कहानी संग्रह >> बँगला की प्रतिनिधि हास्य कहानियाँ बँगला की प्रतिनिधि हास्य कहानियाँपृथ्वीनाथ शास्त्री,योगेन्द्र कुमार लल्ला
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इस संग्रह की अधिकांश कहानियों में हमें शिष्ट, उन्मुक्त, गुदगुदा देने वाले, हँसी के फव्वारे प्रेरित करने वाले, समाज की प्रवृत्तियों पर छोटी-सी चुटकी लेने वाले हलके विनोद से लेकर तिलमिला देने वाले चुभते कटाक्ष तक – सभी प्रकार के हास्य-व्यंग्य के दर्शन होते हैं।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
धूप-छाँह जैसे जिन्दगी में घुले-मिले हैं वैसे ही हास्य-रुदन और सुख-दु:ख
भी; हमें कभी धूप तो कभी छाँह चाहिए, कभी आँसू तो कभी खिलखिलाहट। एक के
प्रति असीम मोह ‘मन के रोग’ का परिचायक है, वह शायद
पागलपन
है। तो फिर हमने एक ही विषय पर, या कहिए एक ही ‘रस’
को प्रधान
बनाकर यह संकलन क्यों किया ? और यह प्रयत्न, सिर्फ एक ही भाषा से नहीं,
आत्माराम एंड संस ने भारत की कई भाषाओं के प्रतिनिधि साहित्य-संकलन के रूप
में किया है। क्या इसलिए कि, जिसे जब जिस रस की जरूरत हो वह उसी के
‘कलश’ की ओर हाथ बढ़ाए जीवन की समग्रता का
‘आनन्द’ समूचे साहित्य का अवगाहन कर उठाए ? सच पूछिए
तो यह और
भी सुविधाजनक है।
हम फिर अपनी पहली बात को ही लें। जीवन में मज़ा भी है और परेशानियाँ भी। जो विचार कर सकते हैं उन्हें दुनिया में दु:ख-ही-दु:ख नहीं नज़र आता, लेकिन जो दिल में सिर्फ महसूस करते हैं उन्हें सारी दुनिया दुखी दिखाई पड़ती है। पर यह बड़ी पुरानी बात है। नए ज़माने की बात तो यह है कि हर वस्तु के कितने ही पहलू हैं। प्राय: हर वस्तु और हर व्यक्ति के भाव, विचार और अनुभूतियों का हास्यमय पहलू (comic side) कभी-न-कभी सामने आता ही है। जीवन में अन्तर्विरोध, असंगतियाँ, क्षुद्र प्रवृत्तियाँ, मूर्खतापूर्ण संघर्ष, बाप-बाबा के खारी कुएँ से ही पानी पीने की हठधर्मी, पाखण्ड, ढोंग, झूठा बड़प्पन और छोटी-बड़ी जाने-अनजाने हुई गलतियाँ – ये सब हास्य-कौतुक की ‘विषय-वस्तु’ बनते हैं। जीवन के ये
‘अविभाज्य अंग’ हैं। अपनी आत्यन्तिक तीव्रता में दु:ख एक तरह के सुख का और सुख एक तरह की घनीभूत पीड़ा का रूप ले लेता है; यह हमारे-आपके जीवन के दैनन्दिन अनुभव की बात है। हँसी के अन्तिम छोर पर और घनीभूत पीड़ा के परले सिरे पर आँसू निकल पड़ते हैं। शरीर के कुछ रस-ग्रन्थियाँ, जो शारीरिक सन्तुलन की संचालिका हैं, उक्त स्थितियों में एक ही क्रिया करती हैं, यद्यपि भिन्न-भिन्न पेशियाँ अलग-अलग तरीके से प्रभावित और क्रियान्वित भी होती रहती हैं, विशेषत: जबकि हम सामान्यत: रोते हैं या हँसते हैं।
हास्य-रस-बोध (sense of humour) को साहित्यिकों ने जीवनानन्द की पहली शर्त के रूप में माना है। एक ने तो यहाँ तक कह डाला कि
हम फिर अपनी पहली बात को ही लें। जीवन में मज़ा भी है और परेशानियाँ भी। जो विचार कर सकते हैं उन्हें दुनिया में दु:ख-ही-दु:ख नहीं नज़र आता, लेकिन जो दिल में सिर्फ महसूस करते हैं उन्हें सारी दुनिया दुखी दिखाई पड़ती है। पर यह बड़ी पुरानी बात है। नए ज़माने की बात तो यह है कि हर वस्तु के कितने ही पहलू हैं। प्राय: हर वस्तु और हर व्यक्ति के भाव, विचार और अनुभूतियों का हास्यमय पहलू (comic side) कभी-न-कभी सामने आता ही है। जीवन में अन्तर्विरोध, असंगतियाँ, क्षुद्र प्रवृत्तियाँ, मूर्खतापूर्ण संघर्ष, बाप-बाबा के खारी कुएँ से ही पानी पीने की हठधर्मी, पाखण्ड, ढोंग, झूठा बड़प्पन और छोटी-बड़ी जाने-अनजाने हुई गलतियाँ – ये सब हास्य-कौतुक की ‘विषय-वस्तु’ बनते हैं। जीवन के ये
‘अविभाज्य अंग’ हैं। अपनी आत्यन्तिक तीव्रता में दु:ख एक तरह के सुख का और सुख एक तरह की घनीभूत पीड़ा का रूप ले लेता है; यह हमारे-आपके जीवन के दैनन्दिन अनुभव की बात है। हँसी के अन्तिम छोर पर और घनीभूत पीड़ा के परले सिरे पर आँसू निकल पड़ते हैं। शरीर के कुछ रस-ग्रन्थियाँ, जो शारीरिक सन्तुलन की संचालिका हैं, उक्त स्थितियों में एक ही क्रिया करती हैं, यद्यपि भिन्न-भिन्न पेशियाँ अलग-अलग तरीके से प्रभावित और क्रियान्वित भी होती रहती हैं, विशेषत: जबकि हम सामान्यत: रोते हैं या हँसते हैं।
हास्य-रस-बोध (sense of humour) को साहित्यिकों ने जीवनानन्द की पहली शर्त के रूप में माना है। एक ने तो यहाँ तक कह डाला कि
The supreme human paradox is
humour.
यानी, ‘हास्य-रस-बोध ही जीवन का सबसे बड़ा
‘अन्तर्विरोध’ है।’ यदि आप इस वक्तव्य की
रोशनी में
देखें कि जीवन की सोद्देश्यता या निरुद्देश्यता के बारे में आज तक विवाद
ही चल रहा है, निर्णय नहीं हो सका, तो बात बिलकुल साफ-साफ पकड़ में आ जाती
है। ‘हम जीने के लिए जीना चाहते हैं’, यह भी इसी का
एक दूसरा
रूप है। ‘जिजीविषा’ क्या कोई कम बड़ा रस है ?
हास्य-कौतुक,
हँसी मज़ाक, ठट्का-तमाशा, रंग-व्यंग्य, ‘रसिकता’ आदि
तो इसी
भाव की धारणाओं के शाब्दिक प्रतीक हैं। चूँकि भाव-भूमियाँ बड़ी तेज़ी से
बदलती हैं, उसके नए-नए रूप ही मनोहारी होते हैं और परिस्थिति-परिवेश एवं
देश-काल तथा पात्र के भेद तथा विशेष मन:स्थितियाँ अभिव्यक्ति और बोध में
अन्तर लाती हैं, अत: यह ‘रसबोध’ व्यक्ति-व्यक्ति में
भिन्न
स्तर पर हो सकता है; पर सदा ‘मिश्रित’ ही होता है,
इसमें कोई
शक नहीं।
शेली ने स्काईलार्क के प्रति अपने गीति-नैवेद्य में कहा है –
शेली ने स्काईलार्क के प्रति अपने गीति-नैवेद्य में कहा है –
Our Sincerest Laughter
With Some pain is fraught.
With Some pain is fraught.
यानी, हमारी सर्वाधिक सीधी-सच्ची हँसी में भी थोड़ा-बहुत दर्द तो छिपा ही
रहता है। बायरन का डॉन जुऑन भी यही कहता था
‘‘And if Laugh at any mortal thing,
Tis that I may not weep.
Tis that I may not weep.
(मैं अगर किसी नाश्वान् वस्तु पर हँसता हूँ तो इसलिए कि मैं कहीं रोने न
लगूँ !)
मानव-जीवन के दम्भ और पाखण्ड एक ही साथ पीड़ादायक और हास्यकर होते हैं; हृदयहीन, कापुरुष और कपटी शठ एक ही साथ हँसाते और रुलाते हैं। हम अपने किसी बहुत ही प्रियजन की मूर्खता पर हँस पड़ते हैं, पर साथ ही उसकी उसी मूर्खता से हुई तकलीफ़ पर अफसोस और हमदर्दी भी प्रकट करते हैं।
अफलातून ने इसीलिए ‘सच्चा कलाकार’ उसे माना है जो दुखान्त और सुखान्त दोनों तरह के अभिनय में कुशल हो। जीवन भी तो एक सबसे बड़ा ‘अभिनय’ है। जो जीना जानते हैं वे हर तरह का अभिनय भी करते हैं !
हमें यह मानने में कोई आपत्ति नहीं जान पड़ती कि उच्च श्रेणी के हास्य में करुणा भी समाहित रहती है; कारण, यह मानव के प्रति तीव्र सहानुभूति, सच्ची हमदर्दी से ही जन्मती है। अपने चारों ओर तथा आस-पास की दुनिया के साथ हमारे अविराम संघर्ष के कारण जो असंख्य असंगतियाँ प्रतिक्षण पैदा होती रहती हैं उन्हें गम्भीर संवेदना के बिना न तो समझा जा सकता है और न संवेद्य ही बनाया जा सकता है।
हास्य मन को सतेज और प्राणों को सजीव करता है। हम जिसे प्यार करते हैं उसे हँसाने का कितना प्रयत्न करते हैं ! हँसी-मज़ाक की प्रवृत्ति हमारी सहज प्रवृत्ति है; प्रकृति भी तो अपनी सृष्टि में उद्भट वस्तुएँ (Freaks) बना डालती है। मानव की कौतुक धारणा स्थूल, मध्यम और सूक्ष्म रसिकता का रूप ले सकती है, किन्तु इतना सुनिश्चित है कि अत्यन्त निम्न स्तर के व्यक्ति ही हास्य-व्यंग्य में कटुता लाकर मज़ा लेते हैं, वह भी इसलिए कि कभी-कभी घोर निष्ठुरता और उत्पीड़न भी हँसी की हालत ला ही देते हैं। चार्ली चैपलिन की यह उक्ति इसका सबूत है
मानव-जीवन के दम्भ और पाखण्ड एक ही साथ पीड़ादायक और हास्यकर होते हैं; हृदयहीन, कापुरुष और कपटी शठ एक ही साथ हँसाते और रुलाते हैं। हम अपने किसी बहुत ही प्रियजन की मूर्खता पर हँस पड़ते हैं, पर साथ ही उसकी उसी मूर्खता से हुई तकलीफ़ पर अफसोस और हमदर्दी भी प्रकट करते हैं।
अफलातून ने इसीलिए ‘सच्चा कलाकार’ उसे माना है जो दुखान्त और सुखान्त दोनों तरह के अभिनय में कुशल हो। जीवन भी तो एक सबसे बड़ा ‘अभिनय’ है। जो जीना जानते हैं वे हर तरह का अभिनय भी करते हैं !
हमें यह मानने में कोई आपत्ति नहीं जान पड़ती कि उच्च श्रेणी के हास्य में करुणा भी समाहित रहती है; कारण, यह मानव के प्रति तीव्र सहानुभूति, सच्ची हमदर्दी से ही जन्मती है। अपने चारों ओर तथा आस-पास की दुनिया के साथ हमारे अविराम संघर्ष के कारण जो असंख्य असंगतियाँ प्रतिक्षण पैदा होती रहती हैं उन्हें गम्भीर संवेदना के बिना न तो समझा जा सकता है और न संवेद्य ही बनाया जा सकता है।
हास्य मन को सतेज और प्राणों को सजीव करता है। हम जिसे प्यार करते हैं उसे हँसाने का कितना प्रयत्न करते हैं ! हँसी-मज़ाक की प्रवृत्ति हमारी सहज प्रवृत्ति है; प्रकृति भी तो अपनी सृष्टि में उद्भट वस्तुएँ (Freaks) बना डालती है। मानव की कौतुक धारणा स्थूल, मध्यम और सूक्ष्म रसिकता का रूप ले सकती है, किन्तु इतना सुनिश्चित है कि अत्यन्त निम्न स्तर के व्यक्ति ही हास्य-व्यंग्य में कटुता लाकर मज़ा लेते हैं, वह भी इसलिए कि कभी-कभी घोर निष्ठुरता और उत्पीड़न भी हँसी की हालत ला ही देते हैं। चार्ली चैपलिन की यह उक्ति इसका सबूत है
‘‘Playful pain – as you say, is what
humour is.
The minute a thing is over-tragic it is comic
The minute a thing is over-tragic it is comic
(जिसे आप लीलामयी वेदना कहते हैं, वही तो हास्य-रस है। कोई भी चीज़ जिस
क्षण भी बहुत दु:खपूर्ण बनती है, तभी वह हास्यपूर्ण भी हो जाती है !)
जो भी हो, हास्य के बारे में इतना सब कुछ जानने के बाद, इतना तो स्पष्ट ही है कि प्रकृत (यथार्थ) हास्य हमारे स्वभाव का एक उज्जवल गुण है, इसमें घृणा या विरक्ति का लेश भी नहीं रहता। जीवन में सिद्धांत और व्यवहार, धारणा और वस्तु – स्वरूप के बीच की असंगतियाँ हमें हँसने के लिए बाध्य कर देती हैं। पर इसमें दूसरों के दोषों या कमियों को देखकर अपने को सन्तुष्ट करने का लुच्चापन नहीं होता। मनस्वी जन तो दूसरों की सहायता और मुक्ति के लिए ही हर काम करते हैं और वे अपनी तुलना में भी हमेशा योग्यतम व्यक्ति से ही चाहते हैं। प्रकृत हास्य में कटुता और किसी भी तरह के अभागेपन का
बोध नहीं रहता, बल्कि एक असीम सामान्यता और असंगति एवं अन्तर्विरोध ‘हास्यकर’ होते हैं, गम्भीर स्तरों पर तो वे भी दु:ख, पीड़ा या वेदना ही उत्पन्न करते हैं। ‘प्रकृति हास्य’ में, इसीलिए, एक प्रकार की वृहत् अनुभूति की आशा रहती है और सामान्य अभिज्ञता या उपलब्धि भी। उच्चतम हास्य से कोमलता एवं करुणार्द्रता का अभेद संबंध रहता है, जो कि ‘स्रष्टा’ की ‘सदाशयता’ को ही व्यक्त करता है।
विद्वेष-प्रसूत व्यंग्य हास्य से भिन्न है। हास्य तो अपने आभ्यन्तर रूप में, मानव-जीवन का करुणा का करुणार्द्र विचार या ‘दर्शन’ है और उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति भी है। व्यंग्य में, यदि वह विद्वेष-जन्य न हो तो भी, दूसरे की अवहेलना और उसे सुधारने की थोड़ी-बहुत इच्छा अवश्य रहती है। हाँ, यदि इसे पूर्णत: निवैयक्तिक बनाया जा सके तो यह ‘परिहास’
भी बन जाता है। और तब इसमें गम्भीर सहानुभूति आ ही जाती है चूँकि मानव-मन के सारे आवेग जीवन से ही संगृहीत होते हैं। अच्छे व्यंग्य या नाटकीय ‘प्रहसन’ में भी लोग वक्तव्य के लक्ष्य को ध्यान में रखकर अभिनेता के साथ हँसते हैं, अभिनेता पर कभी नहीं हँसते।
‘प्रहसन’ का आदिस्रोत इसी अन्तर्विरोध में है कि आदमी अमरता की अभिलाषा तो रखता है परन्तु सीमित शक्तिशाली पाँच-पाँच इन्द्रियों के संघात शरीर पर निर्भर करता है; अत: सत्य, सौन्दर्य और कल्याण के बारे में उसकी सारी अनुभूतियाँ असीम कैसे हो सकती हैं ? अपने अनजाने में ही आदमी नियति के इस विधान से कुछ परेशान और परवाह-सा होकर हँस पड़ता है। जैसे-जैसे वह जीवन की आधारभूत या मूल स्थितियों को जानता है वैसे-वैसे सामाजिकता के प्रति सचेत होता
है। दूसरों के साथ अधिकतर संपर्क होने पर ही सामाजिक विश्वास और अनुराग बढ़ते हैं और अभी जीवन की मूलभूत परिस्थितियों से मजा लेने की स्वस्थ मनोवृत्ति उदित हो पाती है। यही वजह है कि हम दूसरों की उपस्थिति में भी ज्यादा हँस पाते हैं, अकेले में बहुत ही कम (हास्य-रसात्मक साहित्य को पढ़ते वक्त अकेले में हँसना बिलकुल दूसरी बात है) ! हास्य-कौतुक और व्यंग्य-विनोद का विस्तार भाँति-भाँति के लोगों के एकत्र होने पर ही अधिक होता है, विशेषत: जबकि उनकी मानवीयता घनी हो चली हो और आपसी भेद-भाव प्राय: मिट गए हों।
हास्य ‘सर्व-जन-सवेद्य’ तभी होता है जबकि वह केवल दर्शक या श्रोता और पाठक की बुद्धि के प्रति ही आवेदन नहीं करता, बल्कि उसके हृदय को भी आलोड़ित और अप्रत्यक्ष रूप से आन्दोलित कर डालता है। केवल बुद्धि के प्रति विहित आवेदन, जो कि विचार-वैदग्ध्य और वाक्चातुर्य एवं कलात्मक वैशिष्ट्य लिए रहता है, अपनी परिष्कृत रुचि और चमत्कार से एक तरह की खुशी से जी भर तो देता है पर मन और शरीर में प्रशस्त और आवेगपूर्ण प्रफुल्लता नहीं ला पाता, वह तो ‘प्रकृत हास्य’ द्वारा ही सम्पन्न होता है। शायद मुस्कान और उच्च हास्य में भी ऐसा ही कुछ भेद है।
हास्य की उपलब्धि कविता, नाटक, उपन्यास, कहानी, व्यंग्य चित्र, चुटकुले आदि कितनी ही शिल्प और साहित्य की विधाओं द्वारा हो सकती है। कहानी के माध्यम की अपनी सीमाएँ हैं, अत: हास्य-रस का यह नूतन कलश सिर्फ उन्हीं को आनन्दान्वित कर सकेगा जिनकी मन:स्थिति में हास्य के सभी प्रभेद समा सकते हैं, उन्हें नहीं जो ‘ग़ालिब’ का यह शेर ही दुहारते रहते हैं-
जो भी हो, हास्य के बारे में इतना सब कुछ जानने के बाद, इतना तो स्पष्ट ही है कि प्रकृत (यथार्थ) हास्य हमारे स्वभाव का एक उज्जवल गुण है, इसमें घृणा या विरक्ति का लेश भी नहीं रहता। जीवन में सिद्धांत और व्यवहार, धारणा और वस्तु – स्वरूप के बीच की असंगतियाँ हमें हँसने के लिए बाध्य कर देती हैं। पर इसमें दूसरों के दोषों या कमियों को देखकर अपने को सन्तुष्ट करने का लुच्चापन नहीं होता। मनस्वी जन तो दूसरों की सहायता और मुक्ति के लिए ही हर काम करते हैं और वे अपनी तुलना में भी हमेशा योग्यतम व्यक्ति से ही चाहते हैं। प्रकृत हास्य में कटुता और किसी भी तरह के अभागेपन का
बोध नहीं रहता, बल्कि एक असीम सामान्यता और असंगति एवं अन्तर्विरोध ‘हास्यकर’ होते हैं, गम्भीर स्तरों पर तो वे भी दु:ख, पीड़ा या वेदना ही उत्पन्न करते हैं। ‘प्रकृति हास्य’ में, इसीलिए, एक प्रकार की वृहत् अनुभूति की आशा रहती है और सामान्य अभिज्ञता या उपलब्धि भी। उच्चतम हास्य से कोमलता एवं करुणार्द्रता का अभेद संबंध रहता है, जो कि ‘स्रष्टा’ की ‘सदाशयता’ को ही व्यक्त करता है।
विद्वेष-प्रसूत व्यंग्य हास्य से भिन्न है। हास्य तो अपने आभ्यन्तर रूप में, मानव-जीवन का करुणा का करुणार्द्र विचार या ‘दर्शन’ है और उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति भी है। व्यंग्य में, यदि वह विद्वेष-जन्य न हो तो भी, दूसरे की अवहेलना और उसे सुधारने की थोड़ी-बहुत इच्छा अवश्य रहती है। हाँ, यदि इसे पूर्णत: निवैयक्तिक बनाया जा सके तो यह ‘परिहास’
भी बन जाता है। और तब इसमें गम्भीर सहानुभूति आ ही जाती है चूँकि मानव-मन के सारे आवेग जीवन से ही संगृहीत होते हैं। अच्छे व्यंग्य या नाटकीय ‘प्रहसन’ में भी लोग वक्तव्य के लक्ष्य को ध्यान में रखकर अभिनेता के साथ हँसते हैं, अभिनेता पर कभी नहीं हँसते।
‘प्रहसन’ का आदिस्रोत इसी अन्तर्विरोध में है कि आदमी अमरता की अभिलाषा तो रखता है परन्तु सीमित शक्तिशाली पाँच-पाँच इन्द्रियों के संघात शरीर पर निर्भर करता है; अत: सत्य, सौन्दर्य और कल्याण के बारे में उसकी सारी अनुभूतियाँ असीम कैसे हो सकती हैं ? अपने अनजाने में ही आदमी नियति के इस विधान से कुछ परेशान और परवाह-सा होकर हँस पड़ता है। जैसे-जैसे वह जीवन की आधारभूत या मूल स्थितियों को जानता है वैसे-वैसे सामाजिकता के प्रति सचेत होता
है। दूसरों के साथ अधिकतर संपर्क होने पर ही सामाजिक विश्वास और अनुराग बढ़ते हैं और अभी जीवन की मूलभूत परिस्थितियों से मजा लेने की स्वस्थ मनोवृत्ति उदित हो पाती है। यही वजह है कि हम दूसरों की उपस्थिति में भी ज्यादा हँस पाते हैं, अकेले में बहुत ही कम (हास्य-रसात्मक साहित्य को पढ़ते वक्त अकेले में हँसना बिलकुल दूसरी बात है) ! हास्य-कौतुक और व्यंग्य-विनोद का विस्तार भाँति-भाँति के लोगों के एकत्र होने पर ही अधिक होता है, विशेषत: जबकि उनकी मानवीयता घनी हो चली हो और आपसी भेद-भाव प्राय: मिट गए हों।
हास्य ‘सर्व-जन-सवेद्य’ तभी होता है जबकि वह केवल दर्शक या श्रोता और पाठक की बुद्धि के प्रति ही आवेदन नहीं करता, बल्कि उसके हृदय को भी आलोड़ित और अप्रत्यक्ष रूप से आन्दोलित कर डालता है। केवल बुद्धि के प्रति विहित आवेदन, जो कि विचार-वैदग्ध्य और वाक्चातुर्य एवं कलात्मक वैशिष्ट्य लिए रहता है, अपनी परिष्कृत रुचि और चमत्कार से एक तरह की खुशी से जी भर तो देता है पर मन और शरीर में प्रशस्त और आवेगपूर्ण प्रफुल्लता नहीं ला पाता, वह तो ‘प्रकृत हास्य’ द्वारा ही सम्पन्न होता है। शायद मुस्कान और उच्च हास्य में भी ऐसा ही कुछ भेद है।
हास्य की उपलब्धि कविता, नाटक, उपन्यास, कहानी, व्यंग्य चित्र, चुटकुले आदि कितनी ही शिल्प और साहित्य की विधाओं द्वारा हो सकती है। कहानी के माध्यम की अपनी सीमाएँ हैं, अत: हास्य-रस का यह नूतन कलश सिर्फ उन्हीं को आनन्दान्वित कर सकेगा जिनकी मन:स्थिति में हास्य के सभी प्रभेद समा सकते हैं, उन्हें नहीं जो ‘ग़ालिब’ का यह शेर ही दुहारते रहते हैं-
‘‘आगे आती थी हाले दिल पे हँसी,
अब किसी बात पर नहीं आती।
अब किसी बात पर नहीं आती।
अपने इस कहानी-संग्रह को वास्तव में ‘प्रतिनिधि’ रूप
देने के
लिए हमने पिछले सौ वर्ष के समूचे बंगाली जीवन पर व्यापक दृष्टिपात कर यह
संकलन किया है। अब यह निर्णय तो आपके ही अधीन है कि हम इसमें कहाँ तक सफल
हैं।
हमारा विश्वास है कि इस संकलन की सारी कहानियाँ बंगाली जीवन के ‘कोमल-करुण’ पक्ष को एक बड़ी हद तक सामने रख देती हैं।
किसी भी संकलन की सारी रचनाएँ सबको अच्छी लगेंगी, यह सोचना हमारे लिए तो क्या किसी भी समझदार व्यक्ति के लिए ‘हिमाक़त’ ही है। हमने इस संकलन में सभी रुचियों को सन्तुष्ट करने की भरसक कोशिश की है। कुछ रचनाएँ तो लेखकों के अपने चुनाव हैं, जिनसे थोड़ा मतभेद होने पर भी हमने उन्हीं को संकलित किया है।
और भी एक बात है।
बँगला गद्य का प्रारम्भ से अब तक के साहित्य में से श्रेष्ठ रचनाओं का संकलन ही हमें अभीष्ट नहीं था, कारण ‘श्रेष्ठ’ ही पूर्ण यथार्थ ‘प्रतिनिधित्व’ करे यह हम नहीं मान सके। इसीलिए उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में प्रणीत बंकिमचन्द्र चटर्जी और कालीप्रसन्न सिंह, त्रैलोक्यनाथ मुखर्जी और रवीन्द्रनाथ ठाकुर, अवनीन्द्रनाथ ठाकुर और प्रमथनाथ चौधरी की रचनाएँ भी यहाँ संकलित हैं। ये तात्कालिक बंगाली जीवन के हास्य-व्यंग्य पक्ष को भली-भाँति दर्शा देती हैं।
जैसा कि पहले ही निवेदन किया है, हास्य (Homour) से हमारा आशय उन सभी मन:स्थितियों से है जिन्हें कि हास्य-रंग, हँसी ठट्ठा, कौतुक, मस्खरापन या मज़ाकियापन, विनोद, रसिकता आदि शब्दों में साहित्य में व्यक्त किया जाता है। अंग्रेजी में भी Humour शब्द में irony, satire, fun, jokes, pleasantary, jest, wit, ridicule आदि द्वारा व्यक्त सारी मन:स्थितियाँ किसी न किसी रूप में शामिल रहती हैं। कहना न होगा कि अंग्रेजी की ‘ह्यूमर’ (हास्यरस)- विषयक धारणाओं से ही अर्वाचीन बँगला-हास्य-साहित्य बहुत प्रभावित है। अत: प्रस्तुत संकलन की कुछ रचनाएँ पढ़कर आपको हँसी आए तो कोई आश्चर्य नहीं, चूँकि सारी परिस्थितियाँ एवं मन:स्थितियाँ सबके लिए कभी हास्यकार नहीं हो पातीं।
संकलित रचनाएँ लेखकों की जन्म-तिथि के क्रमानुसार संग्रहीत हैं। कुछ कारणों से अकारादिक्रम का अनुसरण नहीं किया गया। परन्तु एक ही वर्ष में जन्म-प्राप्त लेखकों में पहले महिमा-लेखक और फिर पुरुष-लेखक अकारदिक्रम से ही संगृहीत हैं। अत: सम्पादकों पर आगे-पीछे रचनाएँ देने में किसी विशिष्ट आदर या महत्त्व सिद्ध करने की मनोवृत्ति का आरोप सर्वथा अवांछनीय है।
हमें दु:ख है कि बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध की रचनाओं का पूर्णत: प्रतिनिधित्व नहीं हो सका। दो-तीन और लेखकों की रचनाएँ भी इस संकलन में अवश्य जानी चाहिए थीं। हमारा इन ‘असहयोगी’ बन्धुओं से विनम्र निवेदन है कि हम उनकी रचनाएँ प्रकाशित करना चाहते थे, बशर्ते कि वे हमारे साधनों की ओर ध्यान रखकर आपनी माँग कम कर सकते। हम यह नहीं चाहते कि वे सब बातें यहाँ लिखी जाएँ जो कि इस इच्छा की पूर्ति में अनिवार्य विघ्न बनीं थीं और आज भी बाधाओं के रूप में ही मौजूद हैं। इन्हें दूर कर सकना उन वरेण्य लेखकों की सदिच्छा पर ही निर्भर करता है, जिनके प्रति हमारा यह विनम्र निवेदन है।
हिन्दी के प्रबुद्ध पाठकों की जानकारी के लिए यहाँ बँगला के हास्य-रसात्मक साहित्य का एक अति संक्षिप्त-सा परिचय दिया जा रहा है। इसे दूसरी किसी दृष्टि से न देखा जाए तो हम अनुगृहीत रहेंगे।
बँगला के विद्वानों का कथन है कि बँगला में प्रथम हास्य-रचना की थी भवानीचरण बन्द्योपाध्याय (प्रमथनाथ शर्मा) ने। इनकी कुछ परवर्ती रचनाएँ ‘कलिकाता कमलालय’, ‘नव-बाबू-विलास’, ‘नव-बीबी-विलास’ आदि रचनाएँ तत्कालीन बंग जीवन की व्यंग्यप्रियता को व्यक्त करती हैं। तत्कालीन बंगालियों में धनिकों की कुरुचि एवं सामाजिक विकृतियों पर कुठाराघात करते-करते भवानी बाबू ने शायद अपना सन्तुलन भी कुछ खो दिया था, अत: उनके हास्य-व्यंग्य में कटुता ही अधिक मिलती है, विशुद्ध परिहासप्रियता नहीं।
मानव के दम्भ और पाखण्ड एक ही साथ लज्जास्पद और हास्योत्पादक होते हैं। शठता, कपट, निष्ठुरता, हृदयहीनता और कापुरुषता भी तो इसलिए खिल्ली उड़ाने लायक ही हैं, पर मर्यादा-बोध का अतिक्रमण कभी नहीं होना चाहिए। इस तत्त्व की ओर तत्कालीन साहित्यिक लेखकों ने शायद ध्यान नहीं दिया था, इसीलिए उक्त रचनाओं के अतिरिक्त योगेशचन्द्र की ‘मौडेल भगिनी’ आदि रचनाएँ भी विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं कही जा सकतीं। इसके बाद ताराचाँद की ‘आलालेर घरे दुलाल’ मधुसूदन की ‘एकेई वले सभ्यता’, ‘बूडो शालिकेर घाड़े राँ’ आदि कृतियों में परम्परावादियों पर और ईश्वरचन्द्र गुप्त की रचनाओं में विद्यासागर (‘चूनागली फिरंगी’, ‘भाटवाड़ार भट्टाचार्य’) और झाँसी की रानी आदि सभी व्यंग्यपूर्ण ‘आक्रमण’ ही अधिक हुआ, हास्य-रस के उद्रेक के लिए स्पष्ट प्रयत्न नहीं हो सका।
दीनबन्धु और बंकिमचन्द्र परवर्ती साहित्यकार हैं जो इसी परिपाटी को आगे बढ़ाते नज़र आते हैं। ‘सधवार एकादशी’, ‘जमाई वारिक’, ‘कुलीन कुल-सर्वस्व’, ‘नीलदर्पण’, ‘लोक-रहस्य’, ‘मुचिराम गुईर जीवन-चरित’, ‘कमलाकान्तेर दफ्तर’ आदि उल्लेखनीय रचनाएं हैं जिनमें ‘आक्रमण’ का तीखापन तो था ही, पर साथ ही व्यंग्य-रुचि भी कुछ-कुछ परिमार्जित हो चली थी। इसी युग में हरिदास हलदार (1832-1934) की ‘गोवर-गनेश की गवेषणा’, ‘अल्लाहोमातरम्’ आदि कृतियाँ भी आती हैं, जिनमें कि स्वादेशिकता, धर्म, कानून, गुरु और भगवे कपड़े ऋषि-सिद्धि, अवस्था-व्यवस्था, गाय की हड्डी से ‘रिफाइण्ड’ नमक, सूअर के खून से ‘रिफाइण्ड शूगर’ आदि जैसी चर्चाएँ है। यहीं ‘बक्केश्वर बेआ कूबि’ भी उल्लेखनीय है, यद्यपि यह सन् 1921 में प्रकाशित हुई थी।
परवर्ती युग में, उपेन्द्रकिशोर रायचौधरी (1863-1915) की ‘आनन्देर भाण्डार’, ‘पुरातन लेखा’, ‘खूँतधरा छेले’, ‘पाका फलार’, ‘लाल सूतो, नील सूतो’, ‘बेचाराम केनाराज’ तथा केदारनाथ बन्द्योपाध्याय (1861-1949) या ‘नन्दी शर्मा’ के कहानी-उपन्यास, जिसमें कि घटनाएं द्वारा मानव-हृदय और मानवीय चरित्र के द्वन्द्वों का संघात और उसका विकास भी प्रदर्शित है, उल्लेखनीय हैं। रजनीकान्त सेन (1868-1910) की ‘कल्याणी’ और योगीन्द्रनाथ सरकरा (1867-1931) का शिशु-साहित्य (हँसी खुशी, हाँसो राशि, हिजिविजि, मजार गल्प), ललितकुमार बन्द्योपाध्याय (1868-1929) के निबन्ध और चुटकुले, प्रमथ चौधरी (1868-1946) या ‘बीरबल’ की ‘फूलदानी’ और ‘निरवच्छिन्न संग्राम’, सभय लाहा (1869-1929) की कविताएँ और अवीन्द्रनाथ ठाकुर की ‘भूतपत्री’ और ‘बूड़ो आंग्ला’ आदि रचनाएँ भी गणनीय हैं। इनमें हास्य-साहित्य शिल्प का भी विकास हुआ है और विषय-वस्तु का विस्तार भी है।
इनके बाद प्रभात मुखर्जी (1873-1932) की कहानियाँ और उपन्यास सामने आते हैं। इनमें मानसिक द्वन्द्व और मनोवेगों के घात-प्रतिघात से हास्य-कौतुक की हृद्य सृष्टि के दर्शन होते हैं। शरतचन्द्र चटर्जी की रचनाओं में भी ‘यत्र-तत्र-सर्वत्र’ हास्य का पुट रहता था पर उन्हें प्रधानतया हास्य-रस के अग्रणी लेखकों में कदापि नहीं लेना चाहिए। हाँ, चारुचन्द्र बनर्जी (1811-1939) और दक्षिणारंजन मजूमदार (1911-51) के नाम पर इस दिशा में अवश्य जानने चाहिए। ‘चरीर पाटी’, ‘गोंप खेंजूर’, ‘गुणी’ और ‘ठाकुरदार झूलि’, ‘दादामशायेर दले’, ‘बांग्लार रसकथा’ आदि काफी मशहूर भी हैं।
दिवंगत श्री राजशेखर वसु ‘परशुराम’ (1880-1960) के हाथों बँगला में हास्य-रसात्मक साहित्य की सुदृढ़ परिकल्पना शुरू हुई थी। चरित्र-सृष्टि, परिष्कृत रुचि, सौन्दर्य-भावना, तीक्ष्ण–पर्यवेक्षण में प्रखर व्युत्पत्ति, युक्तिनिष्ठ निरपेक्ष या
पक्षपात-हीन प्रतिभा, और सहज कौतुक-बोध श्री वसु के साहित्य की विशेषताएँ हैं। उनकी शैली यथार्थवाद का दम नहीं भरती, पर्याप्त अतिरंजना का आश्रय भी लेती है, परन्तु इसे विषेशता के साथ कहीं पर भी यथार्थ चरित्र, वास्तविक आचरण, संलाप और चारित्रिक दुर्बलताओं के निरुपण में ‘असंगति’ नहीं आती। राजशेखर वसु सत्यदर्शी और रसस्रष्टा-एक साथ दोनों ही-थे। उनमें एक विशिष्ट हास्य-कौतुकमयी अभिज्ञता या हास्य-रस-बोध (sense of humour) था जो कि उनके हास्यरसात्मक चरित्र, कौतुकभरी परिस्थिति, घटना और संलापों को अनुप्राणित किए रहता है। उसके व्यंग्य व्यक्तिगत विद्रूप की संकीर्णता में सीमित नहीं थे, किसी पर निर्मम आघात नहीं बल्कि परिहास-प्रवणता ही उनका लक्ष्य था। इनकी हास्यरसात्मक प्रसिद्ध रचनाएँ ये हैं - ‘गल्प-कल्प’, ‘धुस्तरीमाया’, ‘कृष्णकलि’, ‘नील तारा’, ‘आनन्दी बाई’, ‘चमत्कुमारी’।
सत्येन्द्रनाथ दत्त (1882-1922), सतीशचन्द्र घटक (1885-1931), सुकुमार रायचौधरी, सविनय राय (1890-1947), रवीन्द्रनाथ मैत्र (दिवाकर शर्मा), सुनिर्मल वसु (1902-51), मनोरंजन भट्टाचार्य (1904-39), क्षितीन्द्रनारायण, यतीन्द्रकुमार सेन, सौरीन्द्रमोहन मुखर्जी, डा. वनबिहारी मुखोपाध्याय, प्रेमांकुर आतर्थी, केदारनाथ चटर्जी, सुविमल राय, परिमल गोस्वामी, बनफूल, विभूतिभूषण मुखोपाध्याय, सजनीकान्त दास, प्रमथमनाथ विशी, अमरकान्त वक्षी, अन्नदाशंकर राय, प्रेमेन्द्र मित्र, डा. सैयद मुजतबा अली, प्रभातमोहन बनर्जी, शिवराम चक्रवर्ती, विमलप्रसाद मुखर्जी, रवीन्द्रलाल राय, सुनीलचन्द्र सरकार, प्रमदारंजन राय, श्रीमती लीला मजूमदार, सुबोध वसु, वीरेन्द्र भद्र, विधायक भट्टाचार्य, संबुद्ध, कामाक्षीप्रसाद चट्टोपाध्याय, नारायण गंगोपाध्याय, चंचलकुमार बागची, अमलेन्द्र चक्रवर्ती, गौरकिशोर घोष, दीपेन्द्रकुमार सान्याल, ज्ञानेन्द्रनाथ बागची, विनय घोष आदि कितने ही हस्ताक्षर भी आज के बँगला साहित्य में और उसके हास्य-रस-परिवेषण में अपना स्थान बना चुके हैं।
इनमें से कुछ लेखकों का हमें पूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ, इसके लिए हमें हर्ष है और हम उनके प्रति आभारी हैं। परन्तु कुछ लेखकों की रचनाएँ हम इच्छा करने पर भी नहीं ले सके हैं, इस बारे में पहले ही निवेदन कर चुके हैं। सम्भव है आगामी संस्करणों में यह इच्छा पूरी हो सके।
हम उन सबके के प्रति कृतज्ञ हैं जिनके परामर्श और सहयोग से यह कार्य समाप्त हुआ। इनमें सर्वश्री सागरमय घोष, विमल मित्र, मणिशंकर मुखर्जी और श्रीमती मीरा मल्लिक के हम विशेष रूप से आभारी हैं। अनुवाद-कार्य सर्वश्री दत्तात्रेय बामनराव मोरे, ठाकुरप्रसाद पांडे, प्रसून मित्र, ‘दिनेश’ और मोहन मिश्र ने किया और उदाहरण-चित्र सर्वश्री अजित गुप्त, मानिक सरकार तथा गणेश पाइन ने बनाये हैं। हम इन शिल्पियों का यथेष्ट अभिनन्दन करते हैं, कारण, हास्य-रसात्मक सफल उदाहरण-चित्र-निर्माण कोई ‘हँसी-खेल’ या मजाक नहीं है !
‘आत्माराम एण्ड संस’ के संचालक श्री रामलाल पुरी ने सारे भारतीय वाङ्मय के विभिन्न-क्षेत्रीय प्रतिनिधि-साहित्य के प्रकाशन का जो कठिन कार्य शुरू किया है वह सचमुच प्रशंसनीय और अनुकरणीय है। आशा है, उन्हें पाठकों से समुचित प्रोत्साहन मिलेगा।
और अन्त में अब यह कहना आवश्यक समझते हैं कि इस संकलन की सम्भावित त्रुटियों के लिए केवल हम लोग ही उत्तरदायी हैं, हमारे सहयोगी नहीं। उन सबके अनुग्रह और सहयोग से ही तो यह कार्य इस रूप में सुसम्पन्न ही हुआ है।
हमारा विश्वास है कि इस संकलन की सारी कहानियाँ बंगाली जीवन के ‘कोमल-करुण’ पक्ष को एक बड़ी हद तक सामने रख देती हैं।
किसी भी संकलन की सारी रचनाएँ सबको अच्छी लगेंगी, यह सोचना हमारे लिए तो क्या किसी भी समझदार व्यक्ति के लिए ‘हिमाक़त’ ही है। हमने इस संकलन में सभी रुचियों को सन्तुष्ट करने की भरसक कोशिश की है। कुछ रचनाएँ तो लेखकों के अपने चुनाव हैं, जिनसे थोड़ा मतभेद होने पर भी हमने उन्हीं को संकलित किया है।
और भी एक बात है।
बँगला गद्य का प्रारम्भ से अब तक के साहित्य में से श्रेष्ठ रचनाओं का संकलन ही हमें अभीष्ट नहीं था, कारण ‘श्रेष्ठ’ ही पूर्ण यथार्थ ‘प्रतिनिधित्व’ करे यह हम नहीं मान सके। इसीलिए उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में प्रणीत बंकिमचन्द्र चटर्जी और कालीप्रसन्न सिंह, त्रैलोक्यनाथ मुखर्जी और रवीन्द्रनाथ ठाकुर, अवनीन्द्रनाथ ठाकुर और प्रमथनाथ चौधरी की रचनाएँ भी यहाँ संकलित हैं। ये तात्कालिक बंगाली जीवन के हास्य-व्यंग्य पक्ष को भली-भाँति दर्शा देती हैं।
जैसा कि पहले ही निवेदन किया है, हास्य (Homour) से हमारा आशय उन सभी मन:स्थितियों से है जिन्हें कि हास्य-रंग, हँसी ठट्ठा, कौतुक, मस्खरापन या मज़ाकियापन, विनोद, रसिकता आदि शब्दों में साहित्य में व्यक्त किया जाता है। अंग्रेजी में भी Humour शब्द में irony, satire, fun, jokes, pleasantary, jest, wit, ridicule आदि द्वारा व्यक्त सारी मन:स्थितियाँ किसी न किसी रूप में शामिल रहती हैं। कहना न होगा कि अंग्रेजी की ‘ह्यूमर’ (हास्यरस)- विषयक धारणाओं से ही अर्वाचीन बँगला-हास्य-साहित्य बहुत प्रभावित है। अत: प्रस्तुत संकलन की कुछ रचनाएँ पढ़कर आपको हँसी आए तो कोई आश्चर्य नहीं, चूँकि सारी परिस्थितियाँ एवं मन:स्थितियाँ सबके लिए कभी हास्यकार नहीं हो पातीं।
संकलित रचनाएँ लेखकों की जन्म-तिथि के क्रमानुसार संग्रहीत हैं। कुछ कारणों से अकारादिक्रम का अनुसरण नहीं किया गया। परन्तु एक ही वर्ष में जन्म-प्राप्त लेखकों में पहले महिमा-लेखक और फिर पुरुष-लेखक अकारदिक्रम से ही संगृहीत हैं। अत: सम्पादकों पर आगे-पीछे रचनाएँ देने में किसी विशिष्ट आदर या महत्त्व सिद्ध करने की मनोवृत्ति का आरोप सर्वथा अवांछनीय है।
हमें दु:ख है कि बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध की रचनाओं का पूर्णत: प्रतिनिधित्व नहीं हो सका। दो-तीन और लेखकों की रचनाएँ भी इस संकलन में अवश्य जानी चाहिए थीं। हमारा इन ‘असहयोगी’ बन्धुओं से विनम्र निवेदन है कि हम उनकी रचनाएँ प्रकाशित करना चाहते थे, बशर्ते कि वे हमारे साधनों की ओर ध्यान रखकर आपनी माँग कम कर सकते। हम यह नहीं चाहते कि वे सब बातें यहाँ लिखी जाएँ जो कि इस इच्छा की पूर्ति में अनिवार्य विघ्न बनीं थीं और आज भी बाधाओं के रूप में ही मौजूद हैं। इन्हें दूर कर सकना उन वरेण्य लेखकों की सदिच्छा पर ही निर्भर करता है, जिनके प्रति हमारा यह विनम्र निवेदन है।
हिन्दी के प्रबुद्ध पाठकों की जानकारी के लिए यहाँ बँगला के हास्य-रसात्मक साहित्य का एक अति संक्षिप्त-सा परिचय दिया जा रहा है। इसे दूसरी किसी दृष्टि से न देखा जाए तो हम अनुगृहीत रहेंगे।
बँगला के विद्वानों का कथन है कि बँगला में प्रथम हास्य-रचना की थी भवानीचरण बन्द्योपाध्याय (प्रमथनाथ शर्मा) ने। इनकी कुछ परवर्ती रचनाएँ ‘कलिकाता कमलालय’, ‘नव-बाबू-विलास’, ‘नव-बीबी-विलास’ आदि रचनाएँ तत्कालीन बंग जीवन की व्यंग्यप्रियता को व्यक्त करती हैं। तत्कालीन बंगालियों में धनिकों की कुरुचि एवं सामाजिक विकृतियों पर कुठाराघात करते-करते भवानी बाबू ने शायद अपना सन्तुलन भी कुछ खो दिया था, अत: उनके हास्य-व्यंग्य में कटुता ही अधिक मिलती है, विशुद्ध परिहासप्रियता नहीं।
मानव के दम्भ और पाखण्ड एक ही साथ लज्जास्पद और हास्योत्पादक होते हैं। शठता, कपट, निष्ठुरता, हृदयहीनता और कापुरुषता भी तो इसलिए खिल्ली उड़ाने लायक ही हैं, पर मर्यादा-बोध का अतिक्रमण कभी नहीं होना चाहिए। इस तत्त्व की ओर तत्कालीन साहित्यिक लेखकों ने शायद ध्यान नहीं दिया था, इसीलिए उक्त रचनाओं के अतिरिक्त योगेशचन्द्र की ‘मौडेल भगिनी’ आदि रचनाएँ भी विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं कही जा सकतीं। इसके बाद ताराचाँद की ‘आलालेर घरे दुलाल’ मधुसूदन की ‘एकेई वले सभ्यता’, ‘बूडो शालिकेर घाड़े राँ’ आदि कृतियों में परम्परावादियों पर और ईश्वरचन्द्र गुप्त की रचनाओं में विद्यासागर (‘चूनागली फिरंगी’, ‘भाटवाड़ार भट्टाचार्य’) और झाँसी की रानी आदि सभी व्यंग्यपूर्ण ‘आक्रमण’ ही अधिक हुआ, हास्य-रस के उद्रेक के लिए स्पष्ट प्रयत्न नहीं हो सका।
दीनबन्धु और बंकिमचन्द्र परवर्ती साहित्यकार हैं जो इसी परिपाटी को आगे बढ़ाते नज़र आते हैं। ‘सधवार एकादशी’, ‘जमाई वारिक’, ‘कुलीन कुल-सर्वस्व’, ‘नीलदर्पण’, ‘लोक-रहस्य’, ‘मुचिराम गुईर जीवन-चरित’, ‘कमलाकान्तेर दफ्तर’ आदि उल्लेखनीय रचनाएं हैं जिनमें ‘आक्रमण’ का तीखापन तो था ही, पर साथ ही व्यंग्य-रुचि भी कुछ-कुछ परिमार्जित हो चली थी। इसी युग में हरिदास हलदार (1832-1934) की ‘गोवर-गनेश की गवेषणा’, ‘अल्लाहोमातरम्’ आदि कृतियाँ भी आती हैं, जिनमें कि स्वादेशिकता, धर्म, कानून, गुरु और भगवे कपड़े ऋषि-सिद्धि, अवस्था-व्यवस्था, गाय की हड्डी से ‘रिफाइण्ड’ नमक, सूअर के खून से ‘रिफाइण्ड शूगर’ आदि जैसी चर्चाएँ है। यहीं ‘बक्केश्वर बेआ कूबि’ भी उल्लेखनीय है, यद्यपि यह सन् 1921 में प्रकाशित हुई थी।
परवर्ती युग में, उपेन्द्रकिशोर रायचौधरी (1863-1915) की ‘आनन्देर भाण्डार’, ‘पुरातन लेखा’, ‘खूँतधरा छेले’, ‘पाका फलार’, ‘लाल सूतो, नील सूतो’, ‘बेचाराम केनाराज’ तथा केदारनाथ बन्द्योपाध्याय (1861-1949) या ‘नन्दी शर्मा’ के कहानी-उपन्यास, जिसमें कि घटनाएं द्वारा मानव-हृदय और मानवीय चरित्र के द्वन्द्वों का संघात और उसका विकास भी प्रदर्शित है, उल्लेखनीय हैं। रजनीकान्त सेन (1868-1910) की ‘कल्याणी’ और योगीन्द्रनाथ सरकरा (1867-1931) का शिशु-साहित्य (हँसी खुशी, हाँसो राशि, हिजिविजि, मजार गल्प), ललितकुमार बन्द्योपाध्याय (1868-1929) के निबन्ध और चुटकुले, प्रमथ चौधरी (1868-1946) या ‘बीरबल’ की ‘फूलदानी’ और ‘निरवच्छिन्न संग्राम’, सभय लाहा (1869-1929) की कविताएँ और अवीन्द्रनाथ ठाकुर की ‘भूतपत्री’ और ‘बूड़ो आंग्ला’ आदि रचनाएँ भी गणनीय हैं। इनमें हास्य-साहित्य शिल्प का भी विकास हुआ है और विषय-वस्तु का विस्तार भी है।
इनके बाद प्रभात मुखर्जी (1873-1932) की कहानियाँ और उपन्यास सामने आते हैं। इनमें मानसिक द्वन्द्व और मनोवेगों के घात-प्रतिघात से हास्य-कौतुक की हृद्य सृष्टि के दर्शन होते हैं। शरतचन्द्र चटर्जी की रचनाओं में भी ‘यत्र-तत्र-सर्वत्र’ हास्य का पुट रहता था पर उन्हें प्रधानतया हास्य-रस के अग्रणी लेखकों में कदापि नहीं लेना चाहिए। हाँ, चारुचन्द्र बनर्जी (1811-1939) और दक्षिणारंजन मजूमदार (1911-51) के नाम पर इस दिशा में अवश्य जानने चाहिए। ‘चरीर पाटी’, ‘गोंप खेंजूर’, ‘गुणी’ और ‘ठाकुरदार झूलि’, ‘दादामशायेर दले’, ‘बांग्लार रसकथा’ आदि काफी मशहूर भी हैं।
दिवंगत श्री राजशेखर वसु ‘परशुराम’ (1880-1960) के हाथों बँगला में हास्य-रसात्मक साहित्य की सुदृढ़ परिकल्पना शुरू हुई थी। चरित्र-सृष्टि, परिष्कृत रुचि, सौन्दर्य-भावना, तीक्ष्ण–पर्यवेक्षण में प्रखर व्युत्पत्ति, युक्तिनिष्ठ निरपेक्ष या
पक्षपात-हीन प्रतिभा, और सहज कौतुक-बोध श्री वसु के साहित्य की विशेषताएँ हैं। उनकी शैली यथार्थवाद का दम नहीं भरती, पर्याप्त अतिरंजना का आश्रय भी लेती है, परन्तु इसे विषेशता के साथ कहीं पर भी यथार्थ चरित्र, वास्तविक आचरण, संलाप और चारित्रिक दुर्बलताओं के निरुपण में ‘असंगति’ नहीं आती। राजशेखर वसु सत्यदर्शी और रसस्रष्टा-एक साथ दोनों ही-थे। उनमें एक विशिष्ट हास्य-कौतुकमयी अभिज्ञता या हास्य-रस-बोध (sense of humour) था जो कि उनके हास्यरसात्मक चरित्र, कौतुकभरी परिस्थिति, घटना और संलापों को अनुप्राणित किए रहता है। उसके व्यंग्य व्यक्तिगत विद्रूप की संकीर्णता में सीमित नहीं थे, किसी पर निर्मम आघात नहीं बल्कि परिहास-प्रवणता ही उनका लक्ष्य था। इनकी हास्यरसात्मक प्रसिद्ध रचनाएँ ये हैं - ‘गल्प-कल्प’, ‘धुस्तरीमाया’, ‘कृष्णकलि’, ‘नील तारा’, ‘आनन्दी बाई’, ‘चमत्कुमारी’।
सत्येन्द्रनाथ दत्त (1882-1922), सतीशचन्द्र घटक (1885-1931), सुकुमार रायचौधरी, सविनय राय (1890-1947), रवीन्द्रनाथ मैत्र (दिवाकर शर्मा), सुनिर्मल वसु (1902-51), मनोरंजन भट्टाचार्य (1904-39), क्षितीन्द्रनारायण, यतीन्द्रकुमार सेन, सौरीन्द्रमोहन मुखर्जी, डा. वनबिहारी मुखोपाध्याय, प्रेमांकुर आतर्थी, केदारनाथ चटर्जी, सुविमल राय, परिमल गोस्वामी, बनफूल, विभूतिभूषण मुखोपाध्याय, सजनीकान्त दास, प्रमथमनाथ विशी, अमरकान्त वक्षी, अन्नदाशंकर राय, प्रेमेन्द्र मित्र, डा. सैयद मुजतबा अली, प्रभातमोहन बनर्जी, शिवराम चक्रवर्ती, विमलप्रसाद मुखर्जी, रवीन्द्रलाल राय, सुनीलचन्द्र सरकार, प्रमदारंजन राय, श्रीमती लीला मजूमदार, सुबोध वसु, वीरेन्द्र भद्र, विधायक भट्टाचार्य, संबुद्ध, कामाक्षीप्रसाद चट्टोपाध्याय, नारायण गंगोपाध्याय, चंचलकुमार बागची, अमलेन्द्र चक्रवर्ती, गौरकिशोर घोष, दीपेन्द्रकुमार सान्याल, ज्ञानेन्द्रनाथ बागची, विनय घोष आदि कितने ही हस्ताक्षर भी आज के बँगला साहित्य में और उसके हास्य-रस-परिवेषण में अपना स्थान बना चुके हैं।
इनमें से कुछ लेखकों का हमें पूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ, इसके लिए हमें हर्ष है और हम उनके प्रति आभारी हैं। परन्तु कुछ लेखकों की रचनाएँ हम इच्छा करने पर भी नहीं ले सके हैं, इस बारे में पहले ही निवेदन कर चुके हैं। सम्भव है आगामी संस्करणों में यह इच्छा पूरी हो सके।
हम उन सबके के प्रति कृतज्ञ हैं जिनके परामर्श और सहयोग से यह कार्य समाप्त हुआ। इनमें सर्वश्री सागरमय घोष, विमल मित्र, मणिशंकर मुखर्जी और श्रीमती मीरा मल्लिक के हम विशेष रूप से आभारी हैं। अनुवाद-कार्य सर्वश्री दत्तात्रेय बामनराव मोरे, ठाकुरप्रसाद पांडे, प्रसून मित्र, ‘दिनेश’ और मोहन मिश्र ने किया और उदाहरण-चित्र सर्वश्री अजित गुप्त, मानिक सरकार तथा गणेश पाइन ने बनाये हैं। हम इन शिल्पियों का यथेष्ट अभिनन्दन करते हैं, कारण, हास्य-रसात्मक सफल उदाहरण-चित्र-निर्माण कोई ‘हँसी-खेल’ या मजाक नहीं है !
‘आत्माराम एण्ड संस’ के संचालक श्री रामलाल पुरी ने सारे भारतीय वाङ्मय के विभिन्न-क्षेत्रीय प्रतिनिधि-साहित्य के प्रकाशन का जो कठिन कार्य शुरू किया है वह सचमुच प्रशंसनीय और अनुकरणीय है। आशा है, उन्हें पाठकों से समुचित प्रोत्साहन मिलेगा।
और अन्त में अब यह कहना आवश्यक समझते हैं कि इस संकलन की सम्भावित त्रुटियों के लिए केवल हम लोग ही उत्तरदायी हैं, हमारे सहयोगी नहीं। उन सबके अनुग्रह और सहयोग से ही तो यह कार्य इस रूप में सुसम्पन्न ही हुआ है।
-सम्पादक
भू-धातु
आधुनिक बँगला-साहित्य के इतिहास में अग्रणी। कहानीकार, औपन्यासिक निबंध
लेखक और सुविचारक। ‘दुर्गेशनंदनी’,
‘अंगुरीय
विनिमय’, ‘कपाल कुण्डला’,
‘मृणालिनी’,
‘विषवृक्ष’, ‘चन्द्रशेखर’,
‘रजनी’,
‘कृष्णकान्तेर बिल’, ‘राजसिंह’,
‘आनन्द
मठ’, ‘देवी चौधरानी’,
‘सीताराम’,
‘कमलाकान्त’, ‘धर्मतत्त्व’ एवं
‘कृष्णचरित’ के रचियता। इतिहास, रोमांस, राजनीति और
धर्म के
मिश्रण से कथावस्तु में सरसता और भाषा के सन्तुलित प्रयोग से शैली में ओज
और सौष्ठवता लानेवाले सफल साहित्यिक। यहाँ प्रकाशित कहानी में भी सरल-सहज
और कौतुकप्रियता व्यक्त हुई है। प्राय: सारी भारतीय भाषाओं में इनका
साहित्य अनूदित हुआ है। अपने परिवर्ती लेखकों को काफी प्रभावित भी किया है।
रिम-झिम, रिम-झिम वर्षा में गाँव में गाँव के दगरे से छाता लगाए मैं गुजर रहा था। एकाएक वर्षा ने जोर पकड़ लिया। ठहरने के लिए मैं सड़क के किनारे एक झोपड़ी के नीचे जा खड़ा हुआ। अन्दर बैठे लड़के किताब पड़ रहे थे। कोने में बैठे पंडितजी उन्हें बँगला पढ़ रहे थे। मैं बाहर खड़ा-खड़ा उनका पढ़ाना सुनता रहा। व्याकरण से पंडितजी को शायद विशेष अनुराग था।
पंडितजी ने एक लड़के से पूछा, ‘‘अच्छा बताओ तो भू धाति के बाद ‘क्त’ प्रत्यय का योग करें तो क्या रूप होगा ?’’
स्थूल-बुद्धि छात्र का नाम भी वैसा ही था, ‘बुद्धू !’
बुद्धू ने सोच-विचारकर जवाब दिया, ‘‘जी भू धातु के बाद ‘क्त’ प्रत्यय का योग करें ‘भुक्त’ होगा।’’
छात्र की मूर्खता से असन्तुष्ट हो पंडितजी ने उसे रासभ, परममूढ़ आदि संस्कृत शब्दों द्वारा ‘असंस्कृत’ कर दिया।
बुद्धू भी ज़रा नाराज़ हुआ, उसने पूछा, ‘‘अच्छा पंडितजी, ‘भुक्त’ शब्द क्या ठीक नहीं है ?’’
पंडितजी-है क्यों नहीं ? पर ‘भुक्त’ शब्द कैसे बना है, तू क्या नहीं जानता ?
छात्र-जी, जानता क्यों नहीं ? अच्छी तरह चबा-चबाकर निगलने से ‘भुक्त’ बनता है।
पंडितजी-बदतमीज़, बन्दर। यही पूछ रहा हूँ ?
रिम-झिम, रिम-झिम वर्षा में गाँव में गाँव के दगरे से छाता लगाए मैं गुजर रहा था। एकाएक वर्षा ने जोर पकड़ लिया। ठहरने के लिए मैं सड़क के किनारे एक झोपड़ी के नीचे जा खड़ा हुआ। अन्दर बैठे लड़के किताब पड़ रहे थे। कोने में बैठे पंडितजी उन्हें बँगला पढ़ रहे थे। मैं बाहर खड़ा-खड़ा उनका पढ़ाना सुनता रहा। व्याकरण से पंडितजी को शायद विशेष अनुराग था।
पंडितजी ने एक लड़के से पूछा, ‘‘अच्छा बताओ तो भू धाति के बाद ‘क्त’ प्रत्यय का योग करें तो क्या रूप होगा ?’’
स्थूल-बुद्धि छात्र का नाम भी वैसा ही था, ‘बुद्धू !’
बुद्धू ने सोच-विचारकर जवाब दिया, ‘‘जी भू धातु के बाद ‘क्त’ प्रत्यय का योग करें ‘भुक्त’ होगा।’’
छात्र की मूर्खता से असन्तुष्ट हो पंडितजी ने उसे रासभ, परममूढ़ आदि संस्कृत शब्दों द्वारा ‘असंस्कृत’ कर दिया।
बुद्धू भी ज़रा नाराज़ हुआ, उसने पूछा, ‘‘अच्छा पंडितजी, ‘भुक्त’ शब्द क्या ठीक नहीं है ?’’
पंडितजी-है क्यों नहीं ? पर ‘भुक्त’ शब्द कैसे बना है, तू क्या नहीं जानता ?
छात्र-जी, जानता क्यों नहीं ? अच्छी तरह चबा-चबाकर निगलने से ‘भुक्त’ बनता है।
पंडितजी-बदतमीज़, बन्दर। यही पूछ रहा हूँ ?
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लोगों की राय
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