संस्कृति >> भारत का सांस्कृतिक इतिहास भारत का सांस्कृतिक इतिहासहरिदत्त वेदालंकार
|
3 पाठकों को प्रिय 379 पाठक हैं |
इस संस्करण को पूर्णतया संशोधित करते हुए इसमें पिछले दस वर्षों में हुए नवीन पुरातत्वीय अन्वेषणों तथा सांस्कृतिक परिवर्तनों का विस्तार से वर्णन किया गया है.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
तृतीय संस्करण की भूमिका
इस संस्करण को पूर्णतया संशोधित करते हुए इसमें पिछले दस वर्षों में हुए
नवीन पुरतत्वीय अन्वेषणों तथा सांस्कृतिक परिवर्तनों का विस्तार से वर्णन
किया गया है। दूसरे अध्याय में लोथल की खुदाई पर एक नया प्रकरण बढ़ाया गया
है। शासन-प्रणाली तथा आधुनिक भारत वाले अध्यायों की सामग्री को
अद्यतनीन बनाने के लिए अनेक संशोधन किए गए हैं। संशोधन के लिए मुझे डॉ.
वासुदेवशरण जी अग्रवाल, हिन्दू विश्वविद्यालय, तथा श्रीकृष्णद्त्तजी
वाजपेयी, सागर विद्यालय, से बहुमूल्य सुझाव मिले हैं। मैं इनके लिए अत्यंत
आभारी हूँ। भारत सरकार के पुरातत्व विभाग लोथल मोहनजोदड़ो आदि के सम्बन्ध
में अपने बहुमूल्य चित्र छापने की अनुमति प्रदान की है, इसके लिए इस विभाग
का बहुत अनुगृहीत हूँ।
हरिदत्त वेदालंकार
प्रथम संस्करण की भूमिका
इस पुस्तक का उद्देश्य प्राचीन भारतीय संस्कृति के सब पहलुओं को सरल एवं
सुबोध रूप से संक्षिप्त तथा प्रामाणिक दिग्दर्शन कराना है। यह बड़ी
प्रसन्नता की बात है कि स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद जनता का इस विशष में
अनुराग निरन्तर बढ़ रहा है और विश्वविद्यालय अपने पाठ्यक्रमों में इसका
समावेश कर रहे हैं। यह पुस्तक विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम को
ध्यान में रखते हुए लिखी गई है, उनमें वर्णित सभी विषयों का इसमें
संक्षिप्त एवं सारगर्भित प्रतिपादन है। आशा है कि विश्विद्यालयों के
छात्रों के लिए यह पुस्तक उपयोगी होगी तथा प्राचीन संस्कृति के सम्बन्ध
में जिज्ञासा रखने वाले सामान्य पाठक भी इससे लाभ उठा सकेंगे।
पुस्तक के पहले अध्याय में भारतीय संस्कृति की महत्ता, सभ्यता और संस्कृति के स्वरूप, तथा हमारे देश की सांस्कृतिक एकता की महत्त्वपूर्ण विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है और विभिन्न राजनीतिक युगों की सांस्कृतिक उन्नति का संक्षिप्त निर्देश है। इस अवतरणिका के बाद दूसरे से तेरहवें अध्यायों पर वैदिक, महाकाव्य-कालीन, गुप्त एवं मध्य युग की सांस्कृतिक दशा तथा बौद्ध, जैन, भक्ति-प्रधान पौराणिक हिन्दू-धर्म, बृहत्तर भारत, वर्ण-व्यवस्था, भारतीय दर्शन, शासन-प्रणाली, शिक्षा-पद्धति तथा कला आदि संस्कृति के महत्वपूर्ण अंगों का विवेचन है, हिन्दू धर्म और इस्लाम के पारस्परिक सम्पर्क के परिणामों का उल्लेख है। चौदहवें अध्याय में भारतीय संस्कृति की विशेषताओं और उसके भविष्य पर विचार किया गया है। पन्द्रहवें अध्याय में आधुनिक भारत के सांस्कृतिक नव जागरण का वर्णन है, इसमें ब्राह्म-समाज, आर्य-समाज आदि धार्मिक आन्दोलनों, सती-प्रथा के निषेध से हिन्दू कोड तक के सामाजिक सुधारों, वर्तमान भारत के वैज्ञानिक विकास, साहित्यिक उन्नति और कलात्मक पुनर्जागृति का संक्षिप्त उल्लेख है।
पुस्तक की कुछ प्रधान विशेषताओं का वर्णन अनुचित न होगा। इसकी भाषा और शैली अत्यन्त सरल और सुबोध रखी गई है। इसमें इस बात का प्रयत्न किया गया है कि प्रत्येक युग और सांस्कृतिक पहलू के अधिक विस्तार में न जाकर उसकी मुख्य बातों की ही चर्चा की जाए, विभिन्न विषयों का काल-क्रमानुसार इस प्रकार वर्णन किया जाए कि सारा विषय हस्तामलकवत् हो जाए। पाठक और विद्यार्थी स्पष्ट रूप से यह जान सकें कि हमारी संस्कृति में कौन-सी संस्था, प्रथा, व्यवस्था, कला शैली, दार्शनिक विचार किस समय किन कारणों से प्रादुर्भूत हुए। उदाहरणार्थ जाति-भेद का वैदिक, मौर्य, सातवाहन, गुप्त तथा मध्य युगों में कैसे विकास हुआ, इसका संक्षिप्त वर्णन किया गया है। इस प्रकार धर्म तथा अन्य क्षेत्रों में भी सांस्कृतिक उन्नति की क्रमिक अवस्थाओं का निर्दशन है।
भारतीय कला वाले अध्याय में न केवल भारतीय कला की विशेषताओं तथा उसकी विभिन्न शैलियों का परिचय दिया गया है किन्तु उसके स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए 14 चित्र भी दिए गए हैं। चित्रों का चुनाव इस दृष्टि से किया गया है कि इसमें भारतीय कला के सभी कालों के एक-दो उत्तम नमूने आ जाएं। लेखक कुछ अधिक चित्र देना चाहता था किन्तु पुस्तक के जल्दी छपने के कारण, उसे इतने ही चित्रों से सन्तोष करना पड़ा है। अगले संस्करण में वह इस दोष को पूरा करने का भरसक प्रयत्न करेगा। सात चित्र भारतीय पुराततत्व-विभाग की कृपा से प्राप्त हुए हैं। इनके प्रकाशित करने की अनुमति प्रदान करने के लिए मैं इस विभाग का अत्यन्त आभारी हूँ। विदेशों में भारतीय संस्कृति का प्रसार स्पष्ट करने के लिए एक मानचित्र भी दिया गया है।
यदि यह पुस्तक छात्रों तथा भारतीय संस्कृति के प्रेमियों को इस विषय का ज्ञान करा सके और इसके प्रति अनुराग उत्पन्न कर सके तो लेखक अपना प्रयत्न सफल समझेगा।
पुस्तक के पहले अध्याय में भारतीय संस्कृति की महत्ता, सभ्यता और संस्कृति के स्वरूप, तथा हमारे देश की सांस्कृतिक एकता की महत्त्वपूर्ण विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है और विभिन्न राजनीतिक युगों की सांस्कृतिक उन्नति का संक्षिप्त निर्देश है। इस अवतरणिका के बाद दूसरे से तेरहवें अध्यायों पर वैदिक, महाकाव्य-कालीन, गुप्त एवं मध्य युग की सांस्कृतिक दशा तथा बौद्ध, जैन, भक्ति-प्रधान पौराणिक हिन्दू-धर्म, बृहत्तर भारत, वर्ण-व्यवस्था, भारतीय दर्शन, शासन-प्रणाली, शिक्षा-पद्धति तथा कला आदि संस्कृति के महत्वपूर्ण अंगों का विवेचन है, हिन्दू धर्म और इस्लाम के पारस्परिक सम्पर्क के परिणामों का उल्लेख है। चौदहवें अध्याय में भारतीय संस्कृति की विशेषताओं और उसके भविष्य पर विचार किया गया है। पन्द्रहवें अध्याय में आधुनिक भारत के सांस्कृतिक नव जागरण का वर्णन है, इसमें ब्राह्म-समाज, आर्य-समाज आदि धार्मिक आन्दोलनों, सती-प्रथा के निषेध से हिन्दू कोड तक के सामाजिक सुधारों, वर्तमान भारत के वैज्ञानिक विकास, साहित्यिक उन्नति और कलात्मक पुनर्जागृति का संक्षिप्त उल्लेख है।
पुस्तक की कुछ प्रधान विशेषताओं का वर्णन अनुचित न होगा। इसकी भाषा और शैली अत्यन्त सरल और सुबोध रखी गई है। इसमें इस बात का प्रयत्न किया गया है कि प्रत्येक युग और सांस्कृतिक पहलू के अधिक विस्तार में न जाकर उसकी मुख्य बातों की ही चर्चा की जाए, विभिन्न विषयों का काल-क्रमानुसार इस प्रकार वर्णन किया जाए कि सारा विषय हस्तामलकवत् हो जाए। पाठक और विद्यार्थी स्पष्ट रूप से यह जान सकें कि हमारी संस्कृति में कौन-सी संस्था, प्रथा, व्यवस्था, कला शैली, दार्शनिक विचार किस समय किन कारणों से प्रादुर्भूत हुए। उदाहरणार्थ जाति-भेद का वैदिक, मौर्य, सातवाहन, गुप्त तथा मध्य युगों में कैसे विकास हुआ, इसका संक्षिप्त वर्णन किया गया है। इस प्रकार धर्म तथा अन्य क्षेत्रों में भी सांस्कृतिक उन्नति की क्रमिक अवस्थाओं का निर्दशन है।
भारतीय कला वाले अध्याय में न केवल भारतीय कला की विशेषताओं तथा उसकी विभिन्न शैलियों का परिचय दिया गया है किन्तु उसके स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए 14 चित्र भी दिए गए हैं। चित्रों का चुनाव इस दृष्टि से किया गया है कि इसमें भारतीय कला के सभी कालों के एक-दो उत्तम नमूने आ जाएं। लेखक कुछ अधिक चित्र देना चाहता था किन्तु पुस्तक के जल्दी छपने के कारण, उसे इतने ही चित्रों से सन्तोष करना पड़ा है। अगले संस्करण में वह इस दोष को पूरा करने का भरसक प्रयत्न करेगा। सात चित्र भारतीय पुराततत्व-विभाग की कृपा से प्राप्त हुए हैं। इनके प्रकाशित करने की अनुमति प्रदान करने के लिए मैं इस विभाग का अत्यन्त आभारी हूँ। विदेशों में भारतीय संस्कृति का प्रसार स्पष्ट करने के लिए एक मानचित्र भी दिया गया है।
यदि यह पुस्तक छात्रों तथा भारतीय संस्कृति के प्रेमियों को इस विषय का ज्ञान करा सके और इसके प्रति अनुराग उत्पन्न कर सके तो लेखक अपना प्रयत्न सफल समझेगा।
गुरुकुल कांगड़ी
हरिदत्त वेदालंकार
1
विषय प्रवेश
भारतीय संस्कृति की महत्ता-भारतीय संस्कृति विश्व के इतिहास में कई
दृष्टियों से विशेष महत्त्व रखती है। यह संसार की प्राचीनतम संस्कृतियों
में से है। मोहनजोदड़ो की खुदाई के बाद से यह मिस्र और मेसोपोटामिया की
सबसे पुरानी सभ्यताओं के समकालीन समझी जाने लगी है। प्राचीनता के साथ इसकी
दूसरी विशेषता अमरता है। चीनी संस्कृति के अतिरिक्त पुरानी
दुनिया
के अन्य सभी—मेसोपोटामिया की सुमेरियन, असीरियन, बेबिलोनियन और
खाल्दी प्रभृति तथा मिस्र, ईरान, यूनान और रोम की संस्कृतियां काल के कराल
गाल में समा चुकी हैं, कुछ ध्वंशावशेष ही उनकी गौरव-गाथा गाने के लिए बचे
हैं; किंतु भारतीय संस्कृति कई हजार वर्ष तक काल के क्रूर थपेड़ों को सहती
हुई आज तक जीवित है।
उसकी तीसरी विशेषता उसका जगद्गुरु होना है। उसे इस बात का श्रेय प्राप्त है कि उसने न केवल इस महाद्वीप सरीखे भारत वर्ष को सभ्यता का पाठ पढाया, अपितु भारत के बाहर भी बहुत हिस्से की जंगली जातियों को सभ्य बनाया, साइबेरिया के सिंहल (श्रीलंका) तक और मैगास्कर टापू, ईरान तथा अफगानिस्तान से प्रशान्त महासागर के बोर्नियो, बाली के द्वीपों तक के विशाल भू-खण्ड पर अपना अमिट प्रभाव छोड़ा। सर्वांगीणता विशाल, उदारता और सहिष्णुता की दृष्टि से अन्य संस्कृतियाँ उसकी समानता नहीं कर सकतीं। इस अनुपम और विलक्षण संस्कृति के उत्तराधिकारी होने के नाते इसका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना हमारा परम आवश्यक कर्तव्य है। इससे न केवल हमें उसके गुण, प्रत्युत दोष भी, मालूम होंगे। यह भी ज्ञात होगा कि किन कारणों से उसका उत्कर्ष और अपकर्ष हुआ। इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि भारतीय संस्कृति का अतीत अत्यन्त उज्ज्वल था, किन्तु हमारा कर्तव्य है कि हम भविष्य को भूत से भी अधिक उज्ज्वल और गौरवपूर्ण बनाने का प्रयास करें। यह सांस्कृतिक इतिहास के गंभीर अध्ययन से ही सम्भव है।
किन्तु इससे पहले संस्कृति के स्वरूप तथा भारतीय संस्कृति की भौगोलिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तथा सामान्य परिचय आवश्यक है।
सभ्यता और संस्कृति—संस्कृति का शब्दार्थ है उत्तम या सुधरी हुई स्थिति। मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है। वह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहा है। ऐसी प्रत्येक जीवन-पद्धति, रीति-नीति, रहन-सहन, आचार-विचार, नवीन अनुसंधान और आविष्कार, जिनसे मनुष्य पशुओं और जंगलियों के दर्जें से ऊँचा उठता है तथा सभ्य बनता है, सभ्यता और संस्कृति का अंग है। सभ्यता (Civilization) से मनुष्य के भौतिक क्षेत्र की और संस्कृति (Culture) से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है। प्रारंभ में मनुष्य आँधी-पानी, सर्दी-गर्मी, सब कुछ सहता हुआ जंगलों में रहता था। शनैः-शनैः उसने इन प्राकृतिक विपदाओं से अपनी रक्षा के लिए पहले गुफाओं और फिर क्रमशः लकड़ी, ईंट या पत्थर के मकानों की शरण ली।
अब वह लोहे और सीमेन्ट की गगन-चुम्बी अट्टालिकाओं का निर्माण करने लगा है। प्राचीन काल में यातायात का साधन सिर्फ मानव के दो पैर ही थे, फिर उसने घोड़े, ऊँट, हाथी, रथ और बहली का आश्रय लिया। अब वह मोटर और रेलगाड़ी के द्वारा थोड़े समय में बहुत लम्बे फासले तय करता है, हवाई जहाज द्वारा आकाश में भी उड़ने लगा है, स्पूतनिकों, राकेटों अंतरिक्ष-यानों द्वारा चन्द्रमा, शुक्र तथा मंगल ग्रहों तक पहुँचने का यत्न कर रहा है। पहले मनुष्य जंगल के कन्द, मूल और फल तथा आखेट से अपना निर्वाह करता था। बाद में उसने पशु-पालन और कृषि के आविष्कार द्वारा आजीविका के साधनों में उन्नति की। पहले वह अपने सब कार्यों को शारीरिक शक्ति से करता था, पीछे उसने पशुओं को पालतू बनाकर और सधाकर उनकी शक्ति का हल गाड़ी आदि में उपयोग करना सीखा। अन्त में उसने हवा, पानी, वाष्प, बिजली आदि भौतिक शक्तियों को तथा आणविक शक्तियों को वश में करके मशीनें बनाईं जिनसे उसके भौतिक जीवन में काया-पलट हो गई। मनुष्य की यह सारी प्रगति सभ्यता कहलाती है।
संस्कृति का स्वरूप—मनुष्य केवल भौतिक परस्थितियों में सुधार करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता, शरीर के साथ मन और आत्मा भी है। भौतिक उन्नति से शरीर की भूख मिट सकती है, किन्तु इसके बावजूद मन और आत्मा तो अतृप्त बने रहते हैं। इन्हें सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य अपना जो विकास और उन्नति करता है, उसे संस्कृति कहते हैं। मनुष्य की जिज्ञासा का परिणाम धर्म और दर्शन होते हैं। सौंदर्य की खोज करते हुए वह संगीत, साहित्य, मूर्ति, चित्र और वास्तु आदि अनेक कलाओं को उन्नत करता है। सुख पूर्वक निवास करने के लिए सामाजिक और राजनीतिक संघटनों का निर्माण करता है। इस प्रकार मानसिक क्षेत्र में उन्नति की सूचक उसकी प्रत्येक ‘सम्यक-कृति’ संस्कृति का अंग बनती है। इनमें प्रधान रूप से धर्म, दर्शन, सभी ज्ञान-विज्ञानों और कलाओं, सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाओं और प्रथाओं का समावेश होता है।
उसकी तीसरी विशेषता उसका जगद्गुरु होना है। उसे इस बात का श्रेय प्राप्त है कि उसने न केवल इस महाद्वीप सरीखे भारत वर्ष को सभ्यता का पाठ पढाया, अपितु भारत के बाहर भी बहुत हिस्से की जंगली जातियों को सभ्य बनाया, साइबेरिया के सिंहल (श्रीलंका) तक और मैगास्कर टापू, ईरान तथा अफगानिस्तान से प्रशान्त महासागर के बोर्नियो, बाली के द्वीपों तक के विशाल भू-खण्ड पर अपना अमिट प्रभाव छोड़ा। सर्वांगीणता विशाल, उदारता और सहिष्णुता की दृष्टि से अन्य संस्कृतियाँ उसकी समानता नहीं कर सकतीं। इस अनुपम और विलक्षण संस्कृति के उत्तराधिकारी होने के नाते इसका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना हमारा परम आवश्यक कर्तव्य है। इससे न केवल हमें उसके गुण, प्रत्युत दोष भी, मालूम होंगे। यह भी ज्ञात होगा कि किन कारणों से उसका उत्कर्ष और अपकर्ष हुआ। इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि भारतीय संस्कृति का अतीत अत्यन्त उज्ज्वल था, किन्तु हमारा कर्तव्य है कि हम भविष्य को भूत से भी अधिक उज्ज्वल और गौरवपूर्ण बनाने का प्रयास करें। यह सांस्कृतिक इतिहास के गंभीर अध्ययन से ही सम्भव है।
किन्तु इससे पहले संस्कृति के स्वरूप तथा भारतीय संस्कृति की भौगोलिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तथा सामान्य परिचय आवश्यक है।
सभ्यता और संस्कृति—संस्कृति का शब्दार्थ है उत्तम या सुधरी हुई स्थिति। मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है। वह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहा है। ऐसी प्रत्येक जीवन-पद्धति, रीति-नीति, रहन-सहन, आचार-विचार, नवीन अनुसंधान और आविष्कार, जिनसे मनुष्य पशुओं और जंगलियों के दर्जें से ऊँचा उठता है तथा सभ्य बनता है, सभ्यता और संस्कृति का अंग है। सभ्यता (Civilization) से मनुष्य के भौतिक क्षेत्र की और संस्कृति (Culture) से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है। प्रारंभ में मनुष्य आँधी-पानी, सर्दी-गर्मी, सब कुछ सहता हुआ जंगलों में रहता था। शनैः-शनैः उसने इन प्राकृतिक विपदाओं से अपनी रक्षा के लिए पहले गुफाओं और फिर क्रमशः लकड़ी, ईंट या पत्थर के मकानों की शरण ली।
अब वह लोहे और सीमेन्ट की गगन-चुम्बी अट्टालिकाओं का निर्माण करने लगा है। प्राचीन काल में यातायात का साधन सिर्फ मानव के दो पैर ही थे, फिर उसने घोड़े, ऊँट, हाथी, रथ और बहली का आश्रय लिया। अब वह मोटर और रेलगाड़ी के द्वारा थोड़े समय में बहुत लम्बे फासले तय करता है, हवाई जहाज द्वारा आकाश में भी उड़ने लगा है, स्पूतनिकों, राकेटों अंतरिक्ष-यानों द्वारा चन्द्रमा, शुक्र तथा मंगल ग्रहों तक पहुँचने का यत्न कर रहा है। पहले मनुष्य जंगल के कन्द, मूल और फल तथा आखेट से अपना निर्वाह करता था। बाद में उसने पशु-पालन और कृषि के आविष्कार द्वारा आजीविका के साधनों में उन्नति की। पहले वह अपने सब कार्यों को शारीरिक शक्ति से करता था, पीछे उसने पशुओं को पालतू बनाकर और सधाकर उनकी शक्ति का हल गाड़ी आदि में उपयोग करना सीखा। अन्त में उसने हवा, पानी, वाष्प, बिजली आदि भौतिक शक्तियों को तथा आणविक शक्तियों को वश में करके मशीनें बनाईं जिनसे उसके भौतिक जीवन में काया-पलट हो गई। मनुष्य की यह सारी प्रगति सभ्यता कहलाती है।
संस्कृति का स्वरूप—मनुष्य केवल भौतिक परस्थितियों में सुधार करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता, शरीर के साथ मन और आत्मा भी है। भौतिक उन्नति से शरीर की भूख मिट सकती है, किन्तु इसके बावजूद मन और आत्मा तो अतृप्त बने रहते हैं। इन्हें सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य अपना जो विकास और उन्नति करता है, उसे संस्कृति कहते हैं। मनुष्य की जिज्ञासा का परिणाम धर्म और दर्शन होते हैं। सौंदर्य की खोज करते हुए वह संगीत, साहित्य, मूर्ति, चित्र और वास्तु आदि अनेक कलाओं को उन्नत करता है। सुख पूर्वक निवास करने के लिए सामाजिक और राजनीतिक संघटनों का निर्माण करता है। इस प्रकार मानसिक क्षेत्र में उन्नति की सूचक उसकी प्रत्येक ‘सम्यक-कृति’ संस्कृति का अंग बनती है। इनमें प्रधान रूप से धर्म, दर्शन, सभी ज्ञान-विज्ञानों और कलाओं, सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाओं और प्रथाओं का समावेश होता है।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book