जन में उनकी लोकप्रियता निरंतर नए-नए कीर्तिमान स्थापित करती आगे बढ़ रही है।
काका हाथरसी पुरस्कार, ठिठोली पुरस्कार, कलाश्री इंडियन जेसीज का (टी.ओ.वाई.पी.) टैन आउट स्टैंडिंग यंत्र परसंस आफ इंडिया जैसे कितने ही पुरस्कार और उपाधियों से विभूषित होनेवाला यह अद्भुत और हैरतअंगेज करिश्मा लोगों को निरंतर चौंकाता रहा है और उसकी संभावनाओं का अनन्त आकाश अभी छोटा नहीं पड़ा है। हमें प्रतीक्षा है कि वह अपनी कला और करिश्मों से साधारण से साधारण पाठक और श्रोता के दिल में अपनी जगह बनाए और सुविधाजीवी मुखौटेधारी तथाकथित बुद्धिजीवियों को दिखा दे अपना जादू जो सर पर चढ़कर बोलता है। किसी किताब, रेकार्ड कैसेट, टी.वी. या फिल्म का मोहताज नहीं होता।
-सुरेश उपाध्याय


हुल्लड़ मुरादाबादी एक सत्यान्वेषी हास्य मंच का जादूगर
हुल्लड़ मुरादाबादी का नाम ध्यान में आते ही प्रिय सुशील कुमार चड्ढा एक सरल, सुकुमार, सौम्य, कर्मठ, मेधावी एवं जिज्ञासु बालक का चेहरा स्मृति-पटल पर उभरता है। उस समय वे हिन्दू कॉलिज के छात्र थे। और युग पुरुष जवाहर लाल नेहरू के संबंध में एक काव्य-पुस्तिका का संकलन कर रहे थे। शनै:-शनै कई बार भेंट होने के बाद मेरी ये अवधारणा बलवती हुई कि इसमें अदम्य साहस है और अनवरत श्रमसाधना द्वारा अपने लक्ष्य को छू लेने की क्षमता उसमें है। इस बीच चीन का आकस्मिक आक्रमण भारत पर हुआ। उसकी कृतघ्नता से क्षुब्ध होकर सारा देश क्रोध से उद्वेलित हो उठा। ऐसे ही एक जागृति अभियान के तहत सन् 1962 की 2 दिसम्बर को रामलीला मैदान दिल्ली में एक विराट राष्ट्रीय कवि सम्मेलन हुआ। इस युवक ने राष्ट्र के प्रति भक्ति एवं समर्पण की भावना देखकर विशेष निवेदन पर संचालन कर रहे श्रद्धेय दिनकरजी ने इसे भी कविता पढ़ने का अवसर दिया। इसने ओजपूर्ण कविता ‘जागो भारत की संतानो, वो जोश तुम्हारा कहाँ गया’ सुनाई। तीन-चार लाख संख्या का जन समूह उद्वेलित हो उठा। ये इसकी प्रथम मंच की सफलता थी।
इस बीच इसके मित्रों, शुभचिंतकों, प्रियजनों ने इसे परामर्श दिया कि वह प्रत्युत्पन्नमतिवाला शिष्ट और सहज विनोदप्रियता का व्यक्ति है; अत: उसे हास्य रस में अधिक सफलता प्राप्त हो सकती है। इसके अनन्तर हास्य की शिष्ट रचनाओं के द्वारा असंख्य काव्य-समारोहों में मेरे समक्ष सफलतापूर्वक काव्य-पाठ किया और जन समूह में सफल अट्टहास का वातावरण उत्पन्न कर दिया। एक बार तो बदायूँ के विराट कवि सम्मेलन में मैंने संचालन करते हुए श्रेष्ठतम हास्य कवि काका हाथरसी के ठीक बाद उसे मंच पर आमंत्रित कर लिया। अपनी हास्य कविताओं से इसने काकाजी के काव्य-पाठ के बाद भी रसिक समूह द्वारा भूरि-भूरि प्रशंसा प्राप्त की और बेहद जमा। ये इसकी दूसरी मंच की प्रमुख सफलता थी। इसके पश्चात् यह सफलताओं की उत्तरोत्तर सरणियाँ लाँघता हुआ प्रदेश की सीमाएँ लाँघकर चारों ओर चर्चित होने लगा। इसकी पहली पुस्तक निकली ‘ढोलवती एंड पोलवती’।
अब इसकी निरंतर पुस्तकें प्रकाशित होती चली गईं। ‘हुल्लड़ का हुल्लड़’, ‘हज्जाम की हजामत’, ‘हुल्लड़ की हरकतें’ एवं ‘हुल्लड़ की श्रेष्ठ हास्य व्यंग्य रचनाएँ’। इसकी हास्य-व्यंग्य रचनाओं में सामाजिक, आर्थिक एवं साहित्यिक विषमताओं तथा राजनैतिक और धार्मिक विद्रूपताओं का रूप उजागर होता था। इसकी गम्भीर काव्य दृष्टि मानवीयता के धरातल पर सत्य की साधना करती हुई समाजगत तथ्य उजागर करती रही और जो इसकी ‘सत्य की साधना’ तथा ‘तथाकथित भगवानों के नाम’ पुस्तकों में उद्धाटित होती है। इसकी कविताओं के इ.पी.और एल.पी.कई आडियो कैसेट बने। देश की सीमाओं के पार बैंकाक और अमेरिका के कई भागों में इसकी कविताओं ने धूम मचा दी। मैं इसका प्रत्यक्षदर्शी हूँ। महामहिम राष्ट्रपति द्वारा भी ये अभिनंदित हुआ। उत्तरोत्तर प्रगति के साथ इसकी दृष्टि दर्शन में भी गहरी उतरती चली गई और हास्य-व्यंग्य रचनाओं के बीच-बीच में दार्शनिक तथ्यों को मनोरंजक रूप में प्रस्तुत करने की इसकी विशिष्ट-शैली विशिष्ट रूप से इसे एक प्रतिमान के रूप में प्रतिष्ठित करती है। ‘इतनी ऊँची मत छोड़ो’ की ग़ज़लें इसके प्रमाण में प्रस्तुत की जा सकती हैं।
किंवदंतियों में राजा वीरवल और तेनालीरामन की प्रत्युत्पन्नमति के अनेक उदाहरण जन चर्चाओं में प्राप्त होते हैं। जिन्हें कुछ लोगों ने संपादित कर प्रकाशित भी किया है। किंतु प्रिय हुल्लड़ के समक्ष आए प्रश्नों के तत्क्षण समाधान और उत्तर देनेवाली बुद्धि का मैं भारत तथा अमेरिका के अनेक नगरों में साक्षी रहा हूँ।
अमेरिका के कोलम्बस नगर के हॉल में एक काव्य समारोह हो रहा था, वहाँ के एक वयोवृद्ध कवि घोर ‘श्रृंगारिक कविता सुनाते हुए हम दोनों की ओर बार-बार देखते थे, उसके बाद ही मैंने हुल्लड़ को बुलाया। हुल्लड़ ने एक ग़ज़ल शुरू की:
नाम में शहीदों के, डिग्रियाँ नहीं होतीं।
बदनसीब हाथों में, चूड़ियाँ नहीं होतीं।।


इसी ग़ज़ल में हास्य की चासनी से लिपटा एक दार्शनिक शेर उन्होंने पढ़ा :
कर्म के मुताबिक ही फल मिलेगा इंसां को,
आमवाले पेड़ों पर, लीचियाँ नहीं होतीं।।


वह वृद्ध कवि खूब दाद दे रहे थे। इस बार उन्हीं को संबोधित करते हुए हुल्लड़ ने शेर पढ़ा :
मत करो बुढ़ापे में, इश्क की तमन्नाएँ
क्योंकि फ्यूज बल्बों में, बिजलियाँ नहीं होतीं।।


सारा वातावरण ठहाकों से गूँज उठा। दो मिनट तक लगातार अट्टहास होता रहा। ‘रोटरी क्लब’ के कवि सम्मेलन में एक जगह वे सुना रहे थे :
बहरों को फरियाद सुनाना, अच्छा है पर कभी-कभी।
अंधों को दर्पण दिखलाना, अच्छा है पर कभी-कभी।।


एक श्रोता जोर से बोला, ‘‘हु्ल्लड़जी लालूजी पर कुछ सुना दीजिए।’’ हुल्लड़ ने फौरन दो पंक्तियाँ पढ़ीं:
हमने देखा कल सपने में लालू जी ने दूध दिया
गाय, भैंस का चारा खाना अच्छा है पर कभी-कभी।।
अट्टहास की एक लहर पूरे पंडाल में लहर गई। किंतु हुल्लड़ ने किस लहजे में एक बात कह दी थी। उसका पता आज चल रहा है। ऐसे असंख्य संस्मरण उनकी तात्क्षणिक रचनाधर्मिता के हैं।
आज उसकी नवीन कृति ‘क्या करेगी चाँदनी’ मेरे समक्ष है। इसमें उसने अपनी शैलीगत खूबियों के साथ प्रबल आशावाद और प्रारब्ध की प्रखरता पर अपना विशिष्ट दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। इस पुस्तक की कुछ कुण्डलियों, मुक्तकों और ग़ज़लों में उसकी सहज मानसिकता का पता चलता है। हुल्लड़ की कुण्डलियाँ, छंदशास्त्र की दृष्टि से कसौटी पर खरी उतरती हैं।
हुल्लड़जी को कुछ वर्ष तक भौतिक तापों की प्रबल आँच से निकलना पडा। किंतु उनकी आशावादी जिजीविषा और सृजनात्मक कर्मनिष्ठा ने उस जीवन संघर्ष पर विजय पाई जिसमें कोई अन्य व्यक्ति टूट जाता। एक कुंडली में उन्होंने इसकी चर्चा की है :
बीता हर गम मर चुका, मत ढो उसकी लाश।
वर्तमान में जिए जा, छू लेगा आकाश।।
छू लेगा आकाश, समय जो आनेवाला,
कैसा होगा कौन, तुझे बतलानेवाला।
सुख-दु:ख मन के खेल, व्यर्थ मत करो फजीता,
अब आगे की सोच भूल जा जो भी बीता।


अपनी इस अनुभूति का परिचय देते हुए एक कुंडली में सलाह दी है :
यार हथेली पे तुम, सरसों नहीं उगाओ।
तुम खुद से लड़ो, समय से मत टकराओ।।


उसे ‘पुरुष बली नहीं होत है, समय होत बलवान’ का पूरा अनुभव है। मंच पर वो बहुधा पढ़ते हैं :
व्यर्थ कभी न जा सकती है कवि की वाणी।
भाग्य समय पर फल देता है लिख ले प्राणी।।


आज के महाकवि कहलानेवाले थोथे कवियों पर उनका एक व्यंग्य देखिए :
लोटे दर्शन में लगे, बहुत बड़ा था नाम।
दस हजार में कर गए, ढाई सौ का काम।।
ढाई सौ का काम, देर तक भाषण झाड़ा।
फिर भी न जम सके, तो अपना कुर्ता फाड़ा।।
बाकी सब था लेकिन, थे कविता के टोटे।
जिन्हें समंदर समझा, हमने निकले लोटे।।


संसार की विकृत गतिमयता पर एक मुक्तक में वो दो टूक कहते हैं :
आजकल के दौर में जो डाक्टर बीमार है,
पीर तू किससे कहेगा, तू जरा फिर सोच ले।
कृष्ण आए बुद्ध आए, पर नहीं सुधरा कोई
ये जगत् यूँ ही रहेगा, तू जरा फिर सोच ले।।
वे एक अन्य मुक्तक में बहुत स्पष्ट संदेश देते हैं :
भाग्य जब तेरा फलेगा, तू जरा फिर सोच ले।
तेरे मित्रों को खलेगा, तू जरा फिर सोच ले।
आग फैली है फसादों की, धर्म की आड़ में-
फिर किसी का घर जलेगा, तू जरा फिर सोच ले।।


उन्हें कर्म से अधिक प्रारब्ध पर यकीन है। तभी वो कहते हैं :
चीज जो तकदीर में है ही नहीं वो,
कर्म करके भी कभी मिलती नहीं है।


किंतु उन्हें आशा पर भी उतना ही दृढ़ विश्वास है, तभी वे कहते हैं :
ये भाग्य तेरा सो सकता था।
तू जीवन भर रो सकता था।
जो जख्म मिले सह ले हँसकर-
इससे भी बुरा हो सकता था।।


पुस्तक के शीर्षकवाली ग़ज़ल में आज दैन्य पर वे करारी चोट करते हैं :
चाँद से हैं खूबसूरत, भूख में दो रोटियाँ,
कोई बच्चा जब मरेगा, क्या करेगी चाँदनी।


आज के शिक्षित बेरोजगार युवक के जीवन की सच्चाई पर व्यंग्य करती उनकी पंक्तियाँ देखिए :
डिग्रिया हैं बैग में, पर जेब में पैसे नहीं,
नौजवां फाके करेगा, क्या करेगी चाँदनी।


एकता की गुहार लगानेवाले देश में एकता क्यों नहीं आ पाती, इसका रहस्योद्घाटन हुल्लड़ करते हैं :
लाख तुम फसलें उगा लो, एकता की देश में,
इसको जब नेता चरेगा, क्या करेगी चाँदनी।


आज की देश की दयनीय स्थिति पर वे आक्रोश सहित लिखते हैं :
कौन-सा है दल यहाँ पर, हैं नहीं दलदल जहाँ,
उल्लुओं का राज हो, तो किस तरह तम जाएगा।
आप चाहें छाप दें, इस बात को अखबार में-
जब कोई लीडर मरेगा, तब जहन्नुम जाएगा।।


और आज की संदिग्ध रेल यात्रा पर उन्होंने सटीक टिप्पणी की है :
रेल गाड़ी का सफर भी, आजकल आसां नहीं,
क्या पता किस ट्रेन के ही, साथ में बम जाएगा।


फिर भी वे इन स्थितियों से घबराते नहीं हैं, सुख और दु:ख तो आने-जाने वाले मेहमान हैं।
है अगर मेहमान कोई चार दिन तो झेल ले
जिस तरह खुशियाँ गईं थीं उस तरह ग़म जाएगा।


इस प्रकार अनेक संस्थाओं द्वारा अभिनंदित और पुरस्कृत, अप्रितम प्रतिभा के धनी, इस लोकप्रिय कवि के बारे में संक्षेप में कहा जा सकता है :
हुल्लड़ मुरादाबादी, अपनी मेधा, प्रतिभा, लगन और साधना से उत्तरोत्तर उन्नति करते हुए देश-विदेश प्रसिद्ध ख्याति अर्जित करनेवाले कलाकार हैं।
उनके द्वारा प्रयुक्त विविध छंद मान्य कसौटी पर खरे उतरते हैं। अत: वे एक सफल छंद प्रणेता हैं।

सरल भाषा द्वारा भावों को रसिकों के हृदय में उतारनेवाले सम्प्रेषण कला में मर्मज्ञ सफलतापूर्वक भावों के सम्प्रेक्षक हैं।
वह सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक वक्रताओं, कुरीतियों, विषमताओं और विद्रूपताओं पर शोध करके चोट करनेवाले सचेतक हैं। वह मानवीय संवेदनाओं की अश्रुधारा में हास्य के कमल खिला देने में सिद्धहस्त हैं।
वह दर्शन की गहन अनुभूतियों को हास्य की चाशनी में लपेटकर सरलतापूर्वक ग्राह्य बना देने में सक्षम हैं। वह अपनी अनूठी व्यंग्य विधा से कृत्रिम ढोंगी और पाखंडी, कुटिलताओं के रहस्योद्घाटक हैं। वह अपनी वाणी और भाषा की प्रवहमानता से हृदयों से हृदय मिलाने के समन्वयक हैं।
वह रसिक समूह को वशीकृत करनेवाले सत्यान्वेषी हास्य मंच के जादूगर हैं।
मनोरमा, कविनगर, बदायूँ (उत्तर प्रदेश)
-ब्रजेन्द्र अवस्थी
स्वरदूत 05832-24074



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