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चुने हुए बाल एकांकी - भाग 2

रोहिताश्व अस्थाना

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 459
आईएसबीएन :81-7315-298-5

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बालकों के मनोरंजन, मार्गदर्शन एवं ज्ञानवर्धन के लिए बाल नाटकों एवं बाल एकांकियों का अद्वितीय संकलन...

Chune Hue Bal Ekanki (part 2) - A hindi Book by - Rohitashva Asthana चुने हुए बाल एकांकी (भाग 2) - रोहिताश्व अस्थाना

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अंधेर नगरी (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र)


पात्र-परिचय

महंत
नारायणदास, गोबर्धनदास – महंत के शिष्य
चौपट राजा: अंधेर नगरी का राजा।
कुँजड़िन, हलवाई, फरियादी, कल्लू बनिया, कारीगर, चूनेवाला, भिश्ती, कसाई, गड़रिया, कोतवाल, सिपाही आदि।

पहला दृश्य


[स्थान: शहर से बाहर सड़क। महंतजी और दो चेले बातें कर रहे हैं।]

महंत: बच्चा नारायणदास, यह नगर तो दूर से बड़ा सुंदर दिखलाई पड़ता है। देख, कुछ भिक्षा मिले तो भगवान् को भोग लगे। और क्या !
नारायणदास: गुरुजी महाराज, नगर तो बहुत ही सुंदर है, पर भिक्षा भी सुंदर मिले तो बड़ा आनंद हो !
महंत: बच्चा गोबर्धनदास, तू पश्चिम की ओर जा और नारायणदास पूर्व की ओर जाएगा।
[गोबर्धनदास जाता है।]
गोबर्धनदास: (कुँजड़िन से) क्यों, भाजी क्या भाव ?
कुँजड़िन : बाबाजी, टके सेर !
गोबर्धनदास: सब बाजी टके सेर ! वाह, वाह ! बड़ा आनंद है। यहाँ सभी चीजें टके (हलवाई के पास जाकर) क्यों भाई, मिठाई क्या भाव ?
हलवाई: टके सेर।
गोबर्धनदास: वाह, वाह ! बड़ा आनंद है। सब टके सेर क्यों, बच्चा ? इस नगरी का क्या है ?
हलवाई: अंधेर नगरी।

गोबर्धनदास: और राजा का नाम क्या है ?
हलवाई: चौपट्ट राजा।
गोबर्धनदास: वाह, वाह !
अंधेर नगरी, चौपट्ट राजा।
टके सेर भाजी, टके सेर खाजा।।
हलवाई: तो बाबाजी, कुछ लेना हो तो ले लें !

गोबर्धनदास: बच्चा, भिक्षा माँगकर सात पैसा लाया हूँ; साढ़े तीन सेर मिठाई दे दे।
[महंतजी और नारायणदास एक ओर से आते हैं और दूसरी ओर से गोबर्धनदास आता है।]
महंत: बच्चा गोबर्धनदास, क्या भिक्षा लाया, गठरी तो भारी मालूम पड़ती है !
गोबर्धनदास: गुरुजी महाराज, सात पैसे भीख में मिले थे, उसी से साढ़े तीन सेर मिठाई मोल ली है।
महंत: बच्चा, नारायणदास ने मुझसे कहा था कि यहाँ सब चीजें टके सेर मिलती हैं तो मैंने इसकी बात पर विश्वास नहीं किया। बच्चा, यह कौन सी नगरी है और इसका राजा कौन है, जहाँ टके सेर भाजी और टके सेर खाजा मिलता है ?
गोबर्धनदास: अंधेर नगरी, चौपट्ट राजा, टके सेर भाजी, टके सेर खाजा !
महंत: तो बच्चा, ऐसी नगरी में रहना उचित नहीं है, जहाँ टके सेर भाजी और टके सेर खाजा बिकता है। मैं तो इस नगर में अब एक क्षण भी नहीं रहूँगा !

गोबर्धनदास: गुरुजी, मैं तो इस नगर को छोड़कर नहीं जाऊँगा। और जगह दिन भर माँगों पेट भी नहीं भरता। मैं तो यहीं रहूँगा।
महंत: देख, मेरी बात मान, नहीं तो पीछे पछताएगा। मैं तो जाता हूँ, पर इतना कहे जाता हूँ कि कभी संकट पड़े तो याद करना। (यह कहते हुए महंत चले जाते हैं।)

दूसरा दृश्य


[राजा, मंत्री और नौकर लोग यथास्थान बैठे हैं। परदे के पीछे से ‘दुहाई है’ का शब्द होता है।]

राजा:कौन चिल्लाता है, उसे बुलाओ तो !

[दो नौकर एक फरियादी को लाते हैं।]

फरियादी: दुहाई, महाराज, दुहाई !
राजा: बोलो, क्या हुआ ?
फरियादी: महाराज, कल्लू बनिए की दीवार गिर पड़ी, सो मेरी बकरी उसके नीचे दब गई। न्याय हो !
राजा: कल्लू बनिए को पकड़कर लाओ !
[नौकर लोग दौड़कर बाहर से बनिए को पकड़ लाते हैं।]
राजा: क्यों रे बनिए, इसकी बकरी दबकर मर गई ?
कल्लू बनिया: महाराज, मेरा कुछ दोष नहीं। कारीगर ने ऐसी दीवार बनाई कि गिर पड़ी।
राजा: अच्छा, कल्लू को छोड़ दो, कारीगर को पकड़ लाओ।

[कल्लू जाता है। नौकर करीगर को पकड़ लाते हैं।]

राजा: कयों रे कारीगर, इसकी बकरी कैसे मर गई ?
कारीगर: महाराज, चूनेवाले ने चूना ऐसा खराब बनाया कि दीवार गिर पड़ी।
राजा: अच्छा, उस चूनेवाले को बुलाओ।

[कारीगर निकाला जाता है। चूनेवाला पकड़ के लाया जाता है।]

राजा: क्यों रे चूनेवाले, इसकी बकरी कैसे मर गई ?
चूनेवाला: महाराज, भिश्ती ने चूने में पानी ज्यादा डाल दिया, इसी से चूना कमजोर हो गया।
राजा: तो भिश्ती को पकड़ो।

[भिश्ती लाया जाता है।]

राजा: क्यों रे भिश्ती, इतना पानी क्यों डाल दिया कि दीवार गिर पड़ी और बकरी दबकर मर गई ?
भिश्ती: महाराज, गुलाम का कोई कसूर नहीं, कसाई ने मशक इतनी बड़ी बना दी थी कि उसमें पानी ज्यादा आ गया।
राजा: अच्छा, भिश्ती को निकालों, कसाई को लाओं !

[नौकर भिश्ती को निकालते हैं और कसाई को लाते हैं।]
राजा: क्यों रे कसाई, तूने ऐसी मशक क्यों बनाई ?

कसाई: महाराज, गड़रिए ने टके की ऐसी बड़ी भेड़ मेरे हाथ बेची कि मशक बड़ी बन गई।
राजा: अच्छा, कसाई को निकालो, गड़रिए को लाओ !

[कसाई निकाला जाता है, गड़रिया लाया जाता है।]

राजा: क्यों रे गड़रिए, ऐसी बड़ी भेड़ क्यों बेची ?
गड़रिया: महाराज, उधर से कोतवाल की सवारी आई भीड़भाड़ के कारण मैंने छोटी-बड़ी भेड़ का ख्याल ही नहीं किया। मेरा कुछ कसूर नहीं।
राजा: इसको निकाओ, कोतवाल को पकड़कर लाओ !

[कोतवाल को पकड़कर लाया जाता है।]

राजा:क्यों रे कोतवाल, तूने सवारी धूमधाम से क्यों निकाली कि गड़रिए ने घबराकर बड़ी भेड़ बेच दी ?
कोतवाल: महाराज, मैंने कोई कसूर नहीं किया।
राजा: कुछ नहीं ! ले जाओ, कोतवाल को अभी फाँसी दे दो !

[सभी कोतवाल को पकड़कर ले जाते हैं।]

तीसरा दृश्य


[गोबर्धनदास बैठा मिठाई खा रहा है।]

गोबर्धनदास: गुरुजी ने हमको नाहक यहाँ रहने को मना किया था। माना कि देश बहुत बुरा है, पर अपना क्या ! खाते-पीते मस्त पड़े हैं।

[चार सिपाही चार ओर से आकर उसको पकड़ लेते हैं।]

सिपाही: चल बे चल, मिठाई खाकर खूब मोटा हो गया है। आज मजा मिलेगा !
गोबर्धनदास: (घबराकर) अरे, यह आफत कहाँ से आई ? अरे भाई, मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है, जो मुझे पकड़ते हो ?
सिपाही: बात यह है कि कल कोतवाल को फाँसी का हुक्म हुआ था। जब उसे फाँसी देने को ले गए तो फाँसी का फंदा बड़ा निकला, क्योंकि कोतवाल साहब दुबले-पतले हैं। हम लोगों ने महाराज से अर्ज की। इसपर हुक्म हुआ कि किसी मोटे आदमी को फाँसी दे दो; क्योंकि बकरी मरने के अपराध में किसी-न-किसी को सजा होना जरूरी है, नहीं तो न्याय न होगा।

गोबर्धनदास: दुहाई परमेश्वर की ! अरे, मैं नाहक मारा जाता हूँ। अरे, यहाँ बड़ा ही अंधेर है। गुरुजी, आप कहाँ हो ? आओ मेरे प्राण बचाओ।

[गोबर्धनदास चिल्लाता है। सिपाही उसे पकड़कर ले जाते हैं।]

गोबर्धनदास: हाय बाप रे ! मुझे बेकसूर ही फाँसी देते हैं।
सिपाही: अबे चुप रह, राजा का हुक्म कहीं टल सकता है !
गोबर्धनदास: हाय, मैंने गुरुजी का कहना न माना, उसी का यह फल है। गुरुजी, कहाँ हो ? बचाओ, गुरुजी। गुरुजी।
महंत: अरे बच्चा गोबर्धनदास, तेरी यह क्या दशा है ?
गोबर्धनदास: (हाथ जोड़कर) गुरुजी, दीवार के नीचे बकरी दब गई, जिसके लिए मुझे फाँसी दी जा रही है। गुरुजी, बचाओ !
महंत: कोई चिंता नहीं। (भौंह चढ़ाकर सिपाहियों से) सुनो, मुझे अपने शिष्य को अंतिम उपदेश देने दो।

[सिपाही उसे थोड़ी देर के लिए छोड़ देते हैं। गुरुजी चेले को कान में कुछ समझाते हैं।]

गोबर्धनदास: तब तो गुरुजी, हम अभी फाँसी चढ़ेंगे।
महंत: नहीं बच्चा, हम बूढ़े हैं, हमको चढ़ने दे।
[इस प्रकार दोनों हुज्जत करते हैं। सिपाही परस्पर चकित होते हैं। राजा, मंत्री और कोतवाल आते हैं।]
राजा: यह क्या गोलमाल है ?

सिपाही: महाराज, चेला कहता है, मैं फाँसी चढ़ूँगा और गुरु कहता है, मैं चढ़ूँगा। कुछ मालूम नहीं पड़ता कि क्या बात है !
राजा: (गुरु से) बाबाजी, बोलो, आप फाँसी क्यों चढ़ना चाहते हैं ?
महंत: राजा, इस समय ऐसी शुभ घड़ी में जो मरेगा, सीधा स्वर्ग जाएगा।
मंत्री: तब तो हम फाँसी चढ़ेंगे।
गोबर्धनदास: हम लटकेंगे ! हमको हुक्म है !
कोतवाल: हम लटकेंगे ! हमारे सबब से तो दीवार गिरी।
राजा: चुप रहे सब लोग ! राजा के जीते जी और कौन स्वर्ग जा सकता है ! हमको फाँसी चढ़ाओं, जल्दी-जल्दी करो !

[राजा को नौकर लोग फाँसी पर लटका देते हैं। परदा गिरता है।]

बहुरूपिया


(भूप नारायण दीक्षित)

पात्र-परिचय


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हेड मास्टर, सेकिंड मास्टर, इंस्पेक्टर, दो अन्य मास्टर, अर्दली, क्लर्क बाबू।
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[स्थान: हेड मास्टर का दफ्तर। समय: पहला घंटा। हेड मास्टर बैठा हुआ डाक देख रहा है। पास ही सेकिंड मास्टर भी बैठा है।]

हेड मास्टर: कहिए, नया टाइम-टेबल बना ?
सेकिंड मास्टर: कल उसे दो बजे रात तक बनाता रहा। लैंप की रोशनी के कारण श्रीमतिजी को नींद नहीं आई। झगड़ा बढ़ते देख मुझे काम बंद करना पड़ा।
हेड मास्टर: उसे जरा जल्दी बना लीजिए। इस नए इंस्पेक्टर से बड़ा भय लगता है। न जाने कब आ धमके !
सेकिंड मास्टर: उसके आने की सूचना तो मिल जाएगी।
हेड मास्टर: अच्छा, यह बात है। तब तो बहुत सजग रहना चाहिए।
[अर्दली एक विजिटिंग कार्ड लेकर आता है। हेड मास्टर उसे देखकर भौचक रह जाते हैं।]
हेड मास्टर: अरे, यह क्या, इंस्पेक्टर साहब ! गजब हो गया !

हेड मास्टर: (धामी आवाज में, कुरसी से उठता हुआ) शैतान का खयाल किया नहीं कि वह आ गया।
[हेड मास्टर लपककर चिक उठाता है इंस्पेक्टर अंदर आता है। सेकिंड मास्टर खड़े होते हैं। इंस्पेक्टर और हेड़ मास्टर बैठते हैं। सेकिंड मास्टर बाहर जाने लगते हैं; पर हेड मास्टर उन्हें इशारे से रोक देते हैं।]
इंस्पेक्टर: मैं आपके स्कूल का निरीक्षण करने आया हूँ।
हेड मास्टर: बड़ी कृपा हुई ! चलिए। (उठता है।)

इंस्पेक्टर: नहीं-नहीं, आप कष्ट न करें। मैं अकेले ही निरीक्षण कर लूँगा। (उठकर बाहर चला जाता है। हेड मास्टर दरवाजे तक साथ जाते हैं, फिर वापस जाकर अपने स्थान पर बैठ जाते हैं।)
हेड मास्टर: क्या मुसीबत है ! ऐसे विचित्र इंस्पेक्टर कभी नहीं देखे। तूफान की तरह आ गया। बिलकुल तूफान की तरह ! सो भी कार्ड भेजकर। कार्ड भेजकर आते तो इसी इंस्पेक्टर को देखा। मुझे भी साथ नहीं लिया। भगवान् ही कुशल करें। (घंटी बजाता है। अर्दली का प्रवेश) देखो झींगुर। सब दर्जों में कह आओ कि इंस्पेक्टर साहब आए हैं। (अर्दली का गमन) बैठिए ! मास्टर साहब, आप तब से खड़े ही हैं। यदि मैं साथ में गया होता तो गनीमत भी थी, अब देखना है, किस करवट ऊँट बैठता है।

सेकिंड मास्टर: हाँ, साहब, मुआइने के समय आपके होने से दूसरी ही बात होती है। मास्टरों का दिल मजबूत रहता है। खैर, आपने उनके आने की इत्तला तो करा ही दी।
हेड़ मास्टर: इससे मास्टर सजग अवश्य हो जाएँगे और अपने-अपने धराऊ पाठ निकाल सकेंगे; पर फिर भी त्रुटिया रह जाती हैं।
सेकिंड मास्टर: अवश्य, अवश्य !
हेड मास्टर: मैंने तो ऐसे-ऐसे मुआइना कराए हैं कि बड़े-बड़े इंस्पेक्टर दंग रह गए हैं।
सेकिंड मास्टर: क्यों नहीं ! अवश्य, अवश्य !

हेड मास्टर: एक बार हमारे स्कूल में एक नए मास्टर आए। वे खड़िया का इस्तेमाल जानते ही न थे। इंस्पेक्टर के साथ मैं भी उनके मरे में पहुँचा। देखा तो ब्लैक बोर्ड बिलकुल अछूता था। मैंने अपनी जेब से खड़िया की एक बत्ती निकाली। बस, जरा इशारा काफी था। उन्होंने बात-की-बात में सारा ब्लैक बोर्ड रँग डाला।
सेकिंड मास्टर: खूब !
हेड मास्टर: एक दूसरे मास्टरजी थे। जिस समय उनके कमरे में पहुँचा तो ऐसा मालूम हुआ मानो उन्हें काठ मार गया हो। मैंने मास्टर साहब की जो यह हालत देखी तो जेब से तुरंत खड़िया का एक छोटा टुकड़ा निकाला और इंस्पेक्टर की आँख बचाकर मास्टर साहब के सिर को लक्ष्य बनाया। बस फिर क्या था, उनका दिमाग ठिकाने आ गया और उन्होंने इस प्रकार गला फाड़ – फाड़कर पढ़ाना शुरू किया कि इंस्पेक्टर को वहाँ ठहरना कठिन हो गया। बेचारे कान में उँगली देकर चलते बने।

सेकिंड मास्टर: यह भी खूब रही ! आपकी जेब में खड़िया मौके पर निकल ही आती है।
हेड मास्टर: सो नहीं ! मुआइने के मौके पर मैं दस-बीस चाक की बत्तियाँ अपनी जेबों में रखना नहीं भूलता। मास्टरों का यही तो अमोघ अस्त्र है। खासकर मुआइने के मौके पर। पर हाँ, सुनिए तो ! एक बार मुआइने में बड़ा मजा आया।
सेकिंड मास्टर: हाँ. कहिए !

हेड मास्टर: बात यों है। पंडितजी दसवें दर्जें में हिंदी पढ़ा रहे थे। तुलसीदास की रामायण में वह प्रकरण था। जहाँ वन में जाते समय मार्ग की स्त्रियाँ सीताजी से श्रीरामचंद्रजी के संबंध में पूछ रही थीं कि ये आपके कौन हैं। इस प्रश्न का उत्तर सीतीजी ने मुख से नहीं आँख के इशारे से दिया- वही ‘खंजन मंजु तिरीछे नैननि’ वाली चौपाई। पंडितजी उसका अर्थ समझा रहे थे। तब हम व इंस्पेक्टर दर्जें में जा रहे थे तो एक लड़का कह रहा था- ‘पंडितजी, इस चौपाई का अर्थ समझ में नहीं आया। सीताजी ने आँखों से किस प्रकार उन्हें अपना पति जाहिर किया। जरा वैसी ही आँखें करके समझा दीजिए।’ इसपर पंडितजी ने क्रोध की मुद्रा बनाई। उधर हम लोग दर्जे में पहुँचे। पंडितजी अगली चौपाई पढ़ने लगे। पर इंस्पेक्टर साहब डायरेक्ट मेथड के पक्षपाती थे। बोले- ‘वेल, पंडितजी ! आप लड़के की कठिनाई को क्यों दूर नहीं करते ? जैसा वह कहता है वैसा करके उसे क्यों नहीं बतलाते ?’

सेकिंड मास्टर: इंस्पेक्टर साहब हिंदी तो अच्छी जानते रहे होंगे !
हेड मास्टर: सो बात नहीं। बोल तो वे हिन्दी अच्छी लेते थे; पर बाद में इंस्पेक्टर का रुख देखकर आप आँखों की कसरत करने लगे। मुझे तो इतने जोरों की हँसी आ रही थी कि मैं यह देख ही न सका कि उन्हें उसमें कहाँ तक सफलता मिली। लड़के अपना-अपना पेट पकड़े हुए और एक साथ से मुँह को दाबे बड़ी कठिनाई से हँसी रोके हुए पंड़ितजी के हाव-भाव देख रहे थे। इसेक बाद पंड़ितजी ने ज्यों ही आगे पढ़ाना शुरू किया कि इंस्पेक्टर ने फिर टोका- ‘वेल, पंडितजी ! आपने मेरा कहना नहीं किया !’

सेकिंड मास्टर: पंडितजी बेचारे तो बड़ी आफत में फँस गए।
हेड मास्टर: हाँ साहब ! बेचारे फिर आँखों का व्यायाम करने लगे और इस बार जरा और भी उत्साह के साथ, वो भी इंस्पेक्टर की ओर मुँह करके ! इंस्पेक्टर ने झुँझलाकर मुझसे कहा, ‘यह पंडित बड़ा विचित्र है। लड़के की कठिनाई तो दूर नहीं करता, उलटा मेरी ओर आँखें मटका रहा है। मुझे तो इसकी शिकायत करनी पड़ेगी।’ इसपर मैंने सारी बात इंस्पेक्टर को समझाई। तब तो मारे हँसी के उनके पेट में बल पड़ने लगे। उन्होंने पंडितजी को तरक्की देने का वचन दिया। पंडितजी भी प्रसन्न थे, जिन्हें जरा सी आँखों की कसरत के बदले तरक्की मिल गई। आप ही सोचिए, यदि मैं उस दिन मुआइने के समय इंस्पेक्टर के साथ न होता तो बेचारे पंडितजी पर न जाने कौन सी विपत्ति आ गई होती !
सेकिंड मास्टर: हाँ, साहब ! इसमें क्या संदेह है ! अच्छा, अब मैं जाता हूँ। देखूँ चने का प्रबंध !
हेड मास्टर: पर हाँ, अच्छी याद आई। साहब के लंच-जलपान का अच्छा प्रबंध होना चाहिए !


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