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रामकथा कालजयी चेतना

के.सी.सिन्धु

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4699
आईएसबीएन :81-8143-614-8

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रामकथा पर आधारित उपन्यास....

Ramkatha kaljayi chetna

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पुरोवाक्

बचपन से ही राम नाम का उच्चारण हमारी दैनिक प्रार्थना का अंग था। रामायण की कथा केरळ के हिंदू घरों में महाकवि एषुत्तच्छन के अध्याय रामायणम् किळ्प्पाट् के माध्यम से प्रचलित थी। घर के कुलवद्ध कर्कटक के महीने में हर संध्या में देवी-देवताओं के चित्र के सामने दीप जलाकर अध्यात्म रामायण का पाठ करते थे। वैसे ही जैसे लोग उत्तर भारत में रामचरित मानस का पाठ करते थे। राम और हनुमान बचपन में हमारे प्रिय पौराणिक पात्र थे।

श्री नरेन्द्र का उपन्यास अभ्युदय पहली बार पढ़ा तो लगा कि राम की कहानी में कहीं-कहीं जो कुछ भी शंकाएँ उठती थीं, उन सबका समाधान लेखक ने अपनी रचना में प्रस्तुत किया है। अभ्युदय के अध्ययन से रामकथा की गहनताओं में जाने का अवसर मिल रहा था। समझ में आया कि राम, सीता, लक्ष्मण आदि भारतीय जनमानस में क्यों और कैसे प्रविष्ट हुए हैं।
रामकथा के माध्यम से श्री नरेन्द्र कोहली पीड़ित जनता के अभ्युदय के लिए जन आंदोलन के पक्षधर के रूप में सामने आए। इच्छा हुई कि रामकथा को अधिक गहनता से जानना है और समझना है। परिणामतः वाल्मीकीय रामायण के राम को निकट से जानने का प्रयत्न आरंभ किया। लेकिन वाल्मीकीय रामायण के राम को अधिक समझने के लिए नहीं था; क्योंकि वाल्मीकीय रामायण के राम वही थे, जो जन मानस में स्थान पाए थे। समझ में आया कि राम विश्वामित्र से जन कल्याण की मंत्रदीक्षा प्राप्त करके वन जाने के अवसर की प्रतीक्षा में थे और कैकेयी के दो वरों के माध्यम से उन्हें वन जाने और पीड़ित जनता का नेतृत्व करने का अवसर मिल रहा था। फिर तो संघर्ष होना ही था और अंततः युद्ध हुआ। राक्षसी शक्तियों का अंत होकर जनता का अभ्युदय हुआ।

दोनों ओर से राम के संबंध में जो कुछ जाना है, पहचाना है, उसी को इस पुस्तक में अभिव्यक्त करने का प्रयत्न किया है। आशा है कि राम को अधिक जानने और भारतीय समाज की वर्तमान समस्याओं के समाधान के लिए राम की क्षमता का उपयोग करने के लिए यह अध्ययन सहायक हो सकता है।

 

डॉ. के.सी.सिन्धु

 

:1:
पूर्वपीठिका

 

हर देश की अपनी संस्कृति होती है। मानव संस्कृति की एकसूत्रता के बावजूद अपने देश की सांस्कृतिक पहचान में हर देश गर्व का अनुभव करता है। देश के जनमानस में जिन पुराकथाओं ने स्थान पाया है, उनके संबंध में भी यही स्थिति है। पुराकथाओं की सांस्कृतिक पहचान हर युग में बनी रहती है। देश की संस्कृति के विकास के साथ पुराकथाओं का रूप परिवर्तन हो सकता है, पर उनकी एक मूल चेतना होती है, जो कालजयी होती है। पुराकथाओं की इस कालजयी चेतना के कारण वे संस्कृति के विकास में भी योगदान करती हैं।

भारतीय पुराकथाओं की इस कालजयी चेतना के कारण ही वह सहस्रों वर्षों से भारतीय साहित्य में किसी न किसी रूप में उपस्थित रही हैं। वे हर युग में अपना अस्तित्व बनाए रखती हैं। इन पुराकथाओं के कारण भारतीय साहित्य रोचक और आकर्षक बन पड़ा है। भारत की इन पौराणिक रचनाओं को मिथकों की श्रेणी में स्थान दिया गया है। भारत की किसी भी भाषा का साहित्य इन पौराणिक रचनाओं के पात्रों, कल्पनाओं से मुक्त नहीं रहा है। राम, सीता, कृष्ण, राधा, शिव पार्वती, गंगा, यमुना, हस्तिनापुर, द्वारका, वृंदावन आदि जिस प्रकार भारतीय संस्कृति का अनन्य अटूट भाग हैं, उसी प्रकार वे सारी भारतीय भाषाओं के साहित्य के भी अभिन्न अंग हैं।
भारतीय साहित्य पौराणिक रचनाओं से मुक्त नहीं रहा, हिंदी साहित्य भी उसका अपवाद नहीं है। सत्य तो यह है कि भारतीय साहित्य में हिंदी साहित्य की जितनी विशालता और प्रधानता है, उसी मात्रा में पौराणिक कथाओं को भी हिंदी साहित्य में स्थान मिला है।

पौराणिक कथाओं के प्रति साहित्यकार के दृष्टिकोण में परिवर्तन भी होता है। इस परिवर्तन के कई कारण हो सकते हैं। भक्तिकाल में तत्कालीन राजनीतिक परिवेश के प्रभाव से लोग पौराणिक रचनाओं के पात्रों को अवतारी व्यक्तित्यों के रूप में देखने लगे और उनमें स्वयं को अर्पितकर जीने लगे और भक्ति का विकास हुआ। संस्कृत में वाल्मीकीय रामायण के प्रभाव से अध्यात्म रामायण और अध्यात्म रामायण के प्रभाव से हिंदी में रामचरितमानस का प्रणयन इसका परिणाम था।
पौराणिक रचनाओं के प्रति व्यक्ति के दृष्टिकोण में अंतर हो सकता है। पौराणिक पात्र को उसकी अलौकिकता, अतिमानवीयता के कारण अवतारी व्यक्ति के रूप में देखा जा सकता है और उसके प्रति भक्ति की भावना भी हो सकती है। कोई पौराणिक कथा के साहित्यिक महत्त्व को देख सकता है, तो दूसरा उसे कोरी कल्पना मानकर उसको अंधविश्वास को प्रोत्साहित करने वाली सामग्री मान सकता है। अन्य कई भक्ति के स्थान पर आदर का भाव रख सकता है, कोई काल्पनिक होते हुए भी कथा के स्रष्टा की कल्पना शक्ति और उसके कालजयी दृष्टिकोण से अभिभूत हो सकता है। उपन्यासकार नरेन्द्र कोहली ने अपनी रचना अभ्युदय में इनमें से किसी का भी तिरस्कार नहीं किया; कथा की महानता पात्र की मानवीय क्षमता रचनाकार का कालजयी दृष्टिकोण आदि सब को स्वीकार किया है, पर अलौकिकता और चामत्कारिकता से मुक्त करके पात्रों और कथा सन्दर्भों को मानवीय धरातल पर देखने का प्रयत्न किया है।

हर समाज में प्रचलित पुराकथाओं के माध्यम से हम समाज की चेतना को पहचान पाते हैं। साहित्य में ही चेतना का स्पंदन सबसे अधिक स्पष्ट है। जब आधुनिक युग के किसी साहित्य में पुराकथा को स्थान दिया जाता है तो उसकी महानता उस कथा को उसी प्रकार अलौलिक और चामत्कारिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने में नहीं है, बल्कि युग चेतना का संवाहक बनाने में है। नरेन्द्र कोहली के उपन्यासों में युग चेतना को प्रतिबिंबित करने और उसके विश्लेषण करने के उपन्यासों में युगचेतना को प्रतिबिंबित करने और उसके विश्लेषण करने के लिए पौराणिक कथा का उपयोग किया गया है। इसलिए उनके ऐसे उपन्यासों में हम युगचेतना को निकट से देख पाते हैं, उसे पहचान पाते हैं और युग सत्य से मिथकीय सत्य की तुलना कर पाते हैं। इसलिए हम तुलना कर सकते हैं कि पौराणिक युग और आधुनिक युग में क्या कुछ ताल मेल रहा है, क्या कुछ समानताएँ रही हैं ?

भारतीय मनीषा ने ‘ईशावास्यमेद सर्वम्’ के सत्य को पहचाना है। इसके साथ यह भी सत्य है कि मानव कुछ विशेष बोध-तेज से प्रकृति का एक अंग बना खड़ा है। इस बोध-तेज को ईश्वरीय शक्ति के रूप में देखा जा सकता है। जिन लोगों में इस बोध तेज की अधिकता होती है, वे साधारण जन न होकर विशिष्ट होते हैं और वे कुछ ऐसी मेधा प्रकट करते हैं, जो दूसरों के लिए अविश्सनीय होती है, अतिमानवीय लगती है। ऐसे लोगो के कर्म दूसरों के लिए मार्गदर्शक होते हैं, अनुकरणीय होते हैं। उनके सिद्धांत व्यक्ति को समस्याओं से मुक्त करते हैं। श्रीराम का व्यक्तित्व इसी का उदाहरण है। प्रकृति के लिए ऐसे अतिमानव अनिवार्य होते हैं; क्योंकि प्रकृति सदा ही अपना संतुलन बनाए रखना चाहती है। प्रकृति के सत्य की यह पहचान व्यक्ति को समस्याओं से मुक्त करती है।

मानव संस्कृति के क्रमानुगत विकास के साथ उसके मानवीय गुणों में विशिष्टताएँ आ गईं। पर इस विकास के साथ मानव मन में और समाज में सत् और असत् का विभाजन स्पष्ट हो गया। मनुष्य ने अपनी बुद्धि से प्रकृति को पहचाना और प्रकृति को ललकारने और उस पर विजय पाने की आकांक्षा जाग्रत हुई। लोगों की दो श्रेणियों स्पष्ट हुई-सतोगुणी और तमोगुणी। सतोगुणी लोगों ने समाज का कल्याण अपना लक्ष्य माना और तमोगुणियों ने स्वार्थ को अपना लक्ष्य बना लिया। सतोगुणी में परार्थ की भावना थी तो तमोगुणी में स्वार्थ की। तमोगुणी राक्षस कहलाए। वे किसी भी प्रकार अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए प्रयत्न करते रहे।

प्रकृति में गुण-दोषों और सत्-असत् का संतुलित अस्तित्व है। जब असत् का पलड़ा भारी होता है, संघर्ष शुरू होता है और दूसरे पलड़े में बोध-तेज का नया पुंज अवतीर्ण होता है। यह प्रकति की आवश्यकता है। आदर्श व्यक्तियों का रूपायन इसी का परिणाम है। सामाजिक चेतना उस व्यक्ति के प्रभाव से जाग्रत होती है और समाज उसके नेतृत्व में संघर्ष के लिए खड़ा होता है। समाज की परिस्थितियाँ उसके लिए अनुकूल करवट बदलती हैं। समाज का यह जागरण दूसरी ओर दुष्ट शक्तियों पर भी प्रतिबिंबित होता है। वे भी अपना बल बढ़ाने का प्रयत्न करती हैं। शक्ति की यह वृद्धि दोनों पक्षों में इस प्रकार होती है कि अंतिम विस्फोट में तमोगुणी शक्ति का सर्वनाश करके सतोगुणी शक्ति का अभ्युदय होता है। नरेन्द्र कोहली का उपन्यास अभ्युदय वाल्मीकीय रामायण की रामकथा को नए परिप्रेक्ष्य में नए धरातल पर पहचानने का प्रयत्न है।



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