कविता संग्रह >> आत्मिका आत्मिकामहादेवी वर्मा
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जीवन-दृष्टि, दर्शन, सौन्दर्यबोध और काव्य-दृष्टि की कवितायें
Aatmika - A hindi Book by Mahadevi Verma
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आधुनिक हिन्दी कविता की मूर्धन्य कवियत्री श्रीमती महादेवी वर्मा के काव्य में एक मार्मिक संवेदना है। सरल-सुधरे प्रतीकों के माध्यम से अपने भावों को जिस ढंग से महादेवीजी अभिव्यक्त करती हैं, वह अन्यत्र दुर्लभ है। वास्तव में उनका समूचा काव्य एक चिरन्तन और असीम प्रिय के प्रति निवेदित है जिसमें जीवन की धूप-छाँह और गम्भीर चिन्तन की इन्द्रधनुषी कोमलता है। आत्मिका में संगृहीत कविताओं के बारे में स्वयं महादेवीजी ने यह स्वीकार किया है कि इसमें मेरी ऐसी रचनाएं संग्रहीत हैं जो मेरी जीवन-दृष्टि, दर्शन, सौन्दर्यबोध और काव्य-दृष्टि का परिचय दे सकेंगी।
आत्मिका
जिस प्रकार शरीर विज्ञान का विशेषज्ञ चिकित्सक भी अपने शरीर की शल्य क्रिया में समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार मनोविज्ञान का ज्ञाता लेखक भी अपने सृजनात्मक मनोवेगों के विश्लेषण में सफल नहीं हो पाता। सृजनात्मक रचना में प्रत्यक्ष रूप से चेतना होती है, परन्तु अप्रत्यक्ष कारणों में कुछ महत्त्वपूर्ण योगदान अवचेतन भी देता है और कुछ पराचेतन भी। इस प्रकार चेतना के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष अनेक स्तर सक्रिय होकर, जिस सृजनात्मक आवेग-संवेग की रचना करते हैं, उसका तटस्थ विश्लेषण एक प्रकार से असम्भव ही है और यदि वह किसी प्रकार सम्भव भी हो सके तो रचनाकार और विशेषतः कवि की रचना-सुख से वंचित हो जाना पड़ेगा, जो उसे रचना से भी विमुख कर सकता है।
घर-जीवन में अन्तर्बाह्य और परिस्थितियाँ कुछ ऐसी भी रहती हैं, जिनके विषय में कुछ कहा-सुना जा सकता है। मूलभूत या जन्मजात संस्कार का विषय जटिल है, क्योंकि उसकी स्थिति अवचेतन में अधिक रहती है और बालकपन के विधि-निषेध उसे धूमिल करते रहते हैं। माता-पिता, समाज, शिक्षक आदि उसे अपने और परम्परा के अनुकूल बनाने में इतने प्रयत्नशील रहते हैं कि बड़ा होने तक वह या तो जन्मजात संस्कारों को भूल जाता है या उनका दमन करना सीख जाता है। संस्कारों का जो अंश रुचि के रूप में उसके चेतन में व्यक्त होता है, वह प्रायः उसके अबोधपन में व्यक्त हो जाता है और उसे भी विधि-निषेधों का अनुशासन परिवर्तित कर देता है। बालक और उसके वयस्क रूप में वही अन्तर आ जाता है जो बिना बुने ताने-बाने में तथा उससे बुने और विशेष काट-छाँट से मिले वस्त्र में मिलेगा, जिसमें एक को दूसरे में पहचानना कठिन हो जाता है।
इस सम्बन्ध में मैं विशेष भाग्यवान रही हूँ। एक तो मेरे माता-पिता उदार प्रकृति के थे और बच्चों पर कठोर अनुशासन उनके स्वभाव के प्रतिकूल पड़ता था। दूसरे, कई पीढ़ियों से कन्या का अभाव झेलने के उपरान्त विशेष मनौती के परिणाम में मुझे पाने के कारण मुझ पर विधि-निषेध का भार कम डाला गया, अतः जन्मजात संस्कार दमित कम हुए। ऐसे परिवेश में मेरी विद्रोही प्रकृति अबाध विकसित होती रही और मैं वह बन सकी जो उस युग की कन्या या नारी के लिए बनना असम्भव नहीं तो कष्टसाध्य अवश्य था। मेरे जन्म को जब परिवार कुलदेवी दुर्गा का अनुग्रह मानता था तब वह मेरी विद्रोही प्रकृति को उसी देवी का वरदान मानते रहे हों तो आश्चर्य की बात नहीं।
जिस युग में माता-पिता के संरक्षण से बाहर बालिका को रखना बहुत निन्दा का कारण बन जाता था उसी में मैंने पिताजी से, (जो प्रयाग विश्वविद्यालय के छात्र रहे थे) प्रयाग की चर्चा सुनकर वहीं पढ़ने जाने का हठ किया और अन्त में मेरे हठ की ही विजय रही। उस बीसवीं शती के प्रथम दशक में बालिकाओं को रामचरित मानस से अधिक पढ़ाना भी परम्परा-विरुद्ध था, फिर किसी दूर नगर के छात्रावास में रखकर पढ़ना तो अकल्पनीय ही कहा जाएगा।
उसके उपरान्त स्नातक होने से पहले ही मैंने जो यायावरी आरम्भ की, उसमें बदरीनाथ, केदार आदि पर्वतीय यात्राओं के साथ रामेश्वरम, कन्याकुमारी, पुरी आदि घूमकर रमण महर्षि का तथा बाबू का आश्रम भी देख डाला। फिर बापू के आह्वान पर अपने शरीर से सोना-चाँदी उतार कर माँ, दादी, नानी के सलमे-सितारे के काम वाले कीमती लहँगे-दुपट्टे भी जला डाले। इन परम्परा-विरुद्ध कार्यों की अति की सीमा वहाँ हुई जब मैंने भिक्षुणी होने का निश्चय व्यक्त किया।
अपने ही विद्रोही स्वभाव के कारण ही मैं भिक्षुणी नहीं हो सकी, क्योंकि मेरा मन ऐसे साधक से दीक्षा लेने को प्रस्तुत नहीं हुआ जो स्त्री के मुख-दर्शन तक ही सीमित था। आश्चर्य तो यह है कि युगयुगान्तर से हमारा तप और साधना का क्षेत्र नारी के आतंक से आतंकित रहता आया है, चाहे वह मानवी हो या अप्सरा। बापू का उपदेश कि ‘‘तू अपनी मातृभाषा से अपनी गरीब बहिनों को शिक्षा देने का कार्य करे, तो अच्छा है,’’ मेरे मन के अनुकूल सिद्ध हुआ और तब अर्थ और प्रतिष्ठा की दृष्टि प्रलोभनीय विश्वविद्यालय के आमन्त्रण को स्वीकार कर मैंने कुछ संबलहीन विद्यार्थिनियों के साथ साधनहीन विद्यापीठ को अपना कर्मक्षेत्र बनाया, जिसके सारे अभाव मेरे स्नेह और उनकी श्रद्धा ने भर दिए।
आज मेरा मन उन व्यक्तियों के प्रति प्रणत है, जिन्होंने अपने विश्वास और परम्परा की अवज्ञा कर मुझे ऐसी मुक्ति दी, जिसमें मेरा अन्तर्बाह्य-विकास सहज और स्वाभाविक हो गया।
लेखन की कथा भी बहुत कुछ ऐसी ही है। ब्राह्म-मुहूर्त में ही मुझे ठण्डे पानी से नहलाकर माँ अपने साथ पूजा के लिए बैठा लेती थीं। मैंने अपने कष्ट की बात न कर उसके ठाकुर जी पर ही सहानुभूति प्रकट की और तुकबन्दी की—
घर-जीवन में अन्तर्बाह्य और परिस्थितियाँ कुछ ऐसी भी रहती हैं, जिनके विषय में कुछ कहा-सुना जा सकता है। मूलभूत या जन्मजात संस्कार का विषय जटिल है, क्योंकि उसकी स्थिति अवचेतन में अधिक रहती है और बालकपन के विधि-निषेध उसे धूमिल करते रहते हैं। माता-पिता, समाज, शिक्षक आदि उसे अपने और परम्परा के अनुकूल बनाने में इतने प्रयत्नशील रहते हैं कि बड़ा होने तक वह या तो जन्मजात संस्कारों को भूल जाता है या उनका दमन करना सीख जाता है। संस्कारों का जो अंश रुचि के रूप में उसके चेतन में व्यक्त होता है, वह प्रायः उसके अबोधपन में व्यक्त हो जाता है और उसे भी विधि-निषेधों का अनुशासन परिवर्तित कर देता है। बालक और उसके वयस्क रूप में वही अन्तर आ जाता है जो बिना बुने ताने-बाने में तथा उससे बुने और विशेष काट-छाँट से मिले वस्त्र में मिलेगा, जिसमें एक को दूसरे में पहचानना कठिन हो जाता है।
इस सम्बन्ध में मैं विशेष भाग्यवान रही हूँ। एक तो मेरे माता-पिता उदार प्रकृति के थे और बच्चों पर कठोर अनुशासन उनके स्वभाव के प्रतिकूल पड़ता था। दूसरे, कई पीढ़ियों से कन्या का अभाव झेलने के उपरान्त विशेष मनौती के परिणाम में मुझे पाने के कारण मुझ पर विधि-निषेध का भार कम डाला गया, अतः जन्मजात संस्कार दमित कम हुए। ऐसे परिवेश में मेरी विद्रोही प्रकृति अबाध विकसित होती रही और मैं वह बन सकी जो उस युग की कन्या या नारी के लिए बनना असम्भव नहीं तो कष्टसाध्य अवश्य था। मेरे जन्म को जब परिवार कुलदेवी दुर्गा का अनुग्रह मानता था तब वह मेरी विद्रोही प्रकृति को उसी देवी का वरदान मानते रहे हों तो आश्चर्य की बात नहीं।
जिस युग में माता-पिता के संरक्षण से बाहर बालिका को रखना बहुत निन्दा का कारण बन जाता था उसी में मैंने पिताजी से, (जो प्रयाग विश्वविद्यालय के छात्र रहे थे) प्रयाग की चर्चा सुनकर वहीं पढ़ने जाने का हठ किया और अन्त में मेरे हठ की ही विजय रही। उस बीसवीं शती के प्रथम दशक में बालिकाओं को रामचरित मानस से अधिक पढ़ाना भी परम्परा-विरुद्ध था, फिर किसी दूर नगर के छात्रावास में रखकर पढ़ना तो अकल्पनीय ही कहा जाएगा।
उसके उपरान्त स्नातक होने से पहले ही मैंने जो यायावरी आरम्भ की, उसमें बदरीनाथ, केदार आदि पर्वतीय यात्राओं के साथ रामेश्वरम, कन्याकुमारी, पुरी आदि घूमकर रमण महर्षि का तथा बाबू का आश्रम भी देख डाला। फिर बापू के आह्वान पर अपने शरीर से सोना-चाँदी उतार कर माँ, दादी, नानी के सलमे-सितारे के काम वाले कीमती लहँगे-दुपट्टे भी जला डाले। इन परम्परा-विरुद्ध कार्यों की अति की सीमा वहाँ हुई जब मैंने भिक्षुणी होने का निश्चय व्यक्त किया।
अपने ही विद्रोही स्वभाव के कारण ही मैं भिक्षुणी नहीं हो सकी, क्योंकि मेरा मन ऐसे साधक से दीक्षा लेने को प्रस्तुत नहीं हुआ जो स्त्री के मुख-दर्शन तक ही सीमित था। आश्चर्य तो यह है कि युगयुगान्तर से हमारा तप और साधना का क्षेत्र नारी के आतंक से आतंकित रहता आया है, चाहे वह मानवी हो या अप्सरा। बापू का उपदेश कि ‘‘तू अपनी मातृभाषा से अपनी गरीब बहिनों को शिक्षा देने का कार्य करे, तो अच्छा है,’’ मेरे मन के अनुकूल सिद्ध हुआ और तब अर्थ और प्रतिष्ठा की दृष्टि प्रलोभनीय विश्वविद्यालय के आमन्त्रण को स्वीकार कर मैंने कुछ संबलहीन विद्यार्थिनियों के साथ साधनहीन विद्यापीठ को अपना कर्मक्षेत्र बनाया, जिसके सारे अभाव मेरे स्नेह और उनकी श्रद्धा ने भर दिए।
आज मेरा मन उन व्यक्तियों के प्रति प्रणत है, जिन्होंने अपने विश्वास और परम्परा की अवज्ञा कर मुझे ऐसी मुक्ति दी, जिसमें मेरा अन्तर्बाह्य-विकास सहज और स्वाभाविक हो गया।
लेखन की कथा भी बहुत कुछ ऐसी ही है। ब्राह्म-मुहूर्त में ही मुझे ठण्डे पानी से नहलाकर माँ अपने साथ पूजा के लिए बैठा लेती थीं। मैंने अपने कष्ट की बात न कर उसके ठाकुर जी पर ही सहानुभूति प्रकट की और तुकबन्दी की—
ठण्डे पानी में नहलातीं
ठंडा चंदन इन्हें लगातीं,
इनका भोग हमें दे जातीं,
फिर भी कभी नहीं बोले हैं
माँ के ठाकुर जी भोले हैं।
ठंडा चंदन इन्हें लगातीं,
इनका भोग हमें दे जातीं,
फिर भी कभी नहीं बोले हैं
माँ के ठाकुर जी भोले हैं।
फिर तो बार-बार ऐसी तुकबन्दियाँ होने लगीं जो मेरे विद्रोही स्वभाव को ही व्यक्त करती थीं। जब पण्डितजी से कुछ छन्द ज्ञान प्राप्त कर लिखना आरम्भ किया तब लिखा-
मन्दिर के पटखोलत का यह देवता तो
दृग खोलि हैं नहीं।
चन्दन फूल चढ़ाऊ भले हर्षाय कबों
अनुकूलि है नाहीं।
वेर हजारन शंखहिं फूँक यह
जागि हैं ना अरु डोलिहैं नाहीं।
प्राणन में नित बोलत है पुनि
मन्दिर में यह बोलिहैं नाहीं।
दृग खोलि हैं नहीं।
चन्दन फूल चढ़ाऊ भले हर्षाय कबों
अनुकूलि है नाहीं।
वेर हजारन शंखहिं फूँक यह
जागि हैं ना अरु डोलिहैं नाहीं।
प्राणन में नित बोलत है पुनि
मन्दिर में यह बोलिहैं नाहीं।
(मन्दिर के पट क्या खोलते हो, यह देवता तो आँखें नहीं खोलेगा, चन्दन फूल भले ही चढ़ाओ, यह न हर्षित होगा न अनुकूल होगा, हजार बार शंख बजाओ पर यह न हिलेगा न जागेगा। प्राणों में तो नित्य बोलता है, पर मन्दिर में यह नहीं बोलेगा।)
अवश्य ही माँ को कष्ट हुआ होगा, पर उन्होंने डाँटा कभी नहीं, स्नेह से समझाने का प्रयत्न अवश्य किया। पर परिणाम कुछ नहीं हुआ। यह सब मानो ‘‘क्या पूजा या अर्चन रे, उस असीम का सुन्दर मन्दिर मेरा लघुतम जीवन रे’’ का पूर्वगामी था।
गत छह दशकों में कविता में जितने आन्दोलन हुए हैं, उतने साहित्य की अन्य विधाओं में नहीं हो सके। इसके अनेक आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक कारण रहे। मुझमें, आन्दोलन के प्रभाव ने, केवल मानव-गरिमा को ही अधिक गहराई में स्पर्श किया है, अन्य किसी आस्था विश्वास में परिवर्तन की भूमिका वे नहीं बन सके। प्रकृति के महादान में जैसे असीम धूप, जल, हवा, मिट्टी आदि पौधे को जन्म से ही मिल जाते हैं, परन्तु वह लेता उतना ही है, जितने में जीवन के साथ-साथ उसके रूप-रंग-रस की विशेषता बनी रहे, वैसे ही मेरे मन से अंकुरित भाव से अपने युग का विविधरूपी परिवेश स्वीकार किया है—अपनी विशेषता और भारतीय दृष्टि देकर आधुनिक कहलाने की इच्छा मुझे कभी नहीं हुई। समय-समय पर मैंने छायावाद, रहस्यवाद आदि अनेक वादों पर बहुत कुछ लिखा है। यहाँ उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है। ‘आत्मिका’ में मेरी ऐसी रचनाएँ संग्रहीत हैं जो मेरी जीवन-दृष्टि, दर्शन, सौन्दर्यबोध, काव्य-दृष्टि आदि का परिचय दे सकेंगी।
अवश्य ही माँ को कष्ट हुआ होगा, पर उन्होंने डाँटा कभी नहीं, स्नेह से समझाने का प्रयत्न अवश्य किया। पर परिणाम कुछ नहीं हुआ। यह सब मानो ‘‘क्या पूजा या अर्चन रे, उस असीम का सुन्दर मन्दिर मेरा लघुतम जीवन रे’’ का पूर्वगामी था।
गत छह दशकों में कविता में जितने आन्दोलन हुए हैं, उतने साहित्य की अन्य विधाओं में नहीं हो सके। इसके अनेक आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक कारण रहे। मुझमें, आन्दोलन के प्रभाव ने, केवल मानव-गरिमा को ही अधिक गहराई में स्पर्श किया है, अन्य किसी आस्था विश्वास में परिवर्तन की भूमिका वे नहीं बन सके। प्रकृति के महादान में जैसे असीम धूप, जल, हवा, मिट्टी आदि पौधे को जन्म से ही मिल जाते हैं, परन्तु वह लेता उतना ही है, जितने में जीवन के साथ-साथ उसके रूप-रंग-रस की विशेषता बनी रहे, वैसे ही मेरे मन से अंकुरित भाव से अपने युग का विविधरूपी परिवेश स्वीकार किया है—अपनी विशेषता और भारतीय दृष्टि देकर आधुनिक कहलाने की इच्छा मुझे कभी नहीं हुई। समय-समय पर मैंने छायावाद, रहस्यवाद आदि अनेक वादों पर बहुत कुछ लिखा है। यहाँ उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है। ‘आत्मिका’ में मेरी ऐसी रचनाएँ संग्रहीत हैं जो मेरी जीवन-दृष्टि, दर्शन, सौन्दर्यबोध, काव्य-दृष्टि आदि का परिचय दे सकेंगी।
-महादेवी
पंथ होने दो अपरिचित
पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला !
घेर ले छाया अमा बन,
आज कज्जल-अश्रुओं में रिमझिम ले यहघिरा घन;
और होंगे नयन, सूखे
तिल बुझे औ’ पलक रूखे,
आर्द्र चितवन में यहाँ
शत विद्युतों में दीप खेला !
अन्य होंगे चरण हारे,
और हैं जो लौटते, दे शूल को संकल्प सारे ;
दुखव्रती निर्माण उन्मद,
यह अमरता नापते पद,
बाँध देंगे अंक-संसृति
से तिमिर में स्वर्ण बेला !
दूसरी होगी कहानी,
शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोयी निशानी,
आज जिस पर प्रलय विस्मित,
मैं लगाती चल रही नित,
मोतियों की हाट औ’
चिनगारियों का एक मेला !
हास का मधु-दूत भेजो,
रोष की भ्रू-भंगिमा पतझार को चाहे सहे जो !
ले मिलेगा उस अचंचल,
वेदना-जल, स्वप्न-शतदल,
जान लो वह मिलन एकाकी
विरह में है दुकेला !
पथ होने को अपरिचित प्राण रहने को अकेला !
घेर ले छाया अमा बन,
आज कज्जल-अश्रुओं में रिमझिम ले यहघिरा घन;
और होंगे नयन, सूखे
तिल बुझे औ’ पलक रूखे,
आर्द्र चितवन में यहाँ
शत विद्युतों में दीप खेला !
अन्य होंगे चरण हारे,
और हैं जो लौटते, दे शूल को संकल्प सारे ;
दुखव्रती निर्माण उन्मद,
यह अमरता नापते पद,
बाँध देंगे अंक-संसृति
से तिमिर में स्वर्ण बेला !
दूसरी होगी कहानी,
शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोयी निशानी,
आज जिस पर प्रलय विस्मित,
मैं लगाती चल रही नित,
मोतियों की हाट औ’
चिनगारियों का एक मेला !
हास का मधु-दूत भेजो,
रोष की भ्रू-भंगिमा पतझार को चाहे सहे जो !
ले मिलेगा उस अचंचल,
वेदना-जल, स्वप्न-शतदल,
जान लो वह मिलन एकाकी
विरह में है दुकेला !
पथ होने को अपरिचित प्राण रहने को अकेला !
मैं और तू
तुम हो विधु के बिम्ब और मैं
मुग्धा रश्मि अजान,
जिसे खींच लाते अस्थिर कर
कौतूहल के बाण !
कलियों के मधुप्यालों से जो
करती मदिरा पान,
झाँक, जला देती नीड़ों में
दीपक सी मुस्कान।
लोल तरंगों के तालों पर
करती बेसुध लास,
फैलातीं तम के रहस्य पर
आलिंगन का पाश।
ओस धुले पथ में छिप तेरा
जब आता आह्वान,
भूल अधूरा खेल तुम्हीं में
होता अन्तर्धान !
तुम अनन्त जलराशि उर्म्मि मैं
चंचल सी अवदात,
अनिल-निपीड़ित जा गिरती जो
कूलों पर अज्ञात;
हिम-शीतल अधरों से छूकर
तप्त कणों की प्यास,
बिखराती मंजुल मोती से
बुद्बुद में उल्लास,
देख तुम्हें निस्तब्ध निशा में
करते अनुसन्धान,
श्रांत तुम्हीं में सो जाते जा
जिसके बालक प्राण !
तम परिचित ऋतुराज मूक मैं
मधु-श्री कोमलगात,
अभिमंत्रित कर जिसे सुलाती
आ तुषार की रात;
पीत पल्लवों में सुन तेरी
पद्ध्वनि उठती जाग,
फूट फूट पड़ता किसलय मिस
चिरसंचित अनुराग;
मुखरित कर देता मानस-पिक
तेरा चितवन-प्रात;
छू मादक निःश्वास पुलक—
उठते रोओं से पात !
फूलों में मधु से लिखती जो
मधुघड़ियों के नाम,
भर देती प्रभात का अंचल
सौरभ से बिन दाम;
‘मधु जाता अलि’ जब कह जाती
आ संतप्त बयार,
मिल तुझमें उड़ जाता जिसका
जागृति का संसार !
स्वर लहरी मैं मधुर स्वप्न की
तुम निद्रा के तार,
जिसमें होता इस जीवन का
उपक्रम उपसंहार;
पलकों से पलकों पर उड़कर
तितली सी अम्लान,
निद्रित जग पर बुन देती जो
लय का एक वितान;
मानस-दोलों में सोती शिशु
इच्छाएँ अनजान,
उन्हें उड़ा देती नभ में दे
द्रुत पंखों का दान !
सुखदुख की मरकत-प्याली से
मधु-अतीत कर पान,
मादकता की आभा से छा
लेती तम के प्राण;
जिसकी साँसे छू हो जाता
छाया जग वपुमान,
शून्य निशा में भटके फिरते
सुधि के मधुर विहान;
इन्द्रधनुष के रंगो से भर
धुँधले चित्र अपार,
देती रहती चिर रहस्यमय
भावों को आकार !
जब अपना संगीत सुलाते
थक वीणा के तार,
धुल जाता उसका प्रभात के
कुहरे सा संसार !
फूलों पर नीरव रजनी के
शून्य पलों के भार,
पानी करते रहते जिसके
मोती के उपहार;
जब समीर-यानों पर उड़ते
मेघों के लघु बाल,
उनके पथ पर जो बुन देता
मृदु आभा के जाल;
जो रहता तम के मानस से
ज्यों पीड़ा का दाग,
आलोकित करता दीपक सा़
अन्तर्हित अनुराग।
जब प्रभात में मिट जाता
छाया का कारागार,
मिल दिन में असीम हो जाता
जिसका लघु आकार;
मैं तुमसे हूँ एक, एक हैं
जैसे रश्मि प्रकाश;
मैं तुमसे हूँ भिन्न, भिन्न ज्यों
घन से तड़ित्-विलास;
मुझे बाँधने आते हो लघु
सीमा में चुपचाप,
कर पाओगे भिन्न कभी क्या
ज्वाला से उत्ताप ?
मुग्धा रश्मि अजान,
जिसे खींच लाते अस्थिर कर
कौतूहल के बाण !
कलियों के मधुप्यालों से जो
करती मदिरा पान,
झाँक, जला देती नीड़ों में
दीपक सी मुस्कान।
लोल तरंगों के तालों पर
करती बेसुध लास,
फैलातीं तम के रहस्य पर
आलिंगन का पाश।
ओस धुले पथ में छिप तेरा
जब आता आह्वान,
भूल अधूरा खेल तुम्हीं में
होता अन्तर्धान !
तुम अनन्त जलराशि उर्म्मि मैं
चंचल सी अवदात,
अनिल-निपीड़ित जा गिरती जो
कूलों पर अज्ञात;
हिम-शीतल अधरों से छूकर
तप्त कणों की प्यास,
बिखराती मंजुल मोती से
बुद्बुद में उल्लास,
देख तुम्हें निस्तब्ध निशा में
करते अनुसन्धान,
श्रांत तुम्हीं में सो जाते जा
जिसके बालक प्राण !
तम परिचित ऋतुराज मूक मैं
मधु-श्री कोमलगात,
अभिमंत्रित कर जिसे सुलाती
आ तुषार की रात;
पीत पल्लवों में सुन तेरी
पद्ध्वनि उठती जाग,
फूट फूट पड़ता किसलय मिस
चिरसंचित अनुराग;
मुखरित कर देता मानस-पिक
तेरा चितवन-प्रात;
छू मादक निःश्वास पुलक—
उठते रोओं से पात !
फूलों में मधु से लिखती जो
मधुघड़ियों के नाम,
भर देती प्रभात का अंचल
सौरभ से बिन दाम;
‘मधु जाता अलि’ जब कह जाती
आ संतप्त बयार,
मिल तुझमें उड़ जाता जिसका
जागृति का संसार !
स्वर लहरी मैं मधुर स्वप्न की
तुम निद्रा के तार,
जिसमें होता इस जीवन का
उपक्रम उपसंहार;
पलकों से पलकों पर उड़कर
तितली सी अम्लान,
निद्रित जग पर बुन देती जो
लय का एक वितान;
मानस-दोलों में सोती शिशु
इच्छाएँ अनजान,
उन्हें उड़ा देती नभ में दे
द्रुत पंखों का दान !
सुखदुख की मरकत-प्याली से
मधु-अतीत कर पान,
मादकता की आभा से छा
लेती तम के प्राण;
जिसकी साँसे छू हो जाता
छाया जग वपुमान,
शून्य निशा में भटके फिरते
सुधि के मधुर विहान;
इन्द्रधनुष के रंगो से भर
धुँधले चित्र अपार,
देती रहती चिर रहस्यमय
भावों को आकार !
जब अपना संगीत सुलाते
थक वीणा के तार,
धुल जाता उसका प्रभात के
कुहरे सा संसार !
फूलों पर नीरव रजनी के
शून्य पलों के भार,
पानी करते रहते जिसके
मोती के उपहार;
जब समीर-यानों पर उड़ते
मेघों के लघु बाल,
उनके पथ पर जो बुन देता
मृदु आभा के जाल;
जो रहता तम के मानस से
ज्यों पीड़ा का दाग,
आलोकित करता दीपक सा़
अन्तर्हित अनुराग।
जब प्रभात में मिट जाता
छाया का कारागार,
मिल दिन में असीम हो जाता
जिसका लघु आकार;
मैं तुमसे हूँ एक, एक हैं
जैसे रश्मि प्रकाश;
मैं तुमसे हूँ भिन्न, भिन्न ज्यों
घन से तड़ित्-विलास;
मुझे बाँधने आते हो लघु
सीमा में चुपचाप,
कर पाओगे भिन्न कभी क्या
ज्वाला से उत्ताप ?
अश्रु-नीर
प्रिय इन नयनों का अश्रु-नीर !
दुख से आविल सुख से पंकिल
बुद्बुद से स्वप्नों से फेनिल,
बहता है युग युग से अधीर
जीवन-पथ का दुर्गमतम तल,
अपनी गति से कर सजल सरल,
शीतल करता युग तृषित तीर !
इसमें उपजा यह नीरज सित,
कोमल-कोमल लज्जित मीलित;
सौरभ-सी लेकर मधुर पीर !
इसमें न पंक का चिह्न शेष,
इसमें न ठहरता सलिल-लेश,
इसको न जगाती मधुप-भीर !
तेरे करुणा-कण से विलसित,
हो तेरी चितवन से विकसित,
छू तेरी श्वासों का समीर !
दुख से आविल सुख से पंकिल
बुद्बुद से स्वप्नों से फेनिल,
बहता है युग युग से अधीर
जीवन-पथ का दुर्गमतम तल,
अपनी गति से कर सजल सरल,
शीतल करता युग तृषित तीर !
इसमें उपजा यह नीरज सित,
कोमल-कोमल लज्जित मीलित;
सौरभ-सी लेकर मधुर पीर !
इसमें न पंक का चिह्न शेष,
इसमें न ठहरता सलिल-लेश,
इसको न जगाती मधुप-भीर !
तेरे करुणा-कण से विलसित,
हो तेरी चितवन से विकसित,
छू तेरी श्वासों का समीर !
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