कहानी संग्रह >> पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र श्रेष्ठ रचनाएँ-1 पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र श्रेष्ठ रचनाएँ-1पाण्डेय बेचन शर्मा
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व्यंजनाओं, लक्षणाओं और वक्रोक्तियों से समृद्ध भाषा के धनी ‘उग्र’ ने अरसा पहले कहानी को एक नई शैली दी थी, जिसे आदरपूर्वक ‘उग्र शैली’ कहा जाता है। 'उग्र' के द्वारा लिखी गयी उनकी श्रेष्ठ कहानियाँ
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ हिन्दी की पुरानी पीढ़ी के विशिष्ट लेखक और प्रमुखतम शैलीकार थे। आलोचकों का मत है, कथा कहने की विविध शैलियों
और रूपों में अकेले ‘उग्र’ ने जितनी विभिन्न और विवादास्पद,
मनोरंजक और उत्तेजनापूर्ण रचनाएँ दी हैं, वे साहित्य के इस अंग को
सम्पूर्ण बनाने में समर्थ हैं। समृद्ध भाषा के धनी ‘उग्र’ ने अरसा पहले कहानी को एक
नई शैली दी थी, जिसे आदरपूर्वक ‘उग्र-शैली’ कहा जाता है।
उग्र की कितनी ही रचनाएं ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त की गई थीं।
‘उग्र’ के साहित्य और इसके साथ-साथ हिन्दी कथा-साहित्य के विकास को समझने के लिए ‘उग्र’ की सारी कहानियों का एक साथ प्रकाशन अनिवार्य रूप से आवश्यक था। इसी उद्देश्य से ‘पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र : श्रेष्ठ रचनाएं खण्ड-1 व 2 प्रकाशित किया गया है। जिसमें उग्र की लगभग सभी कहानियां तथा कुछ श्रेष्ठ उपन्यास सम्मिलित हैं।
उग्र की कितनी ही रचनाएं ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त की गई थीं।
‘उग्र’ के साहित्य और इसके साथ-साथ हिन्दी कथा-साहित्य के विकास को समझने के लिए ‘उग्र’ की सारी कहानियों का एक साथ प्रकाशन अनिवार्य रूप से आवश्यक था। इसी उद्देश्य से ‘पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र : श्रेष्ठ रचनाएं खण्ड-1 व 2 प्रकाशित किया गया है। जिसमें उग्र की लगभग सभी कहानियां तथा कुछ श्रेष्ठ उपन्यास सम्मिलित हैं।
प्रकाशकीय
पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ हिन्दी की पुरानी पीढ़ी के
विशिष्ट
लेखक और प्रमुखतम शैलीकार हैं। आलोचक का मत है, कथा कहने की विविध शैलियों
और रूपों में अकेल ‘उग्र’ ने जितनी विभिन्न और
विवादास्पद,
मनोरंजक और उत्तेजनापूर्ण रचनाएँ दी हैं, वे साहित्य के इस अंग को
सम्पूर्ण बनाने में समर्थ हैं। संस्मरण, जीवन-अनुभव, स्कैच, यात्रा-विवरण,
चरित्रांकन, भाव-कथा, प्रतीक-कथा, फेण्टेसी, कथा-शिल्प के समस्त रूपों का
प्रयोग-उपयोग ‘उग्र’ ने अपने विशाल कथा-साहित्य में
किया है।
व्यंजनाओं, लक्षणाओं और वक्रोक्तियों से समृद्ध भाषा के धनी ‘उग्र’ ने अरसा पहले कहानी को एक नई शैली दी थी, जिसे आदरपूर्वक ‘उग्र शैली’ कहा जाता है।
‘रेशमी’, ‘व्यक्तिगत’, ‘सनकी अमीर’, ‘चिनगारियाँ’, ‘पंजाब की महारानी’, ‘‘जब सारा आलम सोता है’, ‘दोजख की आग’, ‘उग्र का हास्य’, ‘निर्लज्जा’, ‘बलात्कार’, ‘चाकलेट, ‘इन्द्रधनुष, ‘कला का पुरस्कार’ इत्यादि ‘उग्र’ के अनेक कहानी-संग्रह समय-समय पर प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें से अधिकांश अब उपलब्ध नहीं हैं। ‘उग्र’ की कितनी ही रचनाएँ ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त कर ली गई थीं। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद कुछ रहचनाएँ पुनः प्रकाशित भी हुईं, लेकिन ‘उग्र’ का सम्पूर्ण कथा-साहित्य एक साथ संकलित नहीं है। ‘उग्र’ के साहित्य और इसके साथ-साथ हिंदी कथा-साहित्य के विकास को समझने के लिए उग्र की सारी कहानियों का एक साथ प्रकाशन अनिवार्य रूप से आवश्यक है।
इसी उद्देश्य से दो भागों में ‘उग्र’ का सम्पूर्ण कथा-साहित्य प्रकाशित किया जा रहा है। ‘उग’ की कहानियों के प्रधान स्वरों के अनुसार क्रमशः सामाजिक-पारिवारिक, हास्य-व्यंग्य, प्रेम और आदर्श, ऐतिहासिक, राष्ट्रीय, प्रतीक-कथा और भाव-कथा खण्डों में ‘उग्र’ की कहानियों को वर्गीकृत किया गया है।
हमे आशा है, ‘उग्र’-साहित्य के प्रेमियों को हमारा यह सद्प्रयास प्रीतिकर होगा और कथा-साहित्य के विद्यार्थियों और पाठकों के लिए उपयोगी होगा।
व्यंजनाओं, लक्षणाओं और वक्रोक्तियों से समृद्ध भाषा के धनी ‘उग्र’ ने अरसा पहले कहानी को एक नई शैली दी थी, जिसे आदरपूर्वक ‘उग्र शैली’ कहा जाता है।
‘रेशमी’, ‘व्यक्तिगत’, ‘सनकी अमीर’, ‘चिनगारियाँ’, ‘पंजाब की महारानी’, ‘‘जब सारा आलम सोता है’, ‘दोजख की आग’, ‘उग्र का हास्य’, ‘निर्लज्जा’, ‘बलात्कार’, ‘चाकलेट, ‘इन्द्रधनुष, ‘कला का पुरस्कार’ इत्यादि ‘उग्र’ के अनेक कहानी-संग्रह समय-समय पर प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें से अधिकांश अब उपलब्ध नहीं हैं। ‘उग्र’ की कितनी ही रचनाएँ ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त कर ली गई थीं। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद कुछ रहचनाएँ पुनः प्रकाशित भी हुईं, लेकिन ‘उग्र’ का सम्पूर्ण कथा-साहित्य एक साथ संकलित नहीं है। ‘उग्र’ के साहित्य और इसके साथ-साथ हिंदी कथा-साहित्य के विकास को समझने के लिए उग्र की सारी कहानियों का एक साथ प्रकाशन अनिवार्य रूप से आवश्यक है।
इसी उद्देश्य से दो भागों में ‘उग्र’ का सम्पूर्ण कथा-साहित्य प्रकाशित किया जा रहा है। ‘उग’ की कहानियों के प्रधान स्वरों के अनुसार क्रमशः सामाजिक-पारिवारिक, हास्य-व्यंग्य, प्रेम और आदर्श, ऐतिहासिक, राष्ट्रीय, प्रतीक-कथा और भाव-कथा खण्डों में ‘उग्र’ की कहानियों को वर्गीकृत किया गया है।
हमे आशा है, ‘उग्र’-साहित्य के प्रेमियों को हमारा यह सद्प्रयास प्रीतिकर होगा और कथा-साहित्य के विद्यार्थियों और पाठकों के लिए उपयोगी होगा।
मों को चूनरी की साध
ब्रिटिश उपन्यासकार थॉमस हार्डी की रचनाओं में विधि-विधान की निर्ममता का
जैसा करुण-चित्रण मिलता है, वही चित्र सुहागरात के ही दिन विधवा हो जाने
वाली लड़की, तुलसा के दुर्भाग्य की इस सूक्ष्म सांकेतिक कहानी में मिलता
है। बीसवीं सदी के तीसरे-चौथे दशक में जैसी हिन्दी कहानियाँ लिखी जा रही
थीं, उसका यह एक सुन्दर उदाहरण है।
अजीब लड़की थी वह। उसकी मनमोहिनी चंचलता, उसका आकर्षण लड़कपन देखने वाले आँखें फाड़-फाड़कर देखते थे। उसका नाम तुलसा था। वह तुलसा के ब्याह का दूसरा दिन था। अभी उसके घर के मेहमानों और हित-नाते के लोग-लुगाइयों की भीड़ लगी ही थी। आँगन में फूल का पुष्पाच्छादित मण्डप देवी-देवताओं की पूजन-सामग्रियों के साथ खड़ा मुसकरा रहा था। तुलसा एकत्र महिलाओं को अपनी लाल चुनरी दिखा-दिखाकर मारे प्रसन्नता के फूटी पड़ रही थी।
हाथों में लाल-लाल मंगलमयी चूड़ियाँ पहने, माथे पर सिन्दूर धारण किए, आग-सी तेजोमीय तुलसा जब एक बूढ़ी पड़ोसन को अपनी चुनरी दिखाने लगी तो उसने उसकी माता से पूछा, ‘‘कै बरस की तुलसा हुई, बहन ?’’
‘‘आठवाँ पूरा हो गया, तभी तो कन्यादान दे दिया। पगली जब छः साल की रही, तभी अपने बाप से चुनरी पहनने के लिए लड़ा-झगड़ा करती थी। कहती थी, ‘मुझे आज ही ब्याह दो, मगर चुनरी जरूर मँगा दो।’ देखो न, इसे चुनरी क्या मिल गई, मानो संसार का राज्य मिल गया हो।’’
बूढ़ी ने तुलसा की ठुड्डी पकड़कर हिलाते हुए कहा, ‘‘मैं ऐसे नहीं देखूँगी री। तू एक बार नाचकर और वही परसालवाला गीत गाकर दिखा, तो देखूँ।’’
तुलसा से बड़ी-छोटी दूसरी लड़कियाँ खिलखिलाकर हँस पड़ीं। मगर वह झेंपी नहीं, बल्कि अपने नन्हे-नन्हे, लाल-लाल महावर-मण्डित पैरों को चमकाती हुई नाचने और गाने लगी—
अजीब लड़की थी वह। उसकी मनमोहिनी चंचलता, उसका आकर्षण लड़कपन देखने वाले आँखें फाड़-फाड़कर देखते थे। उसका नाम तुलसा था। वह तुलसा के ब्याह का दूसरा दिन था। अभी उसके घर के मेहमानों और हित-नाते के लोग-लुगाइयों की भीड़ लगी ही थी। आँगन में फूल का पुष्पाच्छादित मण्डप देवी-देवताओं की पूजन-सामग्रियों के साथ खड़ा मुसकरा रहा था। तुलसा एकत्र महिलाओं को अपनी लाल चुनरी दिखा-दिखाकर मारे प्रसन्नता के फूटी पड़ रही थी।
हाथों में लाल-लाल मंगलमयी चूड़ियाँ पहने, माथे पर सिन्दूर धारण किए, आग-सी तेजोमीय तुलसा जब एक बूढ़ी पड़ोसन को अपनी चुनरी दिखाने लगी तो उसने उसकी माता से पूछा, ‘‘कै बरस की तुलसा हुई, बहन ?’’
‘‘आठवाँ पूरा हो गया, तभी तो कन्यादान दे दिया। पगली जब छः साल की रही, तभी अपने बाप से चुनरी पहनने के लिए लड़ा-झगड़ा करती थी। कहती थी, ‘मुझे आज ही ब्याह दो, मगर चुनरी जरूर मँगा दो।’ देखो न, इसे चुनरी क्या मिल गई, मानो संसार का राज्य मिल गया हो।’’
बूढ़ी ने तुलसा की ठुड्डी पकड़कर हिलाते हुए कहा, ‘‘मैं ऐसे नहीं देखूँगी री। तू एक बार नाचकर और वही परसालवाला गीत गाकर दिखा, तो देखूँ।’’
तुलसा से बड़ी-छोटी दूसरी लड़कियाँ खिलखिलाकर हँस पड़ीं। मगर वह झेंपी नहीं, बल्कि अपने नन्हे-नन्हे, लाल-लाल महावर-मण्डित पैरों को चमकाती हुई नाचने और गाने लगी—
‘‘मों को चुनरी की साध !
मों को चुनरी की साध !’’
मों को चुनरी की साध !’’
तुलसा की माँ आँचल में मुँह छिपाकर हँसने लगी; वह बूढ़ी आँखों में आँसू
भरकर मुसकराने लगी। तुलसा की सहेलियाँ अट्टहास करने लगीं; तमाम आँगन हँसी
की तरंगिनी लहराने लगी।
सन्नाटे में आकर तुलसा के पिता ने पूछा, ‘‘क्या हुआ ?’’
किसी भीषण भावी भय से अभिभूत होकर उसकी माँ ने पूछा, ‘‘क्या हुआ ?
‘‘ग़ज़ब हो गया !’’ समाचार लानेवाले ने रोते-रोते कहा, ‘‘जनवासे में वर को एक करैत ने काट खाया। वह देखते-देखते....’’
समाचार क्या था, वज्रपात था ! घर में कोहराम मच गया। चारों ओर हाहाकार का क्रूर नृत्य होने लगा।
इस अचानक रोदन के आक्रमण से चकराई तुलसा ने अपनी एक पड़ोसिन से पूछा, ‘‘क्या हुआ, चाची ?’’
उसके मस्तक का सुन्दर सिन्दूर बरबर पोंछती हुई चाची ने उत्तर दिया, ‘‘अभागिन, तेरा करम फूट गया।’’
इतने पर भी कुछ न समझकर उस आठ वर्ष की बालिका ने अपनी माँ की शरण ली, ‘‘क्या हुआ, माँ ! तुम रोती क्यों हो ? क्या ब्याह में रोया भी जाता है !’’
‘‘हाय, मेरी रानी ! उफ़्फ़ ! मेरी अभागिन बेटी, तू लुट गई—हम लुट गए—रो-रो-रो !’’
उसकी माँ ने देखते-देखते उसके हाथों को सूना कर दिया। सारी चूड़ियाँ फोड़ डाली गईं। उसके बाद चुनरी की बारी आई। एक मैली धोती उसे देते हुए माँ ने कहा, ‘‘उतार दे इसे ! तेरे भाग्य में चुनरी नहीं है। तू महा-अभागिन है।’’
‘‘ना...ना...ना...! मेरी चुनरी न छीनो ! न छीनो ! नहीं तो मैं सिर पटककर फोड़ लूँगी, जान दे दूँगी।’’
वह माँ के पास से, हाथ छुड़ाकर उसी तरह गाती हुई भागी—
सन्नाटे में आकर तुलसा के पिता ने पूछा, ‘‘क्या हुआ ?’’
किसी भीषण भावी भय से अभिभूत होकर उसकी माँ ने पूछा, ‘‘क्या हुआ ?
‘‘ग़ज़ब हो गया !’’ समाचार लानेवाले ने रोते-रोते कहा, ‘‘जनवासे में वर को एक करैत ने काट खाया। वह देखते-देखते....’’
समाचार क्या था, वज्रपात था ! घर में कोहराम मच गया। चारों ओर हाहाकार का क्रूर नृत्य होने लगा।
इस अचानक रोदन के आक्रमण से चकराई तुलसा ने अपनी एक पड़ोसिन से पूछा, ‘‘क्या हुआ, चाची ?’’
उसके मस्तक का सुन्दर सिन्दूर बरबर पोंछती हुई चाची ने उत्तर दिया, ‘‘अभागिन, तेरा करम फूट गया।’’
इतने पर भी कुछ न समझकर उस आठ वर्ष की बालिका ने अपनी माँ की शरण ली, ‘‘क्या हुआ, माँ ! तुम रोती क्यों हो ? क्या ब्याह में रोया भी जाता है !’’
‘‘हाय, मेरी रानी ! उफ़्फ़ ! मेरी अभागिन बेटी, तू लुट गई—हम लुट गए—रो-रो-रो !’’
उसकी माँ ने देखते-देखते उसके हाथों को सूना कर दिया। सारी चूड़ियाँ फोड़ डाली गईं। उसके बाद चुनरी की बारी आई। एक मैली धोती उसे देते हुए माँ ने कहा, ‘‘उतार दे इसे ! तेरे भाग्य में चुनरी नहीं है। तू महा-अभागिन है।’’
‘‘ना...ना...ना...! मेरी चुनरी न छीनो ! न छीनो ! नहीं तो मैं सिर पटककर फोड़ लूँगी, जान दे दूँगी।’’
वह माँ के पास से, हाथ छुड़ाकर उसी तरह गाती हुई भागी—
‘‘मों को चुनरी की साध !
मों को चुनरी की साध !
मों को चुनरी की साध !
मगर औरतें कब माननेवाली ! उन्होंने जबरदस्ती उसे पकड़कर उसकी चुनरी उतार
ली, और उसे पहनने के पुरानी-गन्दी धोती दे दी।
अब तुलसा की हँसी गायब हो गई। चुनरी छिन जाने पर उसे ऐसा मालूम हुआ, मानो उसका सर्वस्व छिन गया। उसने वह गन्दी धोती नहीं पहनी। नंगी ही आँगन में बैठकर रोने और चुनरी वापस माँगने लगी। लोगों ने प्यार से, दुलार से, मार से, उसे समझाने की चेष्टा की; मगर व्यर्थ। वह रोती और अपनी साध की चूनरी माँगती ही रही। लोग उसे उसी तरह छोड़ श्मशान की ओर चले गए।
एक सप्ताह तक तुलसा के शरीर पर ज्वर-भयानक ज्वर-का कब्ज़ा रहा। वह उसी तरह नंगी चारपाई पर पड़ी रही। रह-रहकर बेहोश हो जाती, और होश में आते ही आस-पास के लोगों से चिल्लाकर कहती, ‘‘मों को चुनरी की साध !’’
मगर लोग न पसीजे। पसीजते भी कैसे ? समाज का नियम जो टूट जाता। भला विधवा नारी चुनरी पहनेगी !
वह अन्तिम साँस ले रही थी। उसकी माँ सिसकती हुई उसकी ओर ताक रही थी। एकाएक आँख खोलकर उसने माँ से कहा, ‘‘मों को चुनरी की साध !’’
माता का हृदय हाहाकार कर उठा—मेरी बेटी चार गज़ सूत की चुनरी के लिए मरी जा रही है। समाज और रिवाज़ उसे, विधवा होने के कारण, वह नहीं दे सकते।
आग लगे इस समाज में ! वज्र पड़े ऐसे रिवाज़ पर ! मैं अपनी रानी की साध पूरी करूँगी। उसे चुनरी दूँगी।
पति ने कहा, ‘‘ना !’’
मोहल्लेवालियों ने कहा—ना !’’
मगर माता का हृदय नहीं माना। वह झपटकर चूनरी ले आई। तुलसा सफेद छींटे के उस लाल वस्त्र को देखकर कमल की तरह खिल उठी। चमककर बिछौने से उठ पड़ी, ओढ़ने के बाहर हुई और नंगी जमीन पर उतरकर उसने माँ के हाथ से चुनरी छीन ली। जल्दी-जल्दी शरीर पर उसे सजाती हुई वह एक बार फिर गुनगुनाने लगी—
अब तुलसा की हँसी गायब हो गई। चुनरी छिन जाने पर उसे ऐसा मालूम हुआ, मानो उसका सर्वस्व छिन गया। उसने वह गन्दी धोती नहीं पहनी। नंगी ही आँगन में बैठकर रोने और चुनरी वापस माँगने लगी। लोगों ने प्यार से, दुलार से, मार से, उसे समझाने की चेष्टा की; मगर व्यर्थ। वह रोती और अपनी साध की चूनरी माँगती ही रही। लोग उसे उसी तरह छोड़ श्मशान की ओर चले गए।
एक सप्ताह तक तुलसा के शरीर पर ज्वर-भयानक ज्वर-का कब्ज़ा रहा। वह उसी तरह नंगी चारपाई पर पड़ी रही। रह-रहकर बेहोश हो जाती, और होश में आते ही आस-पास के लोगों से चिल्लाकर कहती, ‘‘मों को चुनरी की साध !’’
मगर लोग न पसीजे। पसीजते भी कैसे ? समाज का नियम जो टूट जाता। भला विधवा नारी चुनरी पहनेगी !
वह अन्तिम साँस ले रही थी। उसकी माँ सिसकती हुई उसकी ओर ताक रही थी। एकाएक आँख खोलकर उसने माँ से कहा, ‘‘मों को चुनरी की साध !’’
माता का हृदय हाहाकार कर उठा—मेरी बेटी चार गज़ सूत की चुनरी के लिए मरी जा रही है। समाज और रिवाज़ उसे, विधवा होने के कारण, वह नहीं दे सकते।
आग लगे इस समाज में ! वज्र पड़े ऐसे रिवाज़ पर ! मैं अपनी रानी की साध पूरी करूँगी। उसे चुनरी दूँगी।
पति ने कहा, ‘‘ना !’’
मोहल्लेवालियों ने कहा—ना !’’
मगर माता का हृदय नहीं माना। वह झपटकर चूनरी ले आई। तुलसा सफेद छींटे के उस लाल वस्त्र को देखकर कमल की तरह खिल उठी। चमककर बिछौने से उठ पड़ी, ओढ़ने के बाहर हुई और नंगी जमीन पर उतरकर उसने माँ के हाथ से चुनरी छीन ली। जल्दी-जल्दी शरीर पर उसे सजाती हुई वह एक बार फिर गुनगुनाने लगी—
‘‘मों को चुनरी की साध !
मों को चुनरी की साध !’’
मों को चुनरी की साध !’’
मगर वह बहुत कमजोर हो गई थी। उस खुशी का भार वह सँभाल न सकी। चूनरी
पहनते-पहनते ज़मीन पर धम्म से गिर पड़ी। दो-तीन हिचकियाँ लीं—और
बस।
साध पूरी हो गई। श्मशान ने तुलसा को उसकी चूनरी के साथ-साथ अपनी भयानक
हँसी-चिता-की गोद में हो-होकर उठा लिया।
चौड़ा छुरा
हिन्दू-मुस्लिम विरोध को विषय बनाकर लिखी गई यह कहानी जब पहली बार
प्रकाशित हुई थी तो इसके विषय-वस्तु और निष्कर्ष लेकर काफी विवाद उठ खडा
हुआ था। जमालो का ‘चीनी तलवार-सा चौड़ा-लम्बा छुरा’
हिन्दू
गोपाल और मुस्लिम मुहम्मद दोनों की जान ले लेता है। क्योंकि दरअसल
साम्प्रदायिकता ही यह छुरा है।
शहर बनारस की एक बाहरी सड़क पर बुढ़िया रहती है। उसका नाम है जमालो।
चीनी तलवार-सा चौड़ा-लम्बा छुरा है उसके पास एक, जिससे वह साग-भाजी काटा करती है। अपने मृत पति का चिह्न होने के कारण जमालो उस छुरे को जी जान से चाहती थी। उसका विश्वास है कि पास में रखने से छुरे के डर से शैतान, चुड़ैल और साँप-बिच्छू सदा दूर रहते हैं।
उस मोहल्ले के हिन्दू-मुसलमान नौजवानों ने अक्सर सोचा—ऐसे छुरे से साग काटना हथियार की बेइज्जती करना है। दोनों क़ौमों के नौजवानों ने जमालो से छुरे को माँगा भी...
मगर भला, वह कब देनेवाली !
तब तक दंगा हो गया शहर बनारस में।
दंगे की खबर पाते ही बूढ़ी जमालो ने मारे घबराहट के उस छुरे को झोंपड़ी के बाहर ही छोड़ टटरा बन्द कर लिया।
और, नौजवान हिन्दू गोपाल ने सोचा—बूढ़ी जमालो का छुरा हाथ लगे, तो दुश्मनों को मज़ा चखा दूँ।
नौजवान मुसलमान मुहम्मद ने भी उस चौड़े-लम्बे छुरे को दंगा होते ही हथियाना चाहा।
झपटा मुहम्मद। जब बूढ़ी की झोंपड़ी के पास आया, तो दूर ही से उसने देखा, गोपाल चौड़े छुरे को बगल में छिपाए कतराए जा रहा है।
क्षणभर बाद मुहम्मद और गोपाल एक-दूसरे के सामने—अड़ोसी-पडो़सी। छुरे के लिए हाथा-बाहीं। मुहम्मद को गोपाल ने घायल किया।
उत्तेजित मुहम्मद ने दाँव-पेंच से बूढ़ी के उस छुरे को गोपाल के पेट में डाल दिया।
राम-नाम सत्य है !
इसके बाद ही तो ख़ून उतर आया उस आदमी की आँखों में, जिसने ख़ून किया था। ख़ून ! ख़ून ! ख़ून ! ताबड़तोड़ कई पड़ोसी हिन्दू मारे गए।
आखिर एक जीवट के नौजवान ने मुहम्मद को भी धर दबोचा, और जमालो के छुरे ने ख़ूनी के ख़ून का जायका लिया।
अब पुलिस-पलटन भी दौड़ आई, और दोनों क़ौमों के दंगाई घरों में दुबक रहे।
अपने रास्ते लगने से पहले मुहम्मद को मारने वाले नौजवान ने पुलिस के डर से उस छुरे को कूड़ाखाने की ओर फेंक दिया, और कूड़ाखाने के पास ही तो जमालो की झोंपड़ी है।
झोंपड़ी के बाहर भगदड़ सुनकर भय से जमालो को अपने बरकती छुरे की याद आई। आह ! वह तो बाहर ही छूट गया।
झपाक से झोंपड़ी का टट्टर खोल बुढ़िया बाहर आ रही और रात के अँधेरे में छुरा तलाशने लगी। थोड़े श्रम के बाद अनायास ही वह चौड़ा छुरा बूढ़ी को मिल गया।
मारे प्रेम के बूढ़ी जमालो ने अन्धकार ही में अपने प्यारे पति के पवित्र छुरे को चूम-चूम लिया।
हैं ! छुरे में गाढ़ी चीज क्या लगी है ? जमालो के होंठों में गोंद-सा क्या सट गया ? ख़ून ? पानी ?
इसी वक्त पुलिस-पलटन से अफ़सरों न टार्चों के प्रकाश में कूडे़खाने पर बूढ़ी जमालो को एक चौड़ा छुरा चूमते देखा।
शहर बनारस की एक बाहरी सड़क पर बुढ़िया रहती है। उसका नाम है जमालो।
चीनी तलवार-सा चौड़ा-लम्बा छुरा है उसके पास एक, जिससे वह साग-भाजी काटा करती है। अपने मृत पति का चिह्न होने के कारण जमालो उस छुरे को जी जान से चाहती थी। उसका विश्वास है कि पास में रखने से छुरे के डर से शैतान, चुड़ैल और साँप-बिच्छू सदा दूर रहते हैं।
उस मोहल्ले के हिन्दू-मुसलमान नौजवानों ने अक्सर सोचा—ऐसे छुरे से साग काटना हथियार की बेइज्जती करना है। दोनों क़ौमों के नौजवानों ने जमालो से छुरे को माँगा भी...
मगर भला, वह कब देनेवाली !
तब तक दंगा हो गया शहर बनारस में।
दंगे की खबर पाते ही बूढ़ी जमालो ने मारे घबराहट के उस छुरे को झोंपड़ी के बाहर ही छोड़ टटरा बन्द कर लिया।
और, नौजवान हिन्दू गोपाल ने सोचा—बूढ़ी जमालो का छुरा हाथ लगे, तो दुश्मनों को मज़ा चखा दूँ।
नौजवान मुसलमान मुहम्मद ने भी उस चौड़े-लम्बे छुरे को दंगा होते ही हथियाना चाहा।
झपटा मुहम्मद। जब बूढ़ी की झोंपड़ी के पास आया, तो दूर ही से उसने देखा, गोपाल चौड़े छुरे को बगल में छिपाए कतराए जा रहा है।
क्षणभर बाद मुहम्मद और गोपाल एक-दूसरे के सामने—अड़ोसी-पडो़सी। छुरे के लिए हाथा-बाहीं। मुहम्मद को गोपाल ने घायल किया।
उत्तेजित मुहम्मद ने दाँव-पेंच से बूढ़ी के उस छुरे को गोपाल के पेट में डाल दिया।
राम-नाम सत्य है !
इसके बाद ही तो ख़ून उतर आया उस आदमी की आँखों में, जिसने ख़ून किया था। ख़ून ! ख़ून ! ख़ून ! ताबड़तोड़ कई पड़ोसी हिन्दू मारे गए।
आखिर एक जीवट के नौजवान ने मुहम्मद को भी धर दबोचा, और जमालो के छुरे ने ख़ूनी के ख़ून का जायका लिया।
अब पुलिस-पलटन भी दौड़ आई, और दोनों क़ौमों के दंगाई घरों में दुबक रहे।
अपने रास्ते लगने से पहले मुहम्मद को मारने वाले नौजवान ने पुलिस के डर से उस छुरे को कूड़ाखाने की ओर फेंक दिया, और कूड़ाखाने के पास ही तो जमालो की झोंपड़ी है।
झोंपड़ी के बाहर भगदड़ सुनकर भय से जमालो को अपने बरकती छुरे की याद आई। आह ! वह तो बाहर ही छूट गया।
झपाक से झोंपड़ी का टट्टर खोल बुढ़िया बाहर आ रही और रात के अँधेरे में छुरा तलाशने लगी। थोड़े श्रम के बाद अनायास ही वह चौड़ा छुरा बूढ़ी को मिल गया।
मारे प्रेम के बूढ़ी जमालो ने अन्धकार ही में अपने प्यारे पति के पवित्र छुरे को चूम-चूम लिया।
हैं ! छुरे में गाढ़ी चीज क्या लगी है ? जमालो के होंठों में गोंद-सा क्या सट गया ? ख़ून ? पानी ?
इसी वक्त पुलिस-पलटन से अफ़सरों न टार्चों के प्रकाश में कूडे़खाने पर बूढ़ी जमालो को एक चौड़ा छुरा चूमते देखा।
उरुज़
व्यवसायियों-बनियों से हज़ारों-हज़ार रुपये घूस लेनेवाले नेताओं और
अधिकारियों पर गहरा व्यंग्य ! केवलचन्द एम.एल.ए. की माता ग्लानि की आग में
जलती हुई मर जाती हैं, क्योंकि केवलचन्द ने ‘घीसाला घनघोरलाल
कम्पनी’ के मालिक से पचास हज़ार घूस लिये हैं। क्या केवलचन्द को
इस
बात का ज़रा भी दुख है ? कहानी वणिक-सभ्यता पर एक प्रभावोत्पादक व्यंग्य
बन गई है।
शहर के मशहूर एम.एल.ए. केवलचन्द की माता दयावती देवी के देहान्त के तेरहवें दिन की बात है। बात, दिन तो क्या, शाम की है, और जरा प्राइवेट नेचर की है।
शाम को मातमपुर्सी के लिए मिलने शहर का वह बनिया महाजन आया, खुर्राट लाला घीसालाल—घीसालाल घनघोरलाल फर्म का मशहूर मालिक। मशहूर यों कि घीसालाल जिस तरह भी मिले, पैसे कमाने वाला। पैसे के लिए मक्कारी, बेईमानी, जालसाज़ी आदि को घीसालाल ‘बिज़नेस सीक्रेट’ मानने वाला।
सारी ज़िन्दगी घीसालाल का बाप घनघोरलाल ब्रिटिश गवर्नमेंट के उन फ़ौलादी पंजों में पॉलिश लगाता रहा जिनसे भारतवर्ष का दम घोटा जा रहा था। सन् 1944-47 तक घीसालाल भी अपने स्वर्गीय बाप की लीक पर ही चलता रहा। फ़र्क इतना कि घनघोरलाल अगर कच्छप की चाल चलता था, तो घीसालाल साँप की तरह। दोनों में बैलगाड़ी और रेलगाड़ी का अन्तर। घनघोरलाल अंग्रेज़ को भ्रष्ट करता था। घीसालाल अंग्रेज़ के भगानेवालों को भ्रष्ट करने वाला। शहर में बड़ी अफ़वाह कि उसने एम.एल.ए. केवलचन्द को भी ‘तर माल’ पहुँचाकर बहुत-से परमिट, लाइसेंस और ठेके प्राप्त किए हैं।
‘‘माताजी को कोई रोग नहीं, बीमारी नहीं,’’ एकान्त में केवलचन्द्र से बात करते हुए खुशनुमा स्वर में घीसालाल ने पूछा, ‘‘मेरी समझ में नहीं आता कि यों अचानक, उनका बैकुण्ठ-गमन हो कैसे गया !’’
‘‘रोज़ यह एक ही प्रश्न आप करते हैं, घीसालालजी ! और मैं मन मसोसकर चुप रह जाता हूँ। पर आज उत्तर देने को जी चाहता है।
इधर-उधर देख और अच्छी तरह से समझकर कि कोई नौकर भी उसकी बात सुनने को नज़दीक नहीं, एम.एल.ए. केवलचन्द ने कहा, ‘‘तेरह दिनों पहले आपसे जो पचास हजार रुपये मुझे मिले, वे फले नहीं। तेरह दिनों से मैं इसी उधेड़-बुन में हूँ कि क्या अम्मा का शरीर उन रुपयों के कारण ही छूट गया ? क्या वे रुपये उत्थान नहीं, पतन के अग्रदूत; उरुज़ नहीं, ज़वाल की राह पर झाड़ लगानेवाले हैं ?’’
‘‘मैं समझा नहीं महाराज !’’ पुनः चापलूसी की घीसालाल ने, ‘‘मैंने तो गुरु-मन्त्र यही माना है कि फ़ायदे में आती हुई लक्ष्मी में, फिर वह लाभ चाहे जैसा होता हो, कोई भी पाप नहीं, ज़रा भी। यही रुपये अंग्रेज़ ले जाता तो पुण्य होता और आपकी जेब में गए तो पाप हो गया ! हिः ! मैं तो सौभाग्य मानता हूँ और अंग्रेज़ की सेवा आधे दिल से करता था तो आपकी सेवा सौ जान से करना चाहता हूँ। आप स्वदेशी, आप तपस्वी, आपको रुपये देना और मन्दिर में चढ़ाना बराबर है। मन्दिर में किसी तरह का भी रुपया चढ़ाया जा सकता है। ताज्जुब है ! रुपयों से माताजी के देहान्त का सम्बन्ध क्योंकर हो सकता है ?’’
‘‘आप मेरी माँ को निकट से जानते नहीं, घीसालालजी। दया और त्याग की तो वह मूर्ति थीं। उनके उठ जाने से मेरे जीवन में जो अवकाश उत्पन्न हो गया है उसकी पूर्ति इस जन्म में सम्भव नहीं।’’
‘‘माताएँ मोही होती ही हैं।’’ घीसालाल ने कहा, ‘‘मेरी माता कपूराबाई आख़िरी दम ही तक भगवान् से यही प्रार्थना करती गईं कि मेरे घर में लक्ष्मीजी टाँग तोड़कर बैठी रहें। और साहब, उनके आशीर्वाद में कितना बल ! जिस साल वह मरीं, उसके दूसरे साल ही बंगाल में अकाल पड़ा था। उधर अकाल पड़ा, इधर कलकत्ता की ‘घीसालाल घनघोरलाल’ फ़र्म ने बंगाल के बाहर पचास गुने अधिक दाम पर कई लाख मन चावल खपाकर पचास लाख रुपये पैदा किए।’’
‘‘मेरा माता बड़ी धर्मात्मा...’’केवलचन्द ने भावुकता से भरकर कहा, ‘‘दयावती उनका नाम ज़रूरत से ज़्यादा सार्थक। जीवनभर उनकी बड़ी-बड़ी आँखें जीवनभरी रहीं यानी सहज-सरल। माताजी का चेहरा हमेशा ऐसा दिखता गोया प्रसन्नता से रोकर अभी उठी हों। पिताजी की डॉक्टरी से बड़ी अच्छी आमदनी, पर वह आमदनी से इतनी खुश नहीं जितना इस बात से कि पिताजी आर्यसमाज के भारत-विख्यात सुधारक नेता थे। मैं अम्मा के मुँह से सुनी उनके पसन्द की बात बतलाऊँ, तो स्पष्ट हो जाएगा कि मेरी माँ कितनी बुलन्द मिज़ाज की थीं।
‘‘मेरी डॉक्टरी पिताजी से भी बढ़कर चली। रुपये बरसने लगे। पर इससे अम्मा खुश नहीं हुईं। सन् बयालीस में जब मैं ब्रिटिश गवर्नमेंट के विरुद्ध बग़ावत कर जेल में जाने के बाद, साठ दिन अनशन करने के बाद, अधमरा-सा मरने के लिए छूटकर घर लाया गया और मुझे देखने के लिए सारा शहर उमड़ पड़ा, मस्जिदों और मन्दिरों में दुआएँ-प्रार्थनाएँ होने लगीं, तब वह मेरे पास आईं। उन्होंने कहा—‘‘ग्यारह रुपये हैं ? चाहिए।’
‘‘रुपये क्या होंगे, अम्मा ?’ उन्हें दस और एक नोट देते हुए मैंने पूछा।
‘‘हनुमानजी को लड्डू चढ़ाकर बच्चों को बाटूँगी।’
‘‘क्यों ?’’
‘‘मैंने मानता की थी तेरे लिए ।’
‘‘मेरे लिए क्यों ? कब ?’
‘‘जब तू पेट में भी नहीं आया था।’
‘‘ऐसी मेरी अम्मा जिसने मेरे पेट में आने से पहले ही मनोती मान रखी थी।
‘‘क्या मनौती थी, माँ ?’’
शहर के मशहूर एम.एल.ए. केवलचन्द की माता दयावती देवी के देहान्त के तेरहवें दिन की बात है। बात, दिन तो क्या, शाम की है, और जरा प्राइवेट नेचर की है।
शाम को मातमपुर्सी के लिए मिलने शहर का वह बनिया महाजन आया, खुर्राट लाला घीसालाल—घीसालाल घनघोरलाल फर्म का मशहूर मालिक। मशहूर यों कि घीसालाल जिस तरह भी मिले, पैसे कमाने वाला। पैसे के लिए मक्कारी, बेईमानी, जालसाज़ी आदि को घीसालाल ‘बिज़नेस सीक्रेट’ मानने वाला।
सारी ज़िन्दगी घीसालाल का बाप घनघोरलाल ब्रिटिश गवर्नमेंट के उन फ़ौलादी पंजों में पॉलिश लगाता रहा जिनसे भारतवर्ष का दम घोटा जा रहा था। सन् 1944-47 तक घीसालाल भी अपने स्वर्गीय बाप की लीक पर ही चलता रहा। फ़र्क इतना कि घनघोरलाल अगर कच्छप की चाल चलता था, तो घीसालाल साँप की तरह। दोनों में बैलगाड़ी और रेलगाड़ी का अन्तर। घनघोरलाल अंग्रेज़ को भ्रष्ट करता था। घीसालाल अंग्रेज़ के भगानेवालों को भ्रष्ट करने वाला। शहर में बड़ी अफ़वाह कि उसने एम.एल.ए. केवलचन्द को भी ‘तर माल’ पहुँचाकर बहुत-से परमिट, लाइसेंस और ठेके प्राप्त किए हैं।
‘‘माताजी को कोई रोग नहीं, बीमारी नहीं,’’ एकान्त में केवलचन्द्र से बात करते हुए खुशनुमा स्वर में घीसालाल ने पूछा, ‘‘मेरी समझ में नहीं आता कि यों अचानक, उनका बैकुण्ठ-गमन हो कैसे गया !’’
‘‘रोज़ यह एक ही प्रश्न आप करते हैं, घीसालालजी ! और मैं मन मसोसकर चुप रह जाता हूँ। पर आज उत्तर देने को जी चाहता है।
इधर-उधर देख और अच्छी तरह से समझकर कि कोई नौकर भी उसकी बात सुनने को नज़दीक नहीं, एम.एल.ए. केवलचन्द ने कहा, ‘‘तेरह दिनों पहले आपसे जो पचास हजार रुपये मुझे मिले, वे फले नहीं। तेरह दिनों से मैं इसी उधेड़-बुन में हूँ कि क्या अम्मा का शरीर उन रुपयों के कारण ही छूट गया ? क्या वे रुपये उत्थान नहीं, पतन के अग्रदूत; उरुज़ नहीं, ज़वाल की राह पर झाड़ लगानेवाले हैं ?’’
‘‘मैं समझा नहीं महाराज !’’ पुनः चापलूसी की घीसालाल ने, ‘‘मैंने तो गुरु-मन्त्र यही माना है कि फ़ायदे में आती हुई लक्ष्मी में, फिर वह लाभ चाहे जैसा होता हो, कोई भी पाप नहीं, ज़रा भी। यही रुपये अंग्रेज़ ले जाता तो पुण्य होता और आपकी जेब में गए तो पाप हो गया ! हिः ! मैं तो सौभाग्य मानता हूँ और अंग्रेज़ की सेवा आधे दिल से करता था तो आपकी सेवा सौ जान से करना चाहता हूँ। आप स्वदेशी, आप तपस्वी, आपको रुपये देना और मन्दिर में चढ़ाना बराबर है। मन्दिर में किसी तरह का भी रुपया चढ़ाया जा सकता है। ताज्जुब है ! रुपयों से माताजी के देहान्त का सम्बन्ध क्योंकर हो सकता है ?’’
‘‘आप मेरी माँ को निकट से जानते नहीं, घीसालालजी। दया और त्याग की तो वह मूर्ति थीं। उनके उठ जाने से मेरे जीवन में जो अवकाश उत्पन्न हो गया है उसकी पूर्ति इस जन्म में सम्भव नहीं।’’
‘‘माताएँ मोही होती ही हैं।’’ घीसालाल ने कहा, ‘‘मेरी माता कपूराबाई आख़िरी दम ही तक भगवान् से यही प्रार्थना करती गईं कि मेरे घर में लक्ष्मीजी टाँग तोड़कर बैठी रहें। और साहब, उनके आशीर्वाद में कितना बल ! जिस साल वह मरीं, उसके दूसरे साल ही बंगाल में अकाल पड़ा था। उधर अकाल पड़ा, इधर कलकत्ता की ‘घीसालाल घनघोरलाल’ फ़र्म ने बंगाल के बाहर पचास गुने अधिक दाम पर कई लाख मन चावल खपाकर पचास लाख रुपये पैदा किए।’’
‘‘मेरा माता बड़ी धर्मात्मा...’’केवलचन्द ने भावुकता से भरकर कहा, ‘‘दयावती उनका नाम ज़रूरत से ज़्यादा सार्थक। जीवनभर उनकी बड़ी-बड़ी आँखें जीवनभरी रहीं यानी सहज-सरल। माताजी का चेहरा हमेशा ऐसा दिखता गोया प्रसन्नता से रोकर अभी उठी हों। पिताजी की डॉक्टरी से बड़ी अच्छी आमदनी, पर वह आमदनी से इतनी खुश नहीं जितना इस बात से कि पिताजी आर्यसमाज के भारत-विख्यात सुधारक नेता थे। मैं अम्मा के मुँह से सुनी उनके पसन्द की बात बतलाऊँ, तो स्पष्ट हो जाएगा कि मेरी माँ कितनी बुलन्द मिज़ाज की थीं।
‘‘मेरी डॉक्टरी पिताजी से भी बढ़कर चली। रुपये बरसने लगे। पर इससे अम्मा खुश नहीं हुईं। सन् बयालीस में जब मैं ब्रिटिश गवर्नमेंट के विरुद्ध बग़ावत कर जेल में जाने के बाद, साठ दिन अनशन करने के बाद, अधमरा-सा मरने के लिए छूटकर घर लाया गया और मुझे देखने के लिए सारा शहर उमड़ पड़ा, मस्जिदों और मन्दिरों में दुआएँ-प्रार्थनाएँ होने लगीं, तब वह मेरे पास आईं। उन्होंने कहा—‘‘ग्यारह रुपये हैं ? चाहिए।’
‘‘रुपये क्या होंगे, अम्मा ?’ उन्हें दस और एक नोट देते हुए मैंने पूछा।
‘‘हनुमानजी को लड्डू चढ़ाकर बच्चों को बाटूँगी।’
‘‘क्यों ?’’
‘‘मैंने मानता की थी तेरे लिए ।’
‘‘मेरे लिए क्यों ? कब ?’
‘‘जब तू पेट में भी नहीं आया था।’
‘‘ऐसी मेरी अम्मा जिसने मेरे पेट में आने से पहले ही मनोती मान रखी थी।
‘‘क्या मनौती थी, माँ ?’’
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