लेख-निबंध >> राष्ट्रवाद राष्ट्रवादरबीन्द्रनाथ टैगोर
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विभिन्न देशों के राष्ट्रवाद के वक्तव्यों पर आधारित पुस्तक...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘राष्ट्रवाद’ पुस्तक में उन व्याख्यानों को संकलित
किया गया
है, जिन्हें रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी जापान तथा अमेरिका यात्रा के दौरान
दिया था। वर्ष 1916-17 में दिए गए व्याख्यान न केवल दूरदर्शितापूर्ण थे
बल्कि भविष्यसूचक भी थे और इस बात का सबूत दो-दो विश्वयुद्धों, आणविक
शास्त्रों की होड़, पर्यावरण का विनाश तथा नियंत्रण से मुक्त प्रौद्योगिकी
में देखने को मिला। ये व्याख्यान पश्चिमी ‘राष्ट्र’
के
आक्रामक भौतिकवाद की धारणा के विपरीत थे। एक ओर जापानी श्रोताओं ने इन खरी
बातों को पसन्द नहीं किया तो दूसरी ओर अमेरिकी श्रोताओं ने भी उनके उग्र
भाषणों के प्रति अपना विरोध प्रकट किया। टैगोर का मानना था कि भारत की
महत्ता मानवीय मूल्यों को स्वीकृति तथा सामाजिक सभ्यता का संदेश देने में
है। ‘प्रति-राजनीति’ के संस्थापक टैगोर की दूरदर्शिता
अंतश्चेतना को अपना कर हम आज भी अपने समय की बहुत-सी समस्याओं को सुलझा
सकते हैं।
सौमित्र मोहन (1938) हिंदी के प्रतिष्ठित कवि हैं। एक दर्जन से अधिक पुस्तकों का अनुवाद कर चुके कवि की पुस्तक ‘लुकमान’ अली तथा अन्य कविताएँ’ को साठेत्तरी कविता का प्रतिनिधि संकलन माना जाता है।
सौमित्र मोहन (1938) हिंदी के प्रतिष्ठित कवि हैं। एक दर्जन से अधिक पुस्तकों का अनुवाद कर चुके कवि की पुस्तक ‘लुकमान’ अली तथा अन्य कविताएँ’ को साठेत्तरी कविता का प्रतिनिधि संकलन माना जाता है।
भूमिका
‘राष्ट्रवाद’ पुस्तक जिन व्याख्यानों पर आधारित है,
वे भारत
में नहीं बल्कि जापान एवं संयुक्त राज्य अमेरिका में दिए गए थे।
रवीन्द्रनाथ टैगोर की जापान यात्रा के समय सी.एफ.एन्टड्रूज उनके साथ गए थे
और उनका कहना है कि पुस्तक के पहले दो अध्याय जापान में व्याख्या देने के
लिए और गहरे भावावेश में लिखे गए थे। (भारत में राष्ट्रवाद व्याख्यान
अमेरिका में दिए गए उनके व्याख्यानों में सिर्फ एक बार शामिल किया गया था)
उनकी जापान यात्रा मई माह के अंत से सितंबर 1916 के दौरान हुई थी और वहां
वे बहुत व्यस्त रहे। फिर उन्होंने इन व्याख्यानों को संशोधित किया और
सितंबर 1916 से जनवरी 1917 की अवधि में वे कई बार संयुक्त राज्य अमेरिका
गए तथा वहां भी व्याख्यान दिए। निस्संदेह उस समय कवि के दिमाग में
राष्ट्रवाद का विषय ही पूरी तरह हावी था। इससे अमेरिका के कुछ श्रोताओं को
काफी निराशा भी हुई थी क्योंकि वे उनकी कविताओं तथा कविता संबंधी उनकी
धारणाओं को सुनने की उम्मीद बांधे हुए थे, जबकि उन्होंने अपने को
निर्धारित विषय तक ही सीमित रखा और बीस से अधिक व्याख्यान
‘राष्ट्रवाद’ तथा ‘राष्ट्रवाद का
पंथ’ विषय पर
दिए। इसके लिए वे वैस्ट कोस्ट बरास्ता साल्ट लेक सिटी, डेनवर मिल्वॉकी
नेशविल सिनसिनेटी, डेट्राएट और फिर ईस्ट कोस्ट के प्रमुख नगरों व दोबारा
वैस्ट कोस्ट गए थे।
कवि की आयु उस समय 55 वर्ष की थी। अंग्रेजी के साहित्यिक-जगत में उनकी बांग्ला पुस्तक ‘गीताजंली’ के गीतों के स्वयं उनके द्वारा किए गए मुक्त अनुवाद की खूब चर्चा थी और इसे ‘पौर्वात्य’ मनीषा व काव्यात्मक रहस्यवाद का प्रतिनिधित्व करने वाली रचना माना जा रहा था। इसी के फलस्वरूप वह अचानक विश्व-रंगमंच पर आविर्भूत हुए थे। इसके अलावा इस कृति को, साहित्य के लिए नोबल पुरस्कार (सन् 1913 में) मिल चुका था और एशिया में नोबल पुरस्कार पाने वाले वह पहले लेखक थे। तत्पश्तात उन्हें ‘नाइटहुड’ से भी सम्मानित किया गया। अपनी भव्य न आकर्षण उपस्थिति, अपनी दाढ़ी व ढीली प्रभावशाली पोशाक, एक अगम्य संस्कृति के रहस्यों के वाहक होने के नाते कवि पाश्चात्य की पहले से विद्यमान एक जरूरत को पूरा करने के तौर पर वहां उपस्थित था-ऐसा पश्चिम जो नाममात्र उपलब्ध अनुवादों के सहारे टैगोर की कविता की गुणवत्ता का मूल्यांकन नहीं कर सकता था-और फिर पाश्चात्य साहित्यिक जगत में बांग्ला जानने वाला था भी कौन ? यदि टैगोर महान साहित्यकार एवं बौद्धिक न होते तो इस पूरे किस्से को ही ‘पश्चिमी प्राच्यवाद’ का विद्रूप स्वरूप मिल जाता।
विश्वविख्याति की ‘सर्चलाइट’ में अपनी उपस्थिति टैगोर को बाधक लगने लगी थी। वह पहले से ही अनेक लक्षयों के लिए अपनी सक्रिय भागीदारी और फिर ध्यान व लेखन के लिए एकांतवास में चले जाने के लिए प्रसिद्ध थे। इसके लिए वह पश्चिमी बंगाल के ग्रामीण इलाके में अपने पिता द्वारा स्थापित आश्रम, शांतिनिकेतन के स्कूल अथवा पूर्वी बंगाल (अब बंगलादेश) में पद्मा नदी के किनारे की अपनी पारिवारिक एस्टेट सियालदह की जमींदारी में चले जाते थे। लेकिन, हर एकांतवास के बाद, वह जोर-शोर से जनहित के कामों में फिर से जुट जाते थे, वैसे ही जैसे पतंगा लौ की तरफ आकर्षित होता है। जब उन्हें नोबल पुरस्कार मिला था तो उनकी पहली प्रतिक्रिया यह थी कि वे अब कभी शांति से बैठ नहीं पाएंगे। जनवरी 1914 में उन्होंने मेरे पिता को लिखा था: जब से यूरोप में मेरी प्रसिद्धि हुई है, तब वे विश्व का ध्यान मेरी तरफ बहुत ज्यादा बढ़ गया है...इससे मुझे बहुत घुटन महसूस होती है और मैं आराम से मुंह में भोजन का कौर तक नहीं डाल पाता। इसके पहले दिसंबर में उन्होंने लिखा था : इन दिनों मैं एक कठिन परीक्षा से गुजर रहा हूँ। अकस्मात मिलने वाली प्रशंसा मुझे एक धूल भरी आंधी जैसे लगती है, जो प्रमत्त तथा विश्रांत तो जरूर करती है, लेकिन शांति पहुंचाने वाली वर्षा नहीं लाती।’
इसके बावजूद इन आग्रह भरी सार्वजनिक सभाओं के समय, सभागारों में जुटी श्रोताओं की भारी भीड़ एवं स्वागत का आकर्षण उन्हें अपनी तरफ खींचता था। निस्संदेह उनके व्यक्तित्व का एक अंश इससे आह्लादित ही होता था और इसे वे अपनी ‘नियति’ अथवा लक्ष्य-प्राप्ति का अंग मानते थे। मेरे पिता जिन दिनों टैगोर से संबंधित अपनी दो पुस्तकें लिख रहे थे, तब कलकत्ता विश्वविद्यालय के एक युवा अध्येता प्रशांत महालनोबिस ने अपनी दक्ष तथा स्पष्ट राय प्रकट की थी। (हालांकि वे भौतिक विज्ञानी थे और आगे चलकर भारत के अग्रणी सांख्यिकीविद् बने महालनोबिस को टैगोर के जीवन तथा रचनाओं का अद्वितीय ज्ञान था और उनके आरंभिक साहित्यिक सिद्धांतों के वे कहीं बेहतर ज्ञाता थे जिसका स्मरण स्वयं कवि को नहीं था)। अपने अक्तूबर 1920 के पत्र में उन्होंने टैगोर के इसी दुहरे व्यक्तित्व का उल्लेख ऐसा किया था :
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1.ई. जे. थाम्पसन रवीन्द्रनाथ टैगोर हिज लाइफ एंड वर्क, कलकत्ता 1921 और रवीन्द्रनाथ टैगोर पोएट एंड ड्रेमेटिस्ट, ऑक्सफोर्ड, 1926 संशोधित संस्करण 1948
यूं तो उन्हें एकांत प्रिय है, लेकिन वे ज्यादा समय तक एकांतवासी नहीं रह पाते। उनमें कुछ ऐसी बात है, जो उन्हें सक्रियता के भंवरजाल की तरफ अचानक किसी एक रात को सब कुछ छोड़छाड़ कर दोबारा से एकांतवास में चले जाते हैं....स्वदेशी के भरपूर प्रचार के बाद उन्होंने सभी समितियों से त्यागपत्र दे दिया था, हर संगठन से अपने संबंध तोड़ लिए थे-यह सब उन्होंने एक ही दिन में कर डाला था और वे भागकर (शांतिनिकेतन) चले गए थे, जहां से वे कई वर्ष बाहर नहीं आए।
यह सन् 1907 की बात है और अगले कुछ वर्षों तक उन्होंने खूब कविताएं व नाटक लिखे। पर 1910-11 में वे अचानक कलकत्ता आ गए और सुधारवादी ब्रह्म समाज की गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी की। परंपरावादियों के विरोध को देखकर वे एक वर्ष या कुछ अधिक समय के लिए फिर से शांतिनिकेतन चले गए-इसके बाद अचानक उनका ‘गीतांजलि’ को लेकर इंग्लैंड व अमेरिका का दौरा शुरू हो गया।’ वे एक बार फिर शांतिनिकेतन लौट आए (यहीं नवंबर, 1913 में उन्हें नोबल पुरस्कार पाने की खबर मिली थी) जब तक कि व्याकुलता ने उन्हें फिर से तंग करना शुरू नहीं किया। अप्रैल, 1916 में उन्होंने मेरे पिता को, कवि होने के नाते अव्यावहारिकता की छूट लेते हुए लिखा, कि मैं ‘दक्षिण जाने की सोच रहा हूं-पता नहीं कहां, शायद प्रशांत के पार।’ उनका अनुमान ठीक ही था। वह ‘राष्ट्रवाद’ की व्याख्यान-यात्रा पर जापान होते हुए अमेरिका जा रहे थे। अमेरिका की यात्रा उन्हें अधूरी ही छोड़ देनी पड़ी थी क्योंकि इससे उन्हें बेहद थकावट हो गई थी हालांकि इस स्थान से पहले के सभी कार्यक्रम उन्होंने पूरे किए थे।
इस व्याख्यान-यात्राओं का एक प्रकट उद्देश्य तो यह था कि शांतिनिकेतन के विद्यालय (जो बाद में विश्वविद्यालय बना) के लिए धन एकत्र किया जा सके। कवि टैगोर पर अंतर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व वाले टैगोर का पलड़ा भारी पड़ रहा था-दुनिया की निगाह में भारतीय संस्कृति और (शायद) राष्ट्रीय अस्मिता के मूर्त रूप के तौर पर। टैगोर लगातार अपने स्वतंत्र निर्णयों पर अपनी पकड़ ढीली होते देख रहे थे। और अपनी ही प्रसिद्धि में कैद होते जा रहे थे। परिणामस्वरूप उन्हें सार्वजनिक पाया जा सकता था। जैसे अंतरंग शिकायतों के बावजूद उन्होंने इससे मुक्त होने के लिए कोई कठोर श्रम भी नहीं किया था। उनकी यूरोप व अमेरिका की यात्राएं उनके अपने प्रिय विषय को ही परिपुष्ट करती थीं-पूर्व की पश्चिम से मिलन,
2. 1905 के बंग-भंग के विरोध शुरू हुआ देशभक्ति का आंदोलन
और विश्व संस्कृति व सार्वभौमिक मानव की खोज। वह तो अपनी नियति को कार्यरूप में परिणत कर रहे थे। जुलाई, 1920 में, लंदन से, उन्होंने सी.एफ. एन्ड्रूज को लिखा था। जब मैं पश्चिम में होता हूँ...मैं उन लोगों के संपर्क में होता हूं, जो मेरी जरूरत को अनुभव व अभिव्यक्त कर पाते हैं।’ उन्हें इस बात पर सदैव आश्चर्य होता कि इन अत्यधिक व्यस्त लोगों ने सुदूर पूर्व की आवाज को ध्यान से सुना है।’ मैं उनके मस्तिष्क की जीवित दुनिया में सत्कार पाता हूं।’’ इसके तुरंत बाद के, फ्रांस से लिखे, अपने पत्र में उन्होंने घर की याद आने के रूप में शांतिनिकेतन के आश्रम में लौटने की इच्छा प्रकट की है : ‘पर मैं यह जानता हूं कि मानवता के इस विशाल विश्व से मेरा रिश्ता जब तक सत्य व प्रेम नहीं बनता, तब तक मेरा आश्रम से रिश्ता भी पूर्णता प्राप्त नहीं कर पाएगा।’’
‘राष्ट्रवाद’ के इन व्याख्यानों के पीछे कुछ ऐतिहासिक दबाव भी थे। इनमें से सबसे प्रमुख दबाव तो प्रथम विश्वयुद्ध का संघात है। युद्ध पूर्व दशक में जनहितैषी उदारतावाद व सार्वभौमवाद का बहुत गुणवान किया गया था और इसके पाश्चात्य व पौर्वात्य संस्कतियों की महान उपलब्धियों का संवाहक माना गया था। स्वयं टैगोर इस आंदोलन से गहरे तक प्रभावित हुए थे। तत्कालीन अग्रणी बंगाली बुद्धिजीवी व दार्शनिक ब्रजेंद्रनाथ सील भी इससे अछूते नहीं रहे थे। वे टैगोर के अंतरंग मित्र व उनके साहित्य के व्याख्याता थे और उनकी वाग्मितापूर्ण एवं बहुश्रुत कृति ‘न्यू ऐस्सेज इन क्रिटिसिज्म’ (1903) इसी विषय की नव- हेगेलवादी व्याख्या है, जो टैगोर की सार्वभौमिक मानवता की धारणा के अनुकूल बैठती हैः
विभिन्न ऐतिहासिक संस्कृतियां, कलाएं, धर्म, दर्शन, संहिताएं, नस्ल-चेतना मानवता अथवा परम आदर्श की आंशिक अवस्थाएं या विभिन्न चरण नहीं हैं; ये विकासमान पूर्णत्व हैं और सार्वभौमिक मानवता के मूल तत्त्व को पूर्ण से कुछ कम या ज्यादा, विशुद्ध से कुछ कम या ज्यादा को अभिव्यक्त करती हैं।
इस सार्वभौमिक गणतंत्र में प्रवेश पाने का द्वार कलाएं अथवा दर्शनशास्त्र था और इसकी फीस निष्पक्षता थी। टैगोर साहित्य के सार्वभौमिक गणतंत्र में पल्लवित हुए थे और उन्होंने अपने इस रचनात्मक प्रभाव को कभी अस्वीकार भी नहीं किया। 1914 में अपने 80 वें जन्मदिन पर दिए गए अपने भाषण में उन्होंने कहा था कि हम ब्रिटेन के बारे में ‘अपनी राय उनके विशाल साहित्य के आधार पर ही बनाते हैं।’ उनके बचपन में चर्चाएं शेक्सपीयर के नाटकों तथा बॉयरन पर ही बनाते हैं।’ उनके बचपन में चर्चाएं शेक्सपीयर के नाटकों तथा बॉयरन की कविता पर केंद्रित रहा करती थीं और साथ ही 19वीं शती की ब्रितानी राजनीति की उदार हृदयता पर भी।
सबसे उल्लेखनीय बात यह थी...कि हम मानवीय महानता को मान्यता प्रदान करते थे, भले ही यह विदेशियों से संबंधित क्यों न हो।’ भारत के वाणिज्यिक व कुलीन वर्ग में, जिनमें टैगोर भी शामिल थे, युद्ध पूर्व वर्षों की वाग्मिता यही होती थी कि प्रशासन, कानून और शिक्षा का भारतीयकरण होना चाहिए : ऑक्सब्रिज के भारतीय स्नातक ब्रिटिश-प्राधान्य को फीका कर रहे थे; लार्ड हार्डिंग की लाटसाहबी के अनुग्रहस्वरूप सम्मान व पदवियां प्रदान की जा रही थीं। सन् 1912 में इंग्लैंड में टैगोर का हार्दिक अभिनंदन, नोबल पुरस्कार और ‘नाइटहुट’ का प्रदान किया जाना इसी उदार नीति का परिणाम था। स्वयं टैगोर द्वारा उग्रवाद का खंडन, ब्रिटिश दृष्टि में उचित व उपयुक्त प्रतिक्रिया थी।
विश्वयुद्ध के छिड़ जाने के बाद इस प्रबुद्ध वाग्मिता का मखौल उड़ा। युद्ध के छिड़ने पर ब्रजेंद्रनाथ सील ने मेरे पिता को लिखा था :
ओह....यह सभ्यता के विरुद्ध अपराध है। इस सैनिक अपील का क्या हुआ,
जो यह मानती थी कि युद्ध के लिए तैयार रहना ही शांति बनाए रखने की सर्वोत्तम गारंटी है ? नहीं, ये हथियार तो प्रयुक्त होंगे ही; और ऐसी तैयारी का अनिवार्य अंत हथियारों के उस उपयोग में होगा जिसके लिए ये बनाए गए हैं।
और कुछ दिन बाद उन्होंने हमारी पृथ्वी के घूरे पर खड़े हल्के दिमाग वाले दो पाए की घोर भर्त्सना कर डाली :
आप चाहे जैसी ‘वर्तनी’ में लिखें, युद्ध का अर्थ हत्या, लूटपाट, बलात्कार, आगजनी और अन्य सभी महा अपराधों का संयोजित विस्फोटक अवयव होता है। और आज सभी अपराधों में, राष्ट्रवाद शायद सबसे अधिक घिनौना तथा घातक अपराध है। जब यह जमीन हड़पने की प्रवृत्ति से किया जाता है, तब यह लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ऐसे साधन अपनाता है जिससे युद्ध होता ही है....
कवि की आयु उस समय 55 वर्ष की थी। अंग्रेजी के साहित्यिक-जगत में उनकी बांग्ला पुस्तक ‘गीताजंली’ के गीतों के स्वयं उनके द्वारा किए गए मुक्त अनुवाद की खूब चर्चा थी और इसे ‘पौर्वात्य’ मनीषा व काव्यात्मक रहस्यवाद का प्रतिनिधित्व करने वाली रचना माना जा रहा था। इसी के फलस्वरूप वह अचानक विश्व-रंगमंच पर आविर्भूत हुए थे। इसके अलावा इस कृति को, साहित्य के लिए नोबल पुरस्कार (सन् 1913 में) मिल चुका था और एशिया में नोबल पुरस्कार पाने वाले वह पहले लेखक थे। तत्पश्तात उन्हें ‘नाइटहुड’ से भी सम्मानित किया गया। अपनी भव्य न आकर्षण उपस्थिति, अपनी दाढ़ी व ढीली प्रभावशाली पोशाक, एक अगम्य संस्कृति के रहस्यों के वाहक होने के नाते कवि पाश्चात्य की पहले से विद्यमान एक जरूरत को पूरा करने के तौर पर वहां उपस्थित था-ऐसा पश्चिम जो नाममात्र उपलब्ध अनुवादों के सहारे टैगोर की कविता की गुणवत्ता का मूल्यांकन नहीं कर सकता था-और फिर पाश्चात्य साहित्यिक जगत में बांग्ला जानने वाला था भी कौन ? यदि टैगोर महान साहित्यकार एवं बौद्धिक न होते तो इस पूरे किस्से को ही ‘पश्चिमी प्राच्यवाद’ का विद्रूप स्वरूप मिल जाता।
विश्वविख्याति की ‘सर्चलाइट’ में अपनी उपस्थिति टैगोर को बाधक लगने लगी थी। वह पहले से ही अनेक लक्षयों के लिए अपनी सक्रिय भागीदारी और फिर ध्यान व लेखन के लिए एकांतवास में चले जाने के लिए प्रसिद्ध थे। इसके लिए वह पश्चिमी बंगाल के ग्रामीण इलाके में अपने पिता द्वारा स्थापित आश्रम, शांतिनिकेतन के स्कूल अथवा पूर्वी बंगाल (अब बंगलादेश) में पद्मा नदी के किनारे की अपनी पारिवारिक एस्टेट सियालदह की जमींदारी में चले जाते थे। लेकिन, हर एकांतवास के बाद, वह जोर-शोर से जनहित के कामों में फिर से जुट जाते थे, वैसे ही जैसे पतंगा लौ की तरफ आकर्षित होता है। जब उन्हें नोबल पुरस्कार मिला था तो उनकी पहली प्रतिक्रिया यह थी कि वे अब कभी शांति से बैठ नहीं पाएंगे। जनवरी 1914 में उन्होंने मेरे पिता को लिखा था: जब से यूरोप में मेरी प्रसिद्धि हुई है, तब वे विश्व का ध्यान मेरी तरफ बहुत ज्यादा बढ़ गया है...इससे मुझे बहुत घुटन महसूस होती है और मैं आराम से मुंह में भोजन का कौर तक नहीं डाल पाता। इसके पहले दिसंबर में उन्होंने लिखा था : इन दिनों मैं एक कठिन परीक्षा से गुजर रहा हूँ। अकस्मात मिलने वाली प्रशंसा मुझे एक धूल भरी आंधी जैसे लगती है, जो प्रमत्त तथा विश्रांत तो जरूर करती है, लेकिन शांति पहुंचाने वाली वर्षा नहीं लाती।’
इसके बावजूद इन आग्रह भरी सार्वजनिक सभाओं के समय, सभागारों में जुटी श्रोताओं की भारी भीड़ एवं स्वागत का आकर्षण उन्हें अपनी तरफ खींचता था। निस्संदेह उनके व्यक्तित्व का एक अंश इससे आह्लादित ही होता था और इसे वे अपनी ‘नियति’ अथवा लक्ष्य-प्राप्ति का अंग मानते थे। मेरे पिता जिन दिनों टैगोर से संबंधित अपनी दो पुस्तकें लिख रहे थे, तब कलकत्ता विश्वविद्यालय के एक युवा अध्येता प्रशांत महालनोबिस ने अपनी दक्ष तथा स्पष्ट राय प्रकट की थी। (हालांकि वे भौतिक विज्ञानी थे और आगे चलकर भारत के अग्रणी सांख्यिकीविद् बने महालनोबिस को टैगोर के जीवन तथा रचनाओं का अद्वितीय ज्ञान था और उनके आरंभिक साहित्यिक सिद्धांतों के वे कहीं बेहतर ज्ञाता थे जिसका स्मरण स्वयं कवि को नहीं था)। अपने अक्तूबर 1920 के पत्र में उन्होंने टैगोर के इसी दुहरे व्यक्तित्व का उल्लेख ऐसा किया था :
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1.ई. जे. थाम्पसन रवीन्द्रनाथ टैगोर हिज लाइफ एंड वर्क, कलकत्ता 1921 और रवीन्द्रनाथ टैगोर पोएट एंड ड्रेमेटिस्ट, ऑक्सफोर्ड, 1926 संशोधित संस्करण 1948
यूं तो उन्हें एकांत प्रिय है, लेकिन वे ज्यादा समय तक एकांतवासी नहीं रह पाते। उनमें कुछ ऐसी बात है, जो उन्हें सक्रियता के भंवरजाल की तरफ अचानक किसी एक रात को सब कुछ छोड़छाड़ कर दोबारा से एकांतवास में चले जाते हैं....स्वदेशी के भरपूर प्रचार के बाद उन्होंने सभी समितियों से त्यागपत्र दे दिया था, हर संगठन से अपने संबंध तोड़ लिए थे-यह सब उन्होंने एक ही दिन में कर डाला था और वे भागकर (शांतिनिकेतन) चले गए थे, जहां से वे कई वर्ष बाहर नहीं आए।
यह सन् 1907 की बात है और अगले कुछ वर्षों तक उन्होंने खूब कविताएं व नाटक लिखे। पर 1910-11 में वे अचानक कलकत्ता आ गए और सुधारवादी ब्रह्म समाज की गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी की। परंपरावादियों के विरोध को देखकर वे एक वर्ष या कुछ अधिक समय के लिए फिर से शांतिनिकेतन चले गए-इसके बाद अचानक उनका ‘गीतांजलि’ को लेकर इंग्लैंड व अमेरिका का दौरा शुरू हो गया।’ वे एक बार फिर शांतिनिकेतन लौट आए (यहीं नवंबर, 1913 में उन्हें नोबल पुरस्कार पाने की खबर मिली थी) जब तक कि व्याकुलता ने उन्हें फिर से तंग करना शुरू नहीं किया। अप्रैल, 1916 में उन्होंने मेरे पिता को, कवि होने के नाते अव्यावहारिकता की छूट लेते हुए लिखा, कि मैं ‘दक्षिण जाने की सोच रहा हूं-पता नहीं कहां, शायद प्रशांत के पार।’ उनका अनुमान ठीक ही था। वह ‘राष्ट्रवाद’ की व्याख्यान-यात्रा पर जापान होते हुए अमेरिका जा रहे थे। अमेरिका की यात्रा उन्हें अधूरी ही छोड़ देनी पड़ी थी क्योंकि इससे उन्हें बेहद थकावट हो गई थी हालांकि इस स्थान से पहले के सभी कार्यक्रम उन्होंने पूरे किए थे।
इस व्याख्यान-यात्राओं का एक प्रकट उद्देश्य तो यह था कि शांतिनिकेतन के विद्यालय (जो बाद में विश्वविद्यालय बना) के लिए धन एकत्र किया जा सके। कवि टैगोर पर अंतर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व वाले टैगोर का पलड़ा भारी पड़ रहा था-दुनिया की निगाह में भारतीय संस्कृति और (शायद) राष्ट्रीय अस्मिता के मूर्त रूप के तौर पर। टैगोर लगातार अपने स्वतंत्र निर्णयों पर अपनी पकड़ ढीली होते देख रहे थे। और अपनी ही प्रसिद्धि में कैद होते जा रहे थे। परिणामस्वरूप उन्हें सार्वजनिक पाया जा सकता था। जैसे अंतरंग शिकायतों के बावजूद उन्होंने इससे मुक्त होने के लिए कोई कठोर श्रम भी नहीं किया था। उनकी यूरोप व अमेरिका की यात्राएं उनके अपने प्रिय विषय को ही परिपुष्ट करती थीं-पूर्व की पश्चिम से मिलन,
2. 1905 के बंग-भंग के विरोध शुरू हुआ देशभक्ति का आंदोलन
और विश्व संस्कृति व सार्वभौमिक मानव की खोज। वह तो अपनी नियति को कार्यरूप में परिणत कर रहे थे। जुलाई, 1920 में, लंदन से, उन्होंने सी.एफ. एन्ड्रूज को लिखा था। जब मैं पश्चिम में होता हूँ...मैं उन लोगों के संपर्क में होता हूं, जो मेरी जरूरत को अनुभव व अभिव्यक्त कर पाते हैं।’ उन्हें इस बात पर सदैव आश्चर्य होता कि इन अत्यधिक व्यस्त लोगों ने सुदूर पूर्व की आवाज को ध्यान से सुना है।’ मैं उनके मस्तिष्क की जीवित दुनिया में सत्कार पाता हूं।’’ इसके तुरंत बाद के, फ्रांस से लिखे, अपने पत्र में उन्होंने घर की याद आने के रूप में शांतिनिकेतन के आश्रम में लौटने की इच्छा प्रकट की है : ‘पर मैं यह जानता हूं कि मानवता के इस विशाल विश्व से मेरा रिश्ता जब तक सत्य व प्रेम नहीं बनता, तब तक मेरा आश्रम से रिश्ता भी पूर्णता प्राप्त नहीं कर पाएगा।’’
‘राष्ट्रवाद’ के इन व्याख्यानों के पीछे कुछ ऐतिहासिक दबाव भी थे। इनमें से सबसे प्रमुख दबाव तो प्रथम विश्वयुद्ध का संघात है। युद्ध पूर्व दशक में जनहितैषी उदारतावाद व सार्वभौमवाद का बहुत गुणवान किया गया था और इसके पाश्चात्य व पौर्वात्य संस्कतियों की महान उपलब्धियों का संवाहक माना गया था। स्वयं टैगोर इस आंदोलन से गहरे तक प्रभावित हुए थे। तत्कालीन अग्रणी बंगाली बुद्धिजीवी व दार्शनिक ब्रजेंद्रनाथ सील भी इससे अछूते नहीं रहे थे। वे टैगोर के अंतरंग मित्र व उनके साहित्य के व्याख्याता थे और उनकी वाग्मितापूर्ण एवं बहुश्रुत कृति ‘न्यू ऐस्सेज इन क्रिटिसिज्म’ (1903) इसी विषय की नव- हेगेलवादी व्याख्या है, जो टैगोर की सार्वभौमिक मानवता की धारणा के अनुकूल बैठती हैः
विभिन्न ऐतिहासिक संस्कृतियां, कलाएं, धर्म, दर्शन, संहिताएं, नस्ल-चेतना मानवता अथवा परम आदर्श की आंशिक अवस्थाएं या विभिन्न चरण नहीं हैं; ये विकासमान पूर्णत्व हैं और सार्वभौमिक मानवता के मूल तत्त्व को पूर्ण से कुछ कम या ज्यादा, विशुद्ध से कुछ कम या ज्यादा को अभिव्यक्त करती हैं।
इस सार्वभौमिक गणतंत्र में प्रवेश पाने का द्वार कलाएं अथवा दर्शनशास्त्र था और इसकी फीस निष्पक्षता थी। टैगोर साहित्य के सार्वभौमिक गणतंत्र में पल्लवित हुए थे और उन्होंने अपने इस रचनात्मक प्रभाव को कभी अस्वीकार भी नहीं किया। 1914 में अपने 80 वें जन्मदिन पर दिए गए अपने भाषण में उन्होंने कहा था कि हम ब्रिटेन के बारे में ‘अपनी राय उनके विशाल साहित्य के आधार पर ही बनाते हैं।’ उनके बचपन में चर्चाएं शेक्सपीयर के नाटकों तथा बॉयरन पर ही बनाते हैं।’ उनके बचपन में चर्चाएं शेक्सपीयर के नाटकों तथा बॉयरन की कविता पर केंद्रित रहा करती थीं और साथ ही 19वीं शती की ब्रितानी राजनीति की उदार हृदयता पर भी।
सबसे उल्लेखनीय बात यह थी...कि हम मानवीय महानता को मान्यता प्रदान करते थे, भले ही यह विदेशियों से संबंधित क्यों न हो।’ भारत के वाणिज्यिक व कुलीन वर्ग में, जिनमें टैगोर भी शामिल थे, युद्ध पूर्व वर्षों की वाग्मिता यही होती थी कि प्रशासन, कानून और शिक्षा का भारतीयकरण होना चाहिए : ऑक्सब्रिज के भारतीय स्नातक ब्रिटिश-प्राधान्य को फीका कर रहे थे; लार्ड हार्डिंग की लाटसाहबी के अनुग्रहस्वरूप सम्मान व पदवियां प्रदान की जा रही थीं। सन् 1912 में इंग्लैंड में टैगोर का हार्दिक अभिनंदन, नोबल पुरस्कार और ‘नाइटहुट’ का प्रदान किया जाना इसी उदार नीति का परिणाम था। स्वयं टैगोर द्वारा उग्रवाद का खंडन, ब्रिटिश दृष्टि में उचित व उपयुक्त प्रतिक्रिया थी।
विश्वयुद्ध के छिड़ जाने के बाद इस प्रबुद्ध वाग्मिता का मखौल उड़ा। युद्ध के छिड़ने पर ब्रजेंद्रनाथ सील ने मेरे पिता को लिखा था :
ओह....यह सभ्यता के विरुद्ध अपराध है। इस सैनिक अपील का क्या हुआ,
जो यह मानती थी कि युद्ध के लिए तैयार रहना ही शांति बनाए रखने की सर्वोत्तम गारंटी है ? नहीं, ये हथियार तो प्रयुक्त होंगे ही; और ऐसी तैयारी का अनिवार्य अंत हथियारों के उस उपयोग में होगा जिसके लिए ये बनाए गए हैं।
और कुछ दिन बाद उन्होंने हमारी पृथ्वी के घूरे पर खड़े हल्के दिमाग वाले दो पाए की घोर भर्त्सना कर डाली :
आप चाहे जैसी ‘वर्तनी’ में लिखें, युद्ध का अर्थ हत्या, लूटपाट, बलात्कार, आगजनी और अन्य सभी महा अपराधों का संयोजित विस्फोटक अवयव होता है। और आज सभी अपराधों में, राष्ट्रवाद शायद सबसे अधिक घिनौना तथा घातक अपराध है। जब यह जमीन हड़पने की प्रवृत्ति से किया जाता है, तब यह लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ऐसे साधन अपनाता है जिससे युद्ध होता ही है....
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