लेख-निबंध >> हिन्दू निशाने पर (प्रतिरोध का रास्ता) हिन्दू निशाने पर (प्रतिरोध का रास्ता)सुब्रमण्यम स्वामी
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लेखक का तर्क है कि हिंदुत्व, एक अदृश्य बहुआयामी घेरेबंदी में है जैसा पहले कभी नहीं था और यह घेरेबंदी केवल वही देख सकते हैं जिन्हें इसे देखने के लिए सतर्क कर दिया जाए।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
लेखक का तर्क है कि हिंदुत्व, एक अदृश्य बहुआयामी घेरेबंदी में है जैसा
पहले कभी नहीं था और यह घेरेबंदी केवल वही देख सकते हैं जिन्हें इसे देखने
के लिए सतर्क कर दिया जाए। लेखक का संकेत है कि हिंदुत्व की घेराबंदी चार
आयामों में दर्शित होती है।
1.धार्मिक-हिन्दू देवी, देवता और आदर्शों का अपमान और अवमानना;
2.मनोवैज्ञानिक- हमारे इतिहास का धोखाधड़ी पूर्ण स्वरूप हम पर थोपना :
3.भौतिक-इस्लामी आतंकवाद द्वारा कश्मीर और बंगलादेश में से हिंदुओं का सफाया, और ईसाई धर्म द्वारा धन प्रलोभन से धर्म-परिवर्तन;
4.सांस्कृतिक- उदाहरणार्थ भूमंडलीकरण के माध्यम से रुचियों, पहनावे और पारस्परिक नैतिकता में परिवर्तन, जिनका निर्धारण आंग्ल सैक्सन श्वेत ईसाई दुनिया (पश्चिम) द्वारा होता है।
लेखक तर्क-सहित बतलाता है कि हिन्दुओं को सामूहिक रूप से एक नई मानसिकता बनानी चाहिए ताकि वे बढ़ती हुई अत्यंत बहुआयामी घेरेबंदी की चुनौती का सामना कर सकें, जो स्वरूप में अंतर्राष्ट्रीय है- अन्यथा हिन्दुओं के लिए भय है कि प्राचीन युनानियों, मिश्रवासियों और बेबीलोनियनों की भांति वे भी समाप्त हो जाएंगे।
1.धार्मिक-हिन्दू देवी, देवता और आदर्शों का अपमान और अवमानना;
2.मनोवैज्ञानिक- हमारे इतिहास का धोखाधड़ी पूर्ण स्वरूप हम पर थोपना :
3.भौतिक-इस्लामी आतंकवाद द्वारा कश्मीर और बंगलादेश में से हिंदुओं का सफाया, और ईसाई धर्म द्वारा धन प्रलोभन से धर्म-परिवर्तन;
4.सांस्कृतिक- उदाहरणार्थ भूमंडलीकरण के माध्यम से रुचियों, पहनावे और पारस्परिक नैतिकता में परिवर्तन, जिनका निर्धारण आंग्ल सैक्सन श्वेत ईसाई दुनिया (पश्चिम) द्वारा होता है।
लेखक तर्क-सहित बतलाता है कि हिन्दुओं को सामूहिक रूप से एक नई मानसिकता बनानी चाहिए ताकि वे बढ़ती हुई अत्यंत बहुआयामी घेरेबंदी की चुनौती का सामना कर सकें, जो स्वरूप में अंतर्राष्ट्रीय है- अन्यथा हिन्दुओं के लिए भय है कि प्राचीन युनानियों, मिश्रवासियों और बेबीलोनियनों की भांति वे भी समाप्त हो जाएंगे।
ज्ञान के अभाव में
बुद्धिमता खो गयी।
बुद्धिमता के अभाव में
चरित्र खो गया।
चरित्र के अभाव में
पहल-गति खो गयी।
पहल-गति के अभाव में
धन खो गया।
धन के अभाव में
पददलित खो गये।
सब कुछ ज्ञान के अभाव में खो गया।
बुद्धिमता खो गयी।
बुद्धिमता के अभाव में
चरित्र खो गया।
चरित्र के अभाव में
पहल-गति खो गयी।
पहल-गति के अभाव में
धन खो गया।
धन के अभाव में
पददलित खो गये।
सब कुछ ज्ञान के अभाव में खो गया।
-महात्मा ज्योतिबा फुले
यदि
यदि तुम उस समय अपना दिमाग बनाये रख सको
जब सब अपना खो रहे है और दोष तुम पर मढ़ रहे हैं,
यदि तुम उस समय अपने पर भरोसा बनाये रख सको
जब सब आदमी तुम पर संदेह कर रहे हों,
किन्तु उनके दुमुहे होने को भी समझ लो,
यदि तुम प्रतीक्षा कर सको और प्रतीक्षा से उबो नहीं,
या जब इस समय में तुमसे झूठ बोला जा रहा है, और तुम झूठ न बोलो,
या घृणा किये जाने पर भी घृणा करने में न पड़ो,
और साथ ही बहुत बढ़िया न दिखो, या ज्यादा बुद्धिमता से न बोलो,
यदि तुम सपना देख सको और सपनो को अपना स्वामी न बनने दो,
यदि तुम सोच सको और विचारों को अपना लक्ष्य न बनाओ,
यदि तुम विजय और विनाश से मिल सको
और इन दोनों छद्म वेषियों को समान मान सको,
यदि तुम अपने कहे गये सच को सुनना सहन कर सको
जिसे बदमाशों ने मूर्खों को फँसाने के लिए तोड़-मरोड़ दिया है,
या उन चीजों को टूटे हुए देख सको, जिनके लिए तुमने अपनी जान लगा दी,
और फिर सिर झुककर उन्हें अपने घिसे-पिटे औज़ारों से फिर बना लो,
यदि तुम अपनी सारी विजयों का एक ढेर बना कर
और इसे सिक्का उछाल कर खोने-मिलने वाले दाँव पर लगा सको,
और खो सको, और शुरू से फिर शुरूआत कर सको
और अपने नुकसान की हवा भी न निकालो
यदि तुम अपने दिल, स्नायुओं और पुट्ठों को मजबूर कर सको
कि खत्म होने के बावजूद अन्दर इस इच्छा शक्ति के अलावा
जो कहती है ‘डटे रहो’ कुछ न हो,
यदि तुम भीड़ से बात कर सको और अपने सद्गुण बचाये रख सको,
यदि न तो शत्रु और न प्रिय मित्र ही तुम्हें चोट पहुँचा सकें,
यदि सब लोग तुम्हारे साथ हों, किन्तु कोई बहुत बड़ा नहीं,
यदि तुम क्षमा न करने वाला मिनट को
लम्बी दौड़ से साठ सेकेण्डों से भर सको
तो यह धरती और इसकी हर चीज़ तुम्हारी है,
और-इससे भी अधिक-तुम एक आदमी होगे, मेरे बेटे।
जब सब अपना खो रहे है और दोष तुम पर मढ़ रहे हैं,
यदि तुम उस समय अपने पर भरोसा बनाये रख सको
जब सब आदमी तुम पर संदेह कर रहे हों,
किन्तु उनके दुमुहे होने को भी समझ लो,
यदि तुम प्रतीक्षा कर सको और प्रतीक्षा से उबो नहीं,
या जब इस समय में तुमसे झूठ बोला जा रहा है, और तुम झूठ न बोलो,
या घृणा किये जाने पर भी घृणा करने में न पड़ो,
और साथ ही बहुत बढ़िया न दिखो, या ज्यादा बुद्धिमता से न बोलो,
यदि तुम सपना देख सको और सपनो को अपना स्वामी न बनने दो,
यदि तुम सोच सको और विचारों को अपना लक्ष्य न बनाओ,
यदि तुम विजय और विनाश से मिल सको
और इन दोनों छद्म वेषियों को समान मान सको,
यदि तुम अपने कहे गये सच को सुनना सहन कर सको
जिसे बदमाशों ने मूर्खों को फँसाने के लिए तोड़-मरोड़ दिया है,
या उन चीजों को टूटे हुए देख सको, जिनके लिए तुमने अपनी जान लगा दी,
और फिर सिर झुककर उन्हें अपने घिसे-पिटे औज़ारों से फिर बना लो,
यदि तुम अपनी सारी विजयों का एक ढेर बना कर
और इसे सिक्का उछाल कर खोने-मिलने वाले दाँव पर लगा सको,
और खो सको, और शुरू से फिर शुरूआत कर सको
और अपने नुकसान की हवा भी न निकालो
यदि तुम अपने दिल, स्नायुओं और पुट्ठों को मजबूर कर सको
कि खत्म होने के बावजूद अन्दर इस इच्छा शक्ति के अलावा
जो कहती है ‘डटे रहो’ कुछ न हो,
यदि तुम भीड़ से बात कर सको और अपने सद्गुण बचाये रख सको,
यदि न तो शत्रु और न प्रिय मित्र ही तुम्हें चोट पहुँचा सकें,
यदि सब लोग तुम्हारे साथ हों, किन्तु कोई बहुत बड़ा नहीं,
यदि तुम क्षमा न करने वाला मिनट को
लम्बी दौड़ से साठ सेकेण्डों से भर सको
तो यह धरती और इसकी हर चीज़ तुम्हारी है,
और-इससे भी अधिक-तुम एक आदमी होगे, मेरे बेटे।
-रुडयार्ड किपलिंग
आमुख
1971 में लगभग एक दशक के हार्वर्ड विश्वविद्यालय में अपने अध्ययन और
अध्यापन के बाद में भारत लौटा और सर्वाधिक बिक्री वाला इण्डियन इकनौमिक
प्लानिंग-एन ऑल्टरनैटिव एप्रोच प्रकाशित किया। उसके बाद मैंने सार्वजनिक
मंचों से भारत के लिए बाज़ारी अर्थव्यवस्था को स्वीकारने वाली एक वैकल्पिक
आर्थिक व्यवस्था की रणनीति अपनाने, और विदेश नीति में संयुक्त राज्य
अमेरिका, इज़रायल और चीन से मित्रता बढ़ाने की बात का प्रचार किया ताकि
रूप पर हमारी निर्भरता कम हो सके। उस वैचारिक पैकेज को वामपंथीय विचारधारा
को मानने वाली विद्वत-मंडली ने घोर निन्दा की। किन्तु अब रूस के विखण्डन
और साम्यवादी चीन द्वारा बाज़ार समर्थक सुधारों को स्वीकार किये जाने के
बाद वामपंथी बौद्धिक स्थिति पूरी तरह कमज़ोर हो चुकी है। अत: मेरे विचार
मुख्यधारा बन गये हैं।
1947 में ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासन से मुक्ति के बाद, पाँच दशकों तक भारत की वैचारिक भाव-भूमि वामपंथी झुकाव वाले सामाजिक, धर्मनिरपेक्ष ढाँचे में आबद्ध रही है और इसकी मुख्यधारा में किसी अन्य, भिन्न, महत्त्वपूर्ण, वैचारिक परिप्रेक्ष्य के लिए कोई स्थान नहीं रहा। अर्थव्यवस्था की बृहत्तर ऊँचाइयों को नियंत्रित करने वाली प्रभूत सरकार के कारण, जिस पर उत्तरोत्तर अधिनायिकता की ओर बढ़ने वाली पार्टी का शासन था, इस स्थापित विचारधारा को दी गयी किसी गम्भीर, धर्मनिरपेक्ष वैचारिक चुनौती को प्रारम्भिक अवस्था में ही कुचल दिया जाता था। यहाँ तक कि जब 1991 में राष्ट्र एक गंभीर आर्थिक संकट में था, और जिस समय कष्टदायक नियंत्रण प्रणाली को हटाने की आवश्यकता थी, इसे उसी ढाँचे के स्वाभाविक विकास और सुधार का जामा पहना दिया गया। किन्तु इस सुधार के जनक, प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को जिन्होंने आवश्यकता से अधिक रास्ता बदलने का साहस दिखाया, उनकी पार्टी ने और वामदलों ने अस्वीकार कर दिया, और फिर उनका इतना अपमान किया गया, उनको इतना आघात पहुँचाया गया, और अपराधी की तरह उन पर मुकदमा चलाया गया कि उन्होंने हृदय से हार मान ली। उनके अन्तिम संस्कार में भी उनका सम्मान नहीं किया गया। अपितु उसे उन लोगों के लिए एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया जो उसके वामपंथी झुकाव वाले सामाजिक, धर्मनिरपेक्ष ढाँचे पर सन्देह करते हैं।
इस दमघोंटू वातावरण में केवल दक्षिणापंथी, धार्मिक, उग्र संगठन ही अपने पाँव जमा सकता था, और वही क्रमश: बढ़ता हुआ राष्ट्रीय वैचारिक प्लेटफॉर्म के मंच पर केन्द्र में पहुँच गया। किन्तु वह भी सत्ता और सरकार में मात्र छ: वर्ष रहने के भीतर नेतृत्व की अतीत के असफल वैचारिक ढाँचे से पूरी तरह से अलग होने की अनबूझ अनिच्छा के कारण तिरोहित हो गयी।
वामपंथी झुकाव वाली धर्मनिरपेक्ष समाजवादी और अनुग्रही दक्षिणपंथी दोनों ही प्रकार की पार्टी अपनी पारी खेल चुकी हैं, और उनकी मंच पर दुबारा आसीन होने की सम्भावना नहीं है। आज देश में केवल वैचारिक खिचड़ी ही शेष रह गयी है। जब तक एक नये वैचारिक ढाँचे की योजना साफ़तौर पर लोगों के सामने प्रस्तुत नहीं की जाती तब तक वर्तमान संकट वैचारिक तदर्थवाद चलता रहेगा। यह उलझन भरी स्थिति राष्ट्र को आर्थिक विकास की नई ऊंचाइयों, एक संगठित राष्ट्र और विश्वशक्ति के लिए संघर्ष की दिशा दे सके, नयी दिल्ली में नवीन हिन्दुस्तान ट्रस्ट द्वारा सैन्टर फॉर नेशनल रिनैसा (राष्ट्रीय पुनरुत्थान केन्द्र) की स्थापना की गयी। मैं और मेरे सहयोगी मिलकर जिनसे मिलकर इसका बोर्ड ऑफ गवर्नस बना है, इस बात के लिए सुपरिचित है, कि हम राष्ट्र के पुराने वैचारिक ढाँचे से मतभेद रखते है। मतभेद ने कभी-कभी संघर्ष का रूप ले लिया है और इसके लिए हमको हानि भी उठानी पड़ी है; राष्ट्र ने हमें अपने प्रॉफेनशल जीवन में उचित देय से वंचित रखा है। पुराणपंथी अथवा प्रतिक्रियावादी कहकर हमारी भर्त्सना की गयी। किन्तु हम कभी विचलित नहीं हुए, हमें विश्वास था कि वह सुप्रभात आयेगा जब देश को राष्ट्रीय पुनरुत्थान की वैकल्पिक विचारधारा अथवा आधुनिक पुराण-पंथियों की जरूरत पड़ेगी। नयी सहस्त्राब्दि में उसकी प्रबल संभावना है। अत: हमें पुनरुत्थान के एजेण्डे की स्पष्ट समझ की आवश्यकता है।
इतिहास के वर्तमान मोड़ पर, यदि हमें पुनरुत्थान के धागे वहाँ से पकड़ने हैं जहाँ ये 1947 में टूट गये थे, और जहाँ से स्वामी विवेकानन्द, महर्षि अरविन्द और महात्मा गाँधी ने इन्हें पकड़वाया था और लाये थे, तो हमें नये एजेण्डा (कार्यक्रम) को पहले पारिभाषित करना होगा, और फिर एक उचित वाहन बनाना होगा जो इसे सफलता तक पहुँचाकर कार्यान्वित कर सके। इसके लिए हमें भारतीयता की पहचान और स्वयं पुनरुत्थान के मूल स्रोत्रों तक पहुँचना होगा।
क्या इस प्रकार के एजेण्डे की जरूरत है ? एक पूर्णत: सुविचारित और सु-भाषित एजेण्डे के अभाव में बेकार और अस्त-व्यस्त एजेण्डा चलता रहेगा। जो एक सुस्पष्ट और सकारात्मक एजेण्डे की जरूरत की अनदेखी करते हैं वे प्राय: बेकार एजेण्डे के गुलाम होते हैं। मोरारजी देसाई सरकार का एक ऐसा ही अव्यक्त एजेण्डा था। इसमें चार बिन्दु थे, शराब निषेध, गौ-हत्या पर रोक, धार्मिक स्वतन्त्रता का विधेयक और इतिहास की पाठ्य पुस्तकों का पुनर्वीक्षण। इस एजेण्डे का कोई भी बिन्दु आन्तरिक रूप से खराब नहीं था, किन्तु चूँकि औचित्य अथवा एजेण्डे की मूलभूत अवधारणा में लोगों की चेतना का उत्थान नहीं था अपितु इसे कानून और व्यवस्था का मामला मानना था, इसलिए अन्तर्निहित देसाई एजेण्डा बदनाम हो गया और भारत में वामपंथियों ने इसकी फिसड्डी, पीछे की ओर ले जाने वाला कहकर भर्त्सना की क्योंकि वे (वामपंथी) किसी भी बिन्दु पुनरुत्थान की बात को शुरु करने की बात सुनते ही पागल हो उठते हैं।
1947 में ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासन से मुक्ति के बाद, पाँच दशकों तक भारत की वैचारिक भाव-भूमि वामपंथी झुकाव वाले सामाजिक, धर्मनिरपेक्ष ढाँचे में आबद्ध रही है और इसकी मुख्यधारा में किसी अन्य, भिन्न, महत्त्वपूर्ण, वैचारिक परिप्रेक्ष्य के लिए कोई स्थान नहीं रहा। अर्थव्यवस्था की बृहत्तर ऊँचाइयों को नियंत्रित करने वाली प्रभूत सरकार के कारण, जिस पर उत्तरोत्तर अधिनायिकता की ओर बढ़ने वाली पार्टी का शासन था, इस स्थापित विचारधारा को दी गयी किसी गम्भीर, धर्मनिरपेक्ष वैचारिक चुनौती को प्रारम्भिक अवस्था में ही कुचल दिया जाता था। यहाँ तक कि जब 1991 में राष्ट्र एक गंभीर आर्थिक संकट में था, और जिस समय कष्टदायक नियंत्रण प्रणाली को हटाने की आवश्यकता थी, इसे उसी ढाँचे के स्वाभाविक विकास और सुधार का जामा पहना दिया गया। किन्तु इस सुधार के जनक, प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को जिन्होंने आवश्यकता से अधिक रास्ता बदलने का साहस दिखाया, उनकी पार्टी ने और वामदलों ने अस्वीकार कर दिया, और फिर उनका इतना अपमान किया गया, उनको इतना आघात पहुँचाया गया, और अपराधी की तरह उन पर मुकदमा चलाया गया कि उन्होंने हृदय से हार मान ली। उनके अन्तिम संस्कार में भी उनका सम्मान नहीं किया गया। अपितु उसे उन लोगों के लिए एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया जो उसके वामपंथी झुकाव वाले सामाजिक, धर्मनिरपेक्ष ढाँचे पर सन्देह करते हैं।
इस दमघोंटू वातावरण में केवल दक्षिणापंथी, धार्मिक, उग्र संगठन ही अपने पाँव जमा सकता था, और वही क्रमश: बढ़ता हुआ राष्ट्रीय वैचारिक प्लेटफॉर्म के मंच पर केन्द्र में पहुँच गया। किन्तु वह भी सत्ता और सरकार में मात्र छ: वर्ष रहने के भीतर नेतृत्व की अतीत के असफल वैचारिक ढाँचे से पूरी तरह से अलग होने की अनबूझ अनिच्छा के कारण तिरोहित हो गयी।
वामपंथी झुकाव वाली धर्मनिरपेक्ष समाजवादी और अनुग्रही दक्षिणपंथी दोनों ही प्रकार की पार्टी अपनी पारी खेल चुकी हैं, और उनकी मंच पर दुबारा आसीन होने की सम्भावना नहीं है। आज देश में केवल वैचारिक खिचड़ी ही शेष रह गयी है। जब तक एक नये वैचारिक ढाँचे की योजना साफ़तौर पर लोगों के सामने प्रस्तुत नहीं की जाती तब तक वर्तमान संकट वैचारिक तदर्थवाद चलता रहेगा। यह उलझन भरी स्थिति राष्ट्र को आर्थिक विकास की नई ऊंचाइयों, एक संगठित राष्ट्र और विश्वशक्ति के लिए संघर्ष की दिशा दे सके, नयी दिल्ली में नवीन हिन्दुस्तान ट्रस्ट द्वारा सैन्टर फॉर नेशनल रिनैसा (राष्ट्रीय पुनरुत्थान केन्द्र) की स्थापना की गयी। मैं और मेरे सहयोगी मिलकर जिनसे मिलकर इसका बोर्ड ऑफ गवर्नस बना है, इस बात के लिए सुपरिचित है, कि हम राष्ट्र के पुराने वैचारिक ढाँचे से मतभेद रखते है। मतभेद ने कभी-कभी संघर्ष का रूप ले लिया है और इसके लिए हमको हानि भी उठानी पड़ी है; राष्ट्र ने हमें अपने प्रॉफेनशल जीवन में उचित देय से वंचित रखा है। पुराणपंथी अथवा प्रतिक्रियावादी कहकर हमारी भर्त्सना की गयी। किन्तु हम कभी विचलित नहीं हुए, हमें विश्वास था कि वह सुप्रभात आयेगा जब देश को राष्ट्रीय पुनरुत्थान की वैकल्पिक विचारधारा अथवा आधुनिक पुराण-पंथियों की जरूरत पड़ेगी। नयी सहस्त्राब्दि में उसकी प्रबल संभावना है। अत: हमें पुनरुत्थान के एजेण्डे की स्पष्ट समझ की आवश्यकता है।
इतिहास के वर्तमान मोड़ पर, यदि हमें पुनरुत्थान के धागे वहाँ से पकड़ने हैं जहाँ ये 1947 में टूट गये थे, और जहाँ से स्वामी विवेकानन्द, महर्षि अरविन्द और महात्मा गाँधी ने इन्हें पकड़वाया था और लाये थे, तो हमें नये एजेण्डा (कार्यक्रम) को पहले पारिभाषित करना होगा, और फिर एक उचित वाहन बनाना होगा जो इसे सफलता तक पहुँचाकर कार्यान्वित कर सके। इसके लिए हमें भारतीयता की पहचान और स्वयं पुनरुत्थान के मूल स्रोत्रों तक पहुँचना होगा।
क्या इस प्रकार के एजेण्डे की जरूरत है ? एक पूर्णत: सुविचारित और सु-भाषित एजेण्डे के अभाव में बेकार और अस्त-व्यस्त एजेण्डा चलता रहेगा। जो एक सुस्पष्ट और सकारात्मक एजेण्डे की जरूरत की अनदेखी करते हैं वे प्राय: बेकार एजेण्डे के गुलाम होते हैं। मोरारजी देसाई सरकार का एक ऐसा ही अव्यक्त एजेण्डा था। इसमें चार बिन्दु थे, शराब निषेध, गौ-हत्या पर रोक, धार्मिक स्वतन्त्रता का विधेयक और इतिहास की पाठ्य पुस्तकों का पुनर्वीक्षण। इस एजेण्डे का कोई भी बिन्दु आन्तरिक रूप से खराब नहीं था, किन्तु चूँकि औचित्य अथवा एजेण्डे की मूलभूत अवधारणा में लोगों की चेतना का उत्थान नहीं था अपितु इसे कानून और व्यवस्था का मामला मानना था, इसलिए अन्तर्निहित देसाई एजेण्डा बदनाम हो गया और भारत में वामपंथियों ने इसकी फिसड्डी, पीछे की ओर ले जाने वाला कहकर भर्त्सना की क्योंकि वे (वामपंथी) किसी भी बिन्दु पुनरुत्थान की बात को शुरु करने की बात सुनते ही पागल हो उठते हैं।
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