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जीवनी/आत्मकथा >> क्रान्तिवीर भगतसिंह

क्रान्तिवीर भगतसिंह

लालबहादुर सिंह चौहान

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4628
आईएसबीएन :81-7043-606-0

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स्वतंत्रता संग्राम के महान योद्धा भगतसिंह का जीवन परिचय...

Krantiver Bhagatsingh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

स्वतंत्रता संग्राम के महान योद्धा भगतसिंह का नाम लेने मात्र से ही तन-मन में वीरता का संचरण होने लगता है। क्रान्तिवीर सरदार भगतसिंह भारतीय स्वतंत्रता के लिए प्राणों का विसर्जन करने वालों में अग्रगण्य थे। शहीदों का मार्ग सबसे निराला होता है। वास्तविकता तो यह है कि ‘शहीद’ बनाए नहीं जाते, प्रत्युत जन्मजात होते हैं।

इस समय देश में धर्म और जाति के नाम पर जो हिंसा का नग्न ताण्डव हो रहा है, उससे जनसाधारण बेहद त्रस्त है। धार्मिक और जातिवादी कट्टरता के कारण चहुं ओर भय और अशान्ति व्याप्त है। राजनीति में अवांछीय तत्व हावी हैं, जो धन-बल, भुजबल तथा छद्म उपायों से येनकेन प्रकारेण शासन सत्ता का सुख भोग रहे हैं। देश को इस दुर्दशा से बचाने के लिए भगतसिंह के विचार आज भी प्रासांगिक हैं। अतः इस पर मनन करके क्रान्तिवीर भगतसिंह द्वारा अंकित व कथित विचारों को इस समय के दुर्दशाग्रस्त भारत के उत्थान हेतु व्यवहार में उतारना चाहिए। वैसे भी शहीदों का स्मरण सदैव करते रहने से मन में एक परम संतोष के साथ-साथ आत्म बल भी बढ़ता रहता है। पुस्तक का यही उद्देश्य है।

भूमिका


शहीदे आजम भगतसिंह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान योद्धा थे। चन्द्रशेखर आजाद और भगतसिंह के नाम में ही इतनी शक्ति है कि नामोल्लेख मात्र से ही तन-मन में वीरता का संचरण होने लगता है। भारत माँ का एक महान् मानचित्र भगतसिंह की आत्मा में बसा हुआ है। वे अपने साथियों के साथ उसे साकार करना चाहते थे।

अपने महान् योगदान के कारण शहीद भगतसिंह का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अमर और अमिट रहेगा। भारत माँ के सपूतों को भगतसिंह का बलिदान सूर्य की भाँति राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रभक्ति के आलोक से आलोकित करता रहेगा। मां भारती के इस स्वातंत्र्यवीर के प्रति मैं शत्-शत् नमन करता हूं। स्वतंत्रता संग्राम का एक अध्याय शहीद भगतसिंह युग के नाम से जाना जाता रहेगा। भगतसिंहोत्तर राष्ट्रीय कविता और भारतीय कविता पर भी भगतसिंह के बलिदान की अमिट छाप दिखाई पड़ती है। हिन्दी कविता की राष्ट्रीय धारा की एक परंपरा भारत मां के बलिदानी सपूतों के प्रति भी समर्पित रही है।

डॉ. लालबहादुर सिंह चौहान सुयोग्य जीवनीकार हैं। क्रांतिवीर भगतसिंह नामक कृति डॉ. चौहान के श्रम का सुपरिणाम है। मैं इस कृति के रचनाकार को बधाई देता हूं। मुझे विश्वास है कि हिन्दी जीवनी साहित्य में यह कृति समादृत होगी

-प्रो. नित्यानंद पाण्डेय
निदेशक
केंद्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा

दो शब्द


क्रांतिवीर भगतसिंह राष्ट्रीय भावना के विकास के प्रबल समर्थक, धर्मनिरपेक्ष राजनीति के विचारक तथा उच्च आदर्शों वाले समाजवादी थे। वह मानवता के सच्चे प्रेमी, कोरे आदर्शवाद के विरोधी, भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के उपासक तथा राष्ट्रीय एकता के पक्षधर थे। उन्होंने भारतवर्ष के सुन्दर भविष्य की परिकल्पना की थी। कांग्रेस ने भारत के लिए पूर्ण स्वराज्य की मांग अपने लाहौर अधिवेशन में की थी, जबकि भगतसिंह इससे पूर्व ही पूर्ण स्वतंत्रता को अपने कार्यक्रमों का लक्ष्य बना चुके थे। इस प्रकार भगतसिंह एक भविष्य-दृष्टा कहे जा सकते हैं।

भगतसिंह का चरित्र सर्वगुण सम्पन्न था। उनके अद्भुत व्यक्तित्व में कुछ ऐसा जादू-सा था, जो उनके संपर्क में आने वाले हर व्यक्ति पर अपनी अमिट छाप बरबस छोड़े बिना नहीं रहता था। वह एक सच्चे मानव और भारतीय थे, जिन्होंने भारत को स्वाधीन कराने के लिए अपने अमूल्य प्राणों का भी बलिदान कर दिया था।

भगतसिंह धर्म को देश और राजनीति से पृथक् रखना चाहते थे। कदाचित् वह धर्म को राजनीति से जोड़ने के दुष्परिणामों से भली-भाँति परिचित थे। उनकी दृष्टि में देश-सेवा सबसे बड़ा धर्म था और देश ही उनका ईश्वर था। मार्च सन् 1926 में उन्होंने लाहौर में ‘नौजवान भारत सभा’ का गठन किया था। इस संस्था का सदस्य बनने से पूर्व प्रत्येक युवक को एक शपथ लेनी पड़ती थी कि वह देश के हितों को अपनी जाति तथा धर्म के हितों से बढ़कर मानेगा। निश्चय ही आज भारत में भगतसिंह के इस विचार की सर्वाधिक आवश्यकता है। इस समय देश में धर्म और जाति के नाम पर जो हिंसा का नग्न तांडव हो रहा है, उससे जनसाधारण बेहद त्रस्त है। धार्मिक और जातिवादी कट्टरता के कारण चहुं ओर भय और अशान्ति व्याप्त है। राजनीति में अवांछनीय तत्त्व हावी हैं, जो धन-बल, भुजबल तथा छद्म उपायों से येनकेन प्रकारेण शासन सत्ता का सुख भोग रहे हैं। देश को इस दुर्दशा से बचाने के लिए भगतसिंह के विचार आज भी प्रासांगिक हैं। वह एक भारतीय थे, भारतीयता ही उनका धर्म था, भारत-भूमि उनकी आराध्या देवी थी; वह समस्त भारत के थे और समस्त भारत उनका अपना था।

दिन-रात एक कर अनेक स्थानों से सामग्री संग्रह करने में मुझे काफी समय लगा। परंतु इस कार्य को अब पूर्ण कर ‘क्रांतिवीर भगतसिंह’ शीर्षक संकलन आपके हाथों सौंपते हुए अतीव संतोष का अनुभव कर रहा हूं। मेरी इस कृति की सफलताविज्ञ पाठकों द्वारा इसे सहर्ष स्वीकार करने तथा सहेजकर रखने में निहित है, परन्तु मात्र सहेजकर रखना ही पर्याप्त नहीं, अपितु इस पर मनन करके क्रांतिवीर भगतसिंह द्वारा अंकित व कथित विचारों को इस समय के दुर्दशाग्रस्त भारत के उत्थान हेतु व्यवहार में उतारना इससे भी कहीं अधिक बेहतर व महत्त्पूर्ण होगा—ऐसा मेरा विश्वास है।
इस संकलन में प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. पट्टाभि सीतारमैया, क्रांतिवीर व लेखक श्री मन्मथनाथ गुप्त, मेजर गुरुदेव सिंह दयाल, डॉ. भवान सिंह राणा और श्री जगन्नाथ प्रसाद मिश्र आदि की कृतियों से सहायता ली गई है। उन सबके प्रति आभार प्रकट करता हूँ।

कुसुम हॉस्पिटल -डॉ. लालबहादुर सिंह चौहान
27, दयालबाग रोड, न्यू आगरा
आगरा-282005

दो शब्द


क्रांतिवीर सरदार भगतसिंह भारतीय स्वतंत्रता के लिए प्राणों का विसर्जन करने वालों में अग्रगण्य थे। शहीदों का मार्ग सबसे निराला होता है। वास्तविकता तो यह है कि ‘शहीद’ बनाए नहीं जाते, प्रत्युत जन्मजात होते हैं। आज समय बदल चुका है। सिंह के चर्म को धारण कर न जाने कितने भेड़िए सिंह बनने की जुगत में लगे हुए हैं। आज प्रत्येक भारतवासी का कर्तव्य है कि वह ऐसे छद्मवेष धारण करने वाले देशद्रोहियों को ढूंढ़-ढूंढ़कर बेनकाब करें। ऐसा करने से यह देश निश्चय ही रसातल में डूबने से बच जाएगा। शहीदों का स्मरण सदैव करते रहने से मन में एक परम संतोष के साथ-साथ आत्मबल बढ़ता रहता है। इसी उद्देश्य से साहित्यसेवी डॉ. लालबहादुर सिंह चौहान ने इस पुस्तक का प्रणयन किया है। इसे पढ़कर पाठकों को कर्तव्य-बोध हुए बिना नहीं रहेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। इस महान् प्रयास के लिए डॉ. चौहान को हार्दिक बधाई व साधुवाद !

-डॉ. प्रेमनारायण श्रीवास्तव डी. लिट्
आचार्य : सूरपीठ
-डॉ. भीमराव अंबेदकर विश्वविद्यालय
आगरा (उ.प्र.)

भारतभूमि को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराने में जिन महापुरुषों और क्रांतिकारियों ने अपना जीवन न्यौछावर कर दिया, उनमें सरदार भगतसिंह का नाम अत्यंत गौरवपूर्ण है। महान क्रांतिवीर सरदार भगतसिंह का पावन बलिदान प्रातः स्मरणीय है जिन्होंने निर्भीकता से वंदेमारतरम् का उद्घोष करते हुए देश के खातिर फाँसी का फंदा हंसते-हंसते चूम लिया। ऐसे वीर प्रसविनी मां के सपूत क्रांतिदूत भगतसिंह के बेमिसाल बलिदान को कभी भी नहीं भुलाया जा सकता—
‘‘शहीदों ने अर्पित की जान,
आजादी के लिए।
भगत ने हंस-हंस त्यागे प्राण;
आजादी के लिए।’’
और भी—
‘‘जिंदगी बलिदान करके वह धरा के काम आए,
मौत का स्वागत करे और भगत-सा फिर मुस्कराए।

-डॉ. लालबहादुर सिंह चौहान

वीरभूमि पंजाब प्रांत के लायलपुर जिले के बंगा नामक गांव में सन् 1907 के सितंबर मास की 2 तारीख को क्षत्रिय सिख परिवार में भगतसिंह का जन्म हुआ था। देश के विभाजन के पश्चात् लायलपुर जिला पाकिस्तान के अंतर्गत चला गया। बताते हैं यहां का गेहूं सबसे बढ़िया होता था और यहां के निवासी बड़े लंबे कदकाठी के और हृष्ट-पुष्ट होते थे। शिशु-जन्म पर घर-परिवार में बहुत खुशियाँ मनाई गईं और शिशु का नाम भगतसिंह रखा गया। घर-कुटुंब के सदस्य उसे भगतसिंह ‘भागोंवाला’ अर्थात् भाग्यवान या भाग्यशाली कहकर पुकारते थे।

भगतिसंह के पिता का नाम सरदार किशनसिंह था और उनका परिवार बहादुरी, साहस और पराक्रम के लिए सुविख्यात् था। उनके कुटुंब के अनेक लोगों ने भारत की स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश सरकार से संघर्ष किया था। सरदार किशनसिंह भी क्रांतिकारी थे और उन्होंने अंग्रेज सरकार की जेल-यातना भी सही थी। भगतसिंह की मां का नाम विद्यावती था।
नवजात शिशु के जन्म के समय उनके पिता सरदार किशनसिंह देश के स्वतंत्रता-आंदोलन में भाग लेने के कारण लाहौर सेंट्रल जेल में बंद थे। सरदार किशनसिंह के दो छोटे-भाई थे—सरदार अजीतसिंह तथा सरदार स्वर्णसिंह। उस समय सरदार अजीतसिंह माडले जेल में और सरदार स्वर्णसिंह अपने बड़े भाई किशनसिंह के साथ ही देशभक्ति के अपराध में कारागार में बंद थे।

इस प्रकार भगतसिंह के जन्म के समय उनके पिता तथा दोनों चाचा देश की आजादी की लड़ाई में भाग लेने के कारण जेलों में निरुद्ध थे और सजा भुगत रहे थे। घर में उनकी मां श्रीमती विद्यावती, बाबा अर्जुन सिंह तथा दादी श्रीमती जयकोर थीं। कभी-कभी समय का घटनाचक्र बड़ा अजीब होता है। जिस ब्रिटिश सरकार ने देशभक्त भारतियों को बड़े-बड़े कष्ट दिए थे और जो अपनी निर्दयता और अत्याचारों के लिए बदनाम थी। इसी ब्रिटिश हुकूमत ने सरदार किशनसिंह के यहां पुत्र होने का शुभ समाचार सुनकर उन्हें जेल से कुछ दिनों के लिए इसलिए मुक्त कर दिया था कि वह अपने घर जाकर अपने पुत्र के जन्मोत्सव में सम्मिलित हो सकें। बालक भगतसिंह का जन्म ही शुभ था कि उनके जन्म के तीसरे दिन उनके पिता सरदार किशनसिंह तथा चाचा सरदार स्वर्णसिंह दोनों ही जमानत पर छूटकर आ गए तथा लगभग इसी समय दूसरे चाचा सरदार अजीतसिंह भी जेल से रिहा कर दिए गए थे। इस प्रकार भगतसिंह के जन्म लेते ही घर-परिवार में अकस्मात् खुशियों की बहार आ गई।

इस खुशी में सारे गाँव ने भाग लिया और लोगों में भांति-भांति की मिठाइयां बांटी गईं। दीन-दुखियों को यथोचित दान दिया गया। बुढ़िया दादी बड़े लाड़ से नवजात शिशु को उसी दिन से बड़े ‘भागोंवाला’ अर्थात् बड़ा भाग्यवान कहा करती थीं। इसी कारण उन्होंने बालक का नाम भगतसिंह रखा।

सरदार किशनसिंह के घर का वातावरण बहुत धार्मिक था। उनकी माता और पत्नी बड़ी धर्म-परायण व भक्त महिलाएं थीं। बालक भगतसिंह के कानों में नित्य प्रति धार्मिक श्लोकों की ध्वनी पड़ा करती थीं। केवल सुनते रहने से ही बालक को तीन वर्ष की अल्पायु में गायत्री मंत्र ओऽम भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्। भली-भाँति कंठस्थ हो गया। जिस समय शिशु भगतसिंह अपनी तोतली मधुर वाणी में उक्त गायत्री मंत्र का पाठ करता था तो निकट बैठे सुनने वालों को बड़ा प्रिय लगता था। लोग बड़े प्रसन्न व आश्चर्यचकित होकर उससे बार-बार गायत्री मंत्र सुनाने को कहते थे।

भगतसिंह अपने माता-पिता की दूसरी संतान थे। सरदार किशनसिंह के सबसे बड़े पुत्र का नाम जगतसिंह था, जिसका अवसान केवल ग्यारह वर्ष की अल्पायु में ही हो गया था। उस समय वह कक्षा पाँच का विद्यार्थी था। इस प्रकार ज्येष्ठ पुत्र की इतनी छोटी अवस्था में मृत्यु हो जाने के कारण भगतसिंह को ही अपने माता-पिता की सबसे पहली संतान माना जाता है। भगतसिंह के अतिरिक्त सरदार किशनसिंह के चार पुत्र तथा तीन पुत्रियां भी थीं। कुल मिलाकर उनके छः पुत्र हुए थे, जिनका नाम जगतसिंह, भगतसिंह, कुलतार सिंह, राजेन्द्र सिंह और रणवीर सिंह था। तीन पुत्रियां थीं, जिनका नाम बीबी अमरकौर, बीबी प्रकाश कौर (सुमित्रा) तथा बीबी शकुंतला था।

राष्ट्र-प्रेम की शिक्षा भगतसिंह को अपने घर-परिवार से विरासत में प्राप्त हुई थी। उनके बाबा (Grand Father) सरदार अर्जुनसिंह भी ब्रिटिश हुकूमत के घोर विरोधी थे। यह वह समय था, जब ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध एक भी शब्द बोलना या अंग्रेजों की बुराई करना अपनी मौत को बुलावा देने के समान था। इन दिनों भारतीय जनमानस इसी कारण से अंग्रेजों की प्रशंसा व उनकी हां में हां मिलाना अपना कर्तव्य समझता था। कारण कि इसी से लोगों को सब प्रकार का लाभ प्राप्त होता था। अतएव सरदार अर्जुनसिंह के दो भ्रातागण सरदार बहादुरसिंह तथा सरदार दिलबाग सिंह भी अन्य लोगों की भांति अंग्रेजों की खुशामद-बरामद व चापलूसी करना अपना परम धर्म समझते थे। इसके विपरीत सरदार अर्जुनसिंह को इन फिरंगियों से अपार घृणा थी। अतः उनके ये दोनों भाई उन्हें मूर्ख समझते थे। सरदार अर्जुन सिंह के तीन पुत्र थे—सरदार किशनसिंह, सरदार अजीतसिंह, और सरदार स्वर्णसिंह। ये तीनों के तीनों भाई अपने पिता सरदार अर्जुनसिंह के ही समान बेहद निर्भीक और परम देशभक्त थे।

भगतसिंह के पिता सरदार किशनसिंह के विरुद्ध भारत की स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश सरकार के खिलाफ चलाए जा रहे आंदोलनों में भाग लेने के कारण अंग्रेजी हुकूमत ने 42 बार राजनीतिक मुकदमे चलाए। उन्हें अपने जीवन में ढाई वर्ष के लगभग कैद की सजा भुगतनी पड़ी, तथा दो वर्ष तक उन्हें नजरबंद रखा गया। सरदार अजीतसिंह से ब्रिटिश सरकार अत्यधिक भयभीत थी। अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता-आंदोलनों में भाग लेने के कारण जून 1907 ई. में उन्हें भारतवर्ष से दूर वर्मा की राजधानी रंगनू भेज दिया गया था। भगतसिंह के जन्म के समय वे रंगून में बंदी थे। कुछ ही महीनों के पश्चात् वे वहां-से कारागार मुक्त हुए। रिहा होने के उपरांत वे ईरान, टर्की और आस्ट्रेलिया होते हुए जर्मनी पहुंचे। प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी के पराजित हो जाने पर वहां से ब्राजील चले गए थे और सन् 1946 में भारत में मध्यावधि सरकार बनने पर पं. जवाहरलाल नेहरू के प्रयासों से पुनः अपने देश भारत वापस लौटे।

भगतसिंह के छोटे चाचा सरदार स्वर्णसिंह भी अपने पिता और अपने दोनों बड़े भाइयों के समान ही देशभक्त थे और उन्होंने बढ़-चढ़कर स्वतंत्रता-संग्राम में भाग लिया था तथा स्वतंन्त्रता-सेनानी थे। ज्येष्ठ भ्राता सरदार किशनसिंह ने ‘भारत सोसायटी’ की स्थापना की थी; उसमें सरदार स्वर्णसिंह भी सम्मिलित हो गए थे। उन्हें राजद्रोह के मुकदमें में ब्रिटिश सरकार द्वारा कैद की सजा दी गई थी और बन्दी बनाकर उन्हें लाहौर सेंट्रल जेल में रखा था। लाहौर सेंट्रल जेल में उनसे अत्यधिक परिश्रम के कार्य कराए गए; उन्हें घोर यातनाएं दी गईं। जिससे उन्हें क्षयरोग (तपैदिक) हो गया। परिणामतः 23 वर्ष की आयु में ही उनका करुणान्त हो गया।

ऐसे परिवार में जन्म लेने के कारण भगतसिंह को देशभक्ति और भारत की स्वतंत्रता का पाठ अनायास ही पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ। एक कहावत है कि ‘पूत के पांव पालने में ही दिखाई पड़ जाते हैं’। बालक भगतसिंह के साथ यह बात पूर्णतः लागू हुई। वह बड़ा हंसमुख, बहादुर और तीव्र बुद्धिवाला था। जो भी उसे देखता, उससे दो-चार बातें करता और तब वह उसके गुणों पर मुग्ध हो टकटकी लगाए उसकी ओर बरबस निहारने को मजबूर हो जाता। बचपन से ही भगतसिंह की आदतें, उसकी बातें और उसका व्यवहार अनोखा था।

पांच वर्ष की अवस्था में ही भगतसिंह के खेल भी अजीब थे। वह अपने साथियों को दो टोलियों में बांट देता था और वे परस्पर एक-दूसरे पर आक्रमण करके युद्ध का अभ्यास किया करते थे। भगतसिंह के हर कार्य में उसके वीर, धीर और निर्भीक होने का आभास मिलता था।

एक बार सरदार किशनसिंह इस बालक को लेकर अपने मित्र श्री नन्द किशोर मेहता के पास उनके खेत पर गए। बालक भगतसिंह ने मिट्टी के ढेरों पर छोटे-छोटे तिनके लगा दिए। उनके इस कार्य को देखकर नंद किशोर मेहता ने बड़े स्नेहपूर्वक बालक भगतसिंह से बातें करने लगे—
‘‘तुम्हारा क्या नाम है ?’’ श्री नंदकिशोर मेहता ने पूछा।
बालक ने उत्तर दिया—‘‘भगतसिंह।’’
‘‘तुम क्या करते हो ?’’
‘‘मैं बंदूकें बेचता हूं।’’ बालक भगतसिंह ने बड़े गर्व से उत्तर दिया।
‘‘बंदूकें...?’’
‘‘हां, बंदूकें।’’
‘‘वह क्यों ?’’
‘‘अपने देश के स्वतंत्र कराने के लिए।’’
‘‘तुम्हारा धर्म क्या है ?’’
‘‘देशभक्ति। देश की सेवा करना।’’

श्री नन्द किशोर मेहता राष्ट्रीय विचारों से ओत-प्रोत राष्ट्रभक्त व्यक्ति थे। उन्होंने बालक भगतसिंह को बड़े स्नेहपूर्वक उठाकर अपनी गोदी में चिपटा लिया। मेहता जी उसकी बातों से अत्यधिक प्रभावित हुए और सरदार किशन सिंह से बोले, ‘‘भाई ! तुम बड़े भाग्यवान् हो, जो तुम्हारे घर में ऐसे होनहार व विलक्षण बालक ने जन्म लिया है। मेरा इसे हार्दिक आशीर्वाद है, यह बालक संसार में तुम्हारा नाम रोशन करेगा। देशभक्तों में इसका नाम अमर होगा।’’ वास्तव में समय आने पर मेहता की यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। इसी प्रकार उनके चाचा सरदार अजीतसिंह के विदेश चले जाने की घटना का भी बालक भगतसिंह पर गहरा व अमिट प्रभाव पड़ा।

अपने पति के वियोग में उनकी पत्नी बार-बार रोती-बिलखती रहती थी और दिन-रात उदास रहती थीं। अपनी चाची को रोते देख बालक भगतसिंह कहते थे, ‘‘चाची ! रो मत। जब मैं बड़ा हो जाऊंगा, तब में दुष्ट अंग्रेजों को देश से बाहर भगा दूंगा और अपने चाचा को वापस ले आऊंगा।’’

इस सबसे स्पष्ट होता है कि देशभक्ति की भावना भगतसिंह में उनके बाल्यकाल से ही कूट-कूटकर भरी थी।
धीरे-धीरे समय बीतने लगा। चार-पांच वर्ष की अवस्था में भगतसिंह का नाम बंगा गांव के जिला बोर्ड प्राइमरी स्कूल में लिखाया गया। वह अपने बड़े भाई के साथ प्रारंभिक पाठशाला में पढ़ने जाने लगे। स्कूल में वह सभी साथियों-सहपाठियों के प्रिय थे। सभी विद्यार्थी उनके साथ मित्रता करना चाहते थे। भगतसिंह स्वयं भी सभी छात्रों को अपना दोस्त बना लेते थे। उनके दोस्तों को उनसे कितना प्रेम था, कितना लगाव था, इस बात का पता इससे लगता था कि अनेक बार उनके मित्रगण उन्हें अपने कंधों पर बिठाकर उनके घर तक छोड़ जाते थे।

भगतसिंह ने पढ़ाई में पूरी-पूरी रुचि ली। वह अपने गुरुओं की आज्ञा-पालन में सदैव तत्पर रहते थे। इस प्रकार अपकी तीव्र बुद्धि और अलौकिक प्रतिभा का परिचय देकर उन्होंने बंगा गांव की प्रारंभिक पाठशाला से चौथी कक्षा उत्तीर्ण की। वह अपने बड़े भाई के साथ बंगा की पाठशाला में पढ़े थे। स्कूल में वह सभी साथियों के प्रिय थे इसीलिए और सभी छात्र उनसे अपनी मित्रता करना चाहते थे।

भगतसिंह की आदतें बाल्यकाल से विचित्र थीं। जिस अवस्था में बालकों को खेलना-कूदना अच्छा लगता है, उस आयु में उनका मन न जाने क्या-क्या सोचा करता था, कहां-कहां भटकता रहता था। पाठशाला के तंग कमरों में बैठे रहना उन्हें बड़ा उबाऊ लगता था। अस्तु, प्रायः वह कक्षा छोड़कर खुले मैदान में घूमने निकल जाते थे। कल-कल करती सरिता, चहचहाते पक्षीगण और धीरे-धीरे चलती सुगंधित वायु तथा गांव का मनहर वातावरण उनके हृदय को मोह लेता था। उनके बड़े भाई जगतसिंह कई बार बालक भगत को क्लास-रूम से नदारद पाकर उन्हें खोजने जाते और पाते कि वह खुले मैदान में शांत विराजमान् हैं। जगतसिंह उनसे कहते, ‘‘तू यहां बैठा क्या कर रहा है ? वहां अध्यापक महोदय पढ़ा रहे हैं।
मुस्कराती हुई मुद्रा में बालक भगतसिंह उत्तर देते—‘‘दद्दा, मुझे यहीं अच्छा लगता है।’’ बड़े भाई जगतसिंह प्रश्न करते, ‘‘तू यहां क्या करता है ?’’ भगतसिंह का जवाब था, ‘‘कुछ नहीं दद्दा ! बस चुपचाप मैदान को देखता रहता हूं।’’
‘‘मैदान को। भला, मैदान में देखने की कौन-सी चीज है ?’’
‘‘है तो कुछ भी नहीं, भइया ! परंतु इस खुले मैदान की भाँति मैं भी आजाद होना चाहता हूं।’’
  

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