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रवि कहानी

अमिताभ चौधरी

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :85
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 474
आईएसबीएन :81-237-3061-6

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नेशनल बुक ट्रस्ट की सतत् शिक्षा पुस्तकमाला सीरीज़ के अन्तर्गत एक रोचक पुस्तक


सन् 1885 में दशहरे की छुट्टियों मेंरवीन्द्रनाथ अपने संझले भाई सत्येन्द्रनाथ के पास शोलापुर गए, जहां वे नौकरी करते थे। सत्येन्द्रनाथ वहां के जज थे। वहां पर रहकर रवीन्द्रनाथ नेकई बहुत अच्छे लेख लिखे। ''राजा और रानी'' नामक नाटक लिखा। इन्हीं दिनों कलकत्ता में राजनीतिक गतिविधियां जोरों पर थीं। नेशनल कांफ्रेंस के दूसरेअधिवेशन की तैयारी भी चल रही थी। सन् 1885 में राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ।

इस बीच कवि रवीन्द्रनाथ, जमींदार रवीन्द्रनाथ बन गए। सन्189। में देवेन्द्रनाथ ने अपने सबसे छोटे बेटे पर जमींदारी की जिम्मेदारी सौंपकर उन्हें शिलाईदह भेजा। पूर्वी बंगाल के बिराहिमपुर, कालीग्राम औरसाजादपुर तथा उड़ीसा के कुछ परगने ठाकुर जमींदारी में शामिल थे उनकी देखभाल का भार अपने कंधों पर लेकर रवीन्द्रनाथ एक नये काम में जुट गये।जमींदारी संभालने में रवीन्द्रनाथ ने अपनी प्रतिभा दिखाई। इसी दौरान उन्होंने बंगाल के गावों को ठीक से पहचाना। उन्होंने गांवों के विकास केलिए नए वैज्ञानिक तरीकों से खेती करके पैदावार बढ़ाई। उनके लिखे गीत, कविता, कहानी, लेख वगैरह भी छपते रहे। गांव के लोगों से मिलने-जुलने सेउनकी समझ और बढ़ी। उसका परिचय उस दौर की लिखी रचनाओं से मिलता है। खासकर उनकी लिखी कहानियों और 'छिन्नपत्र' नामक पुस्तक से रवीन्द्रनाथ ने 15 मई1890 को भारत सरकार की कुछ नीतियों का विरोध करते

हुए ''मंत्री अभिषेक'' नाम से एक राजनीतिक लेख पढ़ा। उसमें उन्होंने लिखा था, ''सरकारद्वारा मंत्री नियुक्त करने की बजाय आम जनता द्वारा मंत्री का चुनाव करना ज्यादा उचित है।''

इसी बीच जोड़ासांको वाले घर से ''साधना'' नामकएक मासिक साहित्यिक पत्रिका प्रकाशित होने लगी। इस पत्रिका में कहानी, लेख, पुस्तक समालोचना आदि के रूप में सबसे ज्यादा रवीन्द्रनाथ की हीरचनाएं रहतीं। सन् 1892 में भारतीय संगीत समाज का काम शुरू हुआ। इस समाज में नाटक खेलने के लिए रवीन्द्रनाथ ने ''गोड़ाय गलद'' (शुरू में ही बाधा)नामक नाटक लिखा। बीच-बीच में समय निकालकर जमींदारी का काम भी देखते रहते। राजशाही में उनकी भेंट उनके दोस्त लोकेन पालित से हुई। उनसे पहला परिचयविलायत में हुआ था। उनका साथ कवि को अच्छा लगा था। अपने एक और साथी नाटोर के महाराजा जगदिनेन्द्रनाथ से भेंट करने के लिए वे राजशाही से नाटोर भीगए।

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