महान व्यक्तित्व >> बीरबल साहनी बीरबल साहनीशक्ति एम. गुप्ता
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वैज्ञानिक, विद्वान, देशभक्त एवं धार्मिक प्रोफेसर साहनी विशेषकर पुरावनस्पति विज्ञान और भूमिविज्ञान में योगदान के लिए विख्यात हैं।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
वैज्ञानिक विद्वान देशभक्त एवं धार्मिक प्रोफेसर साहनी विशेषकर
पुरावनस्पति विज्ञान और भूविज्ञान में योगदान के लिए विख्यात है।
पुरावनस्पत्ति विज्ञान भूवैज्ञानिक अतीत के पादपों से संबंधित विज्ञान है।
यह पादप जीवाश्मों अथवा शैलों में सुरक्षित पादप अवशेषों पर आधारित है।
जीवाश्मी वनस्पति विज्ञान का कोई भी ऐसा पक्ष नहीं है जिसमें कुछ न कुछ
सफलतापूर्वक अन्वेषण प्रोफेसर ने न किया हो। उन्होंने अपने पदचिह्न काल
सैकत पर नहीं वरन भूवैज्ञानिक कालमान पर छोड़ रखे हैं।
डा. (श्रीमती) शक्ति एम. गुप्ता (जन्म 1927) प्रोफेसर साहनी की भान्जी हैं। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय और जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक के मार्टिन लूथर विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की उपाधि ली। उनके प्रकाशनों में निम्न पुस्तकें सम्मिलित हैं : भारत में पादपों से संबंधित मिथक एवं रूढ़ियां, विष्णु और उनके अवतार; सूर्या सूर्य-देवता; दैत्यों से देवताओं तक हिन्दू पुराण विद्या में।
डा. (श्रीमती) शक्ति एम. गुप्ता (जन्म 1927) प्रोफेसर साहनी की भान्जी हैं। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय और जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक के मार्टिन लूथर विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की उपाधि ली। उनके प्रकाशनों में निम्न पुस्तकें सम्मिलित हैं : भारत में पादपों से संबंधित मिथक एवं रूढ़ियां, विष्णु और उनके अवतार; सूर्या सूर्य-देवता; दैत्यों से देवताओं तक हिन्दू पुराण विद्या में।
आभार
अपने जीवन में जो गतिनिर्धारक एवं मार्ग अन्वेषक होते हैं उनके संबंध में
लिखना आसान नहीं और प्रोफेसर बीरबल साहनी ऐसे ही व्यक्ति थे।
इस जीवनी के लिखने में मैंने डा. साहनी की बहन लक्षवंती मल्होत्रा और उनकी पत्नी श्रीमती सावित्री साहनी के बाल्काल के संस्मरणों का व्यापक रूप से उपयोग किया है। श्रीमती साहनी के जीवन का ध्येय उन कार्यों को जीवित रखना और चलाते रहना है जिन्हें डा.साहनी अपनी अकाल मृत्यु के कारण पूरा नहीं कर सके। उन्होंने कृपा करके अपने पास सुरक्षित लेखों को मुझे देखने के लिए दिया, जिनसे मैंने अनेक बातें लीं। इसके अतिरिक्त मुझसे चर्चा करने के लिए उन्होंने अपना अमूल्य समय भी दिया।
अपने भाई डा.प्रह्लाद देव मल्होत्रा और ले.कर्नल अरविन्द देव मल्होत्रा की भी मैं आभारी हूँ, जिनकी सहायता, इस जीवनी की सामग्री की चयन करने में बहुमूल्य सिद्ध हुई। लखनऊ के बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान के डा.आर.एन. लखनपाल ने कृपा करके पांडुलिपि का अवलोकन किया और अनेक सुझाव दिये जो बड़े सहायक सिद्ध हुए।
प्रोफेसर बीरबल साहनी के अकस्मात देहावसान हो जाने पर उनके बहुसंख्यक अनुसंधान लेखों तथा विद्वत्जनों द्वारा इस महाभाव को अर्पित श्रद्धांजलियों से मैंने प्रचुर सामग्री ली है।
लखनऊ स्थित पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान, विज्ञान में उनके योगदान का स्थायी स्मारक है। यदि उनका निधन कुछ वर्षों बाद होता है तो पुरावनस्पति विज्ञान और वैज्ञानिक जगत की उपलब्धियां और अधिक होतीं, परंतु जैसा किसी कवि ने कहा है, भले लोग जल्दी चले जाते हैं, पर ग्रीष्म की धूलि के समान सूखे हृदय वाले जीवन की आखिरी सांस तक तिल तिल करके मरते हैं।"
इस जीवनी के लिखने में मैंने डा. साहनी की बहन लक्षवंती मल्होत्रा और उनकी पत्नी श्रीमती सावित्री साहनी के बाल्काल के संस्मरणों का व्यापक रूप से उपयोग किया है। श्रीमती साहनी के जीवन का ध्येय उन कार्यों को जीवित रखना और चलाते रहना है जिन्हें डा.साहनी अपनी अकाल मृत्यु के कारण पूरा नहीं कर सके। उन्होंने कृपा करके अपने पास सुरक्षित लेखों को मुझे देखने के लिए दिया, जिनसे मैंने अनेक बातें लीं। इसके अतिरिक्त मुझसे चर्चा करने के लिए उन्होंने अपना अमूल्य समय भी दिया।
अपने भाई डा.प्रह्लाद देव मल्होत्रा और ले.कर्नल अरविन्द देव मल्होत्रा की भी मैं आभारी हूँ, जिनकी सहायता, इस जीवनी की सामग्री की चयन करने में बहुमूल्य सिद्ध हुई। लखनऊ के बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान के डा.आर.एन. लखनपाल ने कृपा करके पांडुलिपि का अवलोकन किया और अनेक सुझाव दिये जो बड़े सहायक सिद्ध हुए।
प्रोफेसर बीरबल साहनी के अकस्मात देहावसान हो जाने पर उनके बहुसंख्यक अनुसंधान लेखों तथा विद्वत्जनों द्वारा इस महाभाव को अर्पित श्रद्धांजलियों से मैंने प्रचुर सामग्री ली है।
लखनऊ स्थित पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान, विज्ञान में उनके योगदान का स्थायी स्मारक है। यदि उनका निधन कुछ वर्षों बाद होता है तो पुरावनस्पति विज्ञान और वैज्ञानिक जगत की उपलब्धियां और अधिक होतीं, परंतु जैसा किसी कवि ने कहा है, भले लोग जल्दी चले जाते हैं, पर ग्रीष्म की धूलि के समान सूखे हृदय वाले जीवन की आखिरी सांस तक तिल तिल करके मरते हैं।"
नयी दिल्ली
1978
1978
शक्ति एम. गुप्ता
1
पुरावनस्पतिज्ञ
प्रोफेसर बीरबल साहनी के लिए 10 अप्रैल, 1949 की अर्धरात्रि में भगवान के
यहां से बुलावा आ गया। यह बुलावा उस समय आया जब प्रोफेसर साहनी अपनी
व्यवसायिक वृत्तिका के शिखर पर थे और संसार के अग्रणी पुरावनस्पतिज्ञों
में से एक के रूप में दूर दूर तक विख्यात थे।
सितंबर 1948 में प्रोफेसर बीरबल साहनी संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के व्याख्यान पर्यटन से लौटकर भारत आए। पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान के भवन की लखनऊ में नीव रखी जानी थी। उनका परम अभीष्ट स्वप्न साकार होने जा रहा था, पर वे थके हारे प्रतीत होते थे। उन्हें पूर्ण विश्राम करने की सलाह दी गई और भविष्य के कार्यक्रम में निमग्न होने के पूर्व पुनः स्वास्थ्य लाभ के लिए अल्मोड़ा घूम आने को कहा गया। परंतु प्रोफेसर साहनी लखनऊ में रुके रहने और अपने पूर्व निर्धारित कार्य को संपन्न करने पर अडिग थे। ऐसा प्रतीत होता था कि उन्हें अपनी मृत्यु का पूर्वाभास मिल गया था। इस कार्याधिक्य और दुश्चिंता के फलस्वरूप उन पर हद्धमनी का आक्रमण हुआ, जो घातक सिद्ध हुआ। यह दुखद दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री और उनके निजी मित्र पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान के भवन की आधारशिला रखे जाने के ठीक एक सप्ताह बाद आया।
3 अप्रैल 1949 को संस्थान की आधारशिला विशिष्ट व्यक्तियों की उपस्थिति में 53, विश्वविद्यालय मार्ग, लखनऊ में रखी गई। 3 फुट 2 फुट आकार की आधारशिला चित्रित थी। यह संसार भर के सत्ततर दुर्लभ जीवाश्म प्रतिदर्शों में अंतःस्थापित कर बनाई गई थी और उनके घर पर स्वयं उन्हीं की देखरेख में दृढ़ीभूत की गई थी। यह विचित्र संयोग था कि पंडित नेहरू ने भी वनस्पति विज्ञान तथा भूविज्ञान का अध्ययन कैम्ब्रिज में किया था। वे प्रोफेसर साहनी के लगभग समकालीन थे और दोनों का जन्म 14 नवंबर को हुआ था।
यह विधि की विडंबना ही है कि जिस स्थान पर खड़े होकर प्रोफेसर साहनी ने केवल एक सप्ताह पूर्व उद्घाटन भाषण दिया था, वही स्थान बाद में उनका चिर विश्राम स्थल बना और उसी स्थान पर उनके नश्वर शरीर को विलाप करते हुए संबंधियों, मित्रों, शिष्यों और सहयोगियों के समक्ष पवित्र अग्नि को समर्पित किया गया। इस प्रकार वह सतत् सक्रिय व्यक्ति जिसने तीस वर्ष से अधिक समय तक कठोर परिश्रम किया था और वैज्ञानिक जगत को पुरावनस्पति विज्ञान का नवीन परिप्रेक्ष्य दिया था, अंततोगत्वा शांति की गोद में सो गया।
उनके जीवन के अंतिम दस वर्ष लखनऊ में पुरावनस्पति विज्ञान के संस्थान की स्थापना के लिए समर्पित थे। बहुत पहले 1939 में ही संपन्न किए गए अनुसंधान कार्यों को समन्वित करने और समय समय पर रिपोर्ट प्रकाशित करने के लिए वरिष्ठ पुरावनस्पतिज्ञों की एक समिति गठित की गई थी। 19 मई, 1946 को पुरावनस्पति विज्ञान समिति की स्थापना की गई तथा एक ट्रस्ट बनाया गया जिसका उद्देश्य व्यापक अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण वाला एक ऐसा अनुसंधान संस्थान स्थापित करना था जिसमें एक संग्रहालय पुस्तकालय, प्रयोगशाला, आवास के लिए मकान तथा अनुषंगी भवन हो। एक संचालन मंडल का भी गठन किया गया जिसके अवैतनिक निदेशक प्रोफेसर साहनी नियुक्त किए गए। सब ओर से इसके लिए धन की वर्षा
होने लगी और इंपीरियल केमिकल इंडस्ट्रीज तथा बरमा शैल ने दो अनुसंधान अध्येतावृत्तियों की भी व्यवस्था कर दी।
पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान, जिसे साकार बनाने के लिए डा.साहनी ने इतना घोर परिश्रम किया था, उनका आजीवन लक्ष्य रहा। इस प्रकार से संस्थान को आरंभ करने का विचार उनके मन में चौथे दशक के मध्य में ही उठा था। यद्यपि उन्होंने संस्थान का बीज तो आरोपित किया पर उसमें फूल खिलते हुए देखना उनके भाग्य में नहीं लिखा था।
इस संस्थान को दृढ़ नींव पर खड़ा करने और अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त कराने का कार्य उनकी पत्नी श्रीमती सावित्री साहनी के लिए रह गया। उन्होंने सराहनीय काम किया है। यह संस्थान आज जिस रूप में है, उसका बहुत कुछ श्रेय उनके साहस को है, जिससे उन्होंने बड़ी-बड़ी कठिनाइयां सही हैं। प्रोफेसर साहनी के अंतिम शब्द ‘संस्थान का प्रतिपालन करना’ उन्हीं के लिए कहे गए थे।
सितंबर 1948 में प्रोफेसर बीरबल साहनी संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के व्याख्यान पर्यटन से लौटकर भारत आए। पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान के भवन की लखनऊ में नीव रखी जानी थी। उनका परम अभीष्ट स्वप्न साकार होने जा रहा था, पर वे थके हारे प्रतीत होते थे। उन्हें पूर्ण विश्राम करने की सलाह दी गई और भविष्य के कार्यक्रम में निमग्न होने के पूर्व पुनः स्वास्थ्य लाभ के लिए अल्मोड़ा घूम आने को कहा गया। परंतु प्रोफेसर साहनी लखनऊ में रुके रहने और अपने पूर्व निर्धारित कार्य को संपन्न करने पर अडिग थे। ऐसा प्रतीत होता था कि उन्हें अपनी मृत्यु का पूर्वाभास मिल गया था। इस कार्याधिक्य और दुश्चिंता के फलस्वरूप उन पर हद्धमनी का आक्रमण हुआ, जो घातक सिद्ध हुआ। यह दुखद दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री और उनके निजी मित्र पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान के भवन की आधारशिला रखे जाने के ठीक एक सप्ताह बाद आया।
3 अप्रैल 1949 को संस्थान की आधारशिला विशिष्ट व्यक्तियों की उपस्थिति में 53, विश्वविद्यालय मार्ग, लखनऊ में रखी गई। 3 फुट 2 फुट आकार की आधारशिला चित्रित थी। यह संसार भर के सत्ततर दुर्लभ जीवाश्म प्रतिदर्शों में अंतःस्थापित कर बनाई गई थी और उनके घर पर स्वयं उन्हीं की देखरेख में दृढ़ीभूत की गई थी। यह विचित्र संयोग था कि पंडित नेहरू ने भी वनस्पति विज्ञान तथा भूविज्ञान का अध्ययन कैम्ब्रिज में किया था। वे प्रोफेसर साहनी के लगभग समकालीन थे और दोनों का जन्म 14 नवंबर को हुआ था।
यह विधि की विडंबना ही है कि जिस स्थान पर खड़े होकर प्रोफेसर साहनी ने केवल एक सप्ताह पूर्व उद्घाटन भाषण दिया था, वही स्थान बाद में उनका चिर विश्राम स्थल बना और उसी स्थान पर उनके नश्वर शरीर को विलाप करते हुए संबंधियों, मित्रों, शिष्यों और सहयोगियों के समक्ष पवित्र अग्नि को समर्पित किया गया। इस प्रकार वह सतत् सक्रिय व्यक्ति जिसने तीस वर्ष से अधिक समय तक कठोर परिश्रम किया था और वैज्ञानिक जगत को पुरावनस्पति विज्ञान का नवीन परिप्रेक्ष्य दिया था, अंततोगत्वा शांति की गोद में सो गया।
उनके जीवन के अंतिम दस वर्ष लखनऊ में पुरावनस्पति विज्ञान के संस्थान की स्थापना के लिए समर्पित थे। बहुत पहले 1939 में ही संपन्न किए गए अनुसंधान कार्यों को समन्वित करने और समय समय पर रिपोर्ट प्रकाशित करने के लिए वरिष्ठ पुरावनस्पतिज्ञों की एक समिति गठित की गई थी। 19 मई, 1946 को पुरावनस्पति विज्ञान समिति की स्थापना की गई तथा एक ट्रस्ट बनाया गया जिसका उद्देश्य व्यापक अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण वाला एक ऐसा अनुसंधान संस्थान स्थापित करना था जिसमें एक संग्रहालय पुस्तकालय, प्रयोगशाला, आवास के लिए मकान तथा अनुषंगी भवन हो। एक संचालन मंडल का भी गठन किया गया जिसके अवैतनिक निदेशक प्रोफेसर साहनी नियुक्त किए गए। सब ओर से इसके लिए धन की वर्षा
होने लगी और इंपीरियल केमिकल इंडस्ट्रीज तथा बरमा शैल ने दो अनुसंधान अध्येतावृत्तियों की भी व्यवस्था कर दी।
पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान, जिसे साकार बनाने के लिए डा.साहनी ने इतना घोर परिश्रम किया था, उनका आजीवन लक्ष्य रहा। इस प्रकार से संस्थान को आरंभ करने का विचार उनके मन में चौथे दशक के मध्य में ही उठा था। यद्यपि उन्होंने संस्थान का बीज तो आरोपित किया पर उसमें फूल खिलते हुए देखना उनके भाग्य में नहीं लिखा था।
इस संस्थान को दृढ़ नींव पर खड़ा करने और अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त कराने का कार्य उनकी पत्नी श्रीमती सावित्री साहनी के लिए रह गया। उन्होंने सराहनीय काम किया है। यह संस्थान आज जिस रूप में है, उसका बहुत कुछ श्रेय उनके साहस को है, जिससे उन्होंने बड़ी-बड़ी कठिनाइयां सही हैं। प्रोफेसर साहनी के अंतिम शब्द ‘संस्थान का प्रतिपालन करना’ उन्हीं के लिए कहे गए थे।
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पारिवारिक पृष्ठभूमि
प्रोफेसर बीरबल साहनी, प्रोफेसर रुचिराम साहनी एवं श्रीमती ईश्वर देवी की
तीसरी संतान थे। उनका जन्म नवंबर, 1891 को पश्चिमी पंजाब के शाहपुर जिले
के भेरा नामक एक छोटे से व्यापारिक नगर में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में
है। उनका परिवार वहां डेराइस्माइल खान से स्थानांतरित हो कर बस गया था।
भेरा में उनका जन्म होना आकस्मिक घटना नहीं थी। लेखिका ने अपनी माता, प्रोफेसर बीरबल साहनी की सबसे छोटी बहन, श्रीमती लक्षवंती मल्होत्रा से सुना है कि उनकी माता श्रीमती ईश्वर देवी की धारणा थी कि परिवार से संबंधित सभी सुभ संस्कार तथा महत्वपूर्ण कार्य उनके परिवारिक घर में होने चाहिए। अतएव प्रत्येक बार बच्चा जनने की संभावना होने पर वे लाहौर से भेरा चली जाती थीं। बीरबल साहनी के जन्म को बड़ा शुभ माना गया, क्योंकि जन्म के समय थोड़ी वर्षा हुई थी, जिसे हिंदू अत्यंत शुभ मानते हैं।
कुटुंब के लोग स्कूल एवं कालेज की छुट्टियों में अक्सर भेरा चले जाते थे। वहां से युवा बीरबल अपने पिता तथा भाइयों के साथ आसपास के देहात के ट्रेक (कष्टप्रद यात्रा) पर निकल जाते। इन ट्रेकों में निकटस्थ लवण पर्वतमाला भी शामिल रहती, विशेषकर खेवड़ा। संभवत उसी समय उसके मन में भूविज्ञान तथा पुरावनस्पति विज्ञान के प्रति रुचि जागृत हुई, क्योंकि लवण पर्वतमाला में पादपयुक्त शैल समूह थे। वास्तव में वह भूविज्ञान का संग्रहालय ही था। बाद के वर्षों में प्रोफेसर साहनी ने इस क्षेत्र के भूवैज्ञानिक काल-निर्धारण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
प्रोफेसर साहनी केवल वैज्ञानिक तथा विद्वान ही नहीं, वरन बड़े देशभक्त भी थे। वे बड़े ही धार्मिक थे, पर अपने धार्मिक विचारों की कभी चर्चा नहीं करते थे। वे उत्कृष्ट गुणों से संपन्न व्यक्ति थे, उदार एवं आत्मत्यागी थे। उनमें ये गुण अपने पिता से आए थे जो स्वयं सभी सद्गुणों की मूर्ति थे। प्रोफेसर रुचिराम साहनी श्रेष्ठ विद्वान थे और समाज सुधार, विशेषकर स्त्री-स्वतंत्रता के क्षेत्र में अग्रणी थे।
यह परिवार मूल रूप से सिंधु नदी के तट पर स्थित महत्वपूर्ण व्यापारी नगर डेराइस्माइल खान का था। प्रोफेसर रुचिराम साहनी जब बहुत कम आयु के थे तभी उन्हें यह शहर छोड़ना पड़ा क्योंकि परिवार की आर्थिक दशा बिगड़ गई और उनके पिता की मृत्यु हो गई, जिनका महाजनी का काम किसी समय खूब चलता था। लेखिका अभी स्कूल में पढ़ रही थी।
उसे अपने पितामह प्रोफेसर साहनी से अपने परिवार का इतिहास उस समय ज्ञात हुआ, जब वह उनके साथ कश्मीर स्थित गुरमर्ग में गर्मी की छुट्टियां बिता रही थी। प्रोफेसर रुचिराम साहनी किस कठोर धातु के बने थे यह इन कहानियों से समझा जा सकता है। निस्संदेह इसका प्रभाव उनके पुत्र बीरबल साहनी पर भी पड़ा। इस संबंध में एक खास किस्से का उल्लेख करना समीचीन होगा।
जब परिवार के लोगों को डेराइस्माइल खान स्थित अपने विशाल भवन को छोड़कर एक छोटे से घर में रहना पड़ा और विलासिता की सभी चीजों को छोड़ देना पड़ा, तब रुचिराम साहनी ने अपने पिता के पास आकर शिकायत की कि उनके बचपन के साथी उन्हें चिढ़ाते हैं क्योंकि उस समय वे रेशम की कमीज या सोने की बालियां और कड़े नहीं पहनते थे जो उन दिनों संपन्न लोगों की प्रामाणिकता का चिह्न था। उनके पिता का उत्तर था, चारों ओर
काले-काले बादल घिर आए हैं; वे जितना भी बरसना चाहें बरसें, पर केवल कपड़ों को ही भिगो सकते हैं, आंतरिक उत्साह को ठँडा नहीं कर सकते एक न एक दिन ये बादल छंट जाएंगे।
परंतु कहना जितना आसान था, करना उतना नहीं। अभी रुचिराम साहनी बच्चे ही थे कि उनके पिता की मृत्यु हो गई। उसके बाद डेराइस्माइल खान में, जहाँ परिवार को प्रतिष्ठा एवं ऐश्वर्य प्राप्त था, रहना संभव नहीं था। पर रुचिराम साहनी पारिवारिक वैभव को लगे इस पहले धक्के से डरने वाले नहीं थे। वे अपनी पुस्तकों के पुलिंदे सहित, हर कीमत पर शिक्षा प्राप्त करने का संकल्प लिए, एक सौ पचास मील दूर झंग चले गए। यह शहर अब पश्चिमी पंजाब, पाकिस्तान में है।
उन्होंने केवल छात्रवृत्ति के सहारे शिक्षा प्राप्त की। बुद्धिमान और होनहार बालक होने के कारण उन्हें छात्रवृत्तियां प्राप्त करने में कठिनाई नहीं हुई। प्रारंभिक दिन बड़े ही कष्ट में बीते। अपनी झंग यात्रा के संबंध में उन्होंने लेखिका को एक रोचक कहानी सुनाई। रास्ते में जब रात घिरने को आई तब वे एक छोटे-से पड़ाव पर पहुंचे।
उनके पास किताबों का गट्ठर और एक रुपया बीस पैसे थे, जो उनके जैसे विपन्न बालक के लिए एक खजाने के ही समान था। सराय में उनके ठहरने का प्रश्न ही नहीं उठता था। उनके सामने केवल दो विकल्प थे। रात या तो किसी अस्तबल में बिताएं या किसी पेड़ पर चढ़कर सो जाएं। वे डरते थे कि अस्तबल में उनकी किताबें चोरी न चली जाएं जो उनकी अमूल्य निधि थीं। अतः वे एक पेड़ पर चढ़ गए, पर गिरने के डर से आंखें भी बंद नहीं कीं। छात्र-जीवन के ऐसे दुखमय दिनों के बाद वे बढ़ते बढ़ते लाहौर के शासकीय कालेज में रसायन शास्त्र के प्रोफेसर के पद पर आसीन हो गए। लाहौर तब तक परिवार का घर बन गया था और भेरा गौण स्थान पर चला गया था। यद्यपि यह परिवार अब भी भरुची अर्थात् भेरा निवासी कहलाता था।
प्रोफेसर रुचिराम साहनी ने उच्च शिक्षा के लिए अपने पांचों पुत्रों को इंग्लैंड भेजा तथा स्वयं भी वहां गए। वे मैनचेस्टर गए और वहां कैम्ब्रिज के प्रोफेसर अर्नेस्ट रदरफोर्ड तथा कोपेनहेगन के नाइल्सबोर के साथ रेडियो एक्टिविटी पर अन्वेषण कार्य किया। प्रथम महायुद्ध आरंभ होने के समय वे जर्मनी में थे और लड़ाई छिड़ने के केवल एक दिन पहले किसी तरह सीमा पार कर सुरक्षित स्थान पर पहुंचने में सफल हुए। वास्तव में उनके पुत्र बीरबल साहनी की वैज्ञानिक जिज्ञासा की प्रवृत्ति और चारित्रिक गठन का अधिकांश श्रेय उन्हीं की पहल एवं प्रेरणा, उत्साहवर्धन तथा दृढ़ता, परिश्रम और
ईमानदारी को है। इनकी पुष्टि इस बात से होती है कि प्रोफेसर बीरबल साहनी अपने अनुसंधान कार्य में कभी हार नहीं मानते थे, बल्कि कठिन से कठिन समस्या का समाधान ढूंढ़ने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। इस प्रकार, जीवन को एक बड़ी चुनौती के रूप में मानना चाहिए, यही उनके कुटुंब का आदर्श वाक्य बन गया था।
प्रोफेसर बीरबल साहनी स्वतंत्रता संग्राम के पक्के समर्थक थे। इसका कारण भी संभवतया उनके पिता का प्रभाव ही था। उनके पिता ने असहयोग आंदोलन के दिनों, 1922 में अंग्रेज सरकार द्वारा प्रदान की गई अपनी पदवी अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार के विरोध में वापस कर दी थी यद्यपि उनको धमकी दी गई कि पेंशन बंद कर दी जाएगी। रुचिराम साहनी का उत्तर था कि वे परिणाम भोगने को तैयार हैं। पर उनके व्यक्तित्व और लोकप्रियता का इतना जोर था कि अंग्रेज सरकार को उनकी पेंशन छूने की हिम्मत नहीं पड़ी और वह अंत तक उन्हें मिलती रही।
वे दिन उथल-पुथल के थे। स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम उत्कर्ष पर था। देश के लक्ष्य पूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्ति में देशभक्ति की भावना से भरे सभी मनुष्य किसी न किसी प्रकार से योगदान कर रहे थे। इस संक्रांति काल में उनके लाहौर स्थित, भवन में मेहमान के रूप में ठहरने वाले मोतीलाल नेहरू, गोखले, मदन मोहन मालवीय, हकीम अजमलखां जैसे राजनीतिक व्यक्तियों का प्रभाव भी उनके राजनीतिक संबंधों पर पड़ा। ब्रैडला हाल के समीप उनके मकान के स्थित होने का भी उनके राजनीतिक झुकावों पर असर पड़ा क्योंकि ब्रैडला हाल पंजाब की राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र था। उन दिनों
राजनीतिक नेताओं की गिरफ्तारियों, राजनीतिक सभाओं की बैठकों अश्रुबमों के छोड़े जाने, बेगुनाहों पर लाठी प्रहार और अंधाधुंध गिरफ्तारियों की खबरें लगभग रोज ही आती थीं। युवक बीरबल के संवेदनशील मन पर इन सब बातों का प्रभाव पड़े बिना न रहा होगा। फलतः विदेश में अपनी शिक्षा पूरी करके 1918 में भारत लौटने के तुरंत बाद से बीरबल साहनी ने हाथ का कता खादी का कपड़ा पहनना आरंभ कर दिया और इस प्रकार अपनी राजनीतिक भावनाओं को व्यवहारिकता का रूप दिया।
बीरबल साहनी बड़े निष्ठावन पुरुष थे। संभवतया यह गुण उन्होंने अपनी आत्मत्यागी माता से पाया था, जो रुढ़िवादी और दिखावा रहित होते हुए भी ठेठ पंजाबी महिला थीं मन की दृढ़ और बहादुर। उन्होंने अनेक कठिनाइयों से गुजरते हुए परिवार की नाव को पार लगाया। कट्टरपंथी मित्रों तथा संबंधियों के दृढ़ विरोध और स्वयं अपनी अनुदारवादिता के
बावजूद वे पुत्रियों को उच्च शिक्षा दिलाने की पति की इच्छा को मान गईं। वर्तमान शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में यह अपने आप में क्रांतिकारी कदम था। वास्तव में उन्होंने अपने सभी बच्चों को स्वस्थ शिक्षा दिलाने का प्रयत्न किया, जो उनके बाद के जीवन में बड़े काम आई। प्रोफेसर रुचिराम साहनी की तृतीय पुत्री श्रीमती कोहली को पंजाब विश्वविद्यालय लाहौर की प्रथम महिला स्नातक होने का गौरव प्राप्त था। उन दिनों की प्रथानुसार लड़कियों का विवाह कम आयु में ही कर दिया जाता था, अतएव श्रीमती ईश्वर देवी लड़कियों का विवाह बड़ी आयु में करने के पक्ष में नहीं थीं, फिर भी उन्होंने पति की इच्छा मानकर परिवार की लड़कियों का विवाह अल्पायु में ही करने पर जोर नहीं दिया।
बीरबल साहनी बचपन में ही अपनी दयालुता के लिए प्रसिद्ध हो गए थे। भाई-बहनों में झगड़ा होने पर सदैव उन्हीं को मध्यस्थ चुना जाता था, क्योंकि वे निष्पक्ष माने जाते थे। कोई यह धारणा न बना ले कि वे गंभीर प्रकृति के विनोद रहित युवक हैं, इसलिए मैं जोर देकर कहना चाहती हूं कि वे क्रियात्मक परिहास के लिए प्रसिद्ध थे और बहुधा अपने छोटे भाइयों और बहनों के अगुआ बनकर उनसे ऐसे उपद्रव कराते कि उनके पिता बड़ी उलझन में पड़ जाते। यह उपद्रवी प्रवृत्ति अनेक
रूपों में प्रकट होती। एक बार परिवार के लोग छुट्टी बिताने के लिए गर्मी में शिमला गए हुए थे। वहाँ वे लोग परिवार के कुछ मित्रों के साथ एक ही घर तथा बगीचे का उपयोग करते थे। सब्जी के बगीचे में उन लोगों ने मक्का तथा ककड़ी लगाई थी। किसी कारणवश बीरबल के कुटुंब को लाहौर लौटना पड़ा। इसका अर्थ यह था कि सब्जी के बगीचे का, जिसमें ककड़ी लगी हुई थी, आनंद केवल उनकी पड़ौसी उठाते। यह बात उपद्रवी युवा बीरबल की सहनशक्ति के परे थी। उन्होंने योजना बनाई कि जाने से पहले रात्रि में सभी पके फल तोड़ लिए जाएं और सभी पौधों की जडें एकदम मूल से ही काट दी जाएं ताकि शैतानी का पता न चल सके। उनकी बहनों और भाइयों ने विधिवत इस योजनानुसार कार्रवाई की और
परिणास्वरूप पौधे उसके बाद शीघ्र ही सुख गए। उनके पड़ोसियों की समझ में ही नहीं आया कि सिंचाई करने और खाद देने पर भी पौधे किस कारण जीवित न बच सके। इस शरारत का पता उन्हें बहुत बाद में लगा जब वे लोग छुट्टी खतम होने के बाद वापस लौटकर लाहौर आये और अपने साथ किए गए छल को जाना।
बाद के जीवन में भी बीरबल साहनी अपने युवा भतीजों और भतीजियों के साथ सदा क्रियात्मक परिहास करते रहते थे या वनस्पति विज्ञान संबंधी पर्यटनों में अपने छात्रों को हास्य विनोद की बातें और चुटकले सुनाया करते थे। उनके भतीजे भतीजियों ने उनका नाम ‘तमाशे वाला अंकल’ रख दिया था। उनका प्रिय परिहास था दस्ताना पहने हुए बंदर के खिलौने के साथ खिलवाड़ करना। इसे उन्होंने 1913 में जर्मनी में खरीदा था जब वे ग्रीष्म के अर्धवार्षिक पाठ्यक्रम में, सम्मिलित होने के लिए वहां गए थे। इसके अंतर्गत म्यूनिख में वनस्पति विज्ञान पर प्रोफेसर गोयबेल के व्याख्यान होते थे। दस्ताना पहने हुए बंदर को वे इस तरह पकड़े रहते थे कि जब तक किसी को मालूम न हो कि यह खिलौना है वह यही समझता था
कि यह बंदर का बच्चा है, जिसे वे पुचकार रहे हैं। दस्ताने वाले बंदर को न केवल सब बच्चों के मनोरंजन का वरन एक प्रकार से उनके और पत्नी के बीच के संकोच को दूर करने का भी श्रेय था। जब प्रोफेसर साहनी विवाह के बाद पहली बार पत्नी से मिलने आए तब अपने और युवा पत्नी के बीच की संकोचभरी चुप्पी और उलझन को दूर करने के लिए उन्होंने कोट के पाकेट से झांकते हुए बंदर का केवल मुंह पत्नी को दिखाया और कहा, "यह मेरा पालतू बंदर है जो मुझे अत्यंत प्रिय है। अब तक केवल मैं ही इसकी देखभाल करता रहा हूं, लेकिन मैं चाहता हूं कि अब से तुम इसकी देखभाल करो।" उसके बाद उन्होंने पत्नी से बंदर को पुचकारने को कहा, क्योंकि उसे स्नेह और प्यार चाहिए था। उनकी पत्नी को यह नहीं मालूम था
कि वह बंदर केवल खिलौना है, अतः उसे छूने में उन्हें हिचकिचाहट हुई। बंदर के समीप जाने पर जब उन्हें मालूम हुआ कि वह मात्र खिलौना है और प्रोफेसर साहनी ने केवल परिहास किया है तब दोनों ही हंस पड़े और उनके बीच का संकोच दूर हो गया।
प्रोफेसर साहनी का साहचर्य अपने प्रिय खिलौने, दस्ताने युक्त बंदर के साथ इतना अधिक था कि उनको इससे अलग करना कठिन था। वह उदास मानवीय। मुखाकृति वाला बंदर सौभाग्यजनक था और दूरस्थ देशों तक जहाज, भूमि तथा वायु मार्ग से उनके साथ सब स्थानों की यात्रा पर जाया करता था। कोई भी ऐसा देश नहीं था कि जहां प्रोफेसर साहनी दस्तानेयुक्त बंदर को साथ लिए बिना गए हों। यह खिलौना बंदर, जिसका नाम उन्होंने गिप्पी रखा था, प्रोफेसर साहनी की अन्य मूल्यवान वस्तुओं के साथ पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान में उनके कक्ष में प्रदर्शन की प्रतीक्षा में है।
बीरबल साहनी का पालन उदार भावनाओं के वातावरण में हुआ था। रसायन शास्त्र के अध्ययन के लिए पिता कलकत्ता गए थे क्योंकि पंजाब विश्वविद्यालय में उस समय उसके लिए यथोचित साधन उपलब्ध नहीं थे। वह ऐसा समय था जब कलकत्ता में ब्रह्म समाज का आंदोलन खूब जोरों पर था। केशवचंद्र सेन के व्याख्यानों को सुनकर वे ब्रह्म समाज के सिद्धांतों से बड़े प्रभावित हुए और इस नवीन प्रगतिशील समाज के दृढ़ अनुयायी बनकर लाहौर लौटे। ब्रह्म समाज सामाजिक और धार्मिक चेतना का जागरण था जिसने आज के बदले हुए युग के संदर्भ में निरर्थक अनेक पुराने रीति-रिवाजों को तोड़ डाला
था। इसकी एक बड़ी प्रगतिशील प्रवृत्ति थी, जाति-पांति के बंधन से मुक्त होना। लाहौर ब्रह्म समाज दल के एक नेता के रूप में प्रोफेसर रुचिराम साहनी ने इसे व्यवहारिकता में परिणत कर अपने सबसे बड़े लड़के डा. विक्रमजीत साहनी की शादी जाति के बाहर कर दी और अपनी बिरादरी को चुनौती दी कि यदि साहस हो तो उन्हें जाति से बहिष्कृत कर दें।
बहिष्कार करने का साहस तो किसी को नहीं हुआ, पर अनेक लोगों ने असहमति अवश्य व्यक्त की। उनके लाहौर के गृह में जाति, संप्रदाय या धर्म का बंधन नहीं था। सभी धर्मों के मानने वाले वहां बराबर आया करते थे और राजनैतिक, धार्मिक तथा साहित्यिक वाद-विवाद खुलकर होते थे। जब पंजाब में आर्य समाज का सामाजिक-धार्मिक, राजनैतिक और शैक्षिक आंदोलन चला, प्रोफेसर रुचिराम साहनी लाहौर के उन प्रमुख बुद्धिजीवियों में थे जिन्होंने इस पर अपनी सहमती की
घोषणा की थी। बीरबल साहनी का पालन-पोषण ऐसे वातावरण में हुआ था जिसमें बड़ों की आज्ञा मानने की तो आशा की जाती थी, पर छोटों की राय की भी कद्र की जाती थी। इसकी पुष्टि उनके बेटे भाई डा.एम.आर. साहनी के इस कथन से होती है, "पिताजी ने उनके वृत्तिक के लिए इंडियन सिविल सर्विस की योजना बनाई थी...बीरबल को प्रस्थान की तैयारी करने को कहा गया। इसके बारे में वाद-विवाद की अधिक गुंजाइश नहीं थी, पर मुझे बीरबल का यह उत्तर स्पष्टतया याद है
कि यदि यह आज्ञा ही हो तब वे जाएंगे, परंतु यदि इस संबंध में उनकी रुचि का ध्यान रखा गया तब वे वृत्तिक के रूप में वनस्पति विज्ञान में अनुसंधान कार्य ही करेंगे और कुछ नहीं यद्यपि इससे कुछ देर के लिए तो पिताजी आश्चर्यचकित रह गए, पर शीघ्र ही अपनी सहमति प्रदान कर दी क्योंकि दृढ़ अनुशासनप्रियता के बावजूद वे महत्त्वपूर्ण बातों में चुनाव की स्वतंत्रता देते थे। पिताजी उन अनुशास्त्राओं में से थे जिनका सुझाव मात्र यह तय करने के लिए काफी होता था कि निर्णय क्या है ?"
जिस वातावरण में गुरुजनों की आज्ञाकारिता के साथ साथ स्वयं विचार करने और अपने ही निर्णय के अनुसार कार्य करने का अधिकार था, जिस वातावरण में विदेशी शासन के प्रति सतत विद्रोह व्याप्त था, जिस वातावरण में उच्च-शिक्षा का महत्व था ऐसे ही वातावरण में बीरबल साहनी का बचपन व्यतीत हुआ।
भेरा में उनका जन्म होना आकस्मिक घटना नहीं थी। लेखिका ने अपनी माता, प्रोफेसर बीरबल साहनी की सबसे छोटी बहन, श्रीमती लक्षवंती मल्होत्रा से सुना है कि उनकी माता श्रीमती ईश्वर देवी की धारणा थी कि परिवार से संबंधित सभी सुभ संस्कार तथा महत्वपूर्ण कार्य उनके परिवारिक घर में होने चाहिए। अतएव प्रत्येक बार बच्चा जनने की संभावना होने पर वे लाहौर से भेरा चली जाती थीं। बीरबल साहनी के जन्म को बड़ा शुभ माना गया, क्योंकि जन्म के समय थोड़ी वर्षा हुई थी, जिसे हिंदू अत्यंत शुभ मानते हैं।
कुटुंब के लोग स्कूल एवं कालेज की छुट्टियों में अक्सर भेरा चले जाते थे। वहां से युवा बीरबल अपने पिता तथा भाइयों के साथ आसपास के देहात के ट्रेक (कष्टप्रद यात्रा) पर निकल जाते। इन ट्रेकों में निकटस्थ लवण पर्वतमाला भी शामिल रहती, विशेषकर खेवड़ा। संभवत उसी समय उसके मन में भूविज्ञान तथा पुरावनस्पति विज्ञान के प्रति रुचि जागृत हुई, क्योंकि लवण पर्वतमाला में पादपयुक्त शैल समूह थे। वास्तव में वह भूविज्ञान का संग्रहालय ही था। बाद के वर्षों में प्रोफेसर साहनी ने इस क्षेत्र के भूवैज्ञानिक काल-निर्धारण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
प्रोफेसर साहनी केवल वैज्ञानिक तथा विद्वान ही नहीं, वरन बड़े देशभक्त भी थे। वे बड़े ही धार्मिक थे, पर अपने धार्मिक विचारों की कभी चर्चा नहीं करते थे। वे उत्कृष्ट गुणों से संपन्न व्यक्ति थे, उदार एवं आत्मत्यागी थे। उनमें ये गुण अपने पिता से आए थे जो स्वयं सभी सद्गुणों की मूर्ति थे। प्रोफेसर रुचिराम साहनी श्रेष्ठ विद्वान थे और समाज सुधार, विशेषकर स्त्री-स्वतंत्रता के क्षेत्र में अग्रणी थे।
यह परिवार मूल रूप से सिंधु नदी के तट पर स्थित महत्वपूर्ण व्यापारी नगर डेराइस्माइल खान का था। प्रोफेसर रुचिराम साहनी जब बहुत कम आयु के थे तभी उन्हें यह शहर छोड़ना पड़ा क्योंकि परिवार की आर्थिक दशा बिगड़ गई और उनके पिता की मृत्यु हो गई, जिनका महाजनी का काम किसी समय खूब चलता था। लेखिका अभी स्कूल में पढ़ रही थी।
उसे अपने पितामह प्रोफेसर साहनी से अपने परिवार का इतिहास उस समय ज्ञात हुआ, जब वह उनके साथ कश्मीर स्थित गुरमर्ग में गर्मी की छुट्टियां बिता रही थी। प्रोफेसर रुचिराम साहनी किस कठोर धातु के बने थे यह इन कहानियों से समझा जा सकता है। निस्संदेह इसका प्रभाव उनके पुत्र बीरबल साहनी पर भी पड़ा। इस संबंध में एक खास किस्से का उल्लेख करना समीचीन होगा।
जब परिवार के लोगों को डेराइस्माइल खान स्थित अपने विशाल भवन को छोड़कर एक छोटे से घर में रहना पड़ा और विलासिता की सभी चीजों को छोड़ देना पड़ा, तब रुचिराम साहनी ने अपने पिता के पास आकर शिकायत की कि उनके बचपन के साथी उन्हें चिढ़ाते हैं क्योंकि उस समय वे रेशम की कमीज या सोने की बालियां और कड़े नहीं पहनते थे जो उन दिनों संपन्न लोगों की प्रामाणिकता का चिह्न था। उनके पिता का उत्तर था, चारों ओर
काले-काले बादल घिर आए हैं; वे जितना भी बरसना चाहें बरसें, पर केवल कपड़ों को ही भिगो सकते हैं, आंतरिक उत्साह को ठँडा नहीं कर सकते एक न एक दिन ये बादल छंट जाएंगे।
परंतु कहना जितना आसान था, करना उतना नहीं। अभी रुचिराम साहनी बच्चे ही थे कि उनके पिता की मृत्यु हो गई। उसके बाद डेराइस्माइल खान में, जहाँ परिवार को प्रतिष्ठा एवं ऐश्वर्य प्राप्त था, रहना संभव नहीं था। पर रुचिराम साहनी पारिवारिक वैभव को लगे इस पहले धक्के से डरने वाले नहीं थे। वे अपनी पुस्तकों के पुलिंदे सहित, हर कीमत पर शिक्षा प्राप्त करने का संकल्प लिए, एक सौ पचास मील दूर झंग चले गए। यह शहर अब पश्चिमी पंजाब, पाकिस्तान में है।
उन्होंने केवल छात्रवृत्ति के सहारे शिक्षा प्राप्त की। बुद्धिमान और होनहार बालक होने के कारण उन्हें छात्रवृत्तियां प्राप्त करने में कठिनाई नहीं हुई। प्रारंभिक दिन बड़े ही कष्ट में बीते। अपनी झंग यात्रा के संबंध में उन्होंने लेखिका को एक रोचक कहानी सुनाई। रास्ते में जब रात घिरने को आई तब वे एक छोटे-से पड़ाव पर पहुंचे।
उनके पास किताबों का गट्ठर और एक रुपया बीस पैसे थे, जो उनके जैसे विपन्न बालक के लिए एक खजाने के ही समान था। सराय में उनके ठहरने का प्रश्न ही नहीं उठता था। उनके सामने केवल दो विकल्प थे। रात या तो किसी अस्तबल में बिताएं या किसी पेड़ पर चढ़कर सो जाएं। वे डरते थे कि अस्तबल में उनकी किताबें चोरी न चली जाएं जो उनकी अमूल्य निधि थीं। अतः वे एक पेड़ पर चढ़ गए, पर गिरने के डर से आंखें भी बंद नहीं कीं। छात्र-जीवन के ऐसे दुखमय दिनों के बाद वे बढ़ते बढ़ते लाहौर के शासकीय कालेज में रसायन शास्त्र के प्रोफेसर के पद पर आसीन हो गए। लाहौर तब तक परिवार का घर बन गया था और भेरा गौण स्थान पर चला गया था। यद्यपि यह परिवार अब भी भरुची अर्थात् भेरा निवासी कहलाता था।
प्रोफेसर रुचिराम साहनी ने उच्च शिक्षा के लिए अपने पांचों पुत्रों को इंग्लैंड भेजा तथा स्वयं भी वहां गए। वे मैनचेस्टर गए और वहां कैम्ब्रिज के प्रोफेसर अर्नेस्ट रदरफोर्ड तथा कोपेनहेगन के नाइल्सबोर के साथ रेडियो एक्टिविटी पर अन्वेषण कार्य किया। प्रथम महायुद्ध आरंभ होने के समय वे जर्मनी में थे और लड़ाई छिड़ने के केवल एक दिन पहले किसी तरह सीमा पार कर सुरक्षित स्थान पर पहुंचने में सफल हुए। वास्तव में उनके पुत्र बीरबल साहनी की वैज्ञानिक जिज्ञासा की प्रवृत्ति और चारित्रिक गठन का अधिकांश श्रेय उन्हीं की पहल एवं प्रेरणा, उत्साहवर्धन तथा दृढ़ता, परिश्रम और
ईमानदारी को है। इनकी पुष्टि इस बात से होती है कि प्रोफेसर बीरबल साहनी अपने अनुसंधान कार्य में कभी हार नहीं मानते थे, बल्कि कठिन से कठिन समस्या का समाधान ढूंढ़ने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। इस प्रकार, जीवन को एक बड़ी चुनौती के रूप में मानना चाहिए, यही उनके कुटुंब का आदर्श वाक्य बन गया था।
प्रोफेसर बीरबल साहनी स्वतंत्रता संग्राम के पक्के समर्थक थे। इसका कारण भी संभवतया उनके पिता का प्रभाव ही था। उनके पिता ने असहयोग आंदोलन के दिनों, 1922 में अंग्रेज सरकार द्वारा प्रदान की गई अपनी पदवी अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार के विरोध में वापस कर दी थी यद्यपि उनको धमकी दी गई कि पेंशन बंद कर दी जाएगी। रुचिराम साहनी का उत्तर था कि वे परिणाम भोगने को तैयार हैं। पर उनके व्यक्तित्व और लोकप्रियता का इतना जोर था कि अंग्रेज सरकार को उनकी पेंशन छूने की हिम्मत नहीं पड़ी और वह अंत तक उन्हें मिलती रही।
वे दिन उथल-पुथल के थे। स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम उत्कर्ष पर था। देश के लक्ष्य पूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्ति में देशभक्ति की भावना से भरे सभी मनुष्य किसी न किसी प्रकार से योगदान कर रहे थे। इस संक्रांति काल में उनके लाहौर स्थित, भवन में मेहमान के रूप में ठहरने वाले मोतीलाल नेहरू, गोखले, मदन मोहन मालवीय, हकीम अजमलखां जैसे राजनीतिक व्यक्तियों का प्रभाव भी उनके राजनीतिक संबंधों पर पड़ा। ब्रैडला हाल के समीप उनके मकान के स्थित होने का भी उनके राजनीतिक झुकावों पर असर पड़ा क्योंकि ब्रैडला हाल पंजाब की राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र था। उन दिनों
राजनीतिक नेताओं की गिरफ्तारियों, राजनीतिक सभाओं की बैठकों अश्रुबमों के छोड़े जाने, बेगुनाहों पर लाठी प्रहार और अंधाधुंध गिरफ्तारियों की खबरें लगभग रोज ही आती थीं। युवक बीरबल के संवेदनशील मन पर इन सब बातों का प्रभाव पड़े बिना न रहा होगा। फलतः विदेश में अपनी शिक्षा पूरी करके 1918 में भारत लौटने के तुरंत बाद से बीरबल साहनी ने हाथ का कता खादी का कपड़ा पहनना आरंभ कर दिया और इस प्रकार अपनी राजनीतिक भावनाओं को व्यवहारिकता का रूप दिया।
बीरबल साहनी बड़े निष्ठावन पुरुष थे। संभवतया यह गुण उन्होंने अपनी आत्मत्यागी माता से पाया था, जो रुढ़िवादी और दिखावा रहित होते हुए भी ठेठ पंजाबी महिला थीं मन की दृढ़ और बहादुर। उन्होंने अनेक कठिनाइयों से गुजरते हुए परिवार की नाव को पार लगाया। कट्टरपंथी मित्रों तथा संबंधियों के दृढ़ विरोध और स्वयं अपनी अनुदारवादिता के
बावजूद वे पुत्रियों को उच्च शिक्षा दिलाने की पति की इच्छा को मान गईं। वर्तमान शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में यह अपने आप में क्रांतिकारी कदम था। वास्तव में उन्होंने अपने सभी बच्चों को स्वस्थ शिक्षा दिलाने का प्रयत्न किया, जो उनके बाद के जीवन में बड़े काम आई। प्रोफेसर रुचिराम साहनी की तृतीय पुत्री श्रीमती कोहली को पंजाब विश्वविद्यालय लाहौर की प्रथम महिला स्नातक होने का गौरव प्राप्त था। उन दिनों की प्रथानुसार लड़कियों का विवाह कम आयु में ही कर दिया जाता था, अतएव श्रीमती ईश्वर देवी लड़कियों का विवाह बड़ी आयु में करने के पक्ष में नहीं थीं, फिर भी उन्होंने पति की इच्छा मानकर परिवार की लड़कियों का विवाह अल्पायु में ही करने पर जोर नहीं दिया।
बीरबल साहनी बचपन में ही अपनी दयालुता के लिए प्रसिद्ध हो गए थे। भाई-बहनों में झगड़ा होने पर सदैव उन्हीं को मध्यस्थ चुना जाता था, क्योंकि वे निष्पक्ष माने जाते थे। कोई यह धारणा न बना ले कि वे गंभीर प्रकृति के विनोद रहित युवक हैं, इसलिए मैं जोर देकर कहना चाहती हूं कि वे क्रियात्मक परिहास के लिए प्रसिद्ध थे और बहुधा अपने छोटे भाइयों और बहनों के अगुआ बनकर उनसे ऐसे उपद्रव कराते कि उनके पिता बड़ी उलझन में पड़ जाते। यह उपद्रवी प्रवृत्ति अनेक
रूपों में प्रकट होती। एक बार परिवार के लोग छुट्टी बिताने के लिए गर्मी में शिमला गए हुए थे। वहाँ वे लोग परिवार के कुछ मित्रों के साथ एक ही घर तथा बगीचे का उपयोग करते थे। सब्जी के बगीचे में उन लोगों ने मक्का तथा ककड़ी लगाई थी। किसी कारणवश बीरबल के कुटुंब को लाहौर लौटना पड़ा। इसका अर्थ यह था कि सब्जी के बगीचे का, जिसमें ककड़ी लगी हुई थी, आनंद केवल उनकी पड़ौसी उठाते। यह बात उपद्रवी युवा बीरबल की सहनशक्ति के परे थी। उन्होंने योजना बनाई कि जाने से पहले रात्रि में सभी पके फल तोड़ लिए जाएं और सभी पौधों की जडें एकदम मूल से ही काट दी जाएं ताकि शैतानी का पता न चल सके। उनकी बहनों और भाइयों ने विधिवत इस योजनानुसार कार्रवाई की और
परिणास्वरूप पौधे उसके बाद शीघ्र ही सुख गए। उनके पड़ोसियों की समझ में ही नहीं आया कि सिंचाई करने और खाद देने पर भी पौधे किस कारण जीवित न बच सके। इस शरारत का पता उन्हें बहुत बाद में लगा जब वे लोग छुट्टी खतम होने के बाद वापस लौटकर लाहौर आये और अपने साथ किए गए छल को जाना।
बाद के जीवन में भी बीरबल साहनी अपने युवा भतीजों और भतीजियों के साथ सदा क्रियात्मक परिहास करते रहते थे या वनस्पति विज्ञान संबंधी पर्यटनों में अपने छात्रों को हास्य विनोद की बातें और चुटकले सुनाया करते थे। उनके भतीजे भतीजियों ने उनका नाम ‘तमाशे वाला अंकल’ रख दिया था। उनका प्रिय परिहास था दस्ताना पहने हुए बंदर के खिलौने के साथ खिलवाड़ करना। इसे उन्होंने 1913 में जर्मनी में खरीदा था जब वे ग्रीष्म के अर्धवार्षिक पाठ्यक्रम में, सम्मिलित होने के लिए वहां गए थे। इसके अंतर्गत म्यूनिख में वनस्पति विज्ञान पर प्रोफेसर गोयबेल के व्याख्यान होते थे। दस्ताना पहने हुए बंदर को वे इस तरह पकड़े रहते थे कि जब तक किसी को मालूम न हो कि यह खिलौना है वह यही समझता था
कि यह बंदर का बच्चा है, जिसे वे पुचकार रहे हैं। दस्ताने वाले बंदर को न केवल सब बच्चों के मनोरंजन का वरन एक प्रकार से उनके और पत्नी के बीच के संकोच को दूर करने का भी श्रेय था। जब प्रोफेसर साहनी विवाह के बाद पहली बार पत्नी से मिलने आए तब अपने और युवा पत्नी के बीच की संकोचभरी चुप्पी और उलझन को दूर करने के लिए उन्होंने कोट के पाकेट से झांकते हुए बंदर का केवल मुंह पत्नी को दिखाया और कहा, "यह मेरा पालतू बंदर है जो मुझे अत्यंत प्रिय है। अब तक केवल मैं ही इसकी देखभाल करता रहा हूं, लेकिन मैं चाहता हूं कि अब से तुम इसकी देखभाल करो।" उसके बाद उन्होंने पत्नी से बंदर को पुचकारने को कहा, क्योंकि उसे स्नेह और प्यार चाहिए था। उनकी पत्नी को यह नहीं मालूम था
कि वह बंदर केवल खिलौना है, अतः उसे छूने में उन्हें हिचकिचाहट हुई। बंदर के समीप जाने पर जब उन्हें मालूम हुआ कि वह मात्र खिलौना है और प्रोफेसर साहनी ने केवल परिहास किया है तब दोनों ही हंस पड़े और उनके बीच का संकोच दूर हो गया।
प्रोफेसर साहनी का साहचर्य अपने प्रिय खिलौने, दस्ताने युक्त बंदर के साथ इतना अधिक था कि उनको इससे अलग करना कठिन था। वह उदास मानवीय। मुखाकृति वाला बंदर सौभाग्यजनक था और दूरस्थ देशों तक जहाज, भूमि तथा वायु मार्ग से उनके साथ सब स्थानों की यात्रा पर जाया करता था। कोई भी ऐसा देश नहीं था कि जहां प्रोफेसर साहनी दस्तानेयुक्त बंदर को साथ लिए बिना गए हों। यह खिलौना बंदर, जिसका नाम उन्होंने गिप्पी रखा था, प्रोफेसर साहनी की अन्य मूल्यवान वस्तुओं के साथ पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान में उनके कक्ष में प्रदर्शन की प्रतीक्षा में है।
बीरबल साहनी का पालन उदार भावनाओं के वातावरण में हुआ था। रसायन शास्त्र के अध्ययन के लिए पिता कलकत्ता गए थे क्योंकि पंजाब विश्वविद्यालय में उस समय उसके लिए यथोचित साधन उपलब्ध नहीं थे। वह ऐसा समय था जब कलकत्ता में ब्रह्म समाज का आंदोलन खूब जोरों पर था। केशवचंद्र सेन के व्याख्यानों को सुनकर वे ब्रह्म समाज के सिद्धांतों से बड़े प्रभावित हुए और इस नवीन प्रगतिशील समाज के दृढ़ अनुयायी बनकर लाहौर लौटे। ब्रह्म समाज सामाजिक और धार्मिक चेतना का जागरण था जिसने आज के बदले हुए युग के संदर्भ में निरर्थक अनेक पुराने रीति-रिवाजों को तोड़ डाला
था। इसकी एक बड़ी प्रगतिशील प्रवृत्ति थी, जाति-पांति के बंधन से मुक्त होना। लाहौर ब्रह्म समाज दल के एक नेता के रूप में प्रोफेसर रुचिराम साहनी ने इसे व्यवहारिकता में परिणत कर अपने सबसे बड़े लड़के डा. विक्रमजीत साहनी की शादी जाति के बाहर कर दी और अपनी बिरादरी को चुनौती दी कि यदि साहस हो तो उन्हें जाति से बहिष्कृत कर दें।
बहिष्कार करने का साहस तो किसी को नहीं हुआ, पर अनेक लोगों ने असहमति अवश्य व्यक्त की। उनके लाहौर के गृह में जाति, संप्रदाय या धर्म का बंधन नहीं था। सभी धर्मों के मानने वाले वहां बराबर आया करते थे और राजनैतिक, धार्मिक तथा साहित्यिक वाद-विवाद खुलकर होते थे। जब पंजाब में आर्य समाज का सामाजिक-धार्मिक, राजनैतिक और शैक्षिक आंदोलन चला, प्रोफेसर रुचिराम साहनी लाहौर के उन प्रमुख बुद्धिजीवियों में थे जिन्होंने इस पर अपनी सहमती की
घोषणा की थी। बीरबल साहनी का पालन-पोषण ऐसे वातावरण में हुआ था जिसमें बड़ों की आज्ञा मानने की तो आशा की जाती थी, पर छोटों की राय की भी कद्र की जाती थी। इसकी पुष्टि उनके बेटे भाई डा.एम.आर. साहनी के इस कथन से होती है, "पिताजी ने उनके वृत्तिक के लिए इंडियन सिविल सर्विस की योजना बनाई थी...बीरबल को प्रस्थान की तैयारी करने को कहा गया। इसके बारे में वाद-विवाद की अधिक गुंजाइश नहीं थी, पर मुझे बीरबल का यह उत्तर स्पष्टतया याद है
कि यदि यह आज्ञा ही हो तब वे जाएंगे, परंतु यदि इस संबंध में उनकी रुचि का ध्यान रखा गया तब वे वृत्तिक के रूप में वनस्पति विज्ञान में अनुसंधान कार्य ही करेंगे और कुछ नहीं यद्यपि इससे कुछ देर के लिए तो पिताजी आश्चर्यचकित रह गए, पर शीघ्र ही अपनी सहमति प्रदान कर दी क्योंकि दृढ़ अनुशासनप्रियता के बावजूद वे महत्त्वपूर्ण बातों में चुनाव की स्वतंत्रता देते थे। पिताजी उन अनुशास्त्राओं में से थे जिनका सुझाव मात्र यह तय करने के लिए काफी होता था कि निर्णय क्या है ?"
जिस वातावरण में गुरुजनों की आज्ञाकारिता के साथ साथ स्वयं विचार करने और अपने ही निर्णय के अनुसार कार्य करने का अधिकार था, जिस वातावरण में विदेशी शासन के प्रति सतत विद्रोह व्याप्त था, जिस वातावरण में उच्च-शिक्षा का महत्व था ऐसे ही वातावरण में बीरबल साहनी का बचपन व्यतीत हुआ।
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