इतिहास और राजनीति >> आधुनिक एशिया का इतिहास आधुनिक एशिया का इतिहासधनपति पाण्डेय
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आधुनिक एशिया का इतिहास
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
19वीं शताब्दी नवजागरण की सदी है। इस शताब्दी में एशियाई राज्यों ने
पश्चिमी यूरोपीय देशों की दासता का तथा प्रभाव से मुक्त होने के लिए
राष्ट्रीय आन्दोलन प्रारम्भ किया। तुर्की तथा ईरान की गुप्त संस्थाओं, चीन
के नेता डॉ.सनयात सेन के कर्तव्य,विशाव रूस की लघु देश जापान के हाथों
पराजय आदि ऐतिहासिक तथ्यों ने भारत के राष्ट्रवादियों को अनुप्राणित किया।
बींसवी सदी के पूर्वार्द्ध तक चीन,जापान,इराक,ईरान,फिलीस्तीन आदि के सभी
के सभी पश्चिम के प्रभाव से मुक्त हुए। ये नये काल में प्रवेश किये। इस
आन्दोलन का विस्तारपूर्वक विवरण इस पुस्तक में उल्लिखित है।
सारांश
आधुनिक एशिया का इतिहास मेरे लगभग तीस वर्षीय
अध्ययन-अध्यापन का फल है।
एशिया के इतिहास को मैंने ‘सुदूरपूर्व’ और
‘मध्यपूर्व’ नामक दो पुस्तकों में लिपिबद्ध किया था
जिनका प्रकाशन लगभग पन्द्रह वर्ष पूर्व हुआ था। बदलते समय के साथ पुनः इस
विषय पर लिखने की आवश्यकता पड़ गई। अब एशिया के इतिहास के रूप में विषय का प्रकाशन हुआ है। दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के इतिहास को इस संस्करण में
समाहित कर दिया गया है।
भारतीय छात्रों तथा सामान्य बुद्धिजीवी पाठकों के लिए आधुनिक एशिया के इतिहास का अध्ययन इन दिनों और भी आवश्यक हो गया है। एशिया के इन देशों का इतिहास भारत के इतिहास से मिलता-जुलता सा है। 19वीं शताब्दी नवजागरण की सदी है। इस शताब्दी में एशियाई राज्यों ने, जिनमें भारत भी सम्मिलित है, पश्चिमी (यूरोपीय) देशों की दासता का तथा प्रभाव से मुक्त होने के लिए राष्ट्रीय आन्दोलन प्रारम्भ किया। उनके आन्दोलन एक-दूसरे को गहरे रूप में प्रभावित किये। तुर्की तथा इराक की गुप्त संस्थाओं, चीन के नेता डॉ. सनयात सेन के कर्तृत्व, विशाल रूस की लघु देश जापान के हाथों पराजय आदि ऐतिहासित तथ्यों ने भारत के राष्ट्रावादियों को अनुप्राणित किया। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक चीन, जापान, भारत इराक, ईरान, फिलीस्तीन आदि सभी के सभी पश्चिम के प्रभाव से मुक्त हुए। ये नये काल में प्रवेश किये। इस आन्दोलन का विस्तारपूर्वक विवरण इस पुस्तक में उल्लिखित है।
आज स्थिति ऐसी है कि युग के जो पश्चिमी राष्ट्र अपने को सर्वाधिक शक्तिशाली और सभ्य मानते हैं तथा विज्ञान की उन्नति के कई चरण पार कर चुके हैं वे भी एशियाई देशों से राजनयिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक सम्बन्ध बनाने को प्रयत्नशील हैं। एशियाई देश भी सचेत होकर साम्राज्यवादी देशों से सम्पर्क कायम करते हैं, पर वे जल्द किसी ‘गुट’ का प्रभाव स्वीकार करने को तैयार नहीं है। एशिया-यूरोप-अमेरिका के राजनैतिक तथा आर्थिक सम्बन्धों, उनके स्वरूप तथा मूल ध्येयों का सटीक अध्ययन और आकलन इस पुस्तक में किया गया है।
पुस्तक की आकृति अधिक वृहत न हो, इसलिए तत्काल पिछले कुछ वर्षों की उन घटनाओं की चर्चा करना इसमें छोड़ दिया गया है, जो सोवियत संघ का टूटना और इसका एशिया पर प्रभाव आदि का इतिहास नहीं लिखा गया है। इस सम्बन्ध में कुछ तथ्य इस संस्करण में छात्रों की आवश्यकता की दृष्टि में रखते हुए जोड़ दिया गया है।
लेखन कार्य सरल है, किन्तु उपयोगी लेखन कार्य कठिन है। पुस्तक को विश्वविद्यालय के उच्च कक्षाओं के छात्रों तथा प्रतियोगिता की परीक्षाओं में सम्मिलित होनेवाले छात्रों के लिए उपयोगी बनाने का प्रयास किया गया है। आग्रह है, पुस्तक का स्वागत कर मेरे उत्साह को बढ़ावें।
पुस्तक के जल्द प्रकाशन में मोतीलाल बनारसीदास के मैनेजर श्री कमला शंकर सिंह तथा प्रतिनिधि श्री नवीन चन्द्र कुमार का काफी सहयोग मिला है। वे धन्यवाद के पात्र हैं।
त्रुटियों की जानकारी पाने के लिए लेखक उत्सुक रहेगा।
भारतीय छात्रों तथा सामान्य बुद्धिजीवी पाठकों के लिए आधुनिक एशिया के इतिहास का अध्ययन इन दिनों और भी आवश्यक हो गया है। एशिया के इन देशों का इतिहास भारत के इतिहास से मिलता-जुलता सा है। 19वीं शताब्दी नवजागरण की सदी है। इस शताब्दी में एशियाई राज्यों ने, जिनमें भारत भी सम्मिलित है, पश्चिमी (यूरोपीय) देशों की दासता का तथा प्रभाव से मुक्त होने के लिए राष्ट्रीय आन्दोलन प्रारम्भ किया। उनके आन्दोलन एक-दूसरे को गहरे रूप में प्रभावित किये। तुर्की तथा इराक की गुप्त संस्थाओं, चीन के नेता डॉ. सनयात सेन के कर्तृत्व, विशाल रूस की लघु देश जापान के हाथों पराजय आदि ऐतिहासित तथ्यों ने भारत के राष्ट्रावादियों को अनुप्राणित किया। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक चीन, जापान, भारत इराक, ईरान, फिलीस्तीन आदि सभी के सभी पश्चिम के प्रभाव से मुक्त हुए। ये नये काल में प्रवेश किये। इस आन्दोलन का विस्तारपूर्वक विवरण इस पुस्तक में उल्लिखित है।
आज स्थिति ऐसी है कि युग के जो पश्चिमी राष्ट्र अपने को सर्वाधिक शक्तिशाली और सभ्य मानते हैं तथा विज्ञान की उन्नति के कई चरण पार कर चुके हैं वे भी एशियाई देशों से राजनयिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक सम्बन्ध बनाने को प्रयत्नशील हैं। एशियाई देश भी सचेत होकर साम्राज्यवादी देशों से सम्पर्क कायम करते हैं, पर वे जल्द किसी ‘गुट’ का प्रभाव स्वीकार करने को तैयार नहीं है। एशिया-यूरोप-अमेरिका के राजनैतिक तथा आर्थिक सम्बन्धों, उनके स्वरूप तथा मूल ध्येयों का सटीक अध्ययन और आकलन इस पुस्तक में किया गया है।
पुस्तक की आकृति अधिक वृहत न हो, इसलिए तत्काल पिछले कुछ वर्षों की उन घटनाओं की चर्चा करना इसमें छोड़ दिया गया है, जो सोवियत संघ का टूटना और इसका एशिया पर प्रभाव आदि का इतिहास नहीं लिखा गया है। इस सम्बन्ध में कुछ तथ्य इस संस्करण में छात्रों की आवश्यकता की दृष्टि में रखते हुए जोड़ दिया गया है।
लेखन कार्य सरल है, किन्तु उपयोगी लेखन कार्य कठिन है। पुस्तक को विश्वविद्यालय के उच्च कक्षाओं के छात्रों तथा प्रतियोगिता की परीक्षाओं में सम्मिलित होनेवाले छात्रों के लिए उपयोगी बनाने का प्रयास किया गया है। आग्रह है, पुस्तक का स्वागत कर मेरे उत्साह को बढ़ावें।
पुस्तक के जल्द प्रकाशन में मोतीलाल बनारसीदास के मैनेजर श्री कमला शंकर सिंह तथा प्रतिनिधि श्री नवीन चन्द्र कुमार का काफी सहयोग मिला है। वे धन्यवाद के पात्र हैं।
त्रुटियों की जानकारी पाने के लिए लेखक उत्सुक रहेगा।
-धनपति
पाण्डेय
द्वितीय संस्करण
आधुनिक एशिया का इतिहास अपने द्वितीय संस्करण
के साथ आपके सामने प्रस्तुत
है। इस नये संस्करण में कई सामग्रियाँ जोड़ दी गई हैं तथा कुछ तथ्यों को
क्रमबद्धता भी प्रदान की गई है। विशेष महत्त्व के अध्यायों को और भी अधिक
छात्रोपयोगी बनाया गया है।
इस पुस्तक का प्रथम संस्करण बहुत ही जल्द समाप्त हो गया। इसके लिए मैं सुधी पाठकों और छात्रों को धन्यवाद देता हूँ। प्रथम संस्करण की प्रतियों का शीघ्र समाप्त हो जाना पुस्तक की उपयोगिता एवं लोकप्रियता का प्रतीक है। यह नया संस्करण आपको और भी अधिक उपयोगी प्रतीत होगा। ऐसा मेरा विश्वास है।
26 जनवरी
इस पुस्तक का प्रथम संस्करण बहुत ही जल्द समाप्त हो गया। इसके लिए मैं सुधी पाठकों और छात्रों को धन्यवाद देता हूँ। प्रथम संस्करण की प्रतियों का शीघ्र समाप्त हो जाना पुस्तक की उपयोगिता एवं लोकप्रियता का प्रतीक है। यह नया संस्करण आपको और भी अधिक उपयोगी प्रतीत होगा। ऐसा मेरा विश्वास है।
26 जनवरी
धनपति पाण्डेय
तृतीय संस्करण
प्रस्तुत पुस्तक का तृतीय संशोधित संस्करण
आपके सामने प्रस्तुत है। इस नये
संशोधित संस्करण में नये पाठ्यक्रम को ध्यान में रखा गया है तथा तथ्यों को
क्रमबद्धता भी प्रदान की गई है। प्रो. राजीव कुमार सिन्हा, इतिहास विभाग,
भागलपुर विश्वविद्यालय का पूर्ण सहयोग मिला है साथ ही इन्होंने यथास्थान
संशोधन भी किया है। इसके लिए हम आभारी हैं।
-प्रकाशक
अध्याय 1
परम्परावादी चीन और पश्चिम की नयी शक्तियाँ
चीन का भौगोलिक परिचय-पूर्वी एशिया के विशाल
देशों में चीन की गणना की
जाती है। जिसका क्षेत्रफल 37,68,729 वर्गमील और आबादी एक अरब से ज्यादा
है। चीन के अपने 18 प्रान्त तो है ही, उसमें मंचूरिया, सिन्कियांग और
तिब्बत भी शामिल हैं। विशाल चीन की तीन नदियाँ विश्व-प्रसिद्ध
हैं-ह्यंगहो, यांगत्सी और सिक्यांग। नदियों के अतिरिक्त चीन
पर्वत-श्रृंखलाओं से भी भरा हुआ है जिनमें प्रमुख हैं तिनसान, भ्वानलून,
हिंगान और हिमालय की पर्वत श्रृंखलाएँ।
विश्व की प्राचीन श्रेष्ठ सभ्यताओं में चीन की प्राचीन सभ्यता की गणना की जाती है-प्राचीन काल में सिंध, मिस्त्र और मेसोपोटामिया की तरह चीन की पीली नदी में भी एक उत्तम सभ्यता के जन्म लिया। चीन सदियों से परम्परावादी (traditionist) रहा है। उसने उनकी परम्परागत प्रथाओं, रीति-रिवाजों, धर्म आदि को विदेशी प्रभावों से बचाये रखने का प्रयास किया, किन्तु अन्त में विदेशों की नयी शक्तियों ने उसे प्रभावित करना प्रारम्भ किया। पश्चिम देशों के व्यापारियों, कम्पनियों, मिशनरियों आदि ने चीन में प्रवेश कर उसकी परम्परागत रीति-रिवाजों एवं रूढ़िवादिता पर आघात करना प्रारम्भ किया। चांग-वंश के शासन-काल से लेकर (1523-1727 ई. पूर्व) मंचू वंश के शासन-काल तक (1644-1912 ई.) चीन की सभ्यता पल्लवित, पुष्पित एवं सम्वर्द्धित होती रही। विदेशियों के आने से चीन की अपनी संस्कृति बदलने लगी और चीन का इतिहास कलुषित होने लगा। विदेशियों के आगमन के उपरान्त चीन के बनते-बिगड़ते इतिहास का अध्ययन करना ही इस ग्रन्थ का ध्येय है। चीन की मर्यादित एवं श्रेष्ठ सभ्यता विदेशियों के आगमन के बाद समाप्त हो गयी और परम्परावादी चीन (Traditional China) की जगह अब राजनीतिक चीन (Political Chain) की चर्चा होने लगी।
विश्व की प्राचीन श्रेष्ठ सभ्यताओं में चीन की प्राचीन सभ्यता की गणना की जाती है-प्राचीन काल में सिंध, मिस्त्र और मेसोपोटामिया की तरह चीन की पीली नदी में भी एक उत्तम सभ्यता के जन्म लिया। चीन सदियों से परम्परावादी (traditionist) रहा है। उसने उनकी परम्परागत प्रथाओं, रीति-रिवाजों, धर्म आदि को विदेशी प्रभावों से बचाये रखने का प्रयास किया, किन्तु अन्त में विदेशों की नयी शक्तियों ने उसे प्रभावित करना प्रारम्भ किया। पश्चिम देशों के व्यापारियों, कम्पनियों, मिशनरियों आदि ने चीन में प्रवेश कर उसकी परम्परागत रीति-रिवाजों एवं रूढ़िवादिता पर आघात करना प्रारम्भ किया। चांग-वंश के शासन-काल से लेकर (1523-1727 ई. पूर्व) मंचू वंश के शासन-काल तक (1644-1912 ई.) चीन की सभ्यता पल्लवित, पुष्पित एवं सम्वर्द्धित होती रही। विदेशियों के आने से चीन की अपनी संस्कृति बदलने लगी और चीन का इतिहास कलुषित होने लगा। विदेशियों के आगमन के उपरान्त चीन के बनते-बिगड़ते इतिहास का अध्ययन करना ही इस ग्रन्थ का ध्येय है। चीन की मर्यादित एवं श्रेष्ठ सभ्यता विदेशियों के आगमन के बाद समाप्त हो गयी और परम्परावादी चीन (Traditional China) की जगह अब राजनीतिक चीन (Political Chain) की चर्चा होने लगी।
चीन तथा पश्चिमी देश
साम्राज्यवादी चीन का सम्बन्ध पश्चिमी देशों
के साथ पन्द्रहवीं सदी के
प्रारम्भ होने के पूर्व ही कायम हो चुका था और व्यापारियों, धार्मिक
मिशनरियों आदि के रूप में नयी शक्तियाँ चीन अपनाने लगी थी। पश्चिमी देश
उनसे सम्बन्ध कायम करने के लिए अत्यन्त लालायित रहते थे। इसका कारण यह था
कि तत्कालीन चीन आर्थिक दृष्टिकोण से एक समृद्ध देश था। जहाँ कच्चे माल की
प्राप्ति हो सकती थी और चीन की घनी आबादी में पश्चिमी देशों के उत्पादित
सामानों की खपत हो सकती थी। इसकी आर्थिक सम्पन्नता की प्रसिद्धि पश्चिमी
देशों में व्याप्त थी। यही कारण था कि चीन से आर्थिक और बाद में राजनीतिक
सम्बन्ध कायम करने के लिये प्रारम्भ से ही पश्चिमी देश प्रयत्नशील तथा
उद्यत थे। तेरहवीं सदी से लेकर पन्द्रहवीं सदी तक पश्चिमी देशों को चीन से
सम्बन्ध कायम करने के प्रयास में काफी सफलता नहीं मिली। इस अध्याय में यह
उल्लेख किया जाएगा कि विभिन्न शासन कालों में इन देशों ने किस तरह चीन से
सम्पर्क कायम करने का प्रयास किया।
युआन शासन (1279-1368 ई.)
तेरहवीं सदी से पश्चिमी देशों ने चीन से
सम्बन्ध कायम करने का प्रयास
किया। इस समय चीन में युआनों का शासन था। मंगोलों ने इसी काल में चीन पर
आक्रमण किया। यूरोप का प्रसिद्ध यात्री तथा व्यापारी मार्कोपोलो अपने पिता
तथा चाचा के साथ वेनिस से इसी समय चीन पहुँचा। अल्प काल के लिये उसने
कुबलाई खाँ के दरबार में नौकरी भी की। पर उसकी यह सेवा वृत्ति उतनी
महत्त्वपूर्ण नहीं है जितनी उसकी यात्रा सम्बन्धी डायरी। इस डायरी में
उसने चीन के सम्बन्ध में चर्चा की जिसके फलस्वरूप पश्चिमी देशों का ध्यान
चीन की ओर गया। इसी समय इटली शहरों से अनेक यात्री निकट पूर्व की यात्रा
करने के सिलसिले में चीन भी आये। इसके अतिरिक्त रोमन कैथोलिकों ने भी चीन
से सम्बन्ध कायम करने का प्रयास किया। लेकिन तेरहवीं सदी के उत्तरार्द्ध
से लेकर चौदहवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक (1279 से 1368 ई.) चीन से सम्पर्क
कायम के लिए इन देशों ने जो कुछ भी प्रयास किया वह किसी भी दृष्टिकोण से
विशेष महत्त्व का नहीं है। इस समय चीन में प्रविष्ट यात्रियों की संख्या
भी अल्प ही थी। पर इतना सही है कि इसी समय से यूरोपियन देशों का ध्यान
एशिया के सम्पन्न देशों की ओर गया और वे अगामी सदियों में इन पर छा जाने
का प्रयास करने लगे।
मिंग-शासन (1368-1644 ई.)
जब चीन में मिंग-शासन प्रारम्भ हुआ, तब इन
यात्रियों ने पुनः चीन की
यात्रा करनी प्रारम्भ की। इस समय भी पहले की तरह यात्रा सम्बन्धी अनेक
असुविधाएँ थीं। उन्हीं के कारण विदेशी इस काल में भी चीन से घनिष्ठ
सम्पर्क कायम नहीं कर सके। इन असुविधाओं में सबसे बड़ी आवागमन सम्बन्धी
असुविधा थी। चीन और यूरोपीय देशों के मध्य अभी भी व्यापारिक सम्बन्ध कायम
था, लेकिन आवागमन की इन असुविधाओं के चलते अभी भी अनेक व्यापारिक
कठिनाइयाँ उठ जाती थीं। यूरोप और एशिया के सारे व्यापारी अपने व्यापारिक
जहाजों के साथ पहले लालसागर में उतरकर उसे पार करते थे और इसके बाद
मिस्त्र का परिभ्रमण करते हुए वे आकर भूमध्यसागर में उतरते थे। व्यापार
करने का अन्य मार्ग भी था। वे इरान की खाड़ी से अपनी व्यापारिक यात्रा
प्रारम्भ करते थे। यात्रा के सिलसिले में इरान की खाड़ी से प्रस्थान कर
बसरा, बगदाद, मक्का आदि देशों की यात्रा करते हुए एशिया माइनर पहुँचते थे।
इस तरह इस आवागमन की असुविधा, के चलते जहाँ एक ओर इन व्यापारियों का
आर्थिक सम्बन्ध कतिपय देशों से कायम नहीं हो सकता था, वहाँ दूसरी ओर
उन्हें काफी समय व्यर्थ ही गँवाने पड़ते थे। वास्तव में, यही कारण था
जिसके चलते इन दिनों पूर्वी देशों के साथ पश्चिमी देश सम्बन्ध कायम नहीं
कर सके। इतना ही नहीं, आगे चलकर पन्द्रहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में उनके
बचे-खुचे व्यापारी मार्ग भी अवरुद्ध हो गये। इसका कारण यह था कि 1453 ई.
में तुर्क जाति का एक महान विजेता मुहम्द द्वितीय ने कुस्तुनतुनिया पर
अधिकार कर लिया और उनके व्यापारिक मार्ग को बन्द कर दिया।
फिर भी इन असुविधाओं से भी पश्चिमी देशों के यात्रियों तथा व्यापारियों ने संघर्ष किया और कुछ हद तक चीन से सम्बन्ध कायम किया। मंगोल शासक युआन जब तक जीवित रहा तब तक चीन से विदेशियों का कुछ-न-कुछ सम्पर्क अवश्य कायम रहा। लेकिन जैसे ही इसकी मृत्यु हुई वैसे ही ऐसा प्रतीत होने लगा कि अब उनके पारस्परिक सम्बन्ध समाप्त हो जाएँगे। लेकिन मिंग सम्राटों ने इस सम्बन्ध को पुर्नजीवित किया और पश्चिमी देशों की ओर उन्मुख हुए। समय बीतते रहने पर पश्चिमी देशों के व्यापारी पूर्वी देशों की आर्थिक सम्पन्नता (विशेषकर चीन की) विस्मरण नहीं कर पाए थे। मार्कोपोलो की डायरी उनके लिए प्रेरणा-स्रोत ही बन गयी थी फलतः पन्द्रहवीं सदी के अन्त और सोलहवीं सदी के आरम्भ के बीच इन यात्रियों की यात्रा पुनः होने लगी और उनका विस्तार भी होने लगा। इस समय स्पेनिश, डच और रुसी जातियों ने एशिया के पूर्वी तथा उत्तरी क्षेत्रों की ओर सम्बन्ध आगे बढ़ाने में सहयोग दिया। (इन जातियों के आगमन की चर्चा आगे की जाएगी) स्पेन और पुर्तगाल ने प्रेरणा पाकर कोलम्बो नामक प्रसिद्ध यात्री ने भी यात्रा की और सुदूर पूर्व के देशों में पहुँचने का प्रयास किया। 1511 ई. में पुर्तगाली मकाओ (चीन) पहुँचे 1514 ई. में प्रत्यक्ष रूप से चीन की धरती पर आ गए। चीनियों ने इन पुर्तगालियों को असभ्य तथा दुखदायक माना। वे स्थायी रूप से मकाओ में निवास करने लगे। चीन के प्रसिद्ध बन्दरगाह कैण्टन के निकट ही यह मकाओ अवस्थित है जहाँ आजकल भी अच्छी संख्या में पुर्तगाली निवास करते हैं। इस समय अँग्रेज भी चीन आए। जब मिग वंश का शासन समाप्त हो रहा था और मंचू सम्राट शासन प्रारम्भ होने वाला था, ब्रिटेन के अँग्रेज चीन आ धमके। चीन में आगे चलकर वे ही सर्वाधिक प्रभावशाली हुए और चीन के द्वार को पश्चिमी देशों में व्यापार के हेतु खोलने का श्रेय प्राप्त किये।
इन विभिन्न जातियों के आगमन का क्रमिक अध्ययन करना आवश्यक प्रतीत होता है। पूर्वी एशिया में मिंग वंश के शासन-काल में जिस, जाति का सर्वप्रथम आगमन हुआ वह पोर्तुगीज थी। 1498 ई. में वास्कोडिगामा ने अफ्रीका के समुद्र तटीय क्षेत्रों की यात्रा करते हुए भारत-भूमि पर अपने पैरों को रखा पोर्तुगाल यात्री वास्कोडिगामा को इस यात्रा से लाभ हुआ कि पश्चिमी देशों के लोगों, को प्रधानतः तत्काल में पोर्तुगीजों को, पूर्वी देशों तक पहुँचाने के मार्ग का पता लग गया। इसलिए उनका प्रस्थान तथा विस्तार अब अन्य देशों में भी होने लगा। 16 वीं सदी के प्रारम्भ में ही मलक्का पर अधिकार करने के समय वे चीन पहुँच गये। चीन में उनकी पहुँच 1514 ई. में हुई। चीन आते ही वे व्यापारिक कार्यों में संलग्न हो गये। यहाँ के व्यापारी चीन से विलासप्रिय चीजों को खरीदने लगे और पश्चिमी देशों में उनका विक्रय किया जाने लगा जहाँ प्रसाधनों की माँग थी।
लेकिन पोर्तुगीज अपने व्यवहार से चीनियों को प्रसन्न नहीं कर सके। इनके व्यवहार तथा आदतें अच्छी नहीं थी केवल पोर्तगीज ही बुरे नहीं थे, अन्य जातियों की भी ऐसी ही आदतें थीं। स्पेन के लोग जब अमेरिका पहुँचे तब वहाँ की मौलिक जातियों का जीवन भी उनके चलते अत्यन्त कष्टप्रद हो गया। स्पेन के लोगों के विरोध किये जाने पर भी अमेरिका नहीं छोड़ा और वहाँ बस्तियों का निर्माण कर नियमित रूप से बस गये। नियमित रूप से बसते ही वे अमेरिकन लोगों के धर्म, संस्कृति रहन-सहन वगैरह में हस्तक्षेप करने लगे। इतना ही नहीं, बस्तियों के निर्माण के साथ-साथ शनैःशनैः वे उपनिवेश निर्माण की ओर भी उन्मुख हुए इसी सिलसिले में स्पेनवासी चीन भी पहुँचे। पोर्तुगीजों के बाद स्पेनिश ही चीन आये। अमेरिका में इस जाति ने जिस प्रकार की हरकत की थी, उससे चीन के लोग परिचित ही थे। इसलिए चीन की धरती पर उपनिवेश-निर्माण का बीज लिए जैसे ही इस जाति का आगमन हुआ, वैसे ही चीनियों ने इनका विरोध करना प्रारम्भ किया। मिंग सरकार ने तो इस जाति के विरुद्ध एक जोरदार आन्दोलन भी प्रारम्भ कर दिया। यही कारण हुआ कि अमेरिका की तरह चीन में स्पेन वालों की दाल नहीं गल सकी। वे चीन में न तो अपना अस्तित्व ही कायम कर सके और न आकांक्षित बस्तियों का ही निर्माण कर सके। पोर्तुगीजों से भी व्यापारिक सम्बन्ध कायम हो गये थे। इनसे यह सम्बन्ध भी कायम नहीं हो सका। फिर भी स्पेनिश जिद्द के पक्के थे। अमेरिका में जिस प्रकार वे बलपूर्वक रहने लगे थे उसी प्रकार वे चीन में भी रहने का प्रयास किये। इनका एक जत्था चीन के प्रसिद्ध बन्दरगाह कैण्टन में ठहर गया और चीन से व्यापारिक सम्बन्ध कायम करने का प्रयास करने लगा। अन्त में, अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध (1557 ई.) में अपने कार्य में उन्हें सफलता मिली और मकाओ में अपनी बस्ती का निर्माण कर वे रहने लगे।
इसी समय पश्चिम की अनेक धार्मिक मिशनरियाँ भी चीन आयीं। चीन में इन मिशनरियों ने धर्म का प्रचार करना प्रारम्भ किया। प्रारम्भ में इन मिशनरियों के व्यवहार अच्छे थे, लेकिन बाद में उनकी स्वार्थपूर्ण नीति से चीन के लोग परिचित हुए। इसी समय अँग्रेजों तथा डचों का भी आगमन चीन में हुआ।
लेकिन यहाँ यह बात याद रखनी चाहिए कि मिंगवंश के शासन में चीन का पश्चिमी देशों से दो प्रकार के सम्बन्ध कायम हुए-एक व्यापारिक सम्बन्ध और दूसरा धार्मिक सम्बन्ध। पश्चिम के देश दक्षिण के भूखण्डों का मकाओ तथा कैण्टन से व्यापार करते थे। पश्चिम के व्यापारी चीन में अपने देशों से अनाज सम्बन्धी अनेक पौधे तथा तम्बाकू लाए। तम्बाकू का प्रचार इन लोगों ने काफी किया। इन्हीं के चलते चीन के अधिकांश लोग तम्बाकू का सेवन करने लगे। इसी प्रकार चीन से उनका धार्मिक सम्बन्ध भी कायम था। चीन के भीतरी इलाकों में पश्चिमी देशों की मिशनरियाँ धर्म-प्रचार का कार्य करती थी। मंगोलों के शासन के बाद चीन में ईसाइयों का अन्त हो चला था और उनका प्रभाव घटने लगा था। लेकिन मिंगवंश के शासन के अन्तिम वर्षों में रोमन कैथालिकों ने इन ईसाइयों तथा उनकी मिशनरियों को पुनरुज्जीवित किया। इसी समय ब्रिटेन, फ्रांस वगैरह से फ्रान्सिसकन, आगस्टीनियन, जुसेइट, डोमिनियन आदि अनेक धार्मिक सम्प्रदाय के लोग चीन पहुँच गये। सोलहवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में ही जेसुइट सम्प्रदाय की प्रधानता चीन में कायम होने लगी। इस सम्प्रदाय का लोकप्रिय प्रचार फ्रान्सिस जेवियर्स था जिससे दक्षिणी तथा पूर्वी एशिया में इस सम्प्रदाय को लोकप्रिय बनाने का अथक और अथक प्रयास किया। इसी प्रचारक ने न इस सम्प्रदाय का प्रचार चीन में भी किया। वस्तुतः जेवियर्स के चलते ही चीन में यह सम्प्रदाय जीवित हो सका। अभी जेविसर्य को अपने कार्य में पूरी सफलता भी नहीं मिली थी कि 1556 ई. में वह संसार से चल बसा। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके कार्य का भार मैथहर रिक्की ने अपने कंधों पर लिया। रिक्की इटली का निवासी था। जेसुइट सम्प्रदाय की लोक प्रियता बढाने के लिए उसने जी जान लगा दी रिक्की की प्रतिभा बहुमुखी थी। वह ज्योतिष तथा गणित का प्रकांड विद्वान था। इतिहासकारों का अनुमान है कि सम्प्रति चीन में ज्योतिष तथा गणित का कोई भी ऐसा विद्वान नहीं था जो रिक्की की समता कर सके। अपने प्रतिभा के चलते ही उसने चीन साहित्य का भी अध्ययन किया। यह चीनी साहित्य रिक्की के लिए पूर्णतः नया विषय था, फिर भी अपने अध्यवसाय तथा प्रतिभा के चलते उसने चीनी साहित्यकारों के बीच काफी प्रतिष्ठा पायी। अपने धर्म का अध्ययन तो उसे था ही, उसने कनफ्यूसियस के धर्म तथा ईसाई धर्म का काफी गहरा अध्ययन किया और दोनों धर्मों की समानता तथा असमानता को एक विद्वान के रूप में रखने का प्रयास किया। चीन की राजधानी पेकिंग में उसने अपना निवास स्थल बनाया। इसी समय फिलीपीन से स्पेनियाई भी चीन आया।
फिर भी इन असुविधाओं से भी पश्चिमी देशों के यात्रियों तथा व्यापारियों ने संघर्ष किया और कुछ हद तक चीन से सम्बन्ध कायम किया। मंगोल शासक युआन जब तक जीवित रहा तब तक चीन से विदेशियों का कुछ-न-कुछ सम्पर्क अवश्य कायम रहा। लेकिन जैसे ही इसकी मृत्यु हुई वैसे ही ऐसा प्रतीत होने लगा कि अब उनके पारस्परिक सम्बन्ध समाप्त हो जाएँगे। लेकिन मिंग सम्राटों ने इस सम्बन्ध को पुर्नजीवित किया और पश्चिमी देशों की ओर उन्मुख हुए। समय बीतते रहने पर पश्चिमी देशों के व्यापारी पूर्वी देशों की आर्थिक सम्पन्नता (विशेषकर चीन की) विस्मरण नहीं कर पाए थे। मार्कोपोलो की डायरी उनके लिए प्रेरणा-स्रोत ही बन गयी थी फलतः पन्द्रहवीं सदी के अन्त और सोलहवीं सदी के आरम्भ के बीच इन यात्रियों की यात्रा पुनः होने लगी और उनका विस्तार भी होने लगा। इस समय स्पेनिश, डच और रुसी जातियों ने एशिया के पूर्वी तथा उत्तरी क्षेत्रों की ओर सम्बन्ध आगे बढ़ाने में सहयोग दिया। (इन जातियों के आगमन की चर्चा आगे की जाएगी) स्पेन और पुर्तगाल ने प्रेरणा पाकर कोलम्बो नामक प्रसिद्ध यात्री ने भी यात्रा की और सुदूर पूर्व के देशों में पहुँचने का प्रयास किया। 1511 ई. में पुर्तगाली मकाओ (चीन) पहुँचे 1514 ई. में प्रत्यक्ष रूप से चीन की धरती पर आ गए। चीनियों ने इन पुर्तगालियों को असभ्य तथा दुखदायक माना। वे स्थायी रूप से मकाओ में निवास करने लगे। चीन के प्रसिद्ध बन्दरगाह कैण्टन के निकट ही यह मकाओ अवस्थित है जहाँ आजकल भी अच्छी संख्या में पुर्तगाली निवास करते हैं। इस समय अँग्रेज भी चीन आए। जब मिग वंश का शासन समाप्त हो रहा था और मंचू सम्राट शासन प्रारम्भ होने वाला था, ब्रिटेन के अँग्रेज चीन आ धमके। चीन में आगे चलकर वे ही सर्वाधिक प्रभावशाली हुए और चीन के द्वार को पश्चिमी देशों में व्यापार के हेतु खोलने का श्रेय प्राप्त किये।
इन विभिन्न जातियों के आगमन का क्रमिक अध्ययन करना आवश्यक प्रतीत होता है। पूर्वी एशिया में मिंग वंश के शासन-काल में जिस, जाति का सर्वप्रथम आगमन हुआ वह पोर्तुगीज थी। 1498 ई. में वास्कोडिगामा ने अफ्रीका के समुद्र तटीय क्षेत्रों की यात्रा करते हुए भारत-भूमि पर अपने पैरों को रखा पोर्तुगाल यात्री वास्कोडिगामा को इस यात्रा से लाभ हुआ कि पश्चिमी देशों के लोगों, को प्रधानतः तत्काल में पोर्तुगीजों को, पूर्वी देशों तक पहुँचाने के मार्ग का पता लग गया। इसलिए उनका प्रस्थान तथा विस्तार अब अन्य देशों में भी होने लगा। 16 वीं सदी के प्रारम्भ में ही मलक्का पर अधिकार करने के समय वे चीन पहुँच गये। चीन में उनकी पहुँच 1514 ई. में हुई। चीन आते ही वे व्यापारिक कार्यों में संलग्न हो गये। यहाँ के व्यापारी चीन से विलासप्रिय चीजों को खरीदने लगे और पश्चिमी देशों में उनका विक्रय किया जाने लगा जहाँ प्रसाधनों की माँग थी।
लेकिन पोर्तुगीज अपने व्यवहार से चीनियों को प्रसन्न नहीं कर सके। इनके व्यवहार तथा आदतें अच्छी नहीं थी केवल पोर्तगीज ही बुरे नहीं थे, अन्य जातियों की भी ऐसी ही आदतें थीं। स्पेन के लोग जब अमेरिका पहुँचे तब वहाँ की मौलिक जातियों का जीवन भी उनके चलते अत्यन्त कष्टप्रद हो गया। स्पेन के लोगों के विरोध किये जाने पर भी अमेरिका नहीं छोड़ा और वहाँ बस्तियों का निर्माण कर नियमित रूप से बस गये। नियमित रूप से बसते ही वे अमेरिकन लोगों के धर्म, संस्कृति रहन-सहन वगैरह में हस्तक्षेप करने लगे। इतना ही नहीं, बस्तियों के निर्माण के साथ-साथ शनैःशनैः वे उपनिवेश निर्माण की ओर भी उन्मुख हुए इसी सिलसिले में स्पेनवासी चीन भी पहुँचे। पोर्तुगीजों के बाद स्पेनिश ही चीन आये। अमेरिका में इस जाति ने जिस प्रकार की हरकत की थी, उससे चीन के लोग परिचित ही थे। इसलिए चीन की धरती पर उपनिवेश-निर्माण का बीज लिए जैसे ही इस जाति का आगमन हुआ, वैसे ही चीनियों ने इनका विरोध करना प्रारम्भ किया। मिंग सरकार ने तो इस जाति के विरुद्ध एक जोरदार आन्दोलन भी प्रारम्भ कर दिया। यही कारण हुआ कि अमेरिका की तरह चीन में स्पेन वालों की दाल नहीं गल सकी। वे चीन में न तो अपना अस्तित्व ही कायम कर सके और न आकांक्षित बस्तियों का ही निर्माण कर सके। पोर्तुगीजों से भी व्यापारिक सम्बन्ध कायम हो गये थे। इनसे यह सम्बन्ध भी कायम नहीं हो सका। फिर भी स्पेनिश जिद्द के पक्के थे। अमेरिका में जिस प्रकार वे बलपूर्वक रहने लगे थे उसी प्रकार वे चीन में भी रहने का प्रयास किये। इनका एक जत्था चीन के प्रसिद्ध बन्दरगाह कैण्टन में ठहर गया और चीन से व्यापारिक सम्बन्ध कायम करने का प्रयास करने लगा। अन्त में, अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध (1557 ई.) में अपने कार्य में उन्हें सफलता मिली और मकाओ में अपनी बस्ती का निर्माण कर वे रहने लगे।
इसी समय पश्चिम की अनेक धार्मिक मिशनरियाँ भी चीन आयीं। चीन में इन मिशनरियों ने धर्म का प्रचार करना प्रारम्भ किया। प्रारम्भ में इन मिशनरियों के व्यवहार अच्छे थे, लेकिन बाद में उनकी स्वार्थपूर्ण नीति से चीन के लोग परिचित हुए। इसी समय अँग्रेजों तथा डचों का भी आगमन चीन में हुआ।
लेकिन यहाँ यह बात याद रखनी चाहिए कि मिंगवंश के शासन में चीन का पश्चिमी देशों से दो प्रकार के सम्बन्ध कायम हुए-एक व्यापारिक सम्बन्ध और दूसरा धार्मिक सम्बन्ध। पश्चिम के देश दक्षिण के भूखण्डों का मकाओ तथा कैण्टन से व्यापार करते थे। पश्चिम के व्यापारी चीन में अपने देशों से अनाज सम्बन्धी अनेक पौधे तथा तम्बाकू लाए। तम्बाकू का प्रचार इन लोगों ने काफी किया। इन्हीं के चलते चीन के अधिकांश लोग तम्बाकू का सेवन करने लगे। इसी प्रकार चीन से उनका धार्मिक सम्बन्ध भी कायम था। चीन के भीतरी इलाकों में पश्चिमी देशों की मिशनरियाँ धर्म-प्रचार का कार्य करती थी। मंगोलों के शासन के बाद चीन में ईसाइयों का अन्त हो चला था और उनका प्रभाव घटने लगा था। लेकिन मिंगवंश के शासन के अन्तिम वर्षों में रोमन कैथालिकों ने इन ईसाइयों तथा उनकी मिशनरियों को पुनरुज्जीवित किया। इसी समय ब्रिटेन, फ्रांस वगैरह से फ्रान्सिसकन, आगस्टीनियन, जुसेइट, डोमिनियन आदि अनेक धार्मिक सम्प्रदाय के लोग चीन पहुँच गये। सोलहवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में ही जेसुइट सम्प्रदाय की प्रधानता चीन में कायम होने लगी। इस सम्प्रदाय का लोकप्रिय प्रचार फ्रान्सिस जेवियर्स था जिससे दक्षिणी तथा पूर्वी एशिया में इस सम्प्रदाय को लोकप्रिय बनाने का अथक और अथक प्रयास किया। इसी प्रचारक ने न इस सम्प्रदाय का प्रचार चीन में भी किया। वस्तुतः जेवियर्स के चलते ही चीन में यह सम्प्रदाय जीवित हो सका। अभी जेविसर्य को अपने कार्य में पूरी सफलता भी नहीं मिली थी कि 1556 ई. में वह संसार से चल बसा। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके कार्य का भार मैथहर रिक्की ने अपने कंधों पर लिया। रिक्की इटली का निवासी था। जेसुइट सम्प्रदाय की लोक प्रियता बढाने के लिए उसने जी जान लगा दी रिक्की की प्रतिभा बहुमुखी थी। वह ज्योतिष तथा गणित का प्रकांड विद्वान था। इतिहासकारों का अनुमान है कि सम्प्रति चीन में ज्योतिष तथा गणित का कोई भी ऐसा विद्वान नहीं था जो रिक्की की समता कर सके। अपने प्रतिभा के चलते ही उसने चीन साहित्य का भी अध्ययन किया। यह चीनी साहित्य रिक्की के लिए पूर्णतः नया विषय था, फिर भी अपने अध्यवसाय तथा प्रतिभा के चलते उसने चीनी साहित्यकारों के बीच काफी प्रतिष्ठा पायी। अपने धर्म का अध्ययन तो उसे था ही, उसने कनफ्यूसियस के धर्म तथा ईसाई धर्म का काफी गहरा अध्ययन किया और दोनों धर्मों की समानता तथा असमानता को एक विद्वान के रूप में रखने का प्रयास किया। चीन की राजधानी पेकिंग में उसने अपना निवास स्थल बनाया। इसी समय फिलीपीन से स्पेनियाई भी चीन आया।
चिंग वंश (1644-1838 ई.)
अबतक चीन में अनेक पश्चिमी जातियाँ आ गयी
थीं। 1516 ई. में पोर्तुगीज आ
गये थे, 1575 ई. में स्पेनिश आ गये थे; डचों का आगमन 1604 ई. में हुआ था
और अँग्रेज 1637 ई. में आये थे। पर इस समय तक अमरीकी तथा रूसी नहीं आ पाये
थे। चिंग शासन-काल में इनका आगमन भी चीन में हो गया।
1644 ई. में मिंग वंश का शासन समाप्त हो गया। उत्तर में मंचू नामक विजेताओं ने मिंग को परास्त किया। मंचू मंचूरिया के रहनेवाले थे। सोहलवीं सदी के उत्तरार्द्ध तथा सत्रहवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में उन्होंने अपने को शक्तिशाली बना लिया और मिंग से मुकडेन अपहृत कर लिया जो उनकी राजधानी भी थी। मुकडेन को वे भी अपनी राजधानी बनाए। चीन में रहनेवाले मंगोलों ने भी इच्छा या अनिच्छा से मंचूओं के शासन को स्वीकार कर लिया। मंचूओं ने चीन की दक्षिणी दीवार तक अपनी राज्य-सीमा बढ़ाने का प्रयास किया। इसी समय जब चीन में मिंग के विरुद्ध असन्तोष की भावना का जन्म हुआ तब मौका पाकर मंचूओ ने पेकिंग पर अपना अधिकार कर लिया और तभी से वे चीन में शासन करने लगे। काँगहसी (1661-1728 ई.) और चीन लुंग (1736-1796 ई.) इस वंश के सर्वाधिक प्रतापी राजा हुए। दीर्घकाल तक मंचूओ ने चीन पर शासन किया।
मंचूकाल में भी पश्चिमी लोगों का आगमन चीन में हुआ। अगर सच पूछा जाय तो यह मानना पड़ेगा कि इसी काल में चीन में पाश्चात्य देशों के प्रभाव की जड़ जमनी प्रारम्भ हुई और इसी काल में विदेशों से चीन का वास्तविक सम्बन्ध कायम हुआ। इस काल में विदेशों से लोग स्थल तथा दोनों मार्गों से आये। समुद्र के रास्ते से पोर्तुगीज, स्पेनिश, फ्रेंच तथा अँग्रेज और कुछ इतालियन तथा जर्मन आये। इसी समय 1784 ई. में अमरीकी व्यापारी भी चीन आये। जमीन के मार्ग से केवल रूस के लोग आये जो चीन में चाँदी का व्यापार करने लगे। विदेशी राज्यों से (विशेषकर रूस से) चीन में इस समय एक सन्धि (Treaty of nerchinsk) भी की। इस सन्धि के द्वारा रूस को पेकिंग में एक मिशन भेजने का अधिकार मिला। पेकिंग में रूस की मिशनरी भी कार्य करने लगी। अमरीका और रूस से यह सम्बन्ध चीन के लिए महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ।
चीन में इस समय पुनः विदेशी मिशनरियों का भी आगमन हुआ। अठारहवीं सदी के चीन में इस समय पुनः विदेशी मिशनरियों का भी आगमन हुआ। अठारहवीं सदी के प्रारम्भ तक चीन में ईसाइयों की संख्या 3,00,000 हो गयी थी। 1793 ई. में सर्वप्रथम अँग्रेजों का एक मिशन चीन आया। यह मिशन मेकार्टने के नेतृत्व में चीन आया था। दूसरा मिशन 1816 ई. में पेकिंग आया। इसका नेतृत्वकर्ता लार्ड एमहर्स्ट था। इसी समय राबर्ट मोरिशन के अधीन भी एक मिशन चीन पहुँचा। इस मौके से लाभ उठाकर अब प्रोटेस्टेण्ड मिशनरियों ने चीन में अपना कार्य प्रारम्भ किया। प्रोटेस्टेण्ट लोग चीनियों को हेय दृष्टि से देखते थे और उन्हें असभ्य समझते थे। अँग्रेजों की देखा-देखी डच मिशनरियाँ भी चीन आयीं और 1795 ई. में उनका पहला मिशन चीन पहुँचा। इसी प्रकार 1806 ई. में रूस का एक दूत आया। लेकिन चीन ने उसके प्रति किसी भी प्रकार की सहानुभूति का प्रदर्शन नहीं किया। पेकिंग में फ्रांस के जेमुइट भी पहुँचे और मंचू सम्राट की गौरव-गाथा गाने लगे।
विभिन्न मिशनरियों में सर्वाधिक चतुर तथा प्रभावशालिनी अँग्रेजों की मिशनरियाँ साबित हुईं। चीन में आयी विभिन्न मिशनरियों से अगर अँग्रेज मिशनरी की तुलना की जाय तो यह स्पष्ट हो जाता है कि अठारहवीं सदी के अन्त और उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में ही अँग्रेजी मिशनरी सभी से आगे निकल गयी। इसका कारण यह था कि अँग्रेज अत्यन्त चतुर तथा कर्मठ थे। अपनी व्यापारिक कुशलता तथा राजनीति चतुरता के चलते उन्होंने अन्य मिशनरियों को प्रतियोगिता में आगे नहीं बढ़ने दिया और भविष्य में चीन में वे अपना प्रभाव कायम करने में समर्थ हुए।
1644 ई. में मिंग वंश का शासन समाप्त हो गया। उत्तर में मंचू नामक विजेताओं ने मिंग को परास्त किया। मंचू मंचूरिया के रहनेवाले थे। सोहलवीं सदी के उत्तरार्द्ध तथा सत्रहवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में उन्होंने अपने को शक्तिशाली बना लिया और मिंग से मुकडेन अपहृत कर लिया जो उनकी राजधानी भी थी। मुकडेन को वे भी अपनी राजधानी बनाए। चीन में रहनेवाले मंगोलों ने भी इच्छा या अनिच्छा से मंचूओं के शासन को स्वीकार कर लिया। मंचूओं ने चीन की दक्षिणी दीवार तक अपनी राज्य-सीमा बढ़ाने का प्रयास किया। इसी समय जब चीन में मिंग के विरुद्ध असन्तोष की भावना का जन्म हुआ तब मौका पाकर मंचूओ ने पेकिंग पर अपना अधिकार कर लिया और तभी से वे चीन में शासन करने लगे। काँगहसी (1661-1728 ई.) और चीन लुंग (1736-1796 ई.) इस वंश के सर्वाधिक प्रतापी राजा हुए। दीर्घकाल तक मंचूओ ने चीन पर शासन किया।
मंचूकाल में भी पश्चिमी लोगों का आगमन चीन में हुआ। अगर सच पूछा जाय तो यह मानना पड़ेगा कि इसी काल में चीन में पाश्चात्य देशों के प्रभाव की जड़ जमनी प्रारम्भ हुई और इसी काल में विदेशों से चीन का वास्तविक सम्बन्ध कायम हुआ। इस काल में विदेशों से लोग स्थल तथा दोनों मार्गों से आये। समुद्र के रास्ते से पोर्तुगीज, स्पेनिश, फ्रेंच तथा अँग्रेज और कुछ इतालियन तथा जर्मन आये। इसी समय 1784 ई. में अमरीकी व्यापारी भी चीन आये। जमीन के मार्ग से केवल रूस के लोग आये जो चीन में चाँदी का व्यापार करने लगे। विदेशी राज्यों से (विशेषकर रूस से) चीन में इस समय एक सन्धि (Treaty of nerchinsk) भी की। इस सन्धि के द्वारा रूस को पेकिंग में एक मिशन भेजने का अधिकार मिला। पेकिंग में रूस की मिशनरी भी कार्य करने लगी। अमरीका और रूस से यह सम्बन्ध चीन के लिए महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ।
चीन में इस समय पुनः विदेशी मिशनरियों का भी आगमन हुआ। अठारहवीं सदी के चीन में इस समय पुनः विदेशी मिशनरियों का भी आगमन हुआ। अठारहवीं सदी के प्रारम्भ तक चीन में ईसाइयों की संख्या 3,00,000 हो गयी थी। 1793 ई. में सर्वप्रथम अँग्रेजों का एक मिशन चीन आया। यह मिशन मेकार्टने के नेतृत्व में चीन आया था। दूसरा मिशन 1816 ई. में पेकिंग आया। इसका नेतृत्वकर्ता लार्ड एमहर्स्ट था। इसी समय राबर्ट मोरिशन के अधीन भी एक मिशन चीन पहुँचा। इस मौके से लाभ उठाकर अब प्रोटेस्टेण्ड मिशनरियों ने चीन में अपना कार्य प्रारम्भ किया। प्रोटेस्टेण्ट लोग चीनियों को हेय दृष्टि से देखते थे और उन्हें असभ्य समझते थे। अँग्रेजों की देखा-देखी डच मिशनरियाँ भी चीन आयीं और 1795 ई. में उनका पहला मिशन चीन पहुँचा। इसी प्रकार 1806 ई. में रूस का एक दूत आया। लेकिन चीन ने उसके प्रति किसी भी प्रकार की सहानुभूति का प्रदर्शन नहीं किया। पेकिंग में फ्रांस के जेमुइट भी पहुँचे और मंचू सम्राट की गौरव-गाथा गाने लगे।
विभिन्न मिशनरियों में सर्वाधिक चतुर तथा प्रभावशालिनी अँग्रेजों की मिशनरियाँ साबित हुईं। चीन में आयी विभिन्न मिशनरियों से अगर अँग्रेज मिशनरी की तुलना की जाय तो यह स्पष्ट हो जाता है कि अठारहवीं सदी के अन्त और उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में ही अँग्रेजी मिशनरी सभी से आगे निकल गयी। इसका कारण यह था कि अँग्रेज अत्यन्त चतुर तथा कर्मठ थे। अपनी व्यापारिक कुशलता तथा राजनीति चतुरता के चलते उन्होंने अन्य मिशनरियों को प्रतियोगिता में आगे नहीं बढ़ने दिया और भविष्य में चीन में वे अपना प्रभाव कायम करने में समर्थ हुए।
नयी शक्तियों के विरुद्ध चीन में असन्तोष
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि चीन
तथा पाश्चात्य देशों के बीच
सम्बन्ध कायम हो चला था और उन्नीसवीं सदी तक सम्पूर्ण चीन अनेक विदेशी तथा
उनकी मिशनरियाँ दृष्टिगोचर होने लगी थीं। लेकिन वह सम्बन्ध शान्तिपूर्वक
आगे न चल सका। चीन की जनता सरकार इन विदेशियों तथा उनकी मिशनरियों से
धीरे-धीरे घृणा करने लगी। उनका विचार था, कि पाश्चात्य देशों से सम्पर्क
बढ़ाने पर चीन की सभ्यता तथा संस्कृति नष्ट हो सकती है, इसलिए चीन ने
पाश्चात्य प्रवृत्तियों का अनुभव किया और उनसे पृथक रहने का प्रयास किया।
पाश्चात्य देशों के सम्पर्क में आकर भी उसने अपनी वेश-भूषा, धर्म और
रीति-रिवाजों को अंगीकार किया। यही कारण था कि मंचू सरकार खुले रूप से इन
पाश्चात्य देशों से पृथक रहने का प्रयास करने लगी इस बात को दृष्टि में
रखकर सम्राट कांगहसी ने एक राजकीय विज्ञप्ति निकाली और चीन-प्रवेश से इन
जातियों तथा मिशनरियों को वंचित करने का प्रयास किया। इस विज्ञप्ति के
पीछे सम्राट् की अपनी भावना तो थी ही, साथ-ही-साथ चीन की जनता को भी
सन्तुष्ट करने के लिए उसे यह विज्ञप्ति निकालनी पड़ी। चीन की जनता इन
विदेशियों से घृणा करने लगी थी और यह सम्भावना की जाने लगी कि चीन में
खून-खराबी भी हो सकती है। विशेषकर विदेशी मिशनरियों से चीन में काफी
असन्तोष था। ‘‘मिशनरी के विभिन्न आदेशों के बीच
झगड़े, पूर्वजों का आदर करते हुए कुछ धर्म प्रवर्तित लोगों का सम्राट् के
हुक्म की मान्यता तथा साथ ही नये धर्म की प्रवृत्ति के प्रति उनके अफसरों
के प्रतिनिधित्व के द्वारा उनकी सत्ता की न्यूनता ने धीरे-धीरे भ्रामक
विचारों के प्रचारक के वास्तविक चरित्र के प्रति उनकी आँखें खोल
दीं।
लेकिन यह याद रखनी चाहिए कि इस विज्ञप्ति के अनुसार चीन में आए हुए विदेशियों को चीन से बाहर नहीं निकाला गया। केवल उन पर या विभिन्न देशों से आये हुए व्यापारियों पर एक प्रकार का नियन्त्रण रखने की बात कही गयी। चीन की मंचू सरकार को यह आशंका हो गयी थी कि अगर इन व्यापारियों को व्यापार करने की अनुमति नहीं दी जाएगी तो वे सम्पूर्ण चीन में फैलकर अशांति फैलाने का प्रयत्न करेंगे। इसलिए इस विज्ञप्ति में यह स्पष्ट कर दिया गया कि ये विदेशी व्यापारी चीन के सभी तटवर्ती बन्दरगाहों से शांतिपूर्वक उचित व्यापार कर सकते हैं। व्यापार करने की अनुमति मिलते ही विदेशियों की प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा क्योंकि बड़े सहज ढंग से ही उन्हें यह अनुमति मिल गयी थी। इससे उनका उत्साह और हौसला दोनों बढ़ा। फलतः अर्थ-लोलुपता के चलते इन लोगों ने नाजायज व्यापार भी करना प्रारम्भ किया। वे उन व्यापारिक सुविधाओं का भी दुरुपयोग करने लगे जो उन्हें प्राप्त हुए थे। स्वाभाविक रूप से चीन की सरकार का ध्यान पुनः उनकी ओर आकर्षित हुआ। इसीलिए मंचू वंश के दूसरे सम्राट् चिएन लुग ने 1757 ई. में एक दूसरी विज्ञप्ति निकाली जिसके चलते वैदेशिक व्यापार को चीन में सीमित कर दिया गया और व्यापारियों पर अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध लगाये गये। इस विज्ञप्ति के अनुसार इन विदेशी व्यापारियों को दक्षिणी चीन के केवल एक बन्दरगाह कैण्टन से व्यापार करने की अनुमति मिली। इसके अतिरिक्त चीन में एक व्यापारिक दल का संगठन किया गया जिसे ‘को-हंग’ कहा गया। इस दल के परामर्श तथा देख-रेख में ही विदेशी व्यापारी चीन से व्यापार कर सकते थे। इस तरह अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में उन व्यापारियों की चाल पर चीन की सरकार ने एक पैनी दृष्टि रखी और यह स्पष्ट कर दिया कि वे व्यापारिक मामलों के लिए किसी अन्य बन्दरगाह का दौरा नहीं कर सकते हैं। पर इस विज्ञप्ति का कोई विशेष असर विदेशी व्यापारियों पर नहीं पड़ा। व्यापार के साथ-साथ चीन की राजनीति पर भी इनका हस्तक्षेप होना प्रारम्भ हो गया और ईसाई मिशनरियों के कर्तृत्व तो और भी अधिक बुरे होने लगे। कैण्टन से व्यापार करते-करते वे चीन के अन्य बन्दरगाहों से भी व्यापार करने लगे। चीनियों को अफीम का सेवन कराकर उनकी आदतें बुरी बनाने लगे। अफीम खाने की आदत पड़ जाने से व्यापारी अफीम की बिक्री द्वारा आर्थिक लाभ प्राप्त करना चाहते थे। जब अफीम के बुरे परिणामों को चीन की सरकार देखने लगी और इस व्यापार पर रोक लगायी, तब विदेशी व्यापारी चीन के आफिसरों को घूस देकर अपनी ओर मिलाने लगे और चोरी छिपे यह व्यापार चलता रहा। इस कार्य में इंगलैण्ड के अँग्रेज अत्यन्त पटु थे। अफीम के चलते चीन को दो प्रकार के नुकसान होने प्रारम्भ हो गये।
एक तो अफीम की बिक्री बढ़ जाने से अँग्रेजों को फायदा हुआ, लेकिन चीन को आर्थिक क्षति उठानी पड़ी। दूसरा यह कि चीन की जनता का नैतिक धरातल नीचे गिरने लगे। फलतः सरकार ने पूर्ण कठोरता के साथ अफीम के व्यापार पर नियन्त्रण रखने का प्रयास किया जिसके फलस्वरूप चीन तथा ब्रिटेन में अफीम युद्ध (अगले अध्याय में देखें) हुआ। इस युद्ध में चीन सफल नहीं हो सका क्योंकि उसके दुश्मनों के पास शक्तिशाली और केन्द्रित सरकार थी और चीन का शासन कमजोर तथा विकेन्द्रित था। अतः इन शत्रुओं का सामना करने के लिए चीन शासन कमजोर तथा विकेन्द्रित था। अतः इन शत्रुओं का सामना करने के लिए चीन कतई तैयार नहीं था।’’
इस तरह अनेक वर्षों के बाद उन्नीसवीं सदी तक चीन के साथ विदेशियों का सम्बन्ध कायम हुआ। इस सम्बन्ध के परिणाम चीनियों के लिए नितान्त बुरे ही सिद्ध हुए। यह सही है कि इन्हीं विदेशियों के चलते चीन में राष्ट्रीयता की भावना आयी, लेकिन जबतक विदेशियों की दाल गलती रही वे चीन में अपने साम्राज्यवाद के विकास का प्रत्यन करते रहे। भारतीय इतिहासकार श्री पन्निकर का मत है कि पाश्चात्य देशों के सम्पर्क से चीन को लाभ से अधिक क्षति उठानी पड़ी और प्रथम विश्व-युद्ध के पाँच-छः वर्षों के पश्चात् तक चीन का गौरव धूल-धूसरित होता रहा, राजनीतिक अखण्डता टूटती रही और प्रशासनिक दृढ़ता लायी नहीं जा सकी।
लेकिन यह याद रखनी चाहिए कि इस विज्ञप्ति के अनुसार चीन में आए हुए विदेशियों को चीन से बाहर नहीं निकाला गया। केवल उन पर या विभिन्न देशों से आये हुए व्यापारियों पर एक प्रकार का नियन्त्रण रखने की बात कही गयी। चीन की मंचू सरकार को यह आशंका हो गयी थी कि अगर इन व्यापारियों को व्यापार करने की अनुमति नहीं दी जाएगी तो वे सम्पूर्ण चीन में फैलकर अशांति फैलाने का प्रयत्न करेंगे। इसलिए इस विज्ञप्ति में यह स्पष्ट कर दिया गया कि ये विदेशी व्यापारी चीन के सभी तटवर्ती बन्दरगाहों से शांतिपूर्वक उचित व्यापार कर सकते हैं। व्यापार करने की अनुमति मिलते ही विदेशियों की प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा क्योंकि बड़े सहज ढंग से ही उन्हें यह अनुमति मिल गयी थी। इससे उनका उत्साह और हौसला दोनों बढ़ा। फलतः अर्थ-लोलुपता के चलते इन लोगों ने नाजायज व्यापार भी करना प्रारम्भ किया। वे उन व्यापारिक सुविधाओं का भी दुरुपयोग करने लगे जो उन्हें प्राप्त हुए थे। स्वाभाविक रूप से चीन की सरकार का ध्यान पुनः उनकी ओर आकर्षित हुआ। इसीलिए मंचू वंश के दूसरे सम्राट् चिएन लुग ने 1757 ई. में एक दूसरी विज्ञप्ति निकाली जिसके चलते वैदेशिक व्यापार को चीन में सीमित कर दिया गया और व्यापारियों पर अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध लगाये गये। इस विज्ञप्ति के अनुसार इन विदेशी व्यापारियों को दक्षिणी चीन के केवल एक बन्दरगाह कैण्टन से व्यापार करने की अनुमति मिली। इसके अतिरिक्त चीन में एक व्यापारिक दल का संगठन किया गया जिसे ‘को-हंग’ कहा गया। इस दल के परामर्श तथा देख-रेख में ही विदेशी व्यापारी चीन से व्यापार कर सकते थे। इस तरह अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में उन व्यापारियों की चाल पर चीन की सरकार ने एक पैनी दृष्टि रखी और यह स्पष्ट कर दिया कि वे व्यापारिक मामलों के लिए किसी अन्य बन्दरगाह का दौरा नहीं कर सकते हैं। पर इस विज्ञप्ति का कोई विशेष असर विदेशी व्यापारियों पर नहीं पड़ा। व्यापार के साथ-साथ चीन की राजनीति पर भी इनका हस्तक्षेप होना प्रारम्भ हो गया और ईसाई मिशनरियों के कर्तृत्व तो और भी अधिक बुरे होने लगे। कैण्टन से व्यापार करते-करते वे चीन के अन्य बन्दरगाहों से भी व्यापार करने लगे। चीनियों को अफीम का सेवन कराकर उनकी आदतें बुरी बनाने लगे। अफीम खाने की आदत पड़ जाने से व्यापारी अफीम की बिक्री द्वारा आर्थिक लाभ प्राप्त करना चाहते थे। जब अफीम के बुरे परिणामों को चीन की सरकार देखने लगी और इस व्यापार पर रोक लगायी, तब विदेशी व्यापारी चीन के आफिसरों को घूस देकर अपनी ओर मिलाने लगे और चोरी छिपे यह व्यापार चलता रहा। इस कार्य में इंगलैण्ड के अँग्रेज अत्यन्त पटु थे। अफीम के चलते चीन को दो प्रकार के नुकसान होने प्रारम्भ हो गये।
एक तो अफीम की बिक्री बढ़ जाने से अँग्रेजों को फायदा हुआ, लेकिन चीन को आर्थिक क्षति उठानी पड़ी। दूसरा यह कि चीन की जनता का नैतिक धरातल नीचे गिरने लगे। फलतः सरकार ने पूर्ण कठोरता के साथ अफीम के व्यापार पर नियन्त्रण रखने का प्रयास किया जिसके फलस्वरूप चीन तथा ब्रिटेन में अफीम युद्ध (अगले अध्याय में देखें) हुआ। इस युद्ध में चीन सफल नहीं हो सका क्योंकि उसके दुश्मनों के पास शक्तिशाली और केन्द्रित सरकार थी और चीन का शासन कमजोर तथा विकेन्द्रित था। अतः इन शत्रुओं का सामना करने के लिए चीन शासन कमजोर तथा विकेन्द्रित था। अतः इन शत्रुओं का सामना करने के लिए चीन कतई तैयार नहीं था।’’
इस तरह अनेक वर्षों के बाद उन्नीसवीं सदी तक चीन के साथ विदेशियों का सम्बन्ध कायम हुआ। इस सम्बन्ध के परिणाम चीनियों के लिए नितान्त बुरे ही सिद्ध हुए। यह सही है कि इन्हीं विदेशियों के चलते चीन में राष्ट्रीयता की भावना आयी, लेकिन जबतक विदेशियों की दाल गलती रही वे चीन में अपने साम्राज्यवाद के विकास का प्रत्यन करते रहे। भारतीय इतिहासकार श्री पन्निकर का मत है कि पाश्चात्य देशों के सम्पर्क से चीन को लाभ से अधिक क्षति उठानी पड़ी और प्रथम विश्व-युद्ध के पाँच-छः वर्षों के पश्चात् तक चीन का गौरव धूल-धूसरित होता रहा, राजनीतिक अखण्डता टूटती रही और प्रशासनिक दृढ़ता लायी नहीं जा सकी।
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