हास्य-व्यंग्य >> बोलगप्पे बोलगप्पेअशोक चक्रधर
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अशोक चक्रधर के द्वारा लिखा व्यंग्यपूर्ण कविताओं का संग्रह
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
न ठुमरी, न ठप्पे,
न लारा, न लप्पे,
चुनो गोलगप्पे,
सुनो बोलगप्पे !
अचानक तुम्हारे पीछे कोई कुत्ता भौंके,
तो क्या तुम रह सकते हो बिना चौंके !
अगर रह सकते हो तो या तो तुम बहरे हो,
या फिर बहुत गहरे हो !
न लारा, न लप्पे,
चुनो गोलगप्पे,
सुनो बोलगप्पे !
अचानक तुम्हारे पीछे कोई कुत्ता भौंके,
तो क्या तुम रह सकते हो बिना चौंके !
अगर रह सकते हो तो या तो तुम बहरे हो,
या फिर बहुत गहरे हो !
हंसना-रोना
जो रोया
सो आंसुओं के
दलदल में
धंस गया,
और कहते हैं,
जो हंस गया
वो फंस गया
अगर फंस गया,
तो मुहावरा
आगे बढ़ता है
कि जो हंस गया,
उसका घर बस गया।
मुहावरा फिर आगे बढ़ता है
जिसका घर बस गया,
वो फंस गया !
....और जो फंस गया,
वो फिर से
आंसुओं के दलदल में
धंस गया !!
सो आंसुओं के
दलदल में
धंस गया,
और कहते हैं,
जो हंस गया
वो फंस गया
अगर फंस गया,
तो मुहावरा
आगे बढ़ता है
कि जो हंस गया,
उसका घर बस गया।
मुहावरा फिर आगे बढ़ता है
जिसका घर बस गया,
वो फंस गया !
....और जो फंस गया,
वो फिर से
आंसुओं के दलदल में
धंस गया !!
परदा हटा के देखो
ये घर है दर्द का घर, परदे हटा के देखो,
ग़म हैं हंसी के अंदर, परदे हटा के देखो।
लहरों के झाग ही तो, परदे बने हुए हैं,
गहरा बहुत समंदर, परदे हटा के देखो।
चिड़ियों का चहचहाना, पत्तों का सरसराना,
सुनने की चीज़ हैं पर, परदे हटा के देखो।
नभ में उषा की रंगत, सूरज का मुसकाना
वे खुशगवार मंज़र, परदे हटा के देखो।
अपराध और सियासत का इस भरी सभा में,
होता हुआ स्वयंवर, परदे हटा के देखो।
इस ओर है धुआं सा, उस ओर है कुहासा,
किरणों की डोर बनकर, परदे हटा के देखो,
ए चक्रधर ये माना, हैं ख़ामियां सभी में,
कुछ तो मिलेगा बेहतर, परदे हटा के देखो,
ग़म हैं हंसी के अंदर, परदे हटा के देखो।
लहरों के झाग ही तो, परदे बने हुए हैं,
गहरा बहुत समंदर, परदे हटा के देखो।
चिड़ियों का चहचहाना, पत्तों का सरसराना,
सुनने की चीज़ हैं पर, परदे हटा के देखो।
नभ में उषा की रंगत, सूरज का मुसकाना
वे खुशगवार मंज़र, परदे हटा के देखो।
अपराध और सियासत का इस भरी सभा में,
होता हुआ स्वयंवर, परदे हटा के देखो।
इस ओर है धुआं सा, उस ओर है कुहासा,
किरणों की डोर बनकर, परदे हटा के देखो,
ए चक्रधर ये माना, हैं ख़ामियां सभी में,
कुछ तो मिलेगा बेहतर, परदे हटा के देखो,
खींचो खींचो
कौन कह मरा है कि
कैमरा हो हमेशा तुम्हारे पास,
आंखों से ही खींच लो
समंदर की लहरें
पेड़ों की पत्तियां
मैदान की घास !
कैमरा हो हमेशा तुम्हारे पास,
आंखों से ही खींच लो
समंदर की लहरें
पेड़ों की पत्तियां
मैदान की घास !
मतपेटी से राजा
भूतपूर्व दस्यू सुन्दरी,
संसद कंदरा कन्दरी !
उन्होंने एक बात कही,
खोपड़ी
चकराए बिना नहीं रही।
माथा ठनका,
क्योंकि
वक्तव्य था उनका
सुन लो
इस चंबल के बीहड़ों की
बेटी से
राजा
पहले पैदा होता था
रानी के पेट से
अब पैदा होता है
मतपेटी से।
बात चुस्त है,
सुनने में भी दुरुस्त है,
लेकिन अशोक चक्रधर
ये सोचकर शोकग्रस्त है
सुस्त है,
कि राजतंत्र
हमने शताब्दियों भोगा
पेट से हो या पेटी से
क्या इस लोकतंत्र में
अब भी
राजा ही पैदा होगा ?
जब भी
इतिहास का
कोई ख़ून रंगा पन्ना
फड़फड़ाया है,
उसने हास-परिहास में नहीं
बल्कि
उदास होकर बताया है—
राजा माने
तलवार,
जब जी चाहे प्रहार।
राजा माने,
गद्दी,
हरम की परम्पराएं भद्दी।
आक़ा-आकाशी,
सेनापतियों सिपहसालारों की अय्याशी।
राजा माने क्रोध,
मदांध प्रतिशोध।
राजा माने
व्यक्तिगत ख़ज़ाना,
लगान वसूलने को
हथेली खुजाना
राजा माने बंदूक
जो निर्बल पर अचूक
मतपेटी से निकले
राजा और रानी वर्तमान में,
साढ़े पांच सौ हैं।
संविधान में
भूतपूर्व दस्यू सुन्दरी और वर्तमान रानी !
दोहरानी नहीं है।
कोई पुरानी कहानी।
अनुरोध है कि
प्रतिशोध को
जातिवादी कढ़ाई में मत रांधना
मतपेटी से निकल कर
कमर पर पेटी मत बांधना।
हमारा लोकतंत्र बड़ा फ़ितना है,
और कवि का सवाल
सिर्फ़ इतना है,
मेहरबानी होगी
अगर आप बताएंगे,
कि प्रजातंत्र में
मतपेटी से
प्रजा के राजा नहीं
शोषित,
पीड़ित
कराहती हुई
अपने लिए
सुख-चैन चाहती हई
प्रजा के सेवक
कब आएंगे ?
इस प्रजातंत्र में
प्रजा के सेवक कब आएंगे ?
संसद कंदरा कन्दरी !
उन्होंने एक बात कही,
खोपड़ी
चकराए बिना नहीं रही।
माथा ठनका,
क्योंकि
वक्तव्य था उनका
सुन लो
इस चंबल के बीहड़ों की
बेटी से
राजा
पहले पैदा होता था
रानी के पेट से
अब पैदा होता है
मतपेटी से।
बात चुस्त है,
सुनने में भी दुरुस्त है,
लेकिन अशोक चक्रधर
ये सोचकर शोकग्रस्त है
सुस्त है,
कि राजतंत्र
हमने शताब्दियों भोगा
पेट से हो या पेटी से
क्या इस लोकतंत्र में
अब भी
राजा ही पैदा होगा ?
जब भी
इतिहास का
कोई ख़ून रंगा पन्ना
फड़फड़ाया है,
उसने हास-परिहास में नहीं
बल्कि
उदास होकर बताया है—
राजा माने
तलवार,
जब जी चाहे प्रहार।
राजा माने,
गद्दी,
हरम की परम्पराएं भद्दी।
आक़ा-आकाशी,
सेनापतियों सिपहसालारों की अय्याशी।
राजा माने क्रोध,
मदांध प्रतिशोध।
राजा माने
व्यक्तिगत ख़ज़ाना,
लगान वसूलने को
हथेली खुजाना
राजा माने बंदूक
जो निर्बल पर अचूक
मतपेटी से निकले
राजा और रानी वर्तमान में,
साढ़े पांच सौ हैं।
संविधान में
भूतपूर्व दस्यू सुन्दरी और वर्तमान रानी !
दोहरानी नहीं है।
कोई पुरानी कहानी।
अनुरोध है कि
प्रतिशोध को
जातिवादी कढ़ाई में मत रांधना
मतपेटी से निकल कर
कमर पर पेटी मत बांधना।
हमारा लोकतंत्र बड़ा फ़ितना है,
और कवि का सवाल
सिर्फ़ इतना है,
मेहरबानी होगी
अगर आप बताएंगे,
कि प्रजातंत्र में
मतपेटी से
प्रजा के राजा नहीं
शोषित,
पीड़ित
कराहती हुई
अपने लिए
सुख-चैन चाहती हई
प्रजा के सेवक
कब आएंगे ?
इस प्रजातंत्र में
प्रजा के सेवक कब आएंगे ?
गति का कुसूर
क्या होता है कार में,
पास की चीज़ें
पीछे दौड़ जाती हैं
तेज़ रफ़्तार में !
और ये शायद
गति का ही कसूर है,
कि वही चीज़
देर तक
साथ रहती है
जो जितनी दूर है।
पास की चीज़ें
पीछे दौड़ जाती हैं
तेज़ रफ़्तार में !
और ये शायद
गति का ही कसूर है,
कि वही चीज़
देर तक
साथ रहती है
जो जितनी दूर है।
मंत्रिमंडल विस्तार
आप तो जानते हैं
सपना जब आता है
तो अपने साथ लाता है
भूली-भटकी भूखों का
भोलाभाला भंडारा।
जैसे
हमारे केन्द्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार
हे करतार !
सत्तर मंत्रियों के बाद भी
लंबी कतार।
अटल जी बोले—
अशोक !
कैसे लगाऊं रोक ?
इतने सारे मंत्री हो गए,
और जो नहीं हो पाए
वो दसियों बार रो गए।
इतने विभाग कहां से लाऊं,
सबको मंत्री कैसे बनाऊं ?
मैंने कहा—
अटल जी !
जानता हूं
जानता हूं, आपकी पीड़ा,
कॉकरोच से भी ज़्यादा
जानदार होता है—
कुर्सी का कीड़ा !
कुलबुलाता है, छटपटाता है,
पटकी देने की
धमकी से पटाता है।
मैं जानता हूं
कुर्सी न पाने वाले
घूम रहे हैं उखड़े-उखड़े,
और ख़ुश करने के चक्कर में
अपने किए हैं
एक-एक विभाग के
दो-दो टुकड़े।
मेरे सुझाव पर विचार करिए
अब दो के चार करिए।
वे बोले—
कैसे ?
मैंने कहा—
ऐसे
जैसे आपने
मानव संसाधन से
खेलकूद मंत्रालय अलगाया है,
इस तरह से
एक कैबिनेट मंत्री बढ़ाया है।
अब ये जो मंत्रालय है
खेलकूद का
यहां दो लोग मज़ा ले सकते हैं
एक अमरूद का।
एक को बनाइए खेल मंत्री,
दूसरे को कूद मंत्री।
सारा काम लोकतंत्री !!
अटल जी बोले—
अशोक !
इसी बात का तो है शोक।
अपने काबीना में
जितने मंत्री हैं
आधे खेल मंत्री
आधे कूदमंत्री हैं।
असंतुष्ट
दुष्ट खेल, खेल रए ऐं,
वक्ष पर
प्रत्यक्ष दंड पेल रए ऐं।
हमीं जानते ऐं कैसे झेल रए ऐं।
मैंने कहा—
बिलकुल मत झेलिए।
खुलकर खोलिए।
सबको ख़ुश करने के चक्कर में
लगे रहे
और विहिप की व्हिप पर
सिर्फ़ राम नाम जपना है,
तो याद रखिए
सत्ता में बने रहना
सपना है।
देश को नहीं चाहिए
कोई व्यक्तिगत
या धार्मिक वर्जना,
देश को चाहिए
हर क्षेत्र में सर्जना।
देश को नहीं चाहिए
फ़कत उद्घोषण,
देश को चाहिए
जन-जन का पोषण।
सपना जब आता है
तो अपने साथ लाता है
भूली-भटकी भूखों का
भोलाभाला भंडारा।
जैसे
हमारे केन्द्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार
हे करतार !
सत्तर मंत्रियों के बाद भी
लंबी कतार।
अटल जी बोले—
अशोक !
कैसे लगाऊं रोक ?
इतने सारे मंत्री हो गए,
और जो नहीं हो पाए
वो दसियों बार रो गए।
इतने विभाग कहां से लाऊं,
सबको मंत्री कैसे बनाऊं ?
मैंने कहा—
अटल जी !
जानता हूं
जानता हूं, आपकी पीड़ा,
कॉकरोच से भी ज़्यादा
जानदार होता है—
कुर्सी का कीड़ा !
कुलबुलाता है, छटपटाता है,
पटकी देने की
धमकी से पटाता है।
मैं जानता हूं
कुर्सी न पाने वाले
घूम रहे हैं उखड़े-उखड़े,
और ख़ुश करने के चक्कर में
अपने किए हैं
एक-एक विभाग के
दो-दो टुकड़े।
मेरे सुझाव पर विचार करिए
अब दो के चार करिए।
वे बोले—
कैसे ?
मैंने कहा—
ऐसे
जैसे आपने
मानव संसाधन से
खेलकूद मंत्रालय अलगाया है,
इस तरह से
एक कैबिनेट मंत्री बढ़ाया है।
अब ये जो मंत्रालय है
खेलकूद का
यहां दो लोग मज़ा ले सकते हैं
एक अमरूद का।
एक को बनाइए खेल मंत्री,
दूसरे को कूद मंत्री।
सारा काम लोकतंत्री !!
अटल जी बोले—
अशोक !
इसी बात का तो है शोक।
अपने काबीना में
जितने मंत्री हैं
आधे खेल मंत्री
आधे कूदमंत्री हैं।
असंतुष्ट
दुष्ट खेल, खेल रए ऐं,
वक्ष पर
प्रत्यक्ष दंड पेल रए ऐं।
हमीं जानते ऐं कैसे झेल रए ऐं।
मैंने कहा—
बिलकुल मत झेलिए।
खुलकर खोलिए।
सबको ख़ुश करने के चक्कर में
लगे रहे
और विहिप की व्हिप पर
सिर्फ़ राम नाम जपना है,
तो याद रखिए
सत्ता में बने रहना
सपना है।
देश को नहीं चाहिए
कोई व्यक्तिगत
या धार्मिक वर्जना,
देश को चाहिए
हर क्षेत्र में सर्जना।
देश को नहीं चाहिए
फ़कत उद्घोषण,
देश को चाहिए
जन-जन का पोषण।
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