स्वास्थ्य-चिकित्सा >> औषधीय पौधे औषधीय पौधेसुधांशु कुमार जैन
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प्रकृति के द्वारा प्रदान किये गये औषधीय पौधे अथवा (दवा के रूप में प्रयोग मे लाये जाने वाले पौधे)
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
औषधि तथा शल्य चिकित्सा (सर्जरी) का इतिहास कदाचित उतना ही पुराना है,
जितना मानव का। किन्तु प्रागैतिहासिक काल में घटनाओं को लिपिबद्ध करने का
साधन न होने से आज हमें यह ज्ञात नहीं है कि रोग और उसके निवारण के विषय
में आरंभ से मानव की क्या धारणाएं या साधन थे। जब से घटनाओं के प्रमाण
मिलते हैं, यह ज्ञात होता है कि पुरातन काल में, अन्य विद्याओं की भांति,
रोग के निदान एवं निवारण की विद्या का भी अनेक नक्षत्रों, ऋतुओं एवं दैवी
शक्तियों से घनिष्ठ संबंध समझा जाता था, इसलिए चिकित्सा एवं परिचर्या के
साथ साथ देवी-देवता, धर्म तथा अंधविश्वास आदि अनेक रूढ़ियाँ चिकित्सा का
एक आवश्यक अंग-सा बन गई थीं। फिर भी, किसी न किसी प्रकार की वास्तविक
चिकित्सा एवं परिचर्या रोग-निवारण के साधन अवश्य रही होगी यह निश्चित है।
जब कभी आज के वैज्ञानिक युग के मानव की चिर अतृप्त जिज्ञासा ने भूतकाल की
गहराइयों में दृष्टि डाली है, तभी से पुरातन काल की घटनाओं के
लिखित, अर्द्धलिखित या अलिखित कुछ न कुछ प्रमाण मिल ही गये हैं। और ये सभी
हमारे पूर्वजों की (उस परिस्थिति में) योग्यता, दूरदर्शिता एवं पुरुषार्थ
भरे इतिहास के रोचक पृष्ठ हैं।
भारतवर्ष में रोग निवारण के लिए पौधों के प्रयोग का कदाचित सर्वप्रथम वर्णन ऋग्वेद में मिलता है। ऋग्वेद में सूत्रों में वर्णित अनेक औषधियों के नाम तो इतने शुद्ध और स्पष्ट हैं कि आज भी उन नामों से पौधों को भली भांति पहचान सकते हैं, जैसे-सेमल, पीपल, पलास तथा पिठवन। किंतु ऋग्वेद में प्राय: औषधियों के विषय में अधिक विवरण नहीं है। अथर्ववेद में अधिक विस्तारपूर्वक वर्णन है। ऋग्वेद का रचना काल लगभग 3,500-1,800 वर्ष ईसा पूर्व बताते हैं। वेदों की रचना के बाद लगभग 1,000 वर्ष तक इस विद्या की उन्नति का कोई प्रमाण नहीं है। उसके पश्चात चरक और सुश्रुत के भारतीय वनौषधि पर दो अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ- चरक संहिता एवं सुश्रुत संहिता-सामने आये। चरक संहिता में लगभग 700 औषधियों का वर्णन है, इनमें से कुछ पौधे भारतीय नहीं थे। सुश्रुत संहिता में शल्य चिकित्सा (सर्जरी) का वर्णन है। सुश्रुत को विदेशी वैज्ञानिकों ने भी बहुत मान्यता दी है। वे स्वीकार करते हैं कि भारत में शायद ‘प्लास्टिक सर्जरी’ की प्रथा 2,000 वर्ष पहले से ही थी।
चरक के समय से आज तक अनेक आयुर्वेदाचार्यों, साधु महात्माओं तथा अनुसंधानकर्त्ताओं के सहयोग से भारतीय वनौषधियों की संख्या बढ़ती गई और अब लगभग 1,500 पौधों में औषधीय गुण बताये जाते हैं।
भारतीय वनौषधियों पर अनेक छोटी बड़ी पुस्तकें लिखी गई हैं। कई तो विशाल ग्रंथ हैं, जिनमें सहस्रों पृष्ठ और अनेक भाग हैं। क्योंकि कभी-कभी एक पौधे के विषय में भारत के भिन्न प्रदेशों में भिन्न भिन्न धारणायें और मान्यतायें हैं। संस्कृत के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं में भी आयुर्वेद पर पर्याप्त साहित्य लिखा गया है। सर्वश्री दत्त, जार्ज वाट, कर्नल रामनाथ चोपड़ा (तथा उनके साथी एवं शिष्यगण), के. नादकर्णी, के. कीर्तिकर, बी.डी.बसु, बी. मुखर्जी, चंद्रराज भंडारी, के. पी. बिश्वास, कृष्णप्रसाद द्विवेदी, देवीशरण गर्ग, ‘भारत की संपदा’ (वेल्थ ऑफ इंडिया) के संपादकगण आदि अनेक विद्वानों ने इस विषय के संकलन में प्रशंसनीय कार्य किया है। किंतु कुछ लेखकों ने पौधों के नाम (या सही पहचान) आदि का ठीक ध्यान न रखते हुए सामग्री संकलित कर दी है। फल यह हुआ है कि कुछ पौधों पर तो इसके अतिरिक्त औषधीय गुण थोपे गये हैं मानो वे सर्व रोग निवारक ही हों। प्राचीन साहित्य में जिन चमत्कारी औषधियों का उल्लेख है, उनके नमूने तो उपलब्ध हैं नहीं; न ही उस समय के वैद्यों के लिए यह संभव था कि वे भावी पीढ़ियों के लिए ऐसा कोई प्रामाणिक संग्रह बना सकें। कुछ पौधों का तो पूरा या ठीक वर्णन नहीं मिलता है।
इसलिए, पौधों के केवल तत्कालीन उल्लिखित नाम से आज उनकी पहचान करना या यह जानना कि हमारे पूर्वजों का किस पौधे से आशय था, असंभव-सा है। पौधों के स्थानीय नाम तो समय के साथ व्यक्ति व्यक्ति के बीच बदलते जाते हैं। वनस्पतिशास्त्र में ऐसे अनेक दृष्टांत हैं, जहां एक ही नाम दो या अधिक पौधों को दिया गया है। उदाहरण के लिए हम पुनर्नवा, रूंदती, ब्राह्मी, दूधी, सोमलता के दृष्टांत ले सकते हैं; इनसे बड़ी उलझन हुई है। भारत में कुछ कार्यकर्ता अब इन गुत्थियों को सुलझाने का प्रयत्न तो कर रहे हैं, किंतु इसमें अनेक विषयों के विशेषज्ञों का नि:स्वार्थ सहयोग वांछनीय है, जो प्राय: दुर्लभ रहता है। फिर भी इस दिशा में जो भी कार्य किया जायेगा, वह वनस्पतिशास्त्र, आयुर्वेद, औषधिनिर्माण आदि कई क्षेत्रों में उपयोगी होगा।
प्राचीन काल में वनौषधियों के विषय में प्राप्त ज्ञान की जानकारी कुछ लिखित प्रमाणों के अतिरिक्त एक अन्य साधन द्वारा भी संभव है। वह है, हमारे देश के सुदूर वनों में रहने वाली आदिम जातियां, जिनकी संस्कृति अब भी बहुत कुछ पुराने ढंग की है। आदिवासियों के बीच कार्य करने पर ज्ञात होता है कि प्राचीन वनौषधियों को कुछ ज्ञान मौखिक परंपरा द्वारा, पीढ़ी दर पीढ़ी, आज तक भी जीवित रह गया है। कुछ कार्यकर्ताओं ने इस सामग्री को एकत्रित करने का प्रयास किया है, किंतु यह कार्य जितने बड़े पैमाने पर तथा जिस तत्परता से किया जाना चाहिए था, उसका अल्पांश भी नहीं हुआ है। इस प्रकार के खोजे कार्य को एथनोबॉटनी (अर्थात आदिवासियों का वनस्पति से संबंध) कहते हैं। 1960 से मैंने मध्य प्रदेश के आदिवासियों के बीच भी ऐसा कुछ कार्य आरंभ किया। बंगाल, असम व उड़ीसा के कुछ आदिवासियों के बीच भी कार्य किया। पौधों के अनेक ऐसे औषधीय गुण इन आदिवासियों से ज्ञात हुए जिनका किसी साहित्य में वर्णन नहीं मिलता, इनमें से कुछ का उल्लेख प्रस्तुत पुस्तक में किया गया है, किंतु इनकी वैज्ञानिक परीक्षा विधिवत होनी आवश्यक है।
यह प्रश्न प्राय: ही उठाया गया है कि वनौषधियों की वैज्ञानिक परीक्षा की जानी चाहिए। यह ठीक ही है। कई बार आयुर्वेद की अत्यंत औषधियां प्रयोगशालाओं के परीक्षणों में निरर्थक सिद्ध हुईं। इससे यह संकेत अवश्य मिलता है कि हमें सभी वनौषधियों की परीक्षा यथासंभव कर लेनी चाहिए। किंतु इसका एक दूसरा पहलू भी है। संभव है कि औषधि में कोई ऐसे अज्ञात तत्व निहित हों, जो रोगी को लाभ पहुंचाते हैं, किंतु रासायनिक विश्लेषण में दिखाई नहीं देते। यह भी संभव है कि पौधे में विद्यमान भिन्न एल्केलाइड या अन्य तत्व जब एक साथ मिलकर क्रिया करते हैं, जैसे समूचे पौधे के क्वाथ में, तभी वह उपयोगी होता है। उनके एल्केलाइड आदि अलग अलग ‘व्यर्थ’ सिद्ध होते हैं। साथ ही, पौधे फूलने का समय, फलने का समय, बीज या छाल एकत्रित करने का समय, उगने की ऋतु तथा स्थान, आदि आदि अनेक बातें औषधि की उपयोगिता पर प्रभाव डालती हैं; और यह असंभव नहीं कि रासायनिक विश्लेषण करने वालों ने इन सबका ध्यान न रखा हो।
ऐसा अनुमान है कि भारत में लगभग 2,000 पदार्थ औषधियों में प्रयुक्त होते हैं, इनमें लगभग 200 पदार्थ जीव जंतुओं से प्राप्त होते हैं; इतने ही खनिज पदार्थ हैं। लगभग 1,500 पदार्थ, फल, फूल, पत्ते, जड़, गोंद, रस आदि- वनस्पति जगत की देन हैं। हमारे विशाल-देश के लिए यह संख्या कुछ अधिक नहीं है। भारत में नाना प्रकार की जलवायु मिलती है। 490 से. से- 430 तक का तापमान, 100 मिमी से लेकर 10,000 मिमी से भी अधिक वर्षा के क्षेत्र, समुद्र तटों से लेकर लगभग 6,000 मी. ऊंचाई तक के स्थान, आदि कारणों से भारत लगभग 1,500 से अधिक जातियों के पौधे (एंजिओस्पर्म) मिलते हैं, जिनमें औषधीय गुण बताये जाते हैं।
इन 1,500 पौधों में से केवल एक सौ का चुनाव कदाचित मेरी सबसे बड़ी कठिनाई थी। अत: केवल वही पौधे चुने हैं, जिनकी उपयोगिता वैज्ञानिक विधियों से परखी और सिद्ध हो चुकी है, अथवा जो पौधे भारतीय मानक औषध कोश (इंडियन फार्मेस्यूटिकल कोडेक्स), ब्रिटेन का मानक औषध कोश (ब्रिटिश फार्मेस्यूटिकल कोडेक्स) तथा अमेरिका का मानक औषध कोश (यूनाइटेड स्टेट्स डिस्पेंसेटरी) में मान्य समझे गये हैं; पुस्तक में उन्हीं का विवरण दिया गया है। अधिकतर भारत के देशज पौधे ही लिये गये हैं। कुछ ऐसे विदेशी पौधे भी, जिनकी अब भारत में खेती हो रही है, या जिनका व्यापार कार्य में महत्व है, चुन लिये गये हैं। इनमें से कुछ पौधे तो अब भारत में फैल भी गये हैं और स्वभाविक रूप से उगते दिखाई देते हैं।
पुस्तक के अध्याय, पौधों के वैज्ञानिक नाम के वर्णक्रमानुसार हैं। प्रत्येक अध्याय के शीर्षक के लिए पौधे का मान्य तिजारती नाम (ट्रेड नेम) या कोई अधिक प्रचलित हिंदी नाम चुन लिया है; यदि एक से अधिक नाम भारतीय औषध कोश में मान्य समझे गये हैं, अथवा व्यापार कार्य में प्रचलित हैं, तो उन्हें दूसरी पंक्ति में कोष्ठक में दे दिया गया है।
जहां तक संभव हुआ है, पौधों के सही स्वीकृति वैज्ञानिक नाम ही प्रयोग किये गये हैं। पाठकों की सुविधा के लिए कुछ पौधों के स्वीकृत नाम के तुरंत बाद ही, अधिक प्रचलित होने के कारण, कुछ पुराने अस्वीकृत नाम भी दे दिये हैं। पौधों का कुल (फैमिली) कोष्ठक में दिया है। उसके नीचे भारतीय भाषाओं में नाम दिये हैं, यदि अंग्रेजी का नाम मिल सका है, तो वह भी दे दिया है। भारतीय भाषाओं में सर्वप्रथम हिंदी व संस्कृत के नाम हैं; उसके बाद वर्णक्रमानुसार अन्य भाषाएं हैं। भारतीय भाषाओं में पौधों के नाम अनेकानेक मिलते हैं, उन सबका यहां लिखना न संभव था और न आवश्यक; इसलिए केवल एक दो अधिक प्रचलित नाम ही लिखे हैं। जिन भाषाओं की लिपि मैं नहीं जानता, उनके शब्दों के उच्चारण अपने कुछ मित्रों की सहायता से सुने, और देवनागरी में लिखे। फिर उच्चारण में अंतर होने से, तथा बार बार लिप्यंतरण होने से इन नामों में अशुद्धिया हो जाना असंभव नहीं है। कुछ पौधों के वैज्ञानिक अथवा अन्य नाम किस प्रकार बने हैं, इसका भी संक्षिप्त वर्णन है।
पौधे का वर्णन संक्षिप्त रूप में ही दिया है। प्राय: वही लक्षण हैं जिन्हें पढ़कर पाठक पौधे के आकार का अनुमान कर सकें, तथा उन्हें पौधे पहचानने में सुविधा हो सके। यद्यपि केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा मान्य तकनीकी शब्द ही प्रयोग किये गये हैं, किंतु पाठक को कठिन शब्दों के जाल से बचाने का यथासंभव प्रयास किया गया है। पौधे का वर्णन केवल पहले ही प्रकाशित पुस्तकों पर आधारित नहीं है, बल्कि पौधे के नमूने स्वयं देखकर अथवा अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर लिखा गया है। पौधों को पहचानने में सुविधा हो, इस दृष्टि से पुस्तक में वर्णित बहुत-से पौधों के चित्र भी दिये गये हैं।
पौधों का प्राप्ति-स्थान भी कलकत्ते में विशाल वनस्पति संग्रहालय में रखे सहस्त्रों नमूनों तथा विश्वस्त साहित्य की सहायता से लिखा है।
विशेषकर पौधों के औषधीय गुणों पर जो भी सूचना दी गयी है, अत्यंत विश्वसनीय साहित्य पर आधारित है और केवल वे ही गुण लिखे गये हैं, जिन्हें ब्रिटेन तथा अमेरिका के मानक औषध कोशों ने स्वीकार किया है, अथवा जिन गुणों की पुष्टि वैज्ञानिक विधि से या अस्पतालों में की जा चुकी है। इस संबंध में मैंने पिछले 25-30 वर्षों में छपे साहित्य की छानबीन की है। इस खोज के समय मुझे एक बात यह स्पष्ट हुई कि हमारे औषधीय पौधों में से बहुत थोड़ों की ही वैज्ञानिक परख की गई है। इस कार्य में समय तो बहुत लगता है किंतु यदि हम अपनी वनौषधियों से, इस उपयोगी सम्पत्ति से लाभ उठाना चाहते हैं, तो इस कार्य को शीघ्र करना ही होगा।
कहीं कहीं पर औषधीय पौधों के किसी विशेष अन्य उपयोग का वर्णन भी किया गया है। एक वंश की मुख्य औषधीय जाति का विवरण देने के उपरांत अन्य जातियों का भी संक्षिप्त वर्णन दिया गया है।
भारतवर्ष में रोग निवारण के लिए पौधों के प्रयोग का कदाचित सर्वप्रथम वर्णन ऋग्वेद में मिलता है। ऋग्वेद में सूत्रों में वर्णित अनेक औषधियों के नाम तो इतने शुद्ध और स्पष्ट हैं कि आज भी उन नामों से पौधों को भली भांति पहचान सकते हैं, जैसे-सेमल, पीपल, पलास तथा पिठवन। किंतु ऋग्वेद में प्राय: औषधियों के विषय में अधिक विवरण नहीं है। अथर्ववेद में अधिक विस्तारपूर्वक वर्णन है। ऋग्वेद का रचना काल लगभग 3,500-1,800 वर्ष ईसा पूर्व बताते हैं। वेदों की रचना के बाद लगभग 1,000 वर्ष तक इस विद्या की उन्नति का कोई प्रमाण नहीं है। उसके पश्चात चरक और सुश्रुत के भारतीय वनौषधि पर दो अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ- चरक संहिता एवं सुश्रुत संहिता-सामने आये। चरक संहिता में लगभग 700 औषधियों का वर्णन है, इनमें से कुछ पौधे भारतीय नहीं थे। सुश्रुत संहिता में शल्य चिकित्सा (सर्जरी) का वर्णन है। सुश्रुत को विदेशी वैज्ञानिकों ने भी बहुत मान्यता दी है। वे स्वीकार करते हैं कि भारत में शायद ‘प्लास्टिक सर्जरी’ की प्रथा 2,000 वर्ष पहले से ही थी।
चरक के समय से आज तक अनेक आयुर्वेदाचार्यों, साधु महात्माओं तथा अनुसंधानकर्त्ताओं के सहयोग से भारतीय वनौषधियों की संख्या बढ़ती गई और अब लगभग 1,500 पौधों में औषधीय गुण बताये जाते हैं।
भारतीय वनौषधियों पर अनेक छोटी बड़ी पुस्तकें लिखी गई हैं। कई तो विशाल ग्रंथ हैं, जिनमें सहस्रों पृष्ठ और अनेक भाग हैं। क्योंकि कभी-कभी एक पौधे के विषय में भारत के भिन्न प्रदेशों में भिन्न भिन्न धारणायें और मान्यतायें हैं। संस्कृत के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं में भी आयुर्वेद पर पर्याप्त साहित्य लिखा गया है। सर्वश्री दत्त, जार्ज वाट, कर्नल रामनाथ चोपड़ा (तथा उनके साथी एवं शिष्यगण), के. नादकर्णी, के. कीर्तिकर, बी.डी.बसु, बी. मुखर्जी, चंद्रराज भंडारी, के. पी. बिश्वास, कृष्णप्रसाद द्विवेदी, देवीशरण गर्ग, ‘भारत की संपदा’ (वेल्थ ऑफ इंडिया) के संपादकगण आदि अनेक विद्वानों ने इस विषय के संकलन में प्रशंसनीय कार्य किया है। किंतु कुछ लेखकों ने पौधों के नाम (या सही पहचान) आदि का ठीक ध्यान न रखते हुए सामग्री संकलित कर दी है। फल यह हुआ है कि कुछ पौधों पर तो इसके अतिरिक्त औषधीय गुण थोपे गये हैं मानो वे सर्व रोग निवारक ही हों। प्राचीन साहित्य में जिन चमत्कारी औषधियों का उल्लेख है, उनके नमूने तो उपलब्ध हैं नहीं; न ही उस समय के वैद्यों के लिए यह संभव था कि वे भावी पीढ़ियों के लिए ऐसा कोई प्रामाणिक संग्रह बना सकें। कुछ पौधों का तो पूरा या ठीक वर्णन नहीं मिलता है।
इसलिए, पौधों के केवल तत्कालीन उल्लिखित नाम से आज उनकी पहचान करना या यह जानना कि हमारे पूर्वजों का किस पौधे से आशय था, असंभव-सा है। पौधों के स्थानीय नाम तो समय के साथ व्यक्ति व्यक्ति के बीच बदलते जाते हैं। वनस्पतिशास्त्र में ऐसे अनेक दृष्टांत हैं, जहां एक ही नाम दो या अधिक पौधों को दिया गया है। उदाहरण के लिए हम पुनर्नवा, रूंदती, ब्राह्मी, दूधी, सोमलता के दृष्टांत ले सकते हैं; इनसे बड़ी उलझन हुई है। भारत में कुछ कार्यकर्ता अब इन गुत्थियों को सुलझाने का प्रयत्न तो कर रहे हैं, किंतु इसमें अनेक विषयों के विशेषज्ञों का नि:स्वार्थ सहयोग वांछनीय है, जो प्राय: दुर्लभ रहता है। फिर भी इस दिशा में जो भी कार्य किया जायेगा, वह वनस्पतिशास्त्र, आयुर्वेद, औषधिनिर्माण आदि कई क्षेत्रों में उपयोगी होगा।
प्राचीन काल में वनौषधियों के विषय में प्राप्त ज्ञान की जानकारी कुछ लिखित प्रमाणों के अतिरिक्त एक अन्य साधन द्वारा भी संभव है। वह है, हमारे देश के सुदूर वनों में रहने वाली आदिम जातियां, जिनकी संस्कृति अब भी बहुत कुछ पुराने ढंग की है। आदिवासियों के बीच कार्य करने पर ज्ञात होता है कि प्राचीन वनौषधियों को कुछ ज्ञान मौखिक परंपरा द्वारा, पीढ़ी दर पीढ़ी, आज तक भी जीवित रह गया है। कुछ कार्यकर्ताओं ने इस सामग्री को एकत्रित करने का प्रयास किया है, किंतु यह कार्य जितने बड़े पैमाने पर तथा जिस तत्परता से किया जाना चाहिए था, उसका अल्पांश भी नहीं हुआ है। इस प्रकार के खोजे कार्य को एथनोबॉटनी (अर्थात आदिवासियों का वनस्पति से संबंध) कहते हैं। 1960 से मैंने मध्य प्रदेश के आदिवासियों के बीच भी ऐसा कुछ कार्य आरंभ किया। बंगाल, असम व उड़ीसा के कुछ आदिवासियों के बीच भी कार्य किया। पौधों के अनेक ऐसे औषधीय गुण इन आदिवासियों से ज्ञात हुए जिनका किसी साहित्य में वर्णन नहीं मिलता, इनमें से कुछ का उल्लेख प्रस्तुत पुस्तक में किया गया है, किंतु इनकी वैज्ञानिक परीक्षा विधिवत होनी आवश्यक है।
यह प्रश्न प्राय: ही उठाया गया है कि वनौषधियों की वैज्ञानिक परीक्षा की जानी चाहिए। यह ठीक ही है। कई बार आयुर्वेद की अत्यंत औषधियां प्रयोगशालाओं के परीक्षणों में निरर्थक सिद्ध हुईं। इससे यह संकेत अवश्य मिलता है कि हमें सभी वनौषधियों की परीक्षा यथासंभव कर लेनी चाहिए। किंतु इसका एक दूसरा पहलू भी है। संभव है कि औषधि में कोई ऐसे अज्ञात तत्व निहित हों, जो रोगी को लाभ पहुंचाते हैं, किंतु रासायनिक विश्लेषण में दिखाई नहीं देते। यह भी संभव है कि पौधे में विद्यमान भिन्न एल्केलाइड या अन्य तत्व जब एक साथ मिलकर क्रिया करते हैं, जैसे समूचे पौधे के क्वाथ में, तभी वह उपयोगी होता है। उनके एल्केलाइड आदि अलग अलग ‘व्यर्थ’ सिद्ध होते हैं। साथ ही, पौधे फूलने का समय, फलने का समय, बीज या छाल एकत्रित करने का समय, उगने की ऋतु तथा स्थान, आदि आदि अनेक बातें औषधि की उपयोगिता पर प्रभाव डालती हैं; और यह असंभव नहीं कि रासायनिक विश्लेषण करने वालों ने इन सबका ध्यान न रखा हो।
ऐसा अनुमान है कि भारत में लगभग 2,000 पदार्थ औषधियों में प्रयुक्त होते हैं, इनमें लगभग 200 पदार्थ जीव जंतुओं से प्राप्त होते हैं; इतने ही खनिज पदार्थ हैं। लगभग 1,500 पदार्थ, फल, फूल, पत्ते, जड़, गोंद, रस आदि- वनस्पति जगत की देन हैं। हमारे विशाल-देश के लिए यह संख्या कुछ अधिक नहीं है। भारत में नाना प्रकार की जलवायु मिलती है। 490 से. से- 430 तक का तापमान, 100 मिमी से लेकर 10,000 मिमी से भी अधिक वर्षा के क्षेत्र, समुद्र तटों से लेकर लगभग 6,000 मी. ऊंचाई तक के स्थान, आदि कारणों से भारत लगभग 1,500 से अधिक जातियों के पौधे (एंजिओस्पर्म) मिलते हैं, जिनमें औषधीय गुण बताये जाते हैं।
इन 1,500 पौधों में से केवल एक सौ का चुनाव कदाचित मेरी सबसे बड़ी कठिनाई थी। अत: केवल वही पौधे चुने हैं, जिनकी उपयोगिता वैज्ञानिक विधियों से परखी और सिद्ध हो चुकी है, अथवा जो पौधे भारतीय मानक औषध कोश (इंडियन फार्मेस्यूटिकल कोडेक्स), ब्रिटेन का मानक औषध कोश (ब्रिटिश फार्मेस्यूटिकल कोडेक्स) तथा अमेरिका का मानक औषध कोश (यूनाइटेड स्टेट्स डिस्पेंसेटरी) में मान्य समझे गये हैं; पुस्तक में उन्हीं का विवरण दिया गया है। अधिकतर भारत के देशज पौधे ही लिये गये हैं। कुछ ऐसे विदेशी पौधे भी, जिनकी अब भारत में खेती हो रही है, या जिनका व्यापार कार्य में महत्व है, चुन लिये गये हैं। इनमें से कुछ पौधे तो अब भारत में फैल भी गये हैं और स्वभाविक रूप से उगते दिखाई देते हैं।
पुस्तक के अध्याय, पौधों के वैज्ञानिक नाम के वर्णक्रमानुसार हैं। प्रत्येक अध्याय के शीर्षक के लिए पौधे का मान्य तिजारती नाम (ट्रेड नेम) या कोई अधिक प्रचलित हिंदी नाम चुन लिया है; यदि एक से अधिक नाम भारतीय औषध कोश में मान्य समझे गये हैं, अथवा व्यापार कार्य में प्रचलित हैं, तो उन्हें दूसरी पंक्ति में कोष्ठक में दे दिया गया है।
जहां तक संभव हुआ है, पौधों के सही स्वीकृति वैज्ञानिक नाम ही प्रयोग किये गये हैं। पाठकों की सुविधा के लिए कुछ पौधों के स्वीकृत नाम के तुरंत बाद ही, अधिक प्रचलित होने के कारण, कुछ पुराने अस्वीकृत नाम भी दे दिये हैं। पौधों का कुल (फैमिली) कोष्ठक में दिया है। उसके नीचे भारतीय भाषाओं में नाम दिये हैं, यदि अंग्रेजी का नाम मिल सका है, तो वह भी दे दिया है। भारतीय भाषाओं में सर्वप्रथम हिंदी व संस्कृत के नाम हैं; उसके बाद वर्णक्रमानुसार अन्य भाषाएं हैं। भारतीय भाषाओं में पौधों के नाम अनेकानेक मिलते हैं, उन सबका यहां लिखना न संभव था और न आवश्यक; इसलिए केवल एक दो अधिक प्रचलित नाम ही लिखे हैं। जिन भाषाओं की लिपि मैं नहीं जानता, उनके शब्दों के उच्चारण अपने कुछ मित्रों की सहायता से सुने, और देवनागरी में लिखे। फिर उच्चारण में अंतर होने से, तथा बार बार लिप्यंतरण होने से इन नामों में अशुद्धिया हो जाना असंभव नहीं है। कुछ पौधों के वैज्ञानिक अथवा अन्य नाम किस प्रकार बने हैं, इसका भी संक्षिप्त वर्णन है।
पौधे का वर्णन संक्षिप्त रूप में ही दिया है। प्राय: वही लक्षण हैं जिन्हें पढ़कर पाठक पौधे के आकार का अनुमान कर सकें, तथा उन्हें पौधे पहचानने में सुविधा हो सके। यद्यपि केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा मान्य तकनीकी शब्द ही प्रयोग किये गये हैं, किंतु पाठक को कठिन शब्दों के जाल से बचाने का यथासंभव प्रयास किया गया है। पौधे का वर्णन केवल पहले ही प्रकाशित पुस्तकों पर आधारित नहीं है, बल्कि पौधे के नमूने स्वयं देखकर अथवा अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर लिखा गया है। पौधों को पहचानने में सुविधा हो, इस दृष्टि से पुस्तक में वर्णित बहुत-से पौधों के चित्र भी दिये गये हैं।
पौधों का प्राप्ति-स्थान भी कलकत्ते में विशाल वनस्पति संग्रहालय में रखे सहस्त्रों नमूनों तथा विश्वस्त साहित्य की सहायता से लिखा है।
विशेषकर पौधों के औषधीय गुणों पर जो भी सूचना दी गयी है, अत्यंत विश्वसनीय साहित्य पर आधारित है और केवल वे ही गुण लिखे गये हैं, जिन्हें ब्रिटेन तथा अमेरिका के मानक औषध कोशों ने स्वीकार किया है, अथवा जिन गुणों की पुष्टि वैज्ञानिक विधि से या अस्पतालों में की जा चुकी है। इस संबंध में मैंने पिछले 25-30 वर्षों में छपे साहित्य की छानबीन की है। इस खोज के समय मुझे एक बात यह स्पष्ट हुई कि हमारे औषधीय पौधों में से बहुत थोड़ों की ही वैज्ञानिक परख की गई है। इस कार्य में समय तो बहुत लगता है किंतु यदि हम अपनी वनौषधियों से, इस उपयोगी सम्पत्ति से लाभ उठाना चाहते हैं, तो इस कार्य को शीघ्र करना ही होगा।
कहीं कहीं पर औषधीय पौधों के किसी विशेष अन्य उपयोग का वर्णन भी किया गया है। एक वंश की मुख्य औषधीय जाति का विवरण देने के उपरांत अन्य जातियों का भी संक्षिप्त वर्णन दिया गया है।
विशेष
यह बता देना आवश्यक है कि इस पुस्तक का उद्देश्य पाठकों का भारत में होने
वाले कुछ मुख्य औषधीय पौधों से परिचय कराना मात्र है। इसमें चिकित्सा के
आशय से नुस्खे नहीं दिये हैं। अनेक औषधियां कई पौधों के उपयोगी तत्व
मिलाकर बनती हैं; उन तत्वों को प्राप्त करने की विधि, उनकी मात्रा, तथा
औषधि बनाने आदि की क्रिया, सभी अनुभवी वैद्यों या औषध निर्माताओं का कार्य
है। रोग का सही निदान, तथा औषधि के सेवन का समय, मात्रा, उससे संलग्न अन्य
उपचार एवं परिचर्चा सभी महत्त्वपूर्ण बातें हैं जिन्हें योग्य वैद्य ही
समझते व जानते हैं। अनभिज्ञ व्यक्तियों के लिए, अपनी समझ से किसी औषधि का
प्रयोग करना अत्यंत हानिकारक हो सकता है।
भारत में एलोपैथी तथा होम्योपैथी के प्रचलन के कारण आयुर्वेद में अधिकांश लोगों की श्रद्धा निश्चय ही घटती जा रही है, किंतु वनौषधियों द्वारा रोग निवारण के पक्ष में बहुत कुछ कहा व लिखा जा सकता है। यह सत्य है कि आयुर्वेद साहित्य में किसी इक्के दुक्के रोगी पर आजमाये हुए या तीर तुक्के के ढंग पर सफल अनेक नुस्खे शामिल हो गये हैं। किंतु, यह भी सत्य है- और कहीं अधिक मात्रा में कि हमारी वनौषधियों में सैकड़ों पौधे ऐसे हैं, जिनका वैज्ञानिक विश्लेषण भारत या विदेशों में हो चुका है; जो पहले जंतुओं पर और तदुपरांत औषधालयों में रोगियों पर आजमाये जा चुके हैं, जिन्हें न केवल भारत, वरन विदेशी मानक औषध कोशों में मान्यता मिल चुकी है।
कौन-सी चिकित्सा प्रणाली अच्छी है, यह न इस पुस्तक के विषय का क्षेत्र है, न इसकी चर्चा यहां संभव है। केवल इतना लिखना पर्याप्त है कि जिस देश की 80 प्रतिशत जनता छोटे गांवों में रहती हो, तथा जिसके इर्द-गिर्द वनौषधियां यथेष्ट मात्रा में फैली पड़ी हों, और जहां के अधिकांश लोगों की दैनिक आय एक रुपये से भी कम हो, वहां रोग पहचानने की लंबी, दूभर विधियां, दुर्लभ यंत्र और महंगी दवाईयां सर्वसाधरण के उपयोग का साधन नहीं बन सकतीं।
भारत में एलोपैथी तथा होम्योपैथी के प्रचलन के कारण आयुर्वेद में अधिकांश लोगों की श्रद्धा निश्चय ही घटती जा रही है, किंतु वनौषधियों द्वारा रोग निवारण के पक्ष में बहुत कुछ कहा व लिखा जा सकता है। यह सत्य है कि आयुर्वेद साहित्य में किसी इक्के दुक्के रोगी पर आजमाये हुए या तीर तुक्के के ढंग पर सफल अनेक नुस्खे शामिल हो गये हैं। किंतु, यह भी सत्य है- और कहीं अधिक मात्रा में कि हमारी वनौषधियों में सैकड़ों पौधे ऐसे हैं, जिनका वैज्ञानिक विश्लेषण भारत या विदेशों में हो चुका है; जो पहले जंतुओं पर और तदुपरांत औषधालयों में रोगियों पर आजमाये जा चुके हैं, जिन्हें न केवल भारत, वरन विदेशी मानक औषध कोशों में मान्यता मिल चुकी है।
कौन-सी चिकित्सा प्रणाली अच्छी है, यह न इस पुस्तक के विषय का क्षेत्र है, न इसकी चर्चा यहां संभव है। केवल इतना लिखना पर्याप्त है कि जिस देश की 80 प्रतिशत जनता छोटे गांवों में रहती हो, तथा जिसके इर्द-गिर्द वनौषधियां यथेष्ट मात्रा में फैली पड़ी हों, और जहां के अधिकांश लोगों की दैनिक आय एक रुपये से भी कम हो, वहां रोग पहचानने की लंबी, दूभर विधियां, दुर्लभ यंत्र और महंगी दवाईयां सर्वसाधरण के उपयोग का साधन नहीं बन सकतीं।
सुधांशु कुमार जैन
1.खोकली
(आकालिफ़ा)
वैज्ञानिक नाम: आकालिफ़ा ईंडिका (Acalypha indica L.)
(कुल-एउफ़ोर्बिएसिए)
अन्य नाम: हिंदी-कुप्पी;
संस्कृत-हरित्तमंजरी;
कन्नड़-कुप्पीगिडा;
गुजराती-वेंछिकांटो, चररजो-झाड़, रुंछाडो-दादरो;
तमिल-कुप्पेमणि;
तेलुगु-कुप्पेमणि;
बंगला-मुक्तझूरि, मुक्तबर्सी;
मराठी-खोकली;
मलयालम-कुप्पामणि।
व्यापार कार्य का नाम आकालिफ़ा वैज्ञानिक नाम पर आधारित है।
वर्णन
वह लगभग 75 सेमी ऊंचा पौधा होता है। इसके पत्ते 3-8 सेमी लंबे, अंडाकार अथवा चतुर्कोण-अंडाकार से होते हैं। पत्तों में प्राय: तीन शिराएं होती हैं, और उनके किनारे दंतुर होते हैं, पत्तों को डंठल पत्तों से भी लंबे होते हैं। फूल छोटे छोटे होते हैं तथा पत्तों के कक्ष में, स्पाइक जैसे, सीधे गुच्छों में लगते हैं। मादा पुष्प के नीचे एक तिकोना-सा सहपत्र होता है। नरपुष्प अत्यंत छोटे होते हैं, तथा स्पाइक के ऊपरी भाग में लगते हैं। फल रोयेंदार होते हैं तथा सहपत्रों में ढके रहते हैं।
प्राप्ति-स्थान
खोकली का पौधा भारत के सभी मैदानी भागों में पाया जाता है। यह प्राय: उद्यानों व खेतों में तथा सड़कों व मकानों के आसपास उग आता है।
औषधीय गुण
खोकली के पौधों पर जिस समय फूल आते हैं, उस समय उन्हें समूचा उखाड़कर सुखा लेते हैं और औषधि में प्रयोग करते हैं।
इस पौधे में ईपेकाक जैसे गुण बताते हैं। यह (ब्रोंकाइटिस) श्वास नली की सूजन, श्वासरोग या दमा, निमोनिया तथा गठिया में उपयोगी है। इसकी जड़ व पत्ते रोचक होते हैं। पत्तों का रस वमनकारी होता है, अर्थात उसके सेवन से कै हो जाती है। ताजे पत्तों को पीस कर फोड़ों पर भी लगाते हैं।
(कुल-एउफ़ोर्बिएसिए)
अन्य नाम: हिंदी-कुप्पी;
संस्कृत-हरित्तमंजरी;
कन्नड़-कुप्पीगिडा;
गुजराती-वेंछिकांटो, चररजो-झाड़, रुंछाडो-दादरो;
तमिल-कुप्पेमणि;
तेलुगु-कुप्पेमणि;
बंगला-मुक्तझूरि, मुक्तबर्सी;
मराठी-खोकली;
मलयालम-कुप्पामणि।
व्यापार कार्य का नाम आकालिफ़ा वैज्ञानिक नाम पर आधारित है।
वर्णन
वह लगभग 75 सेमी ऊंचा पौधा होता है। इसके पत्ते 3-8 सेमी लंबे, अंडाकार अथवा चतुर्कोण-अंडाकार से होते हैं। पत्तों में प्राय: तीन शिराएं होती हैं, और उनके किनारे दंतुर होते हैं, पत्तों को डंठल पत्तों से भी लंबे होते हैं। फूल छोटे छोटे होते हैं तथा पत्तों के कक्ष में, स्पाइक जैसे, सीधे गुच्छों में लगते हैं। मादा पुष्प के नीचे एक तिकोना-सा सहपत्र होता है। नरपुष्प अत्यंत छोटे होते हैं, तथा स्पाइक के ऊपरी भाग में लगते हैं। फल रोयेंदार होते हैं तथा सहपत्रों में ढके रहते हैं।
प्राप्ति-स्थान
खोकली का पौधा भारत के सभी मैदानी भागों में पाया जाता है। यह प्राय: उद्यानों व खेतों में तथा सड़कों व मकानों के आसपास उग आता है।
औषधीय गुण
खोकली के पौधों पर जिस समय फूल आते हैं, उस समय उन्हें समूचा उखाड़कर सुखा लेते हैं और औषधि में प्रयोग करते हैं।
इस पौधे में ईपेकाक जैसे गुण बताते हैं। यह (ब्रोंकाइटिस) श्वास नली की सूजन, श्वासरोग या दमा, निमोनिया तथा गठिया में उपयोगी है। इसकी जड़ व पत्ते रोचक होते हैं। पत्तों का रस वमनकारी होता है, अर्थात उसके सेवन से कै हो जाती है। ताजे पत्तों को पीस कर फोड़ों पर भी लगाते हैं।
2.अतीस
(अकोनाइट)
आकोनीटुम जाति
(कुल-रैननकुलेसिए)
अकोनाइट एक प्रसिद्ध वनौषधि है, इसके प्रकंद विषैले होते हैं, किंतु
नियमित मात्रा में सेवन करने से इनमें औषधीय गुण होते हैं। ब्रिटेन में
आकोनीटुम नापेल्लुस (Aconitum napellus L.) मान्य औषधि है। यह जाति तो
भारत में नहीं होती, किंतु इसके वंश की अन्य जातियां पाई जाती हैं जो उतनी
ही उपयोगी हैं। इनमें से दो का वर्णन नीचे किया गया है।
अतीस (वैज्ञानिक नाम:आकोनीटुम हेटेरोफील्लुम Aconitum heterophyllum Wall. कश्मीरी-अतीस, अतिविष, पोदिस)
यह एक छोटा सा पौधा है जो उत्तर पश्चिम हिमालय में 2,000 से 4,000 मी ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पाया जाता है। अतीस के प्रकंद ज्वर एवं ज्वर के बाद दुर्बलता दूर करने के लिए उपयोगी बताये जाते हैं। अतीस में बलवर्धक गुम तो अवश्य हैं, किंतु ज्वरनाशक के रूप में इसकी मान्यता अधिक नहीं है। यह अतिसार व पेचिश में भी उपयोगी है।
बनबलनाग (वैज्ञानिक नाम:आकोनीटुम कासमांथुम Aconitum chasmanthum Stapf)
यह पौधा भी उसी क्षेत्र में पाया जाता है जहां अतीस होता है। यद्यपि इस पौधे के प्रकंदों में ब्रिटेन वाले अकोनाइट से उपयोगी तत्वों की मात्रा लगभग दस गुना अधिक होती है, फिर भी उनकी क्षमता उतनी नहीं होती। ब्रिटेन वाली जाति के स्थान पर बनबलनाग प्रयोग करने के लिए उपयुक्त बताया जाता है।
अतीस (वैज्ञानिक नाम:आकोनीटुम हेटेरोफील्लुम Aconitum heterophyllum Wall. कश्मीरी-अतीस, अतिविष, पोदिस)
यह एक छोटा सा पौधा है जो उत्तर पश्चिम हिमालय में 2,000 से 4,000 मी ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पाया जाता है। अतीस के प्रकंद ज्वर एवं ज्वर के बाद दुर्बलता दूर करने के लिए उपयोगी बताये जाते हैं। अतीस में बलवर्धक गुम तो अवश्य हैं, किंतु ज्वरनाशक के रूप में इसकी मान्यता अधिक नहीं है। यह अतिसार व पेचिश में भी उपयोगी है।
बनबलनाग (वैज्ञानिक नाम:आकोनीटुम कासमांथुम Aconitum chasmanthum Stapf)
यह पौधा भी उसी क्षेत्र में पाया जाता है जहां अतीस होता है। यद्यपि इस पौधे के प्रकंदों में ब्रिटेन वाले अकोनाइट से उपयोगी तत्वों की मात्रा लगभग दस गुना अधिक होती है, फिर भी उनकी क्षमता उतनी नहीं होती। ब्रिटेन वाली जाति के स्थान पर बनबलनाग प्रयोग करने के लिए उपयुक्त बताया जाता है।
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