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नारी विमर्श >> सच में लिपटा झूठ

सच में लिपटा झूठ

कमल कुमार,सपना बरगोती

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :123
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4698
आईएसबीएन :81-288-1438-9

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नारियों की वास्तविक दशा का वर्णन....

Sach Mein Lipta Jhoot

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

क्या आप जानते हैं

1. कि दुनिया में विधवाओं की संख्या ही ज्यादा क्यों है ?
2. कि दहेज हमेशा कन्या पक्ष को ही क्यों देना पड़ता है ?
3. कि समाज में महिलाओं का अनुपात पुरुषों से कम क्यों होता जा रहा है ?
4. कि महिलाओं को मस्जिद, श्मशान घाट इत्यादि में जाने की अनुमति क्यों नहीं है ?
5. कि क्यों केवल सती प्रथा ही प्रचलन में आई, सता प्रथा क्यों नहीं ?
6. कि सारे रीति-रिवाज, बंधन, वर्जनाएं केवल महिलाओं के लिए ही क्यों बनते हैं ?
7. समाज में नारियों को केवल भोग-विलास की वस्तु माना जाता है, इससे ज्यादा कुछ नहीं ?

पुरुषों ने सामाजिक नियम ऐसे बनाए जिनसे कि नारियां हमेशा पुरुषों के लिए विलासिता का साधन/नौकरानी (सेविका) ही बनकर रह गईं। शादी तक की प्रणाली को इतने षड्यंत्रात्मक तरीके से बनाया गया कि पुरुष की आयु महिला की आयु से ज्यादा रक्खी गयी ताकि पुरुषों को जब वे बूढ़े हो जाएं तो उनकी सेवा के लिए उनकी उम्र से कम एक अवैतनिक (जिसे वेतन न दिया जाए) नौकरानी 24 घंटे उनकी सेवा में हाजिर रहे और जब वे मर जाएं तो उनकी विधवा के रूप में उनकी औलादों की परवरिश करे। ऐसा न जाने कितने षड्यंत्रों के खिलाफ नारी जाति को जाग्रत करने के लिए हमने यह पुस्तक लिखी है।

इसमें हमारा प्रयास उस झूठ को जिसे कि सच के लबादे में लपेट कर समाज के सामने परोसा जाता है, उसे उजागर करना है। नारियों को उनकी वास्तविक दशा से अवगत कराना है। अतः प्रत्येक स्त्री पुरुष विशेषकर नौजवानों से हमारा आग्रह है कि इस पुस्तक को पढ़ें।

आभार


दुनिया में असंख्य लेख ऐसे हुए हैं जिन्होंने अपने स्वछंद, अमूल्यवान एवं उत्कृष्ठ विचारों को कागज पर तो उतारा और उन विचारों को संकलित करके एक पुस्तकीय रूप तो प्रदान किया परन्तु लेखन के बाद प्रकाशित होने के मध्य के सफर ने जब उनकी परीक्षा लेनी शुरू की तो उस परीक्षा में धीरे-धीरे वे पिछड़ते गये और अंततः उन्होंने हार को स्वीकार कर लिया। जिसके परिणामस्वारूप वे कभी भी अपनी पुस्तक को प्रकाशित नहीं करा पाये।
ऐसा शायद हमारे साथ भी होता अगर हम डायमंड पॉकेट बुक्स ना आये होते और उसके निदेशक नरेन्द्र वर्मा से ना मिले होते तो शायद हम भी अपने विचारों को आप तक पहुंचाने में सक्षम ना हुए होते।
उनके इस कृत्य के लिये हम लेखकगण उनके तहे दिल से आभारी हैं एवं जीवन भर शुक्रगुजार रहेंगे।

लेखक/लेखिका द्वारा

भूमिका


एन्ड्रयू मेलाविले ने एक बार कहा था, ‘‘सत्य की खोज करने वाले व्यक्ति को यातना का भय दिखाया जा सकता है, मूर्ख कहकर उसकी हँसी उड़ाने की चेष्टा की जा सकती है लेकिन इससे सत्य में कोई बदलाव नहीं आता। सत्य को सूली पर लटकाने या देश से निष्काशित कर देने की शक्ति किसी में नहीं है। सत्य पर आक्रमण किया जा सकता है, उसकी हँसी उड़ाई जा सकती है। उसे विलम्बित किया जा सकता है, उसे दबाया जा सकता है, परन्तु समय इसका बदला ले ही लेता है और अन्त में विजय सत्य की होती है। मनुष्य को इस बात की सावधानी बरतनी चाहिए कि कहीं वह सत्य के विरुद्ध तो नहीं लड़ रहा है।

इस पुस्तक के द्वारा हम ऐसे सच को दुनिया के सामने लाना चाहते हैं जो सर्वथा सच है। परन्तु वे सच की इस पुरुष शासित समाज पर हमेशा चोट करते हैं। एक बार रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे महाविद्वान ने कहा था, ‘‘मनुष्य के अत्याचार से भयभीत होकर सत्य को विकृत मत करो।’’
सचमुच इस पुरुष शासित समाज में सच को इतना विकृत कर दिया गया है कि पुरुष ने प्रत्येक सच या झूठ को अपने तर्कों, वितर्कों या कुतर्कों से अपने पक्ष में मोड़ दिया है, उसने हर सच या झूठ को ऐसा रूप दिया है कि जो केवल पुरुष के पक्ष में खरा उतरता है। इस पुस्तक की प्रेरणा मुझे बचपन से ही मेरी मां श्रीमती कान्ता देवी से अपरोक्ष रूप से मिली है।

वह सुबह उठती और एक इलेक्ट्रानिक मशीन की भांति काम करती। उनका पहला लक्ष्य हम सब बच्चों को तैयार करके स्कूल भेजना होता था। इस सब को करते-करते वह साल में स्वयं कितनी बार चाय पीना भूली ये शायद उन्हें नहीं पता परन्तु मैंने हमेशा से यह बात नोट की थी कि ज्यादातर दिन उन्हें हमारी वजह से चाय भी नसीब नहीं होती थी। हमारे बाद पूरे दिन वह जिन्दा मशीनी यन्त्र पूरे घर का काम करती, देर रात को कब सोती थी हमें नहीं पता फिर अगले दिन.......फिर वही काम...................शायद यही नारी जीवन था। मेरे मानसिक पटल पर नारी के इस नरकीय जीवन की इतनी अमिट छाप पड़ी कि मैं हमेशा नारी की वास्तविक स्थिति को जानने की कोशिश करती रही और पढ़ती रही बीच-बीच में मैं अपने भावों को कागज पर लाने का प्रयत्न करती रही।
जैसे :-

Who am I- I don’t know
From where I came- I don’t know wanna know
For where I am to go- I will not be able to know
What is the reason of my arrival in
This world-I am trying to know all about you ?

परन्तु बड़ी होने पर मैंने पाया कि समाज में स्त्री एक ऐसा पशु है जिसे आदमी पालता है दूसरे जानवरों की तरह परन्तु उसके गले में जंजीर नहीं डालता परन्तु यह कमी थी इस आदमी नामक चालाक प्राणी ने दूसरी तरह से पूरी कर रखी है। उसने नारी के गले में जंजीर तो नहीं डाली परन्तु उसके पैरों में पर्दा प्रथा, दहेज प्रथा, सती प्रथा, बाल-विवाह प्रथा, घर से बाहर नहीं जाना, बिना पति की आज्ञा के कोई काम नहीं करना, पति उसका परमेश्वर है जो वह कहता है या करता है केवल वही सही है आदि बेड़ियां डालकर उसे (स्त्री को) चहुं ओर बांध देता है। यहां मैं यह भी कहना चाहूंगी कि अपनी इस भयावह स्थिति के लिए वो स्वयं भी काफी हद तक जिम्मेदार है। वह (स्त्री) इसी तरह आदमी की गुलाम रहकर ही खुश रहती है। वह स्वयं आजाद होना नहीं चाहती है।
इस पुस्तक को लिखने के प्रति हमारा आशय आदमी के अह्म पर कुठाराघात करना नहीं है, परन्तु उस सोई नारी को जाग्रत करने की कोशिश है जो इस दम्भी समाज में जानवर से बदतर जीवन जी रही है। ऐसा करते हुए यदि मैं एक भी महिला को जाग्रत कर पाई तो स्वयं को धन्य समझूंगी, मानूंगी कि मेरी माता के जीवन से मुझे जो प्रेरणा मिली वह सार्थक थी।

1
नारी की सामाजिक स्थिति
समाज में नारी की स्थिति


यह बहुधा कहा गया है कि जीवन के युद्ध में जिसको कि मनुष्य परिस्थितियों के विरुद्ध लड़ता है, नारी की भूमिका द्वितीय पंक्ति में रहती है। यह बात निश्चय ही बड़ी महत्त्वपूर्ण है किन्तु आज हम पुरुष और नारी में कोई भेद नहीं करते हैं। जहां तक कि उनके दर्जे की समानता का सम्बन्ध है। नारी को भी मोर्चे अर्थात् प्रथम पंक्ति पर होने का उतना ही अधिकार है जितना कि पुरुषों को।

जहां तक दोनों की क्षमता प्रदर्शन का प्रश्न है यह सिद्ध हो चुका है कि नारी की क्षमताओं का कुल योग पुरुष की क्षमताओं के कुल योग से कम नहीं होता है किन्तु आप देखते हो कि हमारे समाज में नारी की स्थिति वह नहीं है जो होनी चाहिए।
समाज में नारी को पुरुष के साथ गौण स्थान प्राप्त है। जन्म से ही लड़का और लड़की के मध्य हमारे परिवारों में भेद किया जाता है। लड़के के जन्म के समय तो बड़ी खुशियां मनायी जाती हैं। दावतें होती हैं, परन्तु लड़की के पैदा होने पर चेहरे पर एक झूठी हँसी ही, उत्पन्न की जाती है जो यदा-कदा हमारे शब्दों में भी बयां हो ही जाता है कि यार क्या करे लड़की पैदा हुई है या दूसरी भी लड़की ही हो गई।

परिवार से प्राप्त पौष्टिक आहार का बड़ा भाग लड़के को चला जाता है उसको शिक्षा एवं उन्नति के अन्य अवसरों के मामलों में भी अधिक ध्यान दिया जाता है। जैसे-जैसे बच्ची बड़ी होती है प्रतिबन्धों की जंजीरें उस पर बराबर कड़ी और कड़ी होती जाती हैं। समय बीतते-बीतते उसमें हीनता ग्रन्थि विकसित होने लगती है और यह ग्रन्थि मृत्यु तक उसका साथ देती है।
विवाह नामक एक सामाजिक प्रथा के रूप में उसको केवल एक वस्तु की तरह समझा जाता है। दहेज के सौदे व्यापार के सौदों की भांति तय किए जाते हैं और यदि अपर्याप्त दहेज वह (स्त्री) लाई तो उसको भांति-भांति के कष्ट सहने पड़ते हैं और कभी-कभी तो मृत्यु भी उन्हें कम या अपर्याप्त दहेज लाने के बदले उपहार स्वरूप में दे दी जाती है। नारी जो हम सबकी मां है। आज उसको इस दीन स्थिति में ढकेल दिया गया है कि परिवार में बच्ची के जन्म पर निराशा का माहौल होता है।
जबकि लड़के के जन्म पर आनन्द और उत्सव मनाने का अवसर होता है। परन्तु हाय रे दुर्भाग्य !

 

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