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शहीद-ए-आजम

बच्चन सिंह

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :336
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4629
आईएसबीएन :81-7043-657-5

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स्वार्थों की अंधी दौड़, भौतिक सुख-सुविधाओं के प्रति बढ़ती ललक और व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में नैतिक मूल्यों के तीव्रगामी पतन के दौर में भारती क्रान्तिकारियों का त्यागमय जीवन शायद कुछ प्रकाश बिखेर सके...

Shaheed E Azam

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अमर शहीद भगत सिंह पर आधारित उपन्यास

स्वार्थों की अंधी दौड़, भौतिक सुख सुविधाओं के प्रति बढ़ती ललक और व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में नैतिक मूल्यों के तीव्रगामी पतन के दौर में भारतीय क्रांतिकारियों का त्यागमय जीवन शायद कुछ प्रकाश बिखेर सके जिसके आलोक में समाज मूल्याधारित जीवन जीने की प्रेरणा ग्रहण करने की क्षमता विकसित कर पाए। नैतिकता की पुनर्स्थापना हो और सामाजिक व्यवहार में त्याग एवं बलिदान को प्रतिष्ठा मिले। यही सोच कर हमने क्रांतिकारियों के जीवन पर उपन्यास लिखने का निश्चय किया है। पहला उपन्यास रामप्रसाद बिस्मिल पर लिखा गया जो चर्चित हुआ। यह उपन्यास ‘शहीद-ए-आजम’ भगत सिंह के जीवन पर आधारित है।
घटनाएँ सही हैं। यदि कल्पना या काल्पनिक पात्रों का सहारा लिया गया है तो विषय और संदर्भ को ज्यादा प्रभावी, सशक्त एवं प्रेषणीय बनाने के लिए। मर्मस्पर्शी बनाने के लिए। फिल्मी अंदाज में ऐतिहासिकता या सत्य से छेड़छाड़ नहीं की गई है।
साहित्य में उपन्यास विधा को सबसे ज्यादा पाठक हासिल हैं, इसलिए यही विधा चुनी गई है ताकि अमर शहीद भगत सिंह की ऊँचाई छूने की लालसा पाठकों में पैदा हो। यदि उसे न छू पाएँ तो कम से कम कोशिश तो करें। हो सकता है इसी कोशिश में से कर्ममय और ईमानदार जीवन जीने का कोई रास्ता निकले।

[1 ]

अविभाजित भारत के लायलपुर जिले का गाँव बंगा। सरदार अजीत सिंह, सरदार किशन सिंह और सरदार स्वर्ण सिंह जैसे वीर क्रान्तिकारियों का घर। 1928 का सात सितम्बर। दिन शनिवार। समय प्रातः नौ बजे। वातावरण में उमस थी। आकाश में बादलों का एक टुकड़ा उगता फिर उड़ता हुआ कहीं दूर जाकर बिखर जाता। होने को तो दीपावली के दिन भी बरसात हो जाती थी लेकिन फिलहाल उसकी सम्भावना दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही थी। ऐसे ही समय में विद्यावती जी ने एक पुत्र को जन्म दिया। उन्नत ललाट। लम्बी नासिका। बड़ी-बड़ी आँखें सिर पर घने बाल। गोरा रंग। हृष्ट-पुष्ट और स्वस्थ जन्मते ही हाथ-पाँव फेंकना शुरू कर दिया था इस नवजात शिशु ने। घर का माहौल उल्लास से भर गया था। पूत के पाँव पालने में ही दिखाई देने लगे थे। सभी के चेहरे खिल उठे थे। क्या दादी, क्या चाची, क्या माँ सभी इतने प्रफुल्लित कि जैसे पाँव जमीन पर पड़ ही नहीं रहे हों।
‘दादी ! दादी !!’
‘क्या ?’
‘दादी, एक खुशखबरी।’
‘आज का दिन अच्छी खबरों का ही है क्या, सुना जल्दी।’
‘एक भाग्यवान बच्चा जो आया है घर में...।’
‘पहले खबर सुना।’ दादी ने बीच में ही हस्क्षेप किया।

‘अजीत चाचा का निर्वासन सरकार ने समाप्त कर दिया।’
‘क्या कहा, मेरे बेटे का निर्वासन समाप्त हो गया। अब वह घर आ रहा है अपने भतीजे को देखेगा तो खुशी से नाचने लगेगा।’ दादी ने कहा, ‘सब वाहे गुरु की कृपा है। इधर फूल सा पोता, उधर बेटे का घर आना...।’
‘दादी ! दादी !!’ दादी की बात खत्म भी नहीं हुई थी कि दूसरी सूचना आ गई।
‘अब तू क्या लेके आया है ?’
‘बहुत अच्छी खबर लाया हूँ दादी माँ।’
‘जल्दी बोल तेरी भी सुन लूँ।’
‘दादी, दादी....।’
‘अरे बोल न कि मुँह में ही रक्खे रहेगा !’
‘दादी, किशन चाचा और स्वर्ण चाचा जेल से छूट गए हैं। उन्हें सरकार ने रिहा कर दिया है।’
‘सच ! तुझे कैसे पता चला ?’
‘अभी, छबीले ने मुझे बताया, दोनों लोग कुछ ही देर में घर पहुँच रहे हैं।’
दादी श्रीमती जयकौर खुशी से झूम उठीं। बहुएँ भी खिल उठीं। सभी के मुँह से एक ही बात फू़ट रही थी, ‘कितना भाग्वान है बच्चा ! लगता है किसी महापुरुष ने घर में अवतार लिया है।’ देखते-ही-देखते पूरा आँगन भांगड़ा की थिरकन से भर उठा। चारों ओर उठने लगी खुशी की लहरें।

शीतल हवा के झोंके की तरह यह चर्चा पूरे गाँव में फैल गयी। ‘अर्जुन सिंह को पोता हुआ है।....उसमें महापुरुष के लक्षण दिखाई देने लगे हैं। उसके पैदा होते ही अर्जुन के सारे बेटे घर आ रहे हैं। अजीत, किशन और स्वर्ण...सभी। सरकार ने सभी को माफ कर दिया।...सभी कुछ घण्टों में घर आ रहे हैं...वाहे गुरु की जय...वाहे गुरु की कृपा..वाहे गुरु की माया...।’ गाँव के लोग उमड़ पड़े अर्जुन सिंह के घर की ओर। घर से लेकर दुआर तक भीड़ जमा हो गई। गाँव की महिलाओं और बच्चों से आँगन ठसाठस भर गया। बधाइयों का ताँता लग गया, ‘बधाई हो इस होनहार पोते के जन्म के लिए...बधाई हो घर के सरदारों की रिहाई के लिए...बधाई हो दादी जी, आपके बेटों के घर आने और इस भाग्यवान पोते के जनम के लिए...।’
दादी और बहुएँ हँसी-खुशी के साथ बधाइयाँ स्वीकार करतीं। आगन्तुकों का मुँह मीठा करतीं। लग रहा था, जैसे कोई जलसा हो अर्जुन सिंह के घर। लोग बाग चर्चा करते-
‘बड़ा ही होनहार पुत्र पैदा हुआ है किशन सिंह को।’
‘हाँ, होनहार है तभी न, उसके पैदा होते ही किशन सिंह और उनके दोनों भाई घर आ गए। सरकार ने उन्हें छोड़ दिया।’
‘हाँ, जैसे कृष्ण के पैदा होते ही कारागार के फाटक अपने आप खुल गए थे और सभी प्रहरी सो गए थे।’
‘वह अपने माता-पिता से भी ज्यादा रूपवान है।’
‘और बलिष्ठ भी।’
‘उसके हाथ-पैर एक मिनट चैन से नहीं रहते।’
‘एक दिन अपने खानदान का नाम रोशन करेगा।’
‘खानदान का ही नहीं गाँव-देश का भी।’

‘हाँ भाई, लक्षण तो यही कह रहे हैं।’
‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात।’
‘पुत के पाँव पालने में ही दिखाई पड़ने लगते हैं भाई।’
‘दिखाई तो पड़ ही रहे हैं न, पिता और चाचा लोग घर आ गए.’
‘कुलदीपक है यह बच्चा, कुलदीपक...।’
‘पहले वाला जमाना होता तो देवता लोग फूलों की वर्षा करते।’
‘अवश्य करते...अवश्य करते...।’
किशन सिंह ने बेटे को देखा तो धन्य हो गए। अजीत और स्वर्ण भी फूले नहीं समाए। ऐसा रूप, ऐसा रंग, ऐसी चंचलता...हर दृष्टि से परिपूर्ण इस शिशु को देखकर सभी का उल्लसित मन बोल उठा, ‘खानदान का चिराग है यह। इस चिराग से पूरा देश रोशन होगा। हमारी इज्जत में चार चाँद लग जाएँगे। वाहे गुरु सलामत रखें इस शिशु को। बड़ा होकर फूले-फले...।’
इस बच्चे के जन्म के साथ घर में इतनी खुशियाँ एक साथ आई थीं। निश्चित रूप से यह बहुत ही भाग्यवान था। भागों वाला था। इसीलिए दादी ने इस बच्चे का नाम रख दिया भगत यानी भगत सिंह।
कुछ ही मांह में भगत सिंह गाँव भर का लाड़ला बन गया। हर कोई उसे गोद में लेना चाहता। प्यार करना चाहता। चूमना चाहता। खेलाना चाहता। उसकी किलकारियाँ, उसका चहकना, उसका हँसना और उसका मुस्कराना देखना-सुनना चाहता। भगत सिंह की मोहकता अद्वितीय थी। एक बार जो देखता, उसके आकर्षण में बँध जाता। फिर उसे गोद में ले लेने की ललक पैदा हो जाती।

दिन जाते देर नहीं लगती। हँसी-खुशी, लाड़-प्यार और वात्सल्यमय माहौल में पलते-बढ़ते तकरीबन तीन साल होनो को आ गए। भगत सिंह स्पष्ट जुबान में बात करने लगे थे। उसी समय खेत में एक नया बाग लग रहा था। आम के पौधे रोपे जा रहे थे। शाम का समय था। बालक भगत पिता की अँगली पकड़े हुए बाग की तरफ जा रहे थे। सिवान में जब कोई नई चीज दिखाई देती, भगत की जिज्ञासा जाग उठती। वे सवाल करते, किशन सिंह जवाब देते, फिर दूसरा सवाल और फिर किशन सिंह का जवाब...यह सिलसिला तब तक जारी रहा जब तक किशन सिंह अपने लाड़ले भगत और मित्र मेहता नन्द किशोर के साथ बाग तक नहीं पहुँच गये। भगत सिंह ने पिता की उँगली छोड़ दी और खेल में बैठ गये। खेल में कुछ घास उग आई थी। घास का एक तिनका नोचते और खेत में गाड़ देते-उसी तरह जैसे पौधे रोपे जाते हैं। मेहता की निगाह भगत सिंह पर पड़ी। उन्होंने मुस्कराते हुए किशन सिंह से कहा, ‘आपका बेटा अभी से किसान बन गया है।’
‘वह कैसे ?’
‘देखिए न, घास के तिनके नोच कर खेत में रोप रहा है।’
‘किसान का बेटा किसान नहीं बनेगा तो क्या बनेगा,’ किशन सिंह ने हँसते हुए कहा और भगत सिंह के पास जाकर पूछा, ‘क्या कर रहे हो बेटे ?’

‘बन्दूकें बो रहा हूँ।’ लगभग तीन साल के बच्चें के मुँह से दृढ़तापूर्वक दिए गए इस उत्तर को सुनकर किशन सिंह और मेहता दोनों ही स्तब्ध रह गए। किशन सिंह तो बेटे पर इतने मुग्ध हो गए कि उसे गोद में उठा लिया। दोनों लोग आश्चर्यचकित थे कि बालक भगत सिंह के मन में बन्दूक की बात आई कहाँ से ? फिर उन्होंने सोचा, निश्चित रूप से परिवार के क्रान्तिकारी संस्कार मिले हैं भगत सिंह को। इसने बन्दूक की खेती करके इस कहावत को चरितार्थ कर दिया है, ‘चाइल्ड इज द फादर आफ मैन।’ भगत सिंह का भविष्य एक क्षण के लिए किशन सिंह के दिमाग में बिजली की तरह कौंध गया। खुशी और चिन्ता के मिले-जुले भाव बादलों की तरह घुमड़ आए। फिर वे मन ही मन बुदबुदाए, ‘हमारे चहाने न चाहने से क्या होने वाला है ! होगा वही जो वाहे गुरु को मंजूर होगा।’ घर लौट कर किशन सिंह ने माँ से कहा, ‘देखा माँ आपका पोता खेत में बन्दूक के पौधे रोप रहा था।’
‘बन्दूक के पौधे, क्या कह रहे हो किशन ?’
‘हां माँ, यह खेत में उगी घास के तिनके नोच-नोच कर रोप रहा था। जब मैंने पूछा कि क्या कर रहे हो भगत ? तब उसने कहा, बन्दूकें बो रहा हूँ। हमारे साथ मेहता जी भी थे। हम दोनों इसकी बात सुनकर स्तब्ध रह गए।’
‘जिस परिवार में पैदा हुआ है, उसके संस्कार तो मिलेंगे ही न बेटा। इसके हाव-भाव, इसकी चपलता यही बता रही है कि यह सामान्य आदमी नहीं होगा। तुमसे भी चार हाथ आगे निकलेगा।’
दादी ने भगत सिंह को गोद में उठा लिया और लाड़ की वर्षा करने लगीं। उन्होंने भगत सिंह के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘वाहे गुरु, मेरे पोते की रक्षा करना।’

भगत सिंह घर-आँगन, खेत-खलिहान की धूल-मिट्टी धो माँजकर अब विद्यार्थी बन गए थे। गाँव की प्राइमरी पाठशाला में जब पढ़ाई शुरू हुए तो उनकी असाधारण प्रतिभा निखरकर सामने आई। जो पाठ पढ़ाया जाता उससे आगे का पाठ तैयार रखते। राइटिंग इतनी खूबसूरत होती कि अध्यापक अन्य छात्रों को उदाहरण के रूप में दिखाते। दोस्ती सबसे, दुश्मनी किसी से नहीं। भगत सिंह की प्रतिभा के कायल अगली कक्षा के छात्र भी उनके दोस्तों में शुमार हो गए थे। बड़े छात्रों में इस बात की होड़ मच जाती कि भगत सिंह को कौन कन्धे पर बैठा कर घर तक पहुँचाएगा। इस होड़ में प्रायः जीत सुमिरनजीत सिंह की होती क्योंकि वह कद-काठी से कुछ ज्यादा मजबूत था। ‘सुमिरन, यही बुरा लगता है कि तुम ताकत के बल पर अपनी बात मनवा लेते हो।’
‘हाँ सुमिरन, रोज-रोज तुम्हीं क्यों ढोते हो भगत को ?’
‘तुम लोगों को बुरा क्यों लगता है ?’
‘तुम दहलेंगई दिखाते हो तो बुरा नहीं लगेगा ?’
‘अच्छा भाई, तुम लोग नाराज मत हो, पारी बाँध देते हैं।’
‘हाँ, हाँ, यही ठीक रहेगा, पारी बाँध दो।’
‘हाँ, हाँ, पारी बाँध लेना ही ठीक रहेगा।’

इस समवेत स्वर के बाद पाँच-छः तगड़े लड़कों के बीच पारी बँध गई। भगत सिंह इन लड़कों से उम्र में छोटे-भले थे लेकिन दोस्ताना सम्बन्ध बराबरी का ही था। वे खुद दौड़ लगाकर घर आना चाहते थे, लेकिन दोस्तों की जिद के आगे उन्हें झुकना पड़ता था।
‘बेटे, ये लड़के कौन हैं, जिनके कन्धे पर चढ़कर तुम आते हो ?’
‘मेरे दोस्त हैं माँ। सभी मेरे दोस्त हैं। जैसे वह दर्जी है न मेरा दोस्त जो मेरे कपड़े सिलता है, उसी तरह ये भी मेरे दोस्त हैं। स्कूल में सभी मेरे दोस्त हैं।’
‘तुम्हारे दोस्त कहाँ नहीं हैं, पूरा गाँव तो है तुम्हारा दोस्त।’
‘हाँ माँ, पूरा गाँव ही हमारा दोस्त हैं।’ भगत सिंह ने सीने पर हाथ रखकर इतनी गम्भीता से कहा कि सभी हँस पड़े।
भगत सिंह घर के कोने में बैठकर सूफी अम्बाप्रसाद की पुस्तक पढ़ने में तल्लीन थे। यह जगह उन्होंने इसीलिए चुनी थी क्योंकि कीर्तन के शोर से बचना चाहते थे। पुस्तकें उनकी सबसे प्रिय वस्तु थीं। ज्ञान की पिपासा असीम थी। अर्जन ने देखा, कीर्तन में लगभग पूरा परिवार तो है, किन्तु भगत सिंह नहीं हैं। उन्होंने पूछा, ‘भगत कहाँ है ? उसे कीर्तन में शामिल होना चाहिए था।’
‘कहीं बैठ कर पढ़ रहा होगा।’ पत्नी ने कहा।
‘पढ़ क्या रहा होगा, खेल-कूद रहा होगा।’
‘खेलने-कूदने में उसका मन नहीं लगता। कोई-न-कोई किताब हमेशा उसके हाथ में रहती हैं।’

अर्जुन सिंह घर का कोना-अँतरा झाँकने लगे। अन्ततः भगत सिंह पकड़े गए। वह तन्मयता से पढ़ रहे थे। अर्जुन सिंह खड़ा होकर देखते रहे और भगत सिंह दत्तचित्त होकर पढ़ते रहे। अर्जुन सिंह पोते को देखकर फूले नहीं समा रहे थे। ज्ञान का कितना भूखा है भगत !
‘यहाँ बैठे क्या कर रहे हो भगत ?’
ये शब्द जैसे ही भगत के कानों में पड़े उसका ध्यान भंग हुआ। उन्होंने सिर उठाकर देखा, दादा जी सामने खड़े हैं। वे भी खड़े हो गए। बोले, ‘सूफी अम्बा प्रसाद की पुस्तक पढ़ रहा था दादा जी।’
‘सूफी अम्बा प्रसाद की पुस्तक ?’ अर्जुन सिंह ने आश्चर्य से कहा, ‘लाओ देखें तो।’
भगत सिंह ने वह पुस्तक दादा जी के हाथों में पकड़ा दी। अर्जुन सिंह ने पुस्तक देखी। तसल्ली हुई कि भगत झूठ नहीं बोल रहा है। ‘इतनी छोटी उम्र में इतनी गम्भीर पुस्तक !’ अर्जुन सिंह मन-ही-मन बड़बड़ाए। फिर कहा, ‘बेटे, इस समय घर में कीर्तन हो रहा है, मैं चाहता हूँ कि तू भी कुछ समय तक चल के वहीं बैठ। धर्म-कर्म में शामिल होगा, तभी न बनेंगे तेरे धार्मिक संस्कार।’
‘मेरी रुचि इस तरह के कार्यों में नहीं है दादा जी, व्यर्थ में समय क्यों बरबाद करूँ ?’
‘धार्मिक कृत्य के बारे में ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए बेटे। हमारा परिवार क्रान्तिकारी होने के साथ-साथ धार्मिक भी है। धर्म ही तो हमारा मूल है बेटे।’
‘मुझे तो यह सब ढकोसला लगता है दादा जी, इस तरह के ढकोसलों में मेरा विश्वास नहीं है।’
‘धर्म को ढकोसला कहता है तू ?’

अर्जुन सिंह के भीतर कुछ देर के लिए क्रोध उफान मारने लगा। लेकिन भगत सिंह के भोले चेहरे पर उभर आई दृढ़ता को देखकर वे दूसरे क्षण सहज हो गए। ये लड़का निश्चित रूप से असमान्य है। उनके मन में आया। वे थोड़ी देर तक भगत सिंह को घूरते रहे, फिर भगत सिंह को पुस्तक दे दी और बिना कुछ कहे-सुने वापस लौट गए। भगत सिंह पढ़ने बैठ गए।
भगत सिंह खुद को भी स्वच्छ रखते और घर-दुआर भी स्वच्छ रखते। बैठक को सजाने-सँवारने में उनकी रुचि होती। जो चीज जहाँ शोभायमान होती, वह वहीं दिखाई देती। उसका स्थान-परिवर्तन किसी को नहीं सूझता। चाचा अजीत सिंह की फोटो कहाँ टाँगी या रखी जाएगी, लाला लाजपत राय की फोटो का क्या कोण होगा, आलमारी कहाँ रखी जाएगी, खाट कैसे बिछे होंगे-ये सारी चीजें बालक भगत सिंह के कुशाग्र दिमाग से उपजतीं और इसमें कोई व्यवधान नहीं डालता। आत्मानुशासन के तो साक्षात् प्रतिमूर्ति थे वे। घर के किसी बड़े बुजुर्ग को उन्हें इंगित नहीं करना पड़ता था कि वह बड़ों और छोटों के साथ कैसा व्यवहार करें। अदब, तहजीब और लिहाज, शिष्टाचार, सब उन्हें ईश्वरप्रदत्त थे। इसलिए हर व्यक्ति उन्हें भरपूर प्यार देता था। पढ़ाई का आलम यह था कि चौथी कक्षा तक पहुँचते पचास से अधिक गम्भीर विषयों और विचारों से सम्बन्धित पुस्तकों का पारायण कर चुके थे। घर में रखी समाचारपत्रों की पुरानी फाइलें खँगाल चुके थे-खासतौर पर चाचा अजीत सिंह और लाला लाजपत राय की क्रान्तिकारी गतिविधियों और उनके देश-निर्वाचन से सम्बन्धित खबरों को उन्होंने ध्यान से पढ़ा था। फ्रांस, रूस और आयरलैंड के क्रान्तिकारियों के जीवन में विशेष दिलचस्पी उन्हें थी और सम्भवतः उसने ही उनके जीवन में क्रान्ति की आधारशिला रखी।

गर्मी की दोपहरी थी। उसके भयंकर ताप से बचने के लिए भगत सिंह पेड़ों की घनी छाया के नीचे अपने साथियों से घिरे बैठे थे। किस्से-कहानियों के साथ ही बाल-सुलभ जिज्ञासाओं की परतें खुल रही थीं। उन परतों पर हर साथी अपने-अपने नाम टाँक रहा था। भगत सिंह ने अपने हर साथी से एक सवाल पूछना शुरू किया-
‘तुम बड़े होकर क्या करोगे सोबरन ?’
‘नौकरी करूँगा।’
‘सतनाम ?’
‘खेती करूँगा।’
‘जगपाल तुम ?’
‘व्यवसाय करूँगा।’
‘तुम क्या करोगे कृपाल ?’
‘मैं भैंसे पालूँगा।’
‘और सुरजीत तुम ?’
‘मैं शादी करूँगा, बच्चे पैदा करूँगा, खेती-गृहस्थी सम्हालूँगा।’
‘शादी करना कोई जरूरी काम है क्या ?’ मैं तो कभी शादी नहीं करूँगा। सारा जीवन अंग्रेजों को देश से भगाने में लगा दूँगा।’
‘तुम कैसे भगाओगे अंग्रेजों को ? उनके पास सेना है। सिपाही हैं। हथियार हैं। उन्हें भगाना कोई आसान थोड़े है।’
‘मुश्किल काम को आसान करने वाले शख़्स का नाम ही तो भगत सिंह है। मैं ऐसा काम करूँगा जिससे देश की जनता अंग्रेजों के खिलाफ उठ खड़ी होगी। बगावत कर देगी। जब सारी जनता क्रान्ति कर देगी तो अंग्रेजी हुकूमत की सेना और हथियार कोई काम नहीं देगा।’

‘भगत सिंह ठीक कह रहे हैं, हम लोगों को भी इनके काम में सहयोग देना चाहिए।’
‘हाँ, हाँ, सहयोग देना चाहिए।’
‘हाँ, हम अवश्य देंगे भगत सिंह का साथ।’
भगत सिंह ने घने वृक्ष की डालियों पर अपनी निगाहें गड़ा लीं। उनके मन में आया, यह हरा-भरा वृक्ष एक दिन ठूँठ हो जाएगा। इसके फल, फूल, पत्तियाँ सब अंग्रेज ले जाएँगे। फिर डालें भी काट ले जाएँगे, वृक्ष का सारा रस निचोड़ लेंगे। सूखा तना बच रहेगा हम भारतीयों के लिए। फिर उन्हें याद आया-चाचा अजीत सिंह का देशनिकाला और चाचा स्वर्ण सिंह की शहादत, इसके साथ ही चाचियों की असीम वेदना, उनकी आँखों से लगातार बहते जाते आँसू, उन्हीं के आँचल से उन आँसुओं को पोंछना और ढाँढ़स बँधाना-‘चाची जी, आप दुखी न हों, मैं बड़ा होकर अंग्रेजों को देश से भगा दूँगा और चाचाजी को स्वदेश वापस लाऊँगा। मैं छोटे चाचाजी की शहादत का बदला लूँगा।’ भगत सिंह बड़ी चाची हरनाम की पीड़ा को सहन नहीं कर पाते जो पति के जीते जी ही वैधव्य जीवन बिताने के लिए अभिशप्त थीं। वे छोटी चाची हुकम कौर की वेदना को भी नहीं झेल पाते जो भरी जवानी में विधवा हो गई थीं। उनका भविष्य अँधेरे में कहीं गुम हो चुका था। बड़ी चाची के जीवन में तो आशा की कोई किरण प्रकाश फेंक जाती थी, लेकिन छोटी चाची के जीवन में तो आशा की कोई किरण प्रकाश फेंक जाती थी, लेकिन छोटी चाची ? वह तो अग्निकुण्ड में तिल-तिल कर जल रही थीं और उन्हें इसी तरह जलते-जलते राख हो जाना था। इन दोनों चाचियों के दुख भरे जीवन की याद आते ही भगत सिंह की आँखें भर आईं।
उनकी पलकें शून्य में थिर हो गईं। वे बेहद भावुक हो गए थे।

‘क्या हुआ तुम्हें भगत, किस सोच में डूब गए ?’ कृपाण ने पूछा ‘भारत माँ बेड़ियों में कसी कराह रही हैं, कृपाण, ऐसी खौफनाक पीड़ा सहन कर रही हैं जो दूसरों के लिए असह्य होती।’ भगत सिंह ने बहाना बनाया।
‘जब भारत माँ की सन्तानें ही सुखी नहीं हैं भगत भाई तो वह कैसे सुखी रह सकती हैं !’‘हम बड़े होकर एक-एक अंग्रेज से उसके पापों का बदला लेंगे।’
‘हम अवश्य बदला लेंगे।’
इस समवेत स्वर से बाग का कोना-कोना गूँज उठा। पेड़ों की डालियाँ हिलने लगीं। दोपहरी धीरे-धीरे ढलान पर आ गई थी। भगत सिंह और उनके साथी उठे और गाँव की ओर चल पड़े।
पशुओं के अपने ठीहों पर वापसी में अभी थोड़ी देर थी। पक्षी भी सूरज के अस्ताचल में जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे। अभी उनके झुण्ड खेतों-खलिहानों में बैठकर दाना चुगने में लगे थे।

[2]

बंगा गाँव के प्राइमरी स्कूल में चौथी कक्षा पास करने के बाद भगत सिंह अपने पिता किशन सिंह के पास नवाकोट लाहौर चले गए। वहाँ एक समस्या यह खड़ी हुई कि पाँचवीं कक्षा में दाखिला किस स्कूल में दिलाया जाय। सिखों के बेटे तो खालसा स्कूलों में पढ़ते थे जिनका प्रबन्ध तन्त्र आमतौर पर अंग्रेजपरस्त था। खालसा स्कूलों में सुबह की प्रार्थना हुआ करती थी-‘गाड सेव द किंग’ यानी ईश्वर राजा की रक्षा करें।
तो क्या भगत सिंह को ऐसे स्कूलों में प्रवेश दिलाया जाय ? सरदार अर्जुन सिंह, सरदार अजीत सिंह, सरदार स्वर्ण सिंह और सरदार किशन सिंह जैसे क्रान्तिकारियों के परिवार में पैदा हुए भगत सिंह के संस्कार में अंग्रेज भक्ति के बीज कैसे अंकुरित किए जा सकते थे ! पड़ोसियों और शुभचिन्तकों की राय थी कि सिख के बेटे को सिखों के स्कूल में ही पढ़ना चाहिए, लेकिन इस राय को खारिज करते हुए भगत सिंह का नाम डी.ए.वी. स्कूल में लिखा दिया गया।
भगत सिंह पाठ्यपुस्तकों की सीमाओं से निकलकर स्वाध्याय की नई ऊँचाई छू रहे थे। इनके अध्यापकों का कहना था कि यह बालक तो गुरुओं का गुरु है। इसे हम क्या पढ़ाएँ ! जो हम पढ़ाते हैं, यह उससे आगे निकल चुका है। भगत सिंह स्कूली शिक्षा की हदों में बँधकर नहीं रहना चाहते थे। वे उस ज्ञान की तलाश में थे जो उनके क्रान्तिकारी जीवन को परवान चढ़ा सके। फ्रांस और रूस की क्रान्तियाँ कैसे हुई ? कैसे इनके क्रूरतम शासकों का पतन हुआ ? इन्हीं सवालों के उत्तर में वे अपना प्रकाश-पथ खोज रहे थे। इस खोज में वे अपनी उम्र से बहुत आगे निकल चुके थे। वे इस निष्कर्ष पर पहुँच चुके थे कि गावों और कारखानों में किसान और मजदूर ही असली क्रान्तिकारी सैनिक हैं। औद्योगिक क्षेत्र की गन्दी बस्तियों में और गाँवों के टूटे-फूटे झोपड़ों में रहने वाले करोड़ों लोगों को जागना है।

दुनिया के ताकतवर देशों के दो गुट लम्बे युद्ध में उलझे हुए थे। इस बीच भारत में क्रान्ति की रूपरेखा तैयार हो रही थी। इसे गदर कहा जा रहा था। इसे अंजाम देने वाले थे गदर पार्टी के लोग। 19 अप्रैल 1915 को अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ गदर की योजना थी जो विफल हो गईं। मुकदमे की सुनवाई जेल में हो रही थी। इसलिए खबरें सेंसर होकर आ रही थीं। समाचारपत्र यद्यपि विश्वयुद्ध की खबरों से भरे रहते थे फिर भी गदर से सम्बन्धित मुकदमे की खबरें भी प्रमुखता से छप रही थीं। बालक भगत सिंह ऐसी खबरों को ढूँढ-ढूँढ़ कर पढ़ रहे थे। ये खबरें उनकी नसों में बह रहे रक्त में उबाल भर रही थीं और भविष्य की कल्पनाओं को एक आकार दे रही थीं। बंगा गाँव में स्वाध्याय ने भगत सिंह के भीतर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जो मजबूत नींव रखी थी उस पर ईंटें रखी जा रही थीं। भगत सिंह की आँखों में सपने तैरने लगे थे-ऐसे सपने जिन्हें पूरा करने की आकांक्षाएँ कुलाँचें मारने लगी थीं।

खेतों में फसलें लहलहा रही थीं। कुछ पक चुकी थीं, कुछ पकने के रास्ते पर थीं। बस, कुछ ही दिनों में खलिहानों में जुटने लगेंगी। हवा में फागुन की मादकता और मिठास भरी हुई थी। आम के पेड़ों में नन्हें-नन्हें टिकोरे दिखाई देने लगे थे। हर कहीं उल्लास था, उमंग थी और मस्ती थी। सिवान में लोकगीतों के स्वर उठते और पूरा वातावरण उनके रस से सराबोर हो जाता। तेरह अप्रैल को नया साल शुरू होने वाला था-अपूर्व उत्साह, अपूर्व आवेग और अपूर्व रंगीनियों से भरापूरा नया साल। थिरकते पावों और उन्मुक्त गीतों का नया साल। स्वर्णिम आशाओं-आकांक्षाओं का नया साल। रंग-बिरंगे परिधानों में स्त्रियाँ, उछाह से फुदकते और प्रफुल्लित-रोमांचित पुरुष अमृतसर के जलियाँवाला बाग में एकत्रित हो रहे थे। नरमुंडों का ऐसा रेला आ रहा था कि कुछ ही घण्टों के भीतर तकरीबन बीस हजार लोग जलसे में शिरकत के लिए पहुँच गए थे।

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