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गाँधी और गाँधीगिरी

प्रवीण शुक्ल

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :54
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4689
आईएसबीएन :81-288-1449-4

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गाँधी, एक व्यक्ति नहीं विचार है

Ghandhi Aur Ghandhigiri

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मुझे कई बार यह सोचकर आश्चर्य होता है कि उस अद्भुत व्यक्तित्व में ऐसा क्या चुंबकत्व था कि उस समय के देश के सबसे बड़े उद्योगपति घनश्यादास बिरला, जमनादास बजाजा से लेकर सड़क पर लंगे पांव चलने वाला एक आम आदमी तक उनके एक इशारे पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए तैयार हो गया था। उस महामानव के पास ऐसी कौन सी शक्ति थी कि राजनैतिक रूप से उनके विचारों से सहमत ने होने वाले दूसरे नेता भी उन्हें आदरपूर्वक बापू के नाम से सम्बोधित करते हुए उनकी इच्छा को ही अंतिम आदेश मानने के लिए तैयार थे।

जिस व्यक्ति को इस सदी के महान वैज्ञानिक आइंसटिन ने प्रणाम भेजे। लियो टॉलस्टाय जैसे विश्वविद्यालय चिंतक और दार्शनिक जिसकी विचार धारा से प्रभावित हुए बिना न रह सके, अंग्रेज हुकूमत के प्रधानमंत्री क्लेमेण्ट एटली ने जिसकी शक्ति को स्वीकार किया। आखिर साँवले रंग के उस आदमकद शरीर में कुछ तो खास रहा होगा। उसकी तर्कहीन आलोचना करने से बेहतर है कि हम पहिले गाँधी और गाँधीगिरी के बारे में विस्तार से जानें, उसके बाद अपने विचार प्रस्तुत करें।

गांधी और गांधीगिरी


मैंने हाल ही में लैरी कांलिन्स और दॉमिनिक लैपियर की एक पुस्तक ‘आधी रात को आजा़दी’ पढ़ी। उन्होंने इस पुस्तक में गाँधी जी के बारे में उनकी नोआखाली की यात्रा का वर्णन करते हुए लिखा है-‘‘77 साल का वह बूढ़ा आदमी, जिसका पोपला चेहरा, आत्मविश्वास से चमक रहा था, इतना शक्तिशाली था कि अंग्रेज साम्राज्य की जड़े जितनी उस बुढ़ऊ ने खोदी थी, उतनी अन्य किसी जीवित व्यक्ति ने नहीं। बुढ़ऊ ही वह व्यक्ति था, जिसके कारण अंग्रेज प्रधानमंत्री ने मजबूर होकर रानी विक्टोरिया के प्रपौत्र को नई दिल्ली की तरफ रवाना किया था, ताकि भारत को आज़ादी देने का कोई सही तरीका ढूँढ़ा जा सके।’’

आखिर क्या था, उस व्यक्ति में जिसे पूरे संसार ने महात्मा के रूप में स्वीकार किया। वह व्यक्ति जिसके बारे में यह कहा गया कि- ‘‘वह पूर्णतः मौलिक क्रांतिकारी थे और जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई लड़ने की एक कठोर शैली ढूँढ़ निकाली थी, जिसकी मौलिकता की पूरी दुनिया में कोई मिसाल नहीं है।’’ मैं इस पुस्तक की भूमिका में यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ, गाँधी जी पर अब तक अनेक पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं, अनेक स्थानों पर उनके विचार और विचारधाराओं को लेकर शोधकार्य हुआ है। लेकिन हिन्दुस्तान की आज़ादी के लगभग 60 वर्ष बाद भी यह प्रश्न अपनी जगह कायम है कि गाँधी जी इस देश  और  समाज के लिए वर्तमान स्थितियों में कितने प्रासंगिक हैं। मैंने अनेक यात्राओं में यह महसूस किया है कि आज जब कहीं गांधी जी की चर्चा चलती है तो समाज का एक वर्ग विशेष गांधी का जिक्र आते ही उनकी और उनकी विचारधारा की आलोचना करने में आगे बढ़कर रूचि लेता है। इधर आप गांधी का जिक्र करेंगे तो तुरन्त आप के आसपास के लोग, विशेष रूप से युवा, दो बातों के लिए गांधी को दोष देना शुरू कर देते हैं। एक तो गांधी ने पाकिस्तान बनवा दिया और दूसरी यह कि अहिंसा के द्वारा इतने बड़े देश पर शासित अंग्रेजी सरकार को जिसके साम्राज्य में सूरज नहीं छुपता था, आखिरकार कैसे झुकाया या भगाया ? इस तरह के वार्तालाप में गांधी समर्थक को प्रायः इसलिए चुप होना पड़ता है क्योंकि आप जिस व्यक्ति से तर्क या बातचीत कर रहे हैं, उस व्यक्ति ने निश्चित रूप से या प्रायः गांधी के बारे में कुछ भी पढ़ा लिखा नहीं होता। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि गांधी जी के बारे में बात करने वाले ये तथाकथित बुद्धिजीवी जो उनकी आलोचना करने में लगे रहते हैं, उनमे अधिकांश लोग ऐसे है जिन्होंने गांधी और उनकी विचारधारा को जानना तो दूर वे उसके आस-पास से भी नहीं गुजरे हैं। इसलिए मैंने अक्सर अपने मित्रों से कहा है कि यदि आप उस महामानव के बारे में बात करना चाहते हैं तो पहले एक बार उनके बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त करें और उसके बाद क्योंकि गांधी वो शक्ति है जिसका अंदाजा उनके जीवनक्रम को जाने बिना हो ही नहीं सकता।

हम जब भी ऐतिहासिक दृष्टि से किसी व्यक्ति के बारे में बातचीत करते हैं तो हमें उस व्यक्ति के जीवन काल के समय की परिस्थितियों का भान होना बहुत  ही आवश्यक है। गांधी जी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 में पोरबंदर में हुआ। उन्होंने जिस स्वरूप में अपना राजनीतिक, दार्शनिक और वैचारिक जीवन जिया, उस पर उसकी पूरी जीवन यात्रा का प्रभाव था। मैं अभी पिछले दिनों एक काव्य समारोह में भाग लेने के लिए यूनाइटेड किंगडम (यू. के.) गया हुआ था, वहाँ हम लोग यू.के. के एक बहुत पुराने बसे हुए शहर बुलवरहैम्पटन में ठहरे हुए थे। मैं अपने कवि मित्रों के साथ जब सुबह नाश्ते की टेबल पर था, तो उस समय यू.के. में भारत के सांस्कृतिक अधिकारी श्री राकेश  दुबे भी मेरे साथ उपस्थित थे। उनसे होने वाले वार्तालाप में उन्होंने मुझसे कहा कि प्रवीण शुक्ल जी यहाँ जो महिला आपके लिए नाश्ता तैयार कर रही है, यही महिला कुछ समय बाद यहां से फ्री होकर आपके कमरे में सफाई करेगी, उसमें झाडू़ लगाएगी और फिर यही आपके बाथरूम, टायलेट और संडास आदि को साफ करेगी। यदि आप इस समय भारत में होते और आपको यह बताया जाता कि जो व्यक्ति आपका नाश्ता तैयार कर रहा है, यह वही व्यक्ति है, जो इस होटल में स्वीपर का भी काम करता है, तो शायद आप उस व्यक्ति से नाश्ता ग्रहण करना स्वीकार नहीं करते। क्योंकि हमारे मुल्क में आज भी जातिवाद की जो बेड़िया हैं वो पूरी तरह टूटी नहीं हैं। गांधी इसलिए गांधी बने क्योंकि उन्होंने अपने छात्र जीवन से ही इंग्लैंड प्रवास के दौरान यह महसूस किया कि एक व्यक्ति को ही अपने सारे कार्य स्वयं करने चाहिए। इसलिए एक स्थान पर उन्होंने लिखा है, ‘‘जो मेरे साथ है, उन्हें नंगे फर्श पर सोना, खुरदरे कपड़े पहनना, सूर्योदय से पहले उठना, सादा और स्वादहीन भोजन करना, यहाँ तक की संडास भी स्वयं साफ करना होगा।’’

गांधी जी जब दक्षिण अफ्रीका पहुँचे तो उन्होंने देखा कि वहाँ भारतीयों की स्थिति लगभग ऐसी थी जैसी हमारे देश में अछूतों की थी। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में जो समय बिताया उस दौरान उन्हें लगा कि ये गोरे लोग काले लोगों के साथ जो भेदभाव कर रहे हैं वो उचित नहीं है। क्योंकि प्रभु ने हम सबको एक जैसा इंसान बनाया है। केवल रंग भेद से हमारे बीच इतना भेद कैसे हो गया है कि हम इंसान होते हुए भी दूसरे इंसान का तिरस्कार करने लगे ? मुझे लगता है कि भेदभाव की जिस पीड़ा को गांधी जी दक्षिण अफ्रीका में भोग चुके थे, उसी पीड़ा को उन्होंने हिन्दुस्तान आने पर अछूत भाइयों के भीतर महसूस किया। उन्हें लगा कि अछूत भाइयों को बेवजह समाज में तिरस्कृत किया जाता है और इसलिए उन्होंने हरिजन उद्धार का कार्यक्रम चलाया। आजादी के 60 वर्ष बाद बेशक शहरों में चमक-दमक बढ़ गई है, अधिक आर्थिक संसाधन हमने जुटा लिए हैं, लेकिन अपराधों में होने वाली बढ़ोतरी, समाज में पनपने वाला असंतोष, लगातार घटित होने वाली आतंकवाद की घटनाएं, गिरते हुए सामाजिक मूल्य और निरन्तर नैतिक पतन की इस प्रक्रिया में हमें गांधी जी की तरफ देखना ही होगा। इन सारी स्थितियों में गांधी जी वो प्रकाश स्तम्भ हैं जिनकी रोशनी व्यक्ति के मन में कहीं भीतर फैले हुए अंधेरे का हरण करके उसे एक नया रास्ता दिखाती है।

इस दौर में आदमी की आत्मनिर्भता, सरलता, नैतिकता, कर्तव्यनिष्ठता, सादगी और सहजता का गांधी से बड़ा कोई भी दूसरा उदाहरण नहीं है। जिन दिनों द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पूरा संसार आग की लपटों से घिरा हुआ था, हिटलर और मुसोलिनी के सिद्धांत बम और गोलियों के रूप में अंगारे बरसा रहे थे। उस समय भी गांधी जी ने उस ब्रिटिश शासक के सम्मुख जो जर्मनी और इटली पर विजय प्राप्त कर चुका था, अहिंसा का एक ऐसा सिद्धान्त रखा, जिसका कोई भी जवाब उस महाशक्ति के पास नहीं था। उन्होंने हिन्दुस्तान के लोगों से कहा, ‘‘हथियार से नहीं, मनोबल से लड़ो। मशीनगन की गोलियों से नहीं, प्रार्थनाओं से लड़ों। बमबारी और चीख-पुकार से नहीं, खामोशी और धैर्य से लड़ो।’’ उनके इस संदेश ने  भारत के जनमानस में जैसे बिजली दौड़ा दी। भारतीय जनता अंग्रेजों के विरूद्ध उठ खड़ी हुई। धीरे-धीरे गांधी जी की आवाज़ करोड़ों भारतीयों की आवाज़ बन गयी।

मैं अपने पाठकों से एक निवेदन करना चाहता हूँ जिस व्यक्ति को इस सदी के महान वैज्ञानिक आइंस्टिन ने अपने प्रमाण भेजे। लियो टॉलस्टाय जैसे विश्वविख्यात चिंतक और दार्शनिक जिसकी विचार धारा से प्रभावित हुए बिना न रह सके, अंग्रेज हुकूमत के प्रधानमंत्री क्लेमेण्ट एटली ने जिसकी शक्ति को स्वीकार किया। आखिर साँवले रंग के उस आदमकद शरीर में कुछ तो खास रहा होगा। उनकी तर्कहीन आलोचना करने से बेहतर है कि पहले हम उसके बारे में विस्तार से जाने, उसके बाद अपने विचार पस्तुत करें। आज जब हम 2006 में गांधी जी की बात करते हैं तो इस समय हमारी आजादी को अपने पांवों पर खड़े हुए लगभग 60 वर्ष का समय व्यतीत हो चुका है। गांधी जी ने 1919 में कांग्रेस के साथ मिलकर कार्य शुरू किया, ये आजादी से लगभग 32 वर्ष पहले की स्थिति थी और एक ऐसी स्थिति जिसमें उन्हें बर्बर अंग्रेज हुकूमत के साथ अपना तालमेल बिठाना था और उस तालमेल को बिठाकर आजादी के आन्दोलन को भी आगे बढ़ाना था। ये काम एक तलवार की धार पर चलने जैसा काम था। गांधी जी ने एक तरफ अंग्रेजों को ये विश्वास दिलाया कि मेरा काम देश में अशांति फैलाना नहीं है, दूसरी तरफ विभिन्न आंदोलनों के माध्यम से जनता को अपना विरोध प्रकट करने के लिए अहिंसक तरीकों का इस्तेमाल करते हुए आंदोलित किया।

मुझे कई बार यह सोचकर आश्चर्य होता है कि उस अद्भुत व्यक्तित्व में ऐसा क्या चुम्बकत्व था कि उस समय के देश के सबसे बड़े उद्योगपति घनश्याम दास बिरला, जमनादास बजाज से लेकर सड़क पर नंगे पांव चलने वाला एक आम आदमी तक उनके एक इशारे पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए तैयार हो गया था। उस महामानव के पास ऐसी कौन सी शक्ति थी कि राजनैतिक रूप से उनके विचारों से सहमत न होने वाले दूसरे नेता जैसे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस आदरपूर्वक उन्हें राष्ट्रपिता के नाम से सम्बोधित करते थे। वो समय ऐसा था जिसमें यदि अंग्रेजी सरकार को ऐसा आभास होता था, कि फलां व्यक्ति उसके खिलाफ आवाज़ भड़काकर देश में अशांति फैलाना चाहता है, तो वे तुरन्त उसकी आवाज को दबाने के लिए उसकी जीवन लीला समाप्त कर देते थे। हिन्दुस्तान जैसे विशाल देश में अंग्रेजों की बर्बस हुकूमत को हिलाने के लिए आंदोलन खड़ा करना और उसे जनसामान्य के साथ जोड़ना बहुत अधिक महत्वपूर्ण कार्य था। हमारे कई युवा मित्र गांधी जी की तुलना अक्सर शहीद भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, लाला लाजपतराय और वीरसावरकर आदि क्रांतिकारी विचारधारा से करने लगते हैं।  मुझे लगता है कि यह तुलना बेईमानी है, क्योंकि ये सारे के सारे ऐसे राही थे, जिनके रास्ते बेशक भिन्न हो सकते थे लेकिन मंजिल एक थी, जिसका नाम था आज़ादी। ये सारे के सारे ही भारत माता के पैरों में पड़ी हुई गुलामी की बेड़ियों को काटना चाहते थे। मैंने पहले भी स्पष्ट किया है कि किसी भी क्रान्तिकारी या स्वतंत्रता सेनानी की देश भक्ति पर किसी भी स्थित में कोई प्रश्न चिह्न नहीं लगाया जा सकता।

लेकिन हिन्दुस्तान जैसे विशाल देश में जनसामान्य को साथ लेकर अपना जो पहला आंदोलन गांधी जी ने चंपारण में खड़ा किया था, उससे लेकर भारत छोड़ो आंदोलन तक आते-आते उनके स्वर में वह तल्खी आ चुकी थी, जिसकी गूंज हिन्दुस्तान की सीमाएं पार करके ब्रिटिश हुकूमत और पूरे संसार में उसी स्वर में सुनाई देने लगी थी, जो स्वर क्रांतिकारियों के स्वर जैसा ही था। जो गांधी 1915 में हिन्दुस्तान में अपनी नींव जमा रहा था उसने 1942 में अहिंसक स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा बनाये हुए अपने आंदोलन के किले पर चढ़कर भारत की आजादी का झंडा फहराने के लिए ‘करो और मरो’ का संदेश देते हुए ये घोषणा की थी कि मैं आजादी को लेकर ही रहूँगा। गांधी जी ने राष्ट्र को ‘करो या मरो’ का महामंत्र देते हुए कहा था, ‘‘हमारी सम्पूर्ण योजना स्पष्ट है। इसमें गोपनीयता के लिए कोई स्थान नहीं है। यह एक खुला आंदोलन है, खुला विद्रोह है। हमारी टक्कर एक विशाल और शक्ति सम्पन्न साम्राज्य से है। हमारा यह संघर्ष एक धर्मयुद्ध है जो सीधा और सच्चा है। आज से प्रत्येक भारतीय स्वयं को पूर्ण रूप  से स्वतन्त्र समझे। उसके सामने आज एक ही लक्ष्य है, एक ही उद्देश्य है और वह है अहिंसा के मार्ग पर चल कर स्वतन्त्रता प्राप्त करना—अब तो करना या मरना है। हमारा एक ही मन्त्र है, एक ही नशा है—‘करो या मरो’। इस बार हमे भारत की स्वतंत्रता का अन्तिम युद्ध लड़ना है। इस युद्ध में प्रत्येक भारतीय अपने आपको सेनापति मान कर भाग लेगा। सुझाव देने या मार्गदर्शन के लिए समिति का कोई सदस्य जीवित रहे या न रहे। प्रत्येक भारतवाशी को यह मानकर इस युद्ध को अपनी अन्तिम सांस तक जारी रखना है कि यह स्वतंत्रता का अंतिम युद्ध है और  हमें हर हालत में विजय प्राप्त करनी है।’’

गांधी जी के इस स्वर को सुनने के बाद आप महसूस करेंगे कि अहिंसा, सत्य, निष्ठा और अपनी विचार शीलता के द्वारा शक्ति प्राप्त करके स्वतंत्रता संग्राम के इस सेनानी ने अंग्रेजों को किस भाषा में ललकारा  है। आज आजादी के 60 वर्ष पश्चात् जब भारत एक शक्ति के रूप में पूरे संसार का नेतृत्व करने के लिए अग्रसर है हमें सत्य, अहिंसा और स्वराज्य के आजीवन पुजारी का जीवन संदेश पूरे संसार में फिर से फैलाना होगा। क्योंकि राजनीति और समाजनीति उनके लिए धर्मनीति का ही पर्याय थी। राजनीति में उन्होंने राज्य से अधिक नीति को महत्व दिया और राम-राज्य को अपना आदर्श घोषित किया। जिसमें आसुरी शक्ति, तानाशाही और हिंसा का नामों-निशान नहीं था। समाज सुधारक और विचारक के रूप में गांधी जी का योगदान अद्वितीय है। भारतीय समाज के सम्पूर्ण विकास के लिए उन्होंने अपने विचारों में आत्मिक उत्थान पर सर्वाधिक बल दिया है। राष्ट्र का गौरव बढ़ाने के लिए जातिवाद, छुआछूत, पर्दा प्रथा, बाल विवाह, विधवाओं की दुर्दशा आदि को सुधारने के लिए उन्होंने व्यापक कार्यक्रम शुरू किये थे और वे मानते थे कि एक श्रेष्ठ समाज के निर्माण के लिए उसमें आई हुई विषमताओं को समाप्त करना पड़ेगा। इसलिए उन्होंने जातिवाद और छुआछूत जैसी बुराइयों को मिटाने पर भी बल दिया।

गांधी जी भारत की ग्रामीण संस्कृति को पहचानकर ग्रामीण विकास पर विशेष बल देते हुए भारत के ग्रामीण जीवन को लघु और कुटीर उद्योगों से जोड़ना चाहते थे। हमारी सरकार आज भी यह महसूस करती है, कि यदि श्रेष्ठ भारत का निर्माण करना है तो ग्रमीण जीवन का उत्थान करना ही पड़ेगा इसलिए पिछली अनेक पंचवर्षीय योजनाओं के साथ-साथ हाल ही में ग्रामीण विकास के लिये सरकार द्वारा लिये  गये निर्णय, इस बात की घोषणा करते है कि गांधी जी केवल अपने सामाजिक और राजनैतिक जीवन में ही नहीं बल्कि उनके आर्थिक सोच और विचार भी हमें नई दिशा देते हैं। यद्यपि पिछले 60 वर्षो में स्वतंत्रता और लोकतंत्र के अनेक रूप देख चुके हैं। आज अनेक परिभाषाएं और मुहावरे बदले हुए हैं, लेकिन आज भी जीवन की विसंगतियों पर विजय प्राप्त करने के लिए समाज और देश का नवनिर्माण करते हुए नैतिक और आत्मिक संबल प्राप्त करने के लिए गांधी और गांधीवाद की ओर देखना ही पड़ेगा।

अंत में केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि वह समाज जो अपने पूर्वजों और अग्रजों का आदर करना छोड़ देता है, धीरे-धीरे पतनोन्मुख होकर गर्त में  चला जाता है। मैं संसार के अनेक देशों की यात्राएँ कर चुका हूँ और इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी पूंजी आज भी उसकी संस्कृति है। हमारे जैसा समाज और संस्कृति किसी भी दूसरी सांस्कृतिक धरोहर के पास नहीं है। आइये हम अपने पूर्वजों और देश के महामनीषियों के बारे में विस्तार से जाने और उनकी समस्त अच्छाइयों को अपने व्यक्तित्व के भीतर उतारने की कोशिश करें। समाज और देश के नवनिर्माण का संकल्प लें। आप जब इस पुस्तक से गुजरेंगे तो आपको महसूस होगा कि गांधी जैसे विराट व्यक्तित्व पर यदि हजार पृष्ठों की पुस्तक भी लिखी जाए तो भी उनके व्यक्तित्व की केवल एक झलक ही मिल सकती है। मैंने उस महामानव के जीवन सागर में से कुछ बूंदे निकालने की कोशिश की हैं। यदि इन बूंदों में से एक बूंद भी आपके मन को आप्लावित कर सकी तो मैं अपने प्रयास को सफल समझूंगा। अंत में केवल इतना ही कहता हूँ कि देश की नई पीढ़ी को गांधी के बारे में और उनकी विचारधारा को जिसे गांधीवाद का नाम दिया गया है, अपनाकर निश्चित रूप से एक नई दिशा मिलेगी।

प्रवीण शुक्ल

गांधी जी का जीवन-परिचय


गांधी जी से पहले की तीन पीढ़ियां दीवानगिरी का काम करती थीं। उनके दादा उत्तम चन्द गांधी उर्फ ओता प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। दरबारी साजिशों के कारण उन्हें पोरबंदर छोड़ना पड़ा। ओता गांधी के दो ब्याह हुए। पहली के मर जाने के बाद दूसरा हुआ, पहली पत्नी से चार लड़के थे और दूसरी से दो। इनमें पांचवें कर्मचन्द उर्फ कबा गांधी और अंतिम तुलसीदास गांधी थे। दोनों भाइयों ने बारी-बारी से पोरबंदर की दीवानी की। कर्मचन्द गांधी मोहनदास गांधी के पिता थे। कर्मचन्द गांधी की भी चार शादियां हुई थी। पहली पत्नी के मरने पर दूसरी हुई, इसी तरह तीसरी और चौथी। पहली दो पत्नियों से दो लड़कियां हुई। अन्तिम पत्नी पुतलीबाई से एक लड़की और तीन लड़के हुए। उनमें सबसे छोटे मोहनदास कर्मचन्द गांधी हुए।

जन्म एवं विवाह


मोहनदास कर्मचन्द गांधी जी का जन्म सम्वत् 1925 की भादों बदी द्वादशी के दिन, अर्थात सन् 1869 के अक्टूबर की दूसरी तारीख को, पोरबंदर अथवा सुदामापुरी में हुआ। उनका बचपन पोरबंदर में ही बीता। पोरबंदर से उनके पिताजी राजस्थान कोर्ट के सदस्य होकर राजस्थान चले गए। उस समय मोहन दास की उम्र 7 वर्ष की थी। गांव की पाठशाला से कस्बे की पाठशाला में और वहां से हाई स्कूल तक पहुँचने में उनका जीवन 12 वर्ष बीत गया। वे प्ररम्भ में बहुत ही झेंपू लड़के थे। तेरह वर्ष की उम्र में उनका विवाह हो गया। उनका विवाह कस्तूरबा के साथ हुआ वह एक सीधी, सरल, मेहनती और मितभाषणी महिला थीं। हालांकि उन्हें अक्षर ज्ञान नहीं था लेकिन बाद में उन्होंने गांधी जी के मार्गदर्शन में काफी कुछ सीखा। गांधी जी उन्हें रात के समय एकांत  में अक्सर पढ़ाते थे। ये वह समय था जब अपने बड़ों के सामने स्त्री को निहारना भी नामुमकिन था। ऐसी परिस्थितियों के बावजूद उन्होंने हमेशा कस्तूरबा की पढ़ाई में और उसके व्यक्तित्व में भरपूर रूचि ली। कस्तूरबा के साथ उनका प्रारंभिक वैवाहिक जीवन 13 वर्ष से लेकर 18 वर्ष की उम्र तक चला। 18 वर्ष की उम्र में गांधी जी वकालत करने  के लिए विलायत चले गये। विलायत से लौटने पर कुल 6 महीने साथ रहे होंगे और फिर उन्हें दक्षिण अफ्रीका का न्यौता आ गया और वे वहाँ चले गये।

दक्षिण अफ्रीका निमंत्रण


1893 के अप्रैल महीने में गांधी जी हौंसलों से भरे हुए दक्षिण अफ्रीका में किस्मत आजमाने के लिए रवाना हो गये। पहला बंदरगाह लामू था, वहाँ पहुँचने में लगभग 13 दिन लगे। कई पड़ावों पर रुकते हुए वे नेटाल के बंदरगाह जोकि डरबन और नेटाल दोनों नामों से प्रसिद्ध था, वहाँ पहुँचे। वहाँ उन्हें लेने के लिए अब्दुल्ला सेठ आए हुए थे। वहाँ जाकर गांधी जी ने पहली दृष्टि में ही महसूस किया कि यहां हिन्दुस्तानियों की ज्यादा इज़्ज़त नहीं है। अब्दुल्ला सेठ से परिचित उनके साथ जिस रीति से व्यवहार करते थे, वे भी गांधी जी को अक्सर अखरता था। अपनी पोशाक के कारण वे उस समय दूसरे हिन्दुस्तानियों से थोड़ा
* अनाशक्ति की सच्ची कसौटी तब होती है जब किसी काम के लिए हमारे में आसक्ति भाव ही नहीं पैदा होता है।
* झूठ आत्मा को खा जाता है, सत्य आत्मा को पुष्ट करता है।
* अपना ऐब हमेशा सुनें, अपनी स्तुति कभी न सुनें।
अनुशासन

शिक्षक तो विद्यार्थियों को वही रास्ता बता सकते है, जिस रास्ते को वे या राज्य सबसे अच्छा समझते हों। ऐसा करने के बाद उन्हें उनके विद्यार्थियों के विचारों और भावनाओं को दबाने का कोई अधिकार नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं कि विद्यार्थियों पर किसी प्रकार का अनुशासन नहीं होना चाहिए। अनुशासन के बिना कोई स्कूल चल ही नहीं सकता। किंतु विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकाश पर लगाए गए कृत्रिम अंकुश को अनुशासन नहीं कहता।
अलग नज़र आते थे। क्योंकि वे उस समय शरीर पर फ्रॉककोट पहनते थे और उनके सिर पर बंगाल की पगड़ी रहती थी। अब्दुल्ला सेठ उन्हें अपने घर पर ले गये। उस समय उनका एक मुकदमा ट्रांसवाल में चल रहा था। लेकिन फिलहाल वहाँ कोई काम नहीं था इसलिए उन्होंने गांधी जी को उस समय अपने पास ही रोक लिया।

अब्दुल्ला सेठ का अक्षर ज्ञान बहुत कम था, लेकिन अनुभव ज्ञान भरपूर था। उनकी बुद्धि तीव्र थी और इसका अंदाज उन्हें भी था। गांधी जी ने अफ्रीका में महसूस किया कि वहां हिन्दुस्तानी लोग अपने-अपने गिरोह बनाकर बैठ गये हैं। एक भाग मुस्लिम व्यापारियों का था, जो अपने को अरब कहते थे। दूसरा भाग हिन्दुओं और पारसी किरानियों, मुनीम-गुमाश्तों का था। हिन्दु किरानी अधर में लटके रहते थे। कोई ‘अरब’ में मिल जाता, कोई ‘पर्शियन’ कहकर अपना परिचय देता। एक चौथा और बड़ा वर्ग था, तमिल-तेलुगू और उत्तर की ओर के गिरमिटियों तथा गिरमिटमुक्त भारतीयों का। गिरमिट का अर्थ है इकरारनामा जो पांच वर्ष का होता है।

मज़दूरी करके जो गरीब हिन्दुस्तानी उस समय नेटाल जाते थे, वह इकरार अथवा ‘एग्रीमेंट’ बिगड़कर ‘गिरमिट’ हुआ और फिर उससे ‘गिरमिटिया’ बना। इस वर्ग से औरों का व्यवहार बस काम भर का ही था। इन गिरमिटियों को अंग्रेज लोग ‘कुली’ कहते थे, और उनकी तादाद बड़ी होने के कारण दूसरे हिन्दुस्तानियों को भी कुली ही कहते थे। इसलिए वहां गांधी जी को ‘कुली बारिस्टर’ का खिताब मिला। व्यापारी ‘कुली व्यापारी’ कहलाते थे। कुली का मूल अर्थ मजदूर
* सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं।
* छोटी-छोटी बातों से ही हमारे सिद्धान्तों की परिक्षा होती है।
* थोड़ा-सा झूठ भी मनुष्य का नाश करता है, जैसे-दूध को एक बूंद ज़हर।
तो जाता रहा। व्यापारी इस शब्द से क्रुद्ध होते और कहते, ‘‘मैं कुली नहीं हूँ, मैं तो अरब  हूँ’’ या कहते, ‘‘मैं व्यापारी हूँ।’’ जरा विनयी अंग्रेज होता तो यह सुनकर माफी भी मांगता था।

रेल की घटना


धीरे-धीरे गांधी जी का सम्पर्क डरबन में बसने वाले भारतीयों के साथ जुड़ गया। वहां की कचहरी के दुभाषिये मि. पॉल रोमन कैथलिक थे। गांधी जी ने उनसे परिचय किया और प्रोटेस्टेंट मिशन के शिक्षक सुभान गाड फ्रे से भी जान-पहचान पैदा की। धीरे-धीरे गांधी जी का संपर्क उनकी सहजता की वजह से दक्षिण अफ्रीका के प्रबुद्ध भारतियों के साथ जुड़ने लगा। इसी बीच फर्म के वकील का पत्र आया कि मामले की तैयारी होनी चाहिए और अब्दुल्ला सेठ को खुद प्रिटोरिया आना चाहिए या किसी को भेजना चाहिए। अब्दुल्ला सेठ के कहने पर गांधी जी डरबन से प्रिटोरिया रवाना हुए। उनके लिए डरबन से प्रिटोरिया जाने के लिए पहले दर्जे का टिकट कटाया गया। उस समय ट्रेन में सोने के लिए पांच शिलिंग का टिकट अलग लेना पड़ता था। अब्दुल्ला सेठ नें गांधी जी से आग्रह किया कि वे पांच शिलिंग का टिकट अलग से मंगा लें लेकिन उन्होंने बचत के खयाल से मना कर दिया। उनकी ट्रेन नेटाल की राजधानी मेरित्सर्ग में करीब 9 बजे पहुँची। यहां बिस्तर दिये जाते थे। रेलवे के एक नौकर ने आकर पूछा, ‘‘आपको बिस्तर चाहिए ?’’ गांधी जी ने कह दिया ‘‘मेरे पास अपना बिस्तर है।’’ वह चला गया इसी बीच एक यात्री आया उसने गांधी जी की ओर देखा और उनकी चमड़ी को रंगदार कहकर कुछ भड़का। फिर वह बाहर निकल गया और अपने साथ दो अफसरों को लेकर आया। उन्होंने कहा इधर आओ ! तुम्हें आखिरी डिब्बे में जाना है।’’

*ईश्वर हमारा आश्रय है, वही हमारा बल है और वही आपत्ति के समय में हमारी रक्षा करता है।
*शरीर को बचाने के लिए बहुत उद्यम करता हूँ, आत्मा को पहचानने के लिए इतना करता हूँ क्या ?
* अंधा वह नहीं जिसकी आँख फूट गई है। अंधा वह है जो अपने दोष ढांपता है।
 

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