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उनका बोलना

मोहन कुमार डहेरिया

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4590
आईएसबीएन :81-263-1086-3

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युवा कवि मोहन कुमार डहेरिया के प्रस्तुत कविता-संग्रह में तल्ख स्मृतियाँ और भावी समय की भयावहता के गहरे संकेत हैं...

Unka Bolana

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

युवा कवि मोहन कुमार डहेरिया के प्रस्तुत कविता-संग्रह में तल्ख स्मृतियाँ और भावी समय की भयावहता के गहरे संकेत हैं। कई जगह संश्लिष्ट और लम्बी बुनावट में आधुनिक मनुष्य के द्वन्द्व और विकलता की मार्मिक अनुगूंजें हैं। इन कविताओं से गुजरते हुए हम एक ऐसी दुनिया में दाखिल होते हैं जहाँ उपभोक्तावादी संस्कृति तथा पतनशील जीवन मूल्यों के बवण्डर में मनुष्य की अस्मिता और गरिमा तिनके की तरह उड़ रही है। समाज में भाँति-भाँति की विसंगतियाँ, भेदभाव और प्रदूषण फैला है। श्री डहेरिया की कविता इनके खिलाफ एक आवाज है। चुप्पी के इस माहौल में ऐसी आवाजों की जरूरत है।
डहेरिया की कविताएँ लम्बी लयात्मकता और उलझे समय को अपने शिल्प में व्यक्त करती हैं। इन कविताओं में ऐसे चेहरे भी हैं। जो जीवन के अँधेरे में अपना प्रकाशवृत्त रचते हैं, जो पूरे परिवेश को आलोकित करता है और वक्त के विपुल शोर में एक विरोधी आवाज को काव्यार्थ देता है।
‘उनका बोलना’ संग्रह की कविताओं में कथ्य का वैविध्य है, महीन संवेदना और गहरी सांकेतिकता है जो पाठकों को कविता से जुड़ने और उसके अन्दर उतरने के लिए प्रेरित करती है।

वापसी

होती है
एक-न-एक दिन सभी की वापसी

कोई कोलम्बस-सा लौटता है नयी धरती की खुशबू से गमकता
कोई लौटता पहन चीखों का ताज अपनी कौम के बीच
कोई लौटता अपनी स्मृतियों से फूटती प्रकाश की बेहद
पतली रेखा के सहारे
लौटता कोई दबे पाँव शर्म की घनी झाड़ियों के पीछे-पीछे

किसी के लौटते ही आसमान से बरसते फूल
किसी की वापसी पर हलक में फँस जाती जुबान
पिता की देहरी पर आ गिरती जब बेटी की दहकते कोयले जैसी
देह

अब करे तो करे कोई दावे
पाले चाहे मुगालते
कितना भी वजनी हो सीने से बँधा संकल्प का पत्थर
कितना भी गहरा हो प्रेम का गोता
उछालती ही है ऊपर एक-न-एक दिन समय की नदी
प्रेमियों की देह
कोई लौटता है अपनी बन्दूक को सितार-सा बजाता
किसी की आत्मा की लौ में पहले से ज्यादा धुआँ
लौटा हो जैसे ईश्वर से गहरी आस के बाद

होती है
एक-न-एक दिन सभी की वापसी

रात


गुजरी है अभी-अभी जो रात
शामिल नहीं उसमें मैं

कैसे कहूँ इस रात को रात
न तो शब्दों ने किया चन्द्रमा का राजतिलक
न सुनाई दी स्मृतियों की चमकीली फुसफुसाहट
रात ही थी या पहाड़ी अत्यन्त दुरूह
कि देखते ही होशो-हवाश खो बैठे चेतना के घोड़े

अब उमठ रहा अन्दर-ही-अन्दर
मलता बार-बार हाथ
एक थे राहुल सांकृत्यायन
घण्टों का था जिनके पास हिसाब
खर्राटों से सनी पर यह रात
कि होती गहरी वितृष्णा

ऐसी तो नहीं होती थीं मेरी रातें
कि गायब हो जाएँ किसी आदिवासी गाँव से स्याह अँधेरे में
जवान लड़कियों के झुण्ड-के-झुण्ड
और चड़चड़ाएँ न मेरे स्वप्नों के सूखे पत्ते
खुलती थी पँखड़ी-दर-पँखड़ी
असंख्य रंगों, संकेतों और ध्वनियों से भरी
जीवन की इस कर्कशता में भी बोझिल हो जातीं लेटते ही
जिनकी पलकें
कदाचित् न करें विश्वास
नींद में भी उठ कर चढ़ जाता था छत पर
निहारता पूरी सृष्टि
देख आता रात-बिरात, जैसे किसान
ठीक-ठीक तो खड़ी है ईख की फसल
हो सकता है किसी को लगे
मामूली-सी बात में उत्पन्न कर रहा हूँ पेचीदगी
रात ही थी गुजर गयी तो गुजर गयी
चींटी काटने जितना होगा उसका दुख
एकदम सही हैं वे
चींटियों की ही भाषा में कर रहा हूँ बातें
समझ सकती जिसे सिर्फ पृथ्वी

अब जबकि उदय हो रहा है सूर्य
निकल पड़े परिन्दे अपने-अपने काम-धन्धों पर
मैं निठल्ला-सा बैठा
क्या करूँ इस रात का
वेताल-सी लदी है जो पीठ पर।

घेरा


वह एक घेरा था

उछालनी थीं बच्चों को उसी के अन्दर गेंदें
विदूषकों को दिखाने थे हास्यबोध के जौहर
नदियों को ढूँढ़ना था समुद्र
(बौना हो जो भले ही उससे)
थी कवियों और कलाकारों को छूट
पर इस तरह
पहुँचे न घेरे की अखण्डता को नुकसान

नहीं थीं पर इतनी ही चीजें
कुछ क्रूरताएँ थीं करुणा को ठीक-ठीक समझने के लिए
निहायत जरूरी
एक अँधेरा तरल दिखती जिसमें देह एकदम पारदर्शी
पहाड़ों के नीचे दबे वे रास्ते तो जोड़ते हैं
हमारी यात्राओं में दृश्य नये
खतरनाक था लेकिन इनका जिक्र
ऐड्स पर विश्वव्यापी सर्वेक्षण
दम तोड़ते शब्दों के लिए, पर
इस घेरे में
खैराती अस्पताल तक न था
वह एक सुखमय जीवन था
घुन-सी खा जानेवाली स्मृतियाँ न थीं उसमें
न मस्तिष्क को थका देने वाले द्वन्द्व
दुख चाहे जितना मर्मान्तक
उपलब्ध थे बाजार में हर तरह के शोक-प्रस्ताव

हो ही चुका था सिद्ध
प्रकृति से बड़ी है मनुष्यों की जरूरत
आत्मा से ऊँचा मशीनों का कद
संस्कृति से मूल्यवान हैं विदेशी मुद्राएँ

अपने उत्कर्ष पर थी एक महान सभ्यता
जगह-जगह आस्था के इस कदर विस्फोट
जन्म ले रहा था कहीं-न-कहीं कोई-न-कोई अवतार

लोग बोलते तो क्या बोलते घेरे के खिलाफ
डरा देते पुराने तजुर्बेकार
पशुओं को चराते-चराते बजाते बाँसुरी
लाँघ गया था अनजाने में वर्षों पहले इसे एक चरवाहा
पशु तो भागे बिदक कर
एक चट्टान पर उछल कर गिरी बाँसुरी
मूक हो गए स्वर
घूमता आज हाट-दर-हाट चीकट बाल खुजलाता
रचता अन्दर-ही-अन्दर जैसे सदी का सबसे करुण संगीत

बात इतनी ही होती रो-धोकर चुप हो जाता मैं
घेरे के अन्दर बनते और नये घेरे
यहीं से शुरू होता था मेरी बेचैनियों का सिलसिला।

फिर किसी को याद करते हुए


आ रही जहाँ से तुम्हारी याद
तुम नहीं हो
एक गन्ध है तुम्हारी बेहद ठोस

जहाँ से आ रही है तुम्हारी याद
एक जीवाश्म है जीवन से भी ज्यादा मुखर
और इन्द्रधनुष पर जैसे सूली पर टँगा

कहाँ अब लहरों पर थिरकती वह नाव जैसी चाल
वे दिन हवा हुए
जब एक-दूसरे को देखते ही भक् से जल उठते थे
हमारी आत्मा के दीये
जाड़े की भोर में केले के पेड़ों के नीचे यूँ
साकार होता हमारा प्रेम
गुँथे हों मानों भाप के दो गोले

आ रही जहाँ से तुम्हारी याद
पक्षियों के घोंसले से निकल रही हैं लपटें
मोरों के आर्तनाद से भर गया जंगल
जैसे वर्षों से बादल उधर नहीं गये
इस समय जबकि
किसी विशाल सितारे की रोशनी में दिपदिपा रहा
तुम्हारा आसमान
बह रही आँगन में दूध की नदी
जाहिर है
सुनाई नहीं दे रही होंगी
समय की किसी पेचीदा दीवार के पीछे
बेहद रपटीली ढलान पर
लुढ़कते मनुष्य की चीखें।

कोई नहीं जानता


कोई नहीं जानता
किस पर्दे के पीछे छुपा है किसके स्वप्नों का उद्गम
कितनी दूर तक जाएँगे किसके पाप के छींटे

यूँ तो एक का चाँटा होता है दूसरे का गाल
किसी तीसरे की आत्मा को जकड़ सकती है पर
अपमान की अनुगूँज
जैसे कभी-कभी़
संवादहीनता पर चली बहस तो रह जाती है काफी पीछे
पैदा कर देता शब्दों का शोर एक नया सन्नाटा

लिहाजा
कितनी भी समृद्ध हो किसी भी पीढ़ी की विरासत
चाहे जितना उन्नत विज्ञान
कौन लिख सका है पेड़ों की यात्राओं का इतिहास
मनुष्य की समझ से बाहर आज भी परिन्दों के मजाक

फिर इन दिनों तो ऐसी फिसलन
कहा नहीं जा सकता कुछ भी दावे के साथ
कि चमक के नेपथ्य में है कितना गहरा दलदल
किस शुभकामना के पीछे कैसी आशंका
और वह जो छू रहा नयी-नयी बुलन्दियाँ
क्या बता सकता है
रखे उसने जहाँ-जहाँ पैर
सीढ़ियाँ ही थीं नहीं किसी की पीठ या पेट
इसलिए जो निष्कलंक बेशक रहें निष्कलंक
पापी के लिए नहीं पर ऐसी भी दुत्कार
क्योंकि कोई नहीं जानता
धँसा जा रहा जो आज ग्लानि तथा अपमान से जमीन में
धरती के नीचे ही हों उसके शिखर

मेरे अन्दर कुछ है


मेरे अन्दर कुछ है
चुभता फाँस-सा करता अस्थिर, बेचैन

कुछ यात्राएँ अधूरी उकसाती बार-बार
जीवन से बाहर हो गया कोई मूल्य
खड़े होने की कोशिश कर रहा एक कुचला हुआ शब्द
गुँथ गये हैं आपस में विचार
या कैशोर्य में पहले प्रेम के पकड़े जाने पर
पिताजी की बेतों की मार
टीस-टीस उठती वह

मैं समझ नहीं पाता
क्या है मेरे अन्दर
जन्म से ही साथ-साथ
या अटक गया टूटे पत्ते-से आकर

जीवन के जिस पड़ाव पर हूँ फिलहाल
बढ़ती ही जा रही गालों की सुर्खी
शेयरों में सुरक्षित है भविष्य
ऐसे में अपने अन्दर कुछ होने की बात करना
बेशर्मी की हद नहीं तो क्या !
सुनाई देती हैं पर मुझे अजीब-सी आवाजें
जलने और न जलने की दुविधा में
खदबदा रही जैसे चूल्हे में लकड़ी गीली

होता नहीं मन में विश्वास
जिया मैंने तो इस तरह जीवन
रखता चीजों के तापमान पर नजर चौकन्नी
रहा हर जुलूस में पंक्तिबद्ध अनुशासित
त्रासदी हो कितनी ही दारुण
संयम, शालीनता के अन्दर रही करुणा
नहीं खोदी खन्दकें
न गुजारे शरणार्थी कैप्पों में दिन
बावजूद इसके हो रही ये कैसी गड़बड़
चलता हूँ तो लगता है
कर रहा कोई दबे पाँव पीछा
एक अज्ञात दिशा की तरफ बार-बार संकेत करते हाथ
जारी नहीं मेरे नाम पर जबकि कोई फतवा

कुछ-न-कुछ है मेरे अन्दर
भटक गया है भीतर के बीहड़ में कोई परिन्दा
बढ़ रही धीरे-धीरे ऊब की लकीर
कूट रहा स्मृतियों को शायद कोई मूसल
दे रही मौत अपना आभास
या प्रकाशमान हो उठा अन्दर साक्षात् ईश्वर
स्वीकारना चाह रही कुछ जिसके सामने आत्मा

खँगालता हूँ बार-बार सारे संस्कार
इतिहास में लगाता छलाँगें लम्बी
पता नहीं लग पाता कहाँ है दरअसल वह
आप भले ही कहें इस संवेदनशीलता की अतिरिक्तता
या जीवनबोध की विद्रूपता
महसूस नहीं होती दोस्तों से मिलने में ज़रा भी ऊष्मा
रखता हूँ जहाँ-जहाँ होंठ
खरोंचों से भर जाती पत्नी की देह
यहाँ तक आ पहुँचे अब तो हालात
अपनी विराटता में भी सन्तुष्ट नहीं कर पाती चीजें
मेरी प्यास के ऊपर से गुजर जाती है बरसात
मेरे विलाप को नहीं पहचानता मेरा दुख

कहीं ऐसा तो नहीं
उत्कर्ष पर पहुँच गयी हो मेरी द्वन्द्वात्मकता
कोई नये ढंग का शोर है यह
या हदों को पार कर जाता सन्नाटा
होता ऐसे ही मुखर

मैं जानता हूँ
नहीं होगा आपको विश्वास
होती है महान उड़ानों में जैसे-हल्की-सी लड़खड़ाहट
मेरे अन्दर भी कुछ है

एक अनाम रंग के लिए


कौंधता है जो अक्सर मेरे सपनों में
दरअसल वह एक रंग है
न सफेद न काला, लाल या नीला
विशेषण से परे अभी उसकी पहचान

एक बगीचे में बैठा हूँ मैं
देख रहा हूँ रंगों की उन्मुक्त तथा स्पर्धाहीन दुनिया
प्रकृति में मान लें अगर रंगों के सौहार्द को अपवाद
तो उलट-पुलट गया है अब रंगों का मनोविज्ञान
जकड़ चुके सब किसी-न-किसी मुहावरे में

एक झुलस रहा है अपनी ही प्रखरता की लपटों में
करते-करते शान्ति का स्वाँग एक खो बैठा खुद का चेहरा
एक को मान लिया गया किसी नस्ल विशेष का पर्याय
घृणा से थूका जाता वह जहाँ-तहाँ
कुछ भरना चाहते थे आसमान में उड़ानें लम्बी
विकसित ही नहीं हो पाये पर उनके डैने

दिखाई नहीं देता अभी तो कहीं
व्याकुल हूँ जिस रंग के लिए मैं
कहीं दब तो नहीं गया रोशनी की इन बौछारों में
बैठा तो नहीं बादलों के पीछे किसी ऊँचे सिंहासन पर
गिनता जीवन के कुण्ड में टपकती रक्त की एक-एक बूँद
इतना तो तय है
गहरी यातनाओं में भी कम न होता होगा उसके चेहरे का तेज
न क्रोधातिरेक में उफनता होगा बरसाती नाले-सा

वैसे भी इतने भव्य आजकल हमारे उत्सव
पाशविकता की हद तक जा पहुँचती है अक्सर रंगों की चमक
फैली हैं चित्रों की दुनिया में
रंगों को लेकर तरह-तरह की शंकाएँ और अफवाहें
होगा फिर भी
इसी पृथ्वी पर कहीं-न-कहीं वह अब भी।

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