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काका-काकी के लव लैटर्स

काका हाथरसी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4727
आईएसबीएन :81-288-1024-3

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‘कॉफ़ी मिलेगी बाद में, पहले अंदर आओ। सफ़ाई में कुछ हाथ बँटाओ।’ हमने कुर्ता उतारकर खूँटी पर टाँग दिया। धोती को लंगोटी की तरह लपेट लिया और देने लगे अर्धांगिनी का साथ। ‘तुम हमारे कमरे की सफ़ाई करो, हम तुम्हारे की करेंगे।’

Kaka kaki ke Love Letters

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

विशिष्ट व्यक्तित्व के स्वामी काका हाथरसी अपने अनूठे अंदाज के लिए प्रसिद्ध रहे। अपने खा़स अंदाज में कभी-कभी वे काकी के लव लैटर्स के बारे में कहा करते थे। अपनी अलग काव्य-शैली में आम आदमी की समझ में आ सकने वाली बात कहना उनकी विशेषता थी। बनावटीपन और शब्दजाल से कोसों दूर काका जी की आसान भाषा ने उन्हें जनप्रिय कवि बनाया। उनकी कविता में जनता को बांध लेने की असाधारण क्षमता थी।
इस महाकवि द्वारा काकी को लिखे तमाम लव लैटर्स को यहाँ प्रकाशित किया गया है जो दुर्लभ हैं।

धन्यवाद, साधुवाद, नमस्कार, शुक्रिया, थैंक्स


धन्यवाद
प्रस्तुत पुस्तक का अधिकांश श्रेय कानपुर के आदरणीय सर पदमपत सिंघानियाँ और उनके पुत्र डा. गौरहरि एवं श्री गोविंदहरि को सादर अर्पण कर रहा हूँ, जिनकी कृपा से भभकती हुई गर्मी के दो महीने काटने के लिए उनके कमला कैसल्स मसूरी में मुझे विश्राम करने का परमिट प्राप्त हो जाता है। गैस्टहाउस के बैस्ट गुदगुदे गद्दों पर बैठकर यह पुस्तक लिखी गई है, तभी तो इसमें गुदगुदी समा गई है।

साधुवाद
कविवर अशोक चक्रधर को, जिनके सहयोग और सान्निध्य ने लव-लैटर्स के संपादन में मेरा हाथ बटाया। बावन वर्ष पहले के तितर-बितर फटे-टूटे पत्रों को व्यवस्थित करना, सजाना-सँवारना कोई आसान कार्य नहीं था। इसे चक्रधर जैसा युवक ही कर सकता है।

नमस्कार
मसूरी के पं. बैजरामजी ज्योतिषाचार्य को। हमको अपने विवाह की तिथि तो मालूम थी-बसंत पंचमी संवत् 1982 किंतु तारीख में संदेह था। उन्होंने 52 वर्ष पूर्व के पंचांग ढूँढ़ खोजकर तारीख कनफर्म की, 18 जनवरी सन् 1926 ई.। हमने कहा, ‘पंडितजी दक्षिणा ले लीजिए।’ उन्होंने कहा, ‘छप जाए तब पुस्तक दे दीजिए।’ अत: उस समय केवल नमस्कार से ही चल गया काम। हरे कृष्ण हरे राम।

शुक्रिया
बेटी (डा.) मीना और डा. गिरिराजशरण अग्रवाल को, जिन्होंने पांडुलिपि की प्रेस कापी तैयार कराई, हल हो गई अंतिम कठिनाई।

थैंक्स-यू
कविवर वीरेंद्र तरुण, तुमने ही तो आसाम यात्रा में अपना सजैशन दिया था कि काका, आपकी आगामी पुस्तक का नाम ‘लव-लैटर्स काकी-काका के‘ होना चाहिए। हमने कहा था कि बुढ़ापे में लव से क्या मतलब ? तुम्हारा उत्तर था कि बुढ़ापा तो आपसे अभी कोसों दूर है। विवाह से पहले की कुछ याद काकी करें, कुछ आप कीजिए। उन दिनों के प्रेमपत्र तलाश कीजिए। मिल ही जाएँगे किसी पुराने कबाड़े में।

तबसे हम बराबर श्रीमती काकी की चमचागीरी करते रहे और कहते रहे, ‘डार्लिंग, तुम्हारी कृपा के बिना यह कार्य सफल नहीं हो सकता।’ ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ’ की उक्ति के अनुसार गहराई में गोता लगाए बिना ही पुराने प्रेमपत्र बरामद हो गए। कैसे हुए, कहाँ से हुए, यह विस्तार से आगामी पृष्ठों में देखिए।
-काका हाथरसी

काकी का पर्स : लव-लैटर्स


‘कॉफ़ी मिलेगी बाद में, पहले अंदर आओ। सफ़ाई में कुछ हाथ बँटाओ।’
हमने कुर्ता उतारकर खूँटी पर टाँग दिया। धोती को लंगोटी की तरह लपेट लिया और देने लगे अर्धांगिनी का साथ।
‘तुम हमारे कमरे की सफ़ाई करो, हम तुम्हारे की करेंगे।’
‘नहीं-नहीं, अपना-अपना कमरा ठीक करो। मेरी चीज़ों को हाथ मत लगाना, तितर-बितर कर दोगे।’
हमने कहा, ‘तुम जैसा चाहोगी, वैसा ही करेंगे। बाज़ार से थके-माँदे आए हैं। पहले एक-एक कप कॉफ़ी हो जाए, फिर सफ़ाई करेंगे।’ वे कॉफ़ी बनाने चली गईं और हम चुपचाप उनके कमरे में घुस गए। एक ढीला-ढाला बक्सा, जिसका ताला सौभाग्य से खुला हुआ था, उसकी गर्द झाड़ी और खोलकर देखा। बीस-इक्कीस साबुन की बट्टियाँ भिन्न-भिन्न रंगों की इधर-उधर पड़ी हुई थीं, जबकि कल ही उन्होंने कहा था कि एक भी साबुन की बट्टी नहीं है। हमारी जिज्ञासा बढ़ गई और नीयत भी बिगड़ गई। चार बट्टियाँ निकालकर धोती में खोंस लीं। तलाश जारी रखी।
रसोई से आवाज़ आई, ‘कॉफ़ी बन गई है, आ जाओ।’ हमने फौरन बक्सा बंद किया। उन्होंने आहट सुनी और फटाफट अंदर आकर बोलीं, ‘क्या कर रहे थे ?’

‘क्या कर रहे थे ! इस बक्से के ऊपर ढेरों गर्द जमा रखी थी, उसे साफ़ कर रहे थे।’
‘फिर खोला क्यों था ?’
‘इसमें ताला नहीं था इसलिए खोल लिया।’
‘कुछ निकाला है क्या, इसमें से ? चलो, चलो कॉफ़ी पिओ ?
इस तरह हमें बाहर भेज दिया। रसोई में बैठे-बैठे ही हमने ताला लगाने की खटक सुनी। यह अच्छा हुआ कि उन्होंने उस समय उसे खोलकर नहीं देखा, वरना सामान की उलट-पलट देखकर उबल पड़तीं।
‘कल मैंने कहा था साबुन लाए ?’
हमने अंटी में से चारों टिकियाँ निकालकर कहा, ‘यह लो दो लक्स, दो हमाम। बन गया काम ! लाओ इनके दाम।’
‘मैंने दस रुपए दिए थे। उसमें से बचे होंगे?’
‘बचे होंगे ! खील, बताशे और खिलौने क्या मुफ़्त में देता दुकानदार ?’
थोड़ी देर को चुप हो गई। फिर तत्काल बोलीं, तब तो कम पड़ गए होंगे ! दस रुपए में सब सामान आ गया ?
हमने कहा, ‘साबुन वाले का उधार कर आए हैं।’

‘लेकिन ये दे कैसे दिए। इनके कागज फटे-पुराने दिखाई दे रहे हैं। कब का उठा लाए हो ?’
‘बात यह थी कि साबुन का स्टाक निबट गया था। पहले तो उसे मना कर दिया कि साबुन नहीं है। फिर हमारे विशेष आग्रह पर अंदर गया और अपनी पत्नी के ट्रंक में से चार बट्टी निकालकर ले आया।’
‘हैं ! पत्नी के बक्से में से ?’
‘हाँ-हाँ, तो क्या हुआ ? आजकल सभी पत्नियाँ अपने बक्सों में साबुन का स्टॉक छिपाकर रखती हैं।’
‘रखती हैं तो क्या बुरा करती हैं ? जब बाज़ार में नहीं मिलता तो निकालकर भी तो वही देती हैं।’
‘तुमने तो आज तक हमें निकालकर नहीं दिया। हमीं निकालकर लाए हैं।’
यह सुनकर वे मुस्काई और हम खिलखिलाकर हँस पड़े। फिर बोलीं, ‘अच्छा, अब यह तो बता दो, उसमें से और क्या-क्या उड़ंछू किया है ?
‘और क्या उसमें रोकड़ रखी थी, जो निकाल लेते। सोचा था कि उसमें से दो-चार सौ-सौ के नोट मिलेंगे, पाई भी नहीं मिली एक सड़ा-सा हजार वाला नोट मिला था। वो आज दो कौड़ी का भी नहीं है।’

‘अच्छा, अब इन बातों को छोड़ो, सफ़ाई करें ! पहले तुम अपनी अलमारी साफ़ कर लो। हम अपनी साफ़ करेंगे।’
वे अपनी कोठरी में घुस गईं और हमें यह समझने में देर न लगी कि वे अपने ट्रंक को उलट-पलटकर चीज़ें चैक कर रही हैं। एक ठंडी साँस भरकर उन्होंने अपने बक्से का ताला लगा दिया और अलमारी साफ़ करने लगीं। बक्स में लक्स देखकर अन्य वस्तुओं के बारे में हमारी जिज्ञासा बढ़ गई। उस समय आधा ही देख पाए थे कि कॉफ़ी के लिए आवाज़ लग गई।
रात के बारह बजे जब वे खर्राटे भरने लगीं तो हम उठे, टॉर्च सँभाली और उनके तकिए के नीचे से तालियों का गुच्छा खींचकर दबे पाँव बक्से तक पहुँच गए। ताला खोला और बक्से की गहराइयों में डुबकी लगाने लगे। पाठकों को अब सारी चीज़ों के नाम बताकर बोर क्यों करें। सबसे कीमती चीज़ जो हाथ लगी, वह थी-हमारे उनके बावन वर्ष पुराने प्रेम-पत्रों का पुलंदा जो उनके पुराने पर्स में रखा हुआ था। उसे पाकर प्रसन्नता के मारे हमारे मन में मेंढक कूदने लगे। सब चीज़ों को वैसा ही छोड़कर, पत्र पुलंदे को छाती से लगाकर अपनी चारपाई पर आ गए। खुशी के मारे ताला लगाना भी भूल गए। नींद तो उड़ ही चुकी थी। टॉर्च जलाकर एक-एक प्रेम-पत्र पलटने लगे। पुरानी स्मृतियाँ उभरने लगीं। सब कुछ हमारा-उनका लिखा हुआ था, सुना-सुनाया और चखा हुआ था, फिर भी बावन वर्ष बाद उन्हें पढ़ने में एक विचित्र प्रकार के सुख की अनुभूति हो रही थी। उन्हें न मालूम कैसे कुछ शुबहा हुआ और खाँसीं हम तत्काल टॉर्च बंद करके नकली खर्राटे भरने लगे, विचार पुरानी स्मृतियों में भ्रमण करने लगे। जवानी के वे शब्द जो पत्र-व्यवहार में प्रयुक्त किए गए थे, अब हमें फूलों की मार, मार रहे थे।

मुर्गा बोला तो दिन निकला। न बोलता तो हरगिज नहीं निकलता। गनीमत थी कि मुर्गी अभी तक सो रही थी, वह भी बोलने लगती तो शायद दोपहर हो जाती। बस, हम प्रेम-पुलंदे को लेकर अपनी बैठक में आ गए, अंदर की चटकनी लगा ली और पढ़ते रहे, पढ़ते रहे। न मालूम कितनी बार उन्होंने नाश्ते और भोजन के लिए कुंडी खटखटाई। अंतिम खटखटाहट के साथ एक तीखी आवाज़ आई, ‘क्या फिर सो गए बैठक में आकर ?’
हमने प्रेम-पुलंदे को छिपाकर किवाड़ खोल दिए। सबसे पहले वे कंधे पर हाथ रखकर बोलीं, ‘रात को क्या-क्या चुराया था मेरे बक्से में से ? ईमान से बताओ !’
‘जो कुछ कहेंगे, सच-सच कहेंगे। सच के अलावा कुछ नहीं कहेंगे। चार अदम साबुन की टिक्की लाए थे, वह तुम्हें सौंप ही दी हैं। चाँदी की सुराही जो वर्षों से बक्से में लेट रही थी, उसकी वहीं पर करवट बदल दी है। शादी का झगा और पगड़ी भी चूमकर उसी में छोड़ आए हैं। और..और..यह देखो, यह प्रेम-पुलंदा निकालकर ले आए हैं।’

पुलंदे को देखकर वे हतप्रभ रह गईं। उनकी आँखों में विचित्र प्रकार की चमक दिखाई दी। साथ उनके होंठों पर वह प्यारी मुस्कान तैर आई, जो हमने शादी से पहले प्रथम दर्शन में बगीचे में झूला-झूलते समय देखी थी।
हमने कहा,‘चिंता मत करो सेठानी, यह बड़ी अनमोल वस्तु हाथ लगी है। हम भविष्यवाणी करते हैं कि जितना वज़न इस प्रेम-पुलंदे में है, उतने ही वज़न के नोट तुम्हारी भेंट करेंगे। डायमंड पॉकेट बुक्स के संपादक का विशेष आग्रह था कि काका इस बार कोई चटपटी पुस्तक दो तो काम बने।’
‘हमारी-तुम्हारी प्राइवेट बातें दूसरे सुनेंगे तो क्या कहेंगे ?’
‘कहेंगे क्या, कुछ सीखेंगे ही। बोलो, तुम्हारी आज्ञा हो तो ये प्रेम-पत्र पुस्तकाकार तैयार करके उनको दे दें। जितनी रॉयल्टी आएगी, फिफ़्टी-फिफ़्टी बांट लेंगे हम-तुम।’

‘हुँ; अभी तो कह रहे थे कि सब तुमको दे देंगे। बड़ी जल्दी रंग बदलते हो, जगजीवनराम की तरह।’
‘तुम भी तो अड़ जाती हो अपनी बात पर, मोरारजी भाई की तरह।’
‘अच्छा बाबा, जैसी तुम्हारी राज़ी। लेकिन इन पत्रों में कहीं ऐसी-वैसी बात आए तो काट देना।’
‘हमने कहा, ऐसी-वैसी कैसी?’
वो बोलीं, ‘तुम्हारे थूथड़े जैसी। चलो हटो।’
वे एक झटके के साथ चली गईं और हम पत्रों को कुरेदने में लग गए। फिर हमने पत्रों का एक क्रम तैयार कर लिया और सोचा कि साथ-ही-साथ इन पत्रों के रंगीन संदर्भ भी पाठकों को बताते जाएँ। उनके साथ पत्र दुहरा मज़ा देंगे।
प्रेम-पुलंदा खुला तो निकल पड़ा मैटर्र
बहुत समय से क़ैद थे, इनमें लव लैटर्स
इनमें लव लैटर्स, प्रेम-रस पान कीजिए
बच्चे, बूढ़े, युवक सभी आनंद लीजिए
चिकनी-चुपड़ी बात बनाकर फेंका फंदा
तब काकी से झपटा है यह प्रेम-पुलंदा।
-काका हाथरसी
संगीत कार्यालय
हाथरस (उ.प्र.)



लव-लैटर्स काका-काकी के


हाथरस
5 जुलाई,1925
आगरे की लली
मेरे दिल की कली,
यह पत्र लिखते हुए हृदय में उथल-पुथल हो रही है, जैसे इम्तहान के कमरे में जाते हुए हमारी हुई थी। दिल धक्-धक् कर रहा है। कलम काँप रही है और इस पत्र को बाँचकर तुम क्या सोचोगी, हमारी अक्ल यह नाप रही है। कहीं नाराज़ हो गईं तो सब गुड़-गोबर हो जाएगा। फिर भी लिखे बिना दिल नहीं मानता। कल बगीची से डंड पेलकर घर आए तो देखा कि बैठक में चार-पाँच आदमी बैठे हुए हैं। उनको सूँघने पर पता चला कि पीली पगड़ी वाले तो थे तुम्हारे मामा, काली टोपी वाले नाई ठाकुर थे और टोपा वाले पता नहीं कौन थे। जैसे ही हम कमरे में दाखिल हुए, बातचीत एकदम बंद हो गई। हमारे मामा ने फुदककर कहा, ‘लो जी यह है लड़का।’ हमारा हृदय धड़का। मामा बड़े प्यार से बोले,‘सबको राम-राम करो, बेटा। ये सब आगरे से आए हैं।’

आगरे का नाम सुनते ही दालमोठ और पेठा दिखाई देने लगे। हमें क्या पता था कि आगरे का संबंध तुमसे भी है। खैर सब घूर-घूरकर हमें ऐसे देखने लगे, जैसे कोई पेटू हलवाई की दुकान पर खड़ा बालूशाइयों को देखता है। कोई हमारे मुँह की ओर देख रहा था, कोई हाथ की तरफ़, कोई पैरों की तरफ़। हमारे शरीर पर जहाँ-तहाँ लगी हुई थी अखाड़े की मिट्टी और गुम हो रही थी सिट्टी-पिट्टी। टोपा वाले बोले, ‘यह क्या बेटा, जगह-जगह खुजली हो गई है ?’ हमने मिट्टी झाड़कर कहा, ‘अभी-अभी अखाड़े से कुश्ती लड़कर आए हैं।’
नाई ने पूछा, ‘कितनी दंड पेलते हो लाला ?’
हमने कहा, ‘चार सौ बीस सुबह, चार सौ बीस शाम।’
और क्या करते हो काम ?’
हमारे मामा बीच में ही बोल उठे, ‘अजी बड़ी ऊँची जगह काम करता है।’ फिर हमसे कुछ सीधे सवाल तुम्हारे नाई ने किए। हमने कविता में उत्तर दिए। हम यहाँ उन प्रश्नोत्तरों को इसलिए लिख रहे हैं कि तुम अपनी सखी-सहेलियों को बता सको कि हम कविता भी करते हैं। सबसे पहला प्रश्न था-तुम्हारी उम्र कितनी है लल्लू ?
हमारा उत्तर :
ठीक उम्र तो जानते हैं केवल माँ-बाप,
वैसे लगभग बीस है, समझ लीजिए आप।
दूसरा प्रश्न : कितने पढ़े हो अब तक ?
हमारा उत्तर :
जहाँ तक पढ़ाया, वहाँ तक पढ़े हैं,
            एक-एक दर्जा में दो-दो बार चढ़े हैं।
प्रश्न : एक बात और बताओ लाला ! बुरा मत मानना। तुम्हारी आँखों में काजल कौन लगाता है, अम्मा या मामी ?
उत्तर :
अम्मा या मामी कभी, काजल नहीं लगाए,
    अंगुली काजल लगाती, फटाफट्ट लग जाए।
प्रश्न : कुछ भजन-पूजा भी करते हो ?
उत्तर :
माला जपते राम की, नित्य एक सौ आठ,
     साठ बार हम कर चुके, रामायण का पाठ।
फिर तुम्हारे मामा पूछने लगे, ‘क्यों बेटा, तु्म्हें अपने पिताजी की कुछ याद है क्या ?’
हम बोले :
प्लेग पी गई पिता को, हमें नहीं कुछ याद,
मामी-मामा ने हमें, पाला उसके बाद।

अब टोपा वाले चहके : तनखा कितनी मिलती है, लल्लू ?
हमने उत्तर दिया :
रुपए ला ला दे रहे हर महीने पच्चीस,
जब हो जाए ब्याह तब, तक दें पूरे तीस।
फिर नाई मिमियाया : यारबास कितने हैं तुम्हारे ?
उत्तर:
किस-किस का लें नाम हम, यार बहुत दिलदार,
मारें सीटी एक तो, लंबी लगे कतार।
उस दिन जल्दबाजी में हमारे पायजामे का नाड़ा कुर्ते से नीचे लटका रह गया था तो नाई ने पूछा, ‘पाजामे का यह नाड़ा हर समय इसी तरह लटकाए रहते हो क्या ?’
हमने उत्तर दिया :
नाड़ा बहुत प्रसन्न है, रखो ताक पर लाज,
दर्शन करने आपके, लटक गया है आज।

सुनकर सब हँस गए। हमने अनुभव किया फँस गए। पर नाई ठाकुर तो बड़े चतुर होते हैं। उनको यह बात कुछ चुभ गई और कहने लगे, ‘ठीक-ठीक जवाब दो कुँवरजी ! उल्टी-सीधी बात समझ में नहीं आती।’ हम फिर भी नहीं चूके और यह दोहा सुना दिया:
कविता चलती है सदा, आड़ी-तिरछी चाल,
जैसे नाई काटते, उल्टे-सीधे बाल।
यह बात भी नाई को चुभ गई हो तो तुम उन्हें मना लेना, क्योंकि अभी उनसे बहुत काम निकालना है। उन्होंने भाँजी मार दी, तो बना-बनाया बिगड़ जाएगा खेल। फिर कैसे चढ़ेगा दूल्हा-दुलहन पर तेल !

और भी बहुत से प्रश्न तुम्हारे मामाजी ने पूछे। हम उनके संतोषजनक जवाब देकर बाहर आ गए। उन्हें विश्वास हो गया कि लड़का हकला नहीं है। आवाज भी कड़कदार है। सूरत-सीरत भी ठीक-ठाक है। वे संतुष्ट से दिखाई दिए तो हम चले आए। फिर भी किवाड़ के पीछे खड़े होकर उनका निर्णय जानने के लिए उत्सुक हो रहे थे। हमारे जाने के बाद नाई ने तुम्हारे अंग-प्रत्यंग और सौंदर्य का मनोहारी चित्र खींचा। जबसे यह वर्णन सुना है, तबसे तुम्हारा चित्र बारंबार आँखों के सामने आता रहता है। मन चाहता है कि तुम्हारी एक छटा दिख जाए तो हृदय की मुरझाई हुई कली खिल जाए। क्या ऐसा कोई साधन हो सकता है कि हम ताजमहल देखने के बहाने अपनी ‘मुमताज’ को भी देख सकें ? विश्वास रखो, हम वहाँ किसी से भी नहीं कहेंगे कि हम अमुक हैं।

खड़े-खड़े हमने तुम्हारे मामाजी के मुख से तुम्हारा नाम पहली बार सुना। वे कह रहे थे-‘रतना के लिए यह लड़का ठीक रहेगा।’ वाह, क्या प्यारा नाम है रतना। जैसे रत्नों का ढेर। फिर मन में विचार आया कि तुलसीदास की रत्नावली तुलसीदास को बहुत फटकारा करती थी, कहीं ऐसी न हो ? और जब तुम्हारे मामाजी ने बेलनगंज में घर बताया तो कुछ कँपकँपी सी आई, लेकिन अंतरात्मा बोली, ‘घबराओ, मत तात ! इसमें डरने की क्या बात। पत्नी की फटकार से ही तो तुलसीदास विश्व में प्रसिद्ध हो गए। विद्योत्मा के व्यंग्यवाणों से कालिदास महाकवि हो गए। तुम्हारा भी फ्यूचर ब्राइट हो सकता है।’

प्यारी रतना ! थोड़ी-बहुत हम भी करते हैं काव्य-रचना। भाँवरों के समय जब तुम्हारी मामी तथा सखी-सहेलियाँ इकट्ठी होकर परिपाटी के अनुसार कहेंगी कि लालाजी सिल्लोक (श्लोक) सुनाओ; तब देखना हमारा कमाल। ऐसी-ऐसी तुकबंदी सुनाएँगे कि सबके गाल शर्म से हो जाएँगे लाल। अब तो यही इच्छा है कि तुम्हारी तथा तुम्हारी मामी की स्वीकृति मिल जाए तो मामला फिट हो जाए। हमारा फोटो तुम्हारे मामाजी ले गए हैं लेकिन बदले में तुम्हारा नहीं दे गए हैं। कहने लगे-‘हमारे यहाँ लड़कियों के फोटो नहीं खिंचवाए जाते।’ खैर, तुम्हारा जो रूप-वर्णन नाई ने किया है, उससे चौथाई भी निकला तो चलेगा।

अपने फोटो के बारे में एक बात और बतानी है-फोटोग्राफर की भूल से हमारे बाएँ गाल पर एक छोटा-सा काला निशान आ गया है। उसे तिल मत समझ लेना। वास्तव में उस समय गाल पर एक मक्खी बैठ गई थी। यह फोटो हमने दाऊजी के मेले में चलते-फिरते फोटोग्राफर से चवन्नी में खिंचवाया था। एक अठन्नी वाला खिंचवाते तो मजा आ जाता। तब वह मक्खी को उड़ाकर ही फोटो खींचता। तुमसे क्यों छिपाएँ, मेले में गर्म जलेबी बन रही थीं। दो पैसे की आठ जलेबी खाकर आए थे। गाल पर जरा चाशनी जम गई होगी। फिर मक्खी का भी क्या कसूर ! कोई ग़लत कल्पना नहीं करना हजूर !
अब इन फोटुओं की चर्चा छोड़ें और कुछ ऐसा जुगाड़ लगाएँ कि हम तुम्हें देखें, तुम हमें देखो। हाथ से हाथ न सही, आँखों से आँख मिल जाएँ।

हट जाएँ सब बीच से, दूरी की दीवार,
अब तो इच्छा है यही, हो प्रत्यक्ष दीदार।

मन नहीं कर रहा, फिर भी यह पत्र समाप्त कर रहे हैं। कोई पढ़ न ले इसलिए अपने हाथों ही से लिफाफा बंद करके लैटरबक्स में डालने जा रहे हैं । इस पत्र का उत्तर घर के पते पर न भेजकर दूकान के पते पर भेजना। पता इस प्रकार है-
काका हाथरसी, द्वारा सेठ राधेप्रसाद पोद्दार।
नयागंज, हाथरस।
बड़ी बेकरारी से तुम्हारे पत्र की प्रतीक्षा करेंगे। उत्तर नहीं मिलेगा, तब तक आहें भरते रहेंगे।
                                    तुम्हारा होने वाला,
                                    प्राणों से प्यारा, काका
पुनश्च: तुम्हारे मामा ने हमारे मामा से हमारी जन्म-कुंडली माँगी थी। वे भेजेंगे या भूल जाएँगे, कहा नहीं जा सकता। उन्हें क्या जल्दी है, जल्दी तो हमें है। इस कुंडली को देखकर एक ज्योतिषी ने कहा था कि इस लड़के के लखपती होने का योग है और यह विद्वान बनेगा, क्योंकि ग्रह में बृहस्पति है। यह बात हम तुम्हें फाँसने के लिए नहीं लिख रहे, भगवान कसम, बिल्कुल फैक्ट है।


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