हास्य-व्यंग्य >> सो तो है सो तो हैअशोक चक्रधर
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अशोक चक्रधर के द्वारा लिखी गयी व्यंग्य पूर्ण कविताएँ...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सो तो है
गरीबी है- सो तो है,
भुखमरी है – सो तो है,
होतीलाल की हालत ख़स्ता है
-सो तो ख़स्ता है,
उनके पास कोई रस्ता नहीं है
– सो तो है।
पांय लागूं, पांय लागूं बौहरे
आप धन्न हैं,
आपका ही खाता हूं
आपका ही अन्न है।
सो तो है खचेरा !
वह जानता है
उसका कोई नहीं,
उसकी मेहनत भी उसकी नहीं है
– सो तो है।
भुखमरी है – सो तो है,
होतीलाल की हालत ख़स्ता है
-सो तो ख़स्ता है,
उनके पास कोई रस्ता नहीं है
– सो तो है।
पांय लागूं, पांय लागूं बौहरे
आप धन्न हैं,
आपका ही खाता हूं
आपका ही अन्न है।
सो तो है खचेरा !
वह जानता है
उसका कोई नहीं,
उसकी मेहनत भी उसकी नहीं है
– सो तो है।
ठेकेदार भाग लिया
फावड़े ने
मिट्टी काटने से इंकार कर दिया
और
बदरपुर पर जा बैठा
एक ओर
ऐसे में
तसले की मिट्टी ढोना
कैसे गवारा होता ?
काम छोड़ आ गया
फावड़े की बगल में।
धुरमुट की क़ंदमताल.....रुक गई,
कुदाल के इशारे पर
तत्काल,
झाल ज्यों ही कुढ़ती हुई
रोती बड़बड़ाती हुई
आ गिरी औंधे मुंह
रोड़ी के ऊपर।
-आख़िर ये कब तक ?
-कब तक सहेंगे हम ?
गुस्से में ऐंठी हुई
काम छोड़ बैठ गईं
गुनिया और वसूली भी
ईंटों से पीठ टेक,
सिमट आया नापासूत
कन्नी के बराबर।
-आख़िर ये कब तक ?
-कब तक सहेंगे हम ?
गारे में गिरी हुई बाल्टी तो
वहीं-की-वहीं
खड़ी रह गई
ठगी-सी।
सब्बल
जो बालू में धंसी हुई खड़ी थी
कई बार
ज़ालिम ठेकेदार से लड़ी थी।
-आख़िर ये कब तक ?
-कब तक सहेंगे हम ?
-मामला ये अकेले
झाल का नहीं है
धुरमुट चाचा !
कुदाल का भी है
कन्नी का, वसूली का,
गुनिया का, सब्बल का
और नापासूत का भी है,
क्यों धुरमुट चाचा ?
फवड़े ने ज़रा जोश में कहा।
और ठेक पड़ी हथेलियां
कसने लगीं-कसने लगीं
कसती गईं-कसती गईं।
एक साथ उठी आसमान में
आसमान गूंज गया कांप उठा डरकर।
ठेकेदार भाग लिया टेलीफ़ोन करने।
मिट्टी काटने से इंकार कर दिया
और
बदरपुर पर जा बैठा
एक ओर
ऐसे में
तसले की मिट्टी ढोना
कैसे गवारा होता ?
काम छोड़ आ गया
फावड़े की बगल में।
धुरमुट की क़ंदमताल.....रुक गई,
कुदाल के इशारे पर
तत्काल,
झाल ज्यों ही कुढ़ती हुई
रोती बड़बड़ाती हुई
आ गिरी औंधे मुंह
रोड़ी के ऊपर।
-आख़िर ये कब तक ?
-कब तक सहेंगे हम ?
गुस्से में ऐंठी हुई
काम छोड़ बैठ गईं
गुनिया और वसूली भी
ईंटों से पीठ टेक,
सिमट आया नापासूत
कन्नी के बराबर।
-आख़िर ये कब तक ?
-कब तक सहेंगे हम ?
गारे में गिरी हुई बाल्टी तो
वहीं-की-वहीं
खड़ी रह गई
ठगी-सी।
सब्बल
जो बालू में धंसी हुई खड़ी थी
कई बार
ज़ालिम ठेकेदार से लड़ी थी।
-आख़िर ये कब तक ?
-कब तक सहेंगे हम ?
-मामला ये अकेले
झाल का नहीं है
धुरमुट चाचा !
कुदाल का भी है
कन्नी का, वसूली का,
गुनिया का, सब्बल का
और नापासूत का भी है,
क्यों धुरमुट चाचा ?
फवड़े ने ज़रा जोश में कहा।
और ठेक पड़ी हथेलियां
कसने लगीं-कसने लगीं
कसती गईं-कसती गईं।
एक साथ उठी आसमान में
आसमान गूंज गया कांप उठा डरकर।
ठेकेदार भाग लिया टेलीफ़ोन करने।
माशो की मां
नुक्कड़ पर माशो की मां
बेचती है टमाटर।
चेहरे पर जितनी सारी झुर्रियां हैं
झल्ली में उतने ही टमाटर हैं।
टमाटर नहीं हैं
वो सेब हैं,
सेब भी नहीं
हीरे-मोती हैं।
फटी मैली धोती से
एक-एक पोंछती है टमाटर,
नुक्कड़ पर माशो की मां।
गाहक को मेहमान-सा देखती है
एकाएक हो जाती है काइयां
-आठाने पाउ
लेना होय लेउ
नहीं जाउ।
मुतियाबिंद आंखों से
अठन्नी का खरा-खोटा देखती है
और
सुतली की तराजू पर
बेटी के दहेज-सा
एक-एक चढ़ाती हैं टमाटर
नुक्कड़ पर माशो की मां।
-गाहक की तुष्टी होय
एक-एक चढ़ाती ही जाती है
टमाटर।
इतने चढ़ाती है टमाटर
कि टमाटर का पल्ला
ज़मीन छूता है
उसका ही बूता है।
सूर्य उगा-आती है
सूर्य ढला-जाती है।
लाती है झल्ली में भरे हुए टमाटर
नुक्कड़ पर माशो की मां।
बेचती है टमाटर।
चेहरे पर जितनी सारी झुर्रियां हैं
झल्ली में उतने ही टमाटर हैं।
टमाटर नहीं हैं
वो सेब हैं,
सेब भी नहीं
हीरे-मोती हैं।
फटी मैली धोती से
एक-एक पोंछती है टमाटर,
नुक्कड़ पर माशो की मां।
गाहक को मेहमान-सा देखती है
एकाएक हो जाती है काइयां
-आठाने पाउ
लेना होय लेउ
नहीं जाउ।
मुतियाबिंद आंखों से
अठन्नी का खरा-खोटा देखती है
और
सुतली की तराजू पर
बेटी के दहेज-सा
एक-एक चढ़ाती हैं टमाटर
नुक्कड़ पर माशो की मां।
-गाहक की तुष्टी होय
एक-एक चढ़ाती ही जाती है
टमाटर।
इतने चढ़ाती है टमाटर
कि टमाटर का पल्ला
ज़मीन छूता है
उसका ही बूता है।
सूर्य उगा-आती है
सूर्य ढला-जाती है।
लाती है झल्ली में भरे हुए टमाटर
नुक्कड़ पर माशो की मां।
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