जीवनी/आत्मकथा >> सुभाषचन्द्र बोस सुभाषचन्द्र बोसआशा गुप्त
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वतन की आजादी के लिए प्राणाहुति देने वाले सुभाषचन्द्र के जीवन पर आधारित पुस्तक...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘‘तुम जानते ही होंगे कि दूसरे बड़े लोगों की तरह नेता
जी भी कटु आलोचकों की संख्या में समृद्ध थे जो उनके प्रत्येक धर्म कर्म पर
हर तरह की नीयत का आरोपण करते थे। हुआ यह कि मैंने भी इनके विरुद्ध शामिल होकर उन विरोधी राजनीतिज्ञों की संख्या में अभिवृद्धि की थी.....किन्तु जब मैं ‘आज़ाद-हिन्द-फ़ौज’ के बहुख्यात तीनों अफसरों के
बचाव-पक्ष का वकील नियुक्त हुआ तब नेताजी की योजनाओं तथा कार्य-क्रम को
समझने के लिए प्रथमत: उनके शस्त्रधारी साथियों की गवाहियों तथा द्वितीयत:
दस्तावेजों और रिकार्डों की जाँच-पड़ताल में उनकी बहुमुखी उपलब्धियों का
प्रमाण मिला। दैवी शक्ति ही समझो कि मुझे अहसास हुआ कि वह कोई निम्न कोटि का कलह-उद्दीपक देश-भक्त नहीं जिसकी राष्ट्रीयता एकोन्मुखी मस्तिष्क की
अन्धी हठ-धर्मिता से नि:सृत हुई हो अथवा जिसका उत्साह आत्म-प्रशंसक
अहम्मन्यता का प्रतिफल हो....नहीं ! उस विस्मयादिभूत घड़ी में वह मेरे समझ
एक दूरदर्शी राजनीतिज्ञ, जन्म-जात यथार्थवादी, प्रवीण कूटनीतिज्ञ तथा
आदर्शोन्मुख भावी द्रष्टा के रूप में प्रकाशित हुआ जो मध्य-पथ में विराम
या विश्राम नहीं कर सकता था क्योंकि, निरन्तर दुर्निवार दैवी-पुकार का
उत्तर उसे अपने स्वतन्त्रता के प्यासे लहू की अन्तिम बूँद तक देना
था।
हिन्दी भावान्तर
अपनी बात
सुभाषचन्द्र बोस को राजनीतिक-मंच से ही नहीं, भारत से अन्तर्धान हुए लगभग
आधी शताब्दी बीत चुकी है किन्तु भारत के स्वतंत्रता-संग्राम का इतिहास
उनकी राजनीतिक क्रिया-विधि के उल्लेख बिना अधूरा ही रह जाता है। 1921 में
राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश के बाद, सुभाष बोस यों तो भारत में बीस वर्ष
तक रहे किन्तु इस अवधि के पाँच वर्ष (1933-1938) से कुछ अधिक, ब्रिटिश
सरकार के द्वारा देश-निष्कासित, यानी योरुप-प्रवास में काटे। शेष पन्द्रह
वर्षों में भी वे ग्यारह बार कार-रुद्ध रहे क्योंकि ब्रिटिश-सरकार उन्हें
सबसे ‘खतरनाक’ व्यक्ति समझती रही।
यदि सफलता का मापदण्ड केवल लक्ष्य-प्राप्ति है तो सुभाषचन्द्र बोस निश्चय ही सर्वथा असफल क्रान्तिकारी कहे जायेंगे क्योंकि उनका प्यासा रक्त मातृ-भूमि की स्वतन्त्रता का साक्षी नहीं हुआ। किन्तु, यदि जन-चेतना में आज़ादी की महत्ता को समझने-परखने की क्षमता से मूल्यांकन किया जाय तो स्वतन्त्रता-संग्रामी सुभाष बोस ने, एकनिष्ठ-लक्ष्य के निमित्त, अपने त्याग और बलिदान द्वारा इतिहास में अमिट छाप छोड़ी है। क्या सर्वहारा, क्या व्यापार-संघ, क्या युवा, क्या छात्र, क्या महिलाएँ-सभी वर्गों में उन्होंने स्वतन्त्रता-आंदोलन में सक्रिय सहयोग की अनिवार्य चेतना जागरति की। उन्होंने अपने प्रेस-वक्तव्यों तथा अध्यक्षीय भाषणों द्वारा देश की जनता को यदि एक तरफ़ सार्वजनिक आन्दोलन की ओर उन्मुख किया तो दूसरी तरफ़ ब्रिटिश-सत्ता के प्रति विरोध एवं विद्रोह की भावना प्रज्वलित की।
सुभाष बोस गाँधीजी के अहिंसा मूलक सत्याग्रह द्वारा स्वतन्त्रता-प्राप्ति की सम्भावना को स्वप्नवत् समझते थे। उनके विचार में सशस्त्र क्रान्ति बिना देश को स्वतन्त्र करना सर्वथा असंभव था। तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति के परिप्रेक्ष्य में गुलाम भारत के लिए अपनी सेना के संगठन की सम्भावना क्षीण थी कारण कि देश का सबसे सशक्त राजनीतिक दल कांग्रेस था। उसकी प्रभुत्ता सर्व-स्वीकृत हो चुकी थी जो गाँधी जी की छत्रच्छाया में ‘सविनय-अवज्ञा-आन्दोलन’ को विजय-मंत्र ग्रहण कर चुकी थी। 1939 में परिस्थिति-वश कांग्रेस के सभापतित्व से त्याग-पत्र देने के बाद सुभाष बोस के सामने राजनीतिक पट-भूमि खुलकर सामने आ गयी थी। देश के प्रमुख राजनीतिज्ञ बोस की राजनीतिक क्रिया-विधि के अनुकूलन न भी रहे हों, किन्तु गाँधी जी की सर्वप्रियता के कारण प्रतिरोध की क्षमता हार बैठे थे।
उग्रवादी-युवा दल निरन्तर ब्रिटिश-सरकार के उत्पीड़न का शिकार हो रहा था। इधर-ब्रिटिश सरकार सुभाष बोस को हथकड़ियाँ पहनाने के बहाने खोजती रही। वह किसी भी कीमत पर उन्हें आजा़द नहीं छोड़ना चाहती थी। अब बोस के सामने केवल दो विकल्प थे- गाँधीवादी-विचारधारा अनुसार आंदोलन स्वीकार करना अथवा आजीवन कारा-रुद्ध रहना। उन्हें दोनों ही स्वीकार्य नहीं थे। पिछले अपराध के अतिरिक्त जब नवसंगठित ‘फ़ॉरवर्ड ब्लॉक’ के तीनों लेखों के नये जुर्म में वे कारा-रुद्ध कर दिये गये तब पहले मौके पर देश से निकल गये। अपने सुदृढ़ एवं परिपक्व विचारों को हृदय में संजोये, वे नि:संग, एकाकी ही क्रान्ति के दुर्गम पथ पर आरूढ़ हो गये। जनवरी 1941 में जब सुभाष बोस भारत में अग्नि-केतन की तरह निकले थे, उन्हें अपनी मंजिल का पता था, अपने लक्ष्य यानी मातृ-भूमि की स्वतन्त्रता-प्राप्ति की लगन भी थी पर ब्रिटेन-विरोधी विदेश क्या, कितनी और कहाँ तक सहायता या सहयोग देंगे, यह विदित्त नहीं था। किन्तु निर्भीक, दुस्साहसी अपराजेय सुभाष बोस बढ़ते ही गये, फिर पलटकर नहीं देखा। जर्मनी में ‘आजाद-हिन्द-संघ’, ‘आजाद हिन्द फौ़ज’ और ‘आरज़ी हुकूमते आजाद हिन्द’ के गठन में अनगिनत कठिनाइयों, व्यवधानों और विलम्ब का सामना करने पर भी उन्होंने हौसला नहीं हारा।
इस क्रान्ति-पथ पर आरूढ़ सुभाष बोस कितने अकेले थे इसका संकेत उनके सह-कर्मी गिरिजाकुमार मुखर्जी ने दिया है। इनका कहना है कि किसी भी अन्य व्यक्ति को खतरे में डाले बिना, सब कर्मों का प्रतिसफल स्वयं झेलना सुभाष की परम कामना रही। उनकी इस तटस्थ वृत्ति से उनके सहकर्मियों को क्लेश भी पहुँचता था क्योंकि वे भी बोस की निराशाओं को बाँटना चाहते थे। पर बोस ने अपने व्यक्तित्व का गठन कुछ इस ढंग से किया था कि दूसरों को निरन्तर यह अहसास दिलाते रहे कि वे स्वयं सबसे अधिक साहसी एवं निर्भीक व्यक्ति हैं। उनकी इस मनोवृत्ति के कारण कॉमरेड उनसे भीत भी रहते थे। इसके अतिरिक्त बोस अपने मनोभाव अपने तक सीमित रखते। जो कॉमरेड उन्हें भली-भाँति जानने का दावा भी करते थे, कालान्तर में उन्हें अपनी भ्रान्ति का पता चलता। यों बोस के भेद व्यक्तिगत नहीं, राजनीतिक होते थे जिन्हें वे सफलता के निमित्त गोपन रखना अनिवार्य मानते थे। उनके सह-कर्मियों को यह अनायास प्रतीत होता। बोस किसी नई योजना के बारे तक में खुलकर बातचीत नहीं करते थे। मुखर्जी का कहना है कि सुभाष निर्भीक तो थे किन्तु सम्भावित विफलता से भीत रहते थे।
विरोधी-वर्ग सुभाषचन्द्र बोस के साथ ‘नेताजी’ शब्द के सम्पृक्त होने पर प्राय: छींटा-कशी करते रहे हैं। बोस का कहना था कि, ‘‘नेता’ शब्द जर्मन ‘फु़रर’ का पर्याय है अन्यथा मैं ‘नेताजी’ कहीं भारत का साधारण पुत्र हूँ।’’
कुछ अनुत्तरित प्रश्न बार-बार मन को विकल करते हैं। सर्वविदित है कि सुभाष बोस ने ब्रिटिश सरकार के हाथों बहुत अन्याय सहा था। किन्तु देश के आजाद होने के बाद, यानी स्वतंत्र भारत की भारतीय सेना के मेजर जनरल स्टाफ़ पी.एन. खंडुआरी के हस्ताक्षरों से बम्बई हैड-क्लार्टस (मुख्यालय) से 11 फरवरी 1949 के (कॉन्फ़िडेन्शियल एम. 155211-1) ‘फो़टोज’ शीर्षक नोट में चौंका देने वाला परामर्श दिखाई पड़ा जो इस प्रकार था ‘‘सुभाषचन्द्र बोस के फ़ोटो, यूनिट-लाइन, कैन्टीनों, क्वार्टर-गार्ड या रिक्रियेशन कक्षों में न लगाये जायँ।’’ ऐसा क्यों हुआ ? प्राप्त-सूचना सूत्रों के अनुसार उनका चित्र संसद-भवन में प्रधान-मंत्री लालबहादुर शास्त्री के प्रशासन-काल में पहली बार लगाया गया था।
1950 में भारत के प्रथम गृह-मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने ताया ज़िनकिन [रिपोर्टिग इंडिया : 14-15] से समालाप के दौरान कहा था कि जो अफ़सर सुभाषचन्द्र बोस की ‘आजा़द-हिन्द-फ़ौज’ में जाकर भरती हो गये थे, उन्हें पुन: पद-स्थिति न करने की सावधानी बरती गयी है और यह भी ध्यान रखा गया है कि ये लोग राजनीतिक क्षेत्र में आगे न बढ़ सकें। ताया ज़िनकिन के अनुसार पाकिस्तान में ‘आज़ाद-हिन्द-फौज़’ के अफसरों पर ऐसा कोई लांछन आरोपित नहीं किया गया था। बल्कि कालान्तर में कई ऐसे अफसरों से उनकी भेंट भी हुई थी जो आजा़द-हिन्द-फ़ौज में रह चुके थे। भारत-सरकार की इस सावधानी और आक्षेप का क्या कारण था ? इसके पीछे क्या रहस्य है ? एक घटना मस्तिष्क में कौंध जाती है ! पण्डित जवाहरलाल नेहरू को सिंगापुर में लॉर्ड माउण्टबेटन वाला परामर्श !! कि जिस फौज ने वायदा-खिलाफ़ी की है, शपथ तोड़ी है उसके स्मृति-स्तम्भ पर माल्यार्पण उचित नहीं। क्या ब्रिटिश लोग देश छोड़ने से पहले स्वतन्त्र-भारत-सरकार के मस्तिष्क में सुभाषचन्द्र बोस तथा उनकी फौज़ के प्रति संशय का कीट प्रविष्ट करने में सफल रहें ? अथवा दो सौ वर्षों तक पराधीनता से कुंठित देश-वासियों की मनोवृत्ति इसके पीछे क्रियाशीलता थी ? प्रसिद्ध बंगला-उपन्यासकार शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय ने भी तो कहा है, ‘‘पराधीन देशेर सबचेये बड़ अभिशाप एइ जे, मुक्ति संग्रामे विदेशीदेर अपेक्षा देशेर मानुषदेर संगेइ मानुष के बेशि लड़ाइ करते हय, एइ लड़ाइयेर प्रयोजन जेदिन शेष हय, शंखृल आपनि खसिया पड़े।’’ जापान में कदाचित् आज भी सुभाषचन्द्र बोस परम् श्रद्धा, सम्मान एवं स्नेह के भाजन हैं।
एक नज़र ग्रन्थ पर !
ग्रंथ में अध्यायों के शीर्षक सुभाष बोस के कथानक मात्र है। सामग्री के लिए यथा-सम्भव उसके स्वचरित ग्रंथों को आधार बनाया गया है। ‘तरुणेर स्वप्न’, ‘नूतनेर सन्धान’, ‘भारत पथिक’, ‘कोने पथे’, ‘पत्रावली’, बंगला भाषा में उपलब्ध है। सुभाष बोस के अभिन्न मित्र दिलीपकुमार राय कृत ‘आमार बन्धु सुभाष’ में युवा बोस के मानसिक गठन एवं चिन्तना की झाँकी उपलब्ध है। ‘द इण्डियन स्ट्रगल’ मूलत: अंग्रेजी में लिखा गया था। अत: उसकी सहायता लेना समीचीन प्रतीत हुआ यद्यपि नेताजी, रिसर्च-ब्यूरो द्वारा ‘भारतेर मुक्ति संग्राम’ नाम से इसका बांगला अनुवाद भी हस्तगत था। सुभाष रचनावली [छह खण्ड : मुख्य सम्पादक : रमेशचन्द्र मजूमदार] में सुभाष बोस के वक्तृव्य एवं अध्यक्षीय भाषण आदि काल-क्रमानुसार प्राप्त हैं। उनसे बहुत सहायता मिली है। शिशिर कुमार बसु कृत ‘महानिष्क्रमण’ तथा उत्तमचन्द्र के ‘व्हैन बोस वॉज जियाउद्दीन’ में सुभाष बोस के, 1941 में कलकत्ता से लेकर भारत तक के निष्क्रमण तक का दिन-प्रतिदिन का ब्यौरा उपलब्ध है। उनके विवाह को लेकर संशय उठाये जाते रहे हैं। शेखर बसु कृत ‘नेताजीर सहधर्मिणी’ शीर्षक छोटी-सी सचित्र पुस्तिका में एमिली शैकल से उनके विवाह तथा पुत्री अनिता का इतिवृत्त है। प्रमाण-स्वरूप कुछ चित्र भी दिये गये है। श्री अभिजित कृत ‘ताइहोकू थेके भारते-नेताजीर अन्तर्धान रहस्य’ सुभाष बोस के विवादास्पद हवाई-दुर्घटना पर केन्द्रित है। भारत-सरकार द्वारा नियुक्त कमेटी [1956] की रिपोर्ट के कुछ अंश भी इस ग्रंथ से उद्धत हैं।
यदि सफलता का मापदण्ड केवल लक्ष्य-प्राप्ति है तो सुभाषचन्द्र बोस निश्चय ही सर्वथा असफल क्रान्तिकारी कहे जायेंगे क्योंकि उनका प्यासा रक्त मातृ-भूमि की स्वतन्त्रता का साक्षी नहीं हुआ। किन्तु, यदि जन-चेतना में आज़ादी की महत्ता को समझने-परखने की क्षमता से मूल्यांकन किया जाय तो स्वतन्त्रता-संग्रामी सुभाष बोस ने, एकनिष्ठ-लक्ष्य के निमित्त, अपने त्याग और बलिदान द्वारा इतिहास में अमिट छाप छोड़ी है। क्या सर्वहारा, क्या व्यापार-संघ, क्या युवा, क्या छात्र, क्या महिलाएँ-सभी वर्गों में उन्होंने स्वतन्त्रता-आंदोलन में सक्रिय सहयोग की अनिवार्य चेतना जागरति की। उन्होंने अपने प्रेस-वक्तव्यों तथा अध्यक्षीय भाषणों द्वारा देश की जनता को यदि एक तरफ़ सार्वजनिक आन्दोलन की ओर उन्मुख किया तो दूसरी तरफ़ ब्रिटिश-सत्ता के प्रति विरोध एवं विद्रोह की भावना प्रज्वलित की।
सुभाष बोस गाँधीजी के अहिंसा मूलक सत्याग्रह द्वारा स्वतन्त्रता-प्राप्ति की सम्भावना को स्वप्नवत् समझते थे। उनके विचार में सशस्त्र क्रान्ति बिना देश को स्वतन्त्र करना सर्वथा असंभव था। तत्कालीन राजनीतिक परिस्थिति के परिप्रेक्ष्य में गुलाम भारत के लिए अपनी सेना के संगठन की सम्भावना क्षीण थी कारण कि देश का सबसे सशक्त राजनीतिक दल कांग्रेस था। उसकी प्रभुत्ता सर्व-स्वीकृत हो चुकी थी जो गाँधी जी की छत्रच्छाया में ‘सविनय-अवज्ञा-आन्दोलन’ को विजय-मंत्र ग्रहण कर चुकी थी। 1939 में परिस्थिति-वश कांग्रेस के सभापतित्व से त्याग-पत्र देने के बाद सुभाष बोस के सामने राजनीतिक पट-भूमि खुलकर सामने आ गयी थी। देश के प्रमुख राजनीतिज्ञ बोस की राजनीतिक क्रिया-विधि के अनुकूलन न भी रहे हों, किन्तु गाँधी जी की सर्वप्रियता के कारण प्रतिरोध की क्षमता हार बैठे थे।
उग्रवादी-युवा दल निरन्तर ब्रिटिश-सरकार के उत्पीड़न का शिकार हो रहा था। इधर-ब्रिटिश सरकार सुभाष बोस को हथकड़ियाँ पहनाने के बहाने खोजती रही। वह किसी भी कीमत पर उन्हें आजा़द नहीं छोड़ना चाहती थी। अब बोस के सामने केवल दो विकल्प थे- गाँधीवादी-विचारधारा अनुसार आंदोलन स्वीकार करना अथवा आजीवन कारा-रुद्ध रहना। उन्हें दोनों ही स्वीकार्य नहीं थे। पिछले अपराध के अतिरिक्त जब नवसंगठित ‘फ़ॉरवर्ड ब्लॉक’ के तीनों लेखों के नये जुर्म में वे कारा-रुद्ध कर दिये गये तब पहले मौके पर देश से निकल गये। अपने सुदृढ़ एवं परिपक्व विचारों को हृदय में संजोये, वे नि:संग, एकाकी ही क्रान्ति के दुर्गम पथ पर आरूढ़ हो गये। जनवरी 1941 में जब सुभाष बोस भारत में अग्नि-केतन की तरह निकले थे, उन्हें अपनी मंजिल का पता था, अपने लक्ष्य यानी मातृ-भूमि की स्वतन्त्रता-प्राप्ति की लगन भी थी पर ब्रिटेन-विरोधी विदेश क्या, कितनी और कहाँ तक सहायता या सहयोग देंगे, यह विदित्त नहीं था। किन्तु निर्भीक, दुस्साहसी अपराजेय सुभाष बोस बढ़ते ही गये, फिर पलटकर नहीं देखा। जर्मनी में ‘आजाद-हिन्द-संघ’, ‘आजाद हिन्द फौ़ज’ और ‘आरज़ी हुकूमते आजाद हिन्द’ के गठन में अनगिनत कठिनाइयों, व्यवधानों और विलम्ब का सामना करने पर भी उन्होंने हौसला नहीं हारा।
इस क्रान्ति-पथ पर आरूढ़ सुभाष बोस कितने अकेले थे इसका संकेत उनके सह-कर्मी गिरिजाकुमार मुखर्जी ने दिया है। इनका कहना है कि किसी भी अन्य व्यक्ति को खतरे में डाले बिना, सब कर्मों का प्रतिसफल स्वयं झेलना सुभाष की परम कामना रही। उनकी इस तटस्थ वृत्ति से उनके सहकर्मियों को क्लेश भी पहुँचता था क्योंकि वे भी बोस की निराशाओं को बाँटना चाहते थे। पर बोस ने अपने व्यक्तित्व का गठन कुछ इस ढंग से किया था कि दूसरों को निरन्तर यह अहसास दिलाते रहे कि वे स्वयं सबसे अधिक साहसी एवं निर्भीक व्यक्ति हैं। उनकी इस मनोवृत्ति के कारण कॉमरेड उनसे भीत भी रहते थे। इसके अतिरिक्त बोस अपने मनोभाव अपने तक सीमित रखते। जो कॉमरेड उन्हें भली-भाँति जानने का दावा भी करते थे, कालान्तर में उन्हें अपनी भ्रान्ति का पता चलता। यों बोस के भेद व्यक्तिगत नहीं, राजनीतिक होते थे जिन्हें वे सफलता के निमित्त गोपन रखना अनिवार्य मानते थे। उनके सह-कर्मियों को यह अनायास प्रतीत होता। बोस किसी नई योजना के बारे तक में खुलकर बातचीत नहीं करते थे। मुखर्जी का कहना है कि सुभाष निर्भीक तो थे किन्तु सम्भावित विफलता से भीत रहते थे।
विरोधी-वर्ग सुभाषचन्द्र बोस के साथ ‘नेताजी’ शब्द के सम्पृक्त होने पर प्राय: छींटा-कशी करते रहे हैं। बोस का कहना था कि, ‘‘नेता’ शब्द जर्मन ‘फु़रर’ का पर्याय है अन्यथा मैं ‘नेताजी’ कहीं भारत का साधारण पुत्र हूँ।’’
कुछ अनुत्तरित प्रश्न बार-बार मन को विकल करते हैं। सर्वविदित है कि सुभाष बोस ने ब्रिटिश सरकार के हाथों बहुत अन्याय सहा था। किन्तु देश के आजाद होने के बाद, यानी स्वतंत्र भारत की भारतीय सेना के मेजर जनरल स्टाफ़ पी.एन. खंडुआरी के हस्ताक्षरों से बम्बई हैड-क्लार्टस (मुख्यालय) से 11 फरवरी 1949 के (कॉन्फ़िडेन्शियल एम. 155211-1) ‘फो़टोज’ शीर्षक नोट में चौंका देने वाला परामर्श दिखाई पड़ा जो इस प्रकार था ‘‘सुभाषचन्द्र बोस के फ़ोटो, यूनिट-लाइन, कैन्टीनों, क्वार्टर-गार्ड या रिक्रियेशन कक्षों में न लगाये जायँ।’’ ऐसा क्यों हुआ ? प्राप्त-सूचना सूत्रों के अनुसार उनका चित्र संसद-भवन में प्रधान-मंत्री लालबहादुर शास्त्री के प्रशासन-काल में पहली बार लगाया गया था।
1950 में भारत के प्रथम गृह-मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने ताया ज़िनकिन [रिपोर्टिग इंडिया : 14-15] से समालाप के दौरान कहा था कि जो अफ़सर सुभाषचन्द्र बोस की ‘आजा़द-हिन्द-फ़ौज’ में जाकर भरती हो गये थे, उन्हें पुन: पद-स्थिति न करने की सावधानी बरती गयी है और यह भी ध्यान रखा गया है कि ये लोग राजनीतिक क्षेत्र में आगे न बढ़ सकें। ताया ज़िनकिन के अनुसार पाकिस्तान में ‘आज़ाद-हिन्द-फौज़’ के अफसरों पर ऐसा कोई लांछन आरोपित नहीं किया गया था। बल्कि कालान्तर में कई ऐसे अफसरों से उनकी भेंट भी हुई थी जो आजा़द-हिन्द-फ़ौज में रह चुके थे। भारत-सरकार की इस सावधानी और आक्षेप का क्या कारण था ? इसके पीछे क्या रहस्य है ? एक घटना मस्तिष्क में कौंध जाती है ! पण्डित जवाहरलाल नेहरू को सिंगापुर में लॉर्ड माउण्टबेटन वाला परामर्श !! कि जिस फौज ने वायदा-खिलाफ़ी की है, शपथ तोड़ी है उसके स्मृति-स्तम्भ पर माल्यार्पण उचित नहीं। क्या ब्रिटिश लोग देश छोड़ने से पहले स्वतन्त्र-भारत-सरकार के मस्तिष्क में सुभाषचन्द्र बोस तथा उनकी फौज़ के प्रति संशय का कीट प्रविष्ट करने में सफल रहें ? अथवा दो सौ वर्षों तक पराधीनता से कुंठित देश-वासियों की मनोवृत्ति इसके पीछे क्रियाशीलता थी ? प्रसिद्ध बंगला-उपन्यासकार शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय ने भी तो कहा है, ‘‘पराधीन देशेर सबचेये बड़ अभिशाप एइ जे, मुक्ति संग्रामे विदेशीदेर अपेक्षा देशेर मानुषदेर संगेइ मानुष के बेशि लड़ाइ करते हय, एइ लड़ाइयेर प्रयोजन जेदिन शेष हय, शंखृल आपनि खसिया पड़े।’’ जापान में कदाचित् आज भी सुभाषचन्द्र बोस परम् श्रद्धा, सम्मान एवं स्नेह के भाजन हैं।
एक नज़र ग्रन्थ पर !
ग्रंथ में अध्यायों के शीर्षक सुभाष बोस के कथानक मात्र है। सामग्री के लिए यथा-सम्भव उसके स्वचरित ग्रंथों को आधार बनाया गया है। ‘तरुणेर स्वप्न’, ‘नूतनेर सन्धान’, ‘भारत पथिक’, ‘कोने पथे’, ‘पत्रावली’, बंगला भाषा में उपलब्ध है। सुभाष बोस के अभिन्न मित्र दिलीपकुमार राय कृत ‘आमार बन्धु सुभाष’ में युवा बोस के मानसिक गठन एवं चिन्तना की झाँकी उपलब्ध है। ‘द इण्डियन स्ट्रगल’ मूलत: अंग्रेजी में लिखा गया था। अत: उसकी सहायता लेना समीचीन प्रतीत हुआ यद्यपि नेताजी, रिसर्च-ब्यूरो द्वारा ‘भारतेर मुक्ति संग्राम’ नाम से इसका बांगला अनुवाद भी हस्तगत था। सुभाष रचनावली [छह खण्ड : मुख्य सम्पादक : रमेशचन्द्र मजूमदार] में सुभाष बोस के वक्तृव्य एवं अध्यक्षीय भाषण आदि काल-क्रमानुसार प्राप्त हैं। उनसे बहुत सहायता मिली है। शिशिर कुमार बसु कृत ‘महानिष्क्रमण’ तथा उत्तमचन्द्र के ‘व्हैन बोस वॉज जियाउद्दीन’ में सुभाष बोस के, 1941 में कलकत्ता से लेकर भारत तक के निष्क्रमण तक का दिन-प्रतिदिन का ब्यौरा उपलब्ध है। उनके विवाह को लेकर संशय उठाये जाते रहे हैं। शेखर बसु कृत ‘नेताजीर सहधर्मिणी’ शीर्षक छोटी-सी सचित्र पुस्तिका में एमिली शैकल से उनके विवाह तथा पुत्री अनिता का इतिवृत्त है। प्रमाण-स्वरूप कुछ चित्र भी दिये गये है। श्री अभिजित कृत ‘ताइहोकू थेके भारते-नेताजीर अन्तर्धान रहस्य’ सुभाष बोस के विवादास्पद हवाई-दुर्घटना पर केन्द्रित है। भारत-सरकार द्वारा नियुक्त कमेटी [1956] की रिपोर्ट के कुछ अंश भी इस ग्रंथ से उद्धत हैं।
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