नाटक-एकाँकी >> अन्धा युग अन्धा युगधर्मवीर भारती
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महाभारत के अट्ठारहवें दिन की संध्या से लेकर प्रभास-तीर्थ में कृष्ण की मृत्यु के क्षण तक का वर्णन।...
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
‘अन्धा युग’ कदापि न लिखा जाता, यदि उसका लिखना-न
लिखना मेरे वश की बात रह गयी होती ! इस कृति का पूरा जटिल वितान जब मेरे
अन्तर में उभरा तो मैं असमंजस में पड़ गया। थोड़ा डर भी लगा। लगा कि इस
अभिशप्त भूमि पर एक कदम भी रक्खा कि फिर बच कर नहीं लौटूँगा !
पर एक नशा होता है—अन्धकार के गरजते महासागर की चुनौती को स्वीकार करने का, पर्वताकार लहरों से खाली हाथ जूझने का, अनमापी गहराइयों में उतर जाने का और फिर अपने को सारे खतरों में डालकर आस्था के, प्रकाश के, सत्य के, मर्यादा के कुछ कणों को बटोर कर, बचा कर, धरातल तक ले जाने का—इस नशे में इतनी गहरी वेदना और इतना तीखा सुख घुला-मिला रहता है कि उसके आस्वादन के लिए मन बेबस हो उठता है। उसी की उपलब्धि के लिए यह कृति लिखी गयी।
एक स्थल पर आकर मन का डर छूट गया था। कुण्ठा, निराशा, रक्तपात, प्रतिशोध, विकृति, कुरूपता, अन्धापन—इनसे हिचकिचाना क्या इन्हीं में तो सत्य के दुर्लभ कण छिपे हुए हैं, तो इनमें क्यों न निडर धँसूँ ! इनमें धँस कर भी मैं मर नहीं सकता ! ‘‘हम न मरैं, मरिहै संसारा !’’
पर नहीं, संसार भी क्यों मरे ? मैंने जब वेदना सब की भोगी है, तो जो सत्य पाया, वह अकेले मेरा कैसे हुआ ? एक धरातल ऐसा भी होता है जहाँ ‘निजी’ और ‘व्यापक’ का बाह्य अन्तर मिट जाता है। वे भिन्न नहीं रहते। ‘कहियत भिन्न न भिन्न।’
यह तो ‘व्यापक’ सत्य है। जिसकी ‘निजी’ उपलब्धि मैंने की ही—उसकी मर्यादा इसी में है कि वह पुनः व्यापक हो जाये.....
पर एक नशा होता है—अन्धकार के गरजते महासागर की चुनौती को स्वीकार करने का, पर्वताकार लहरों से खाली हाथ जूझने का, अनमापी गहराइयों में उतर जाने का और फिर अपने को सारे खतरों में डालकर आस्था के, प्रकाश के, सत्य के, मर्यादा के कुछ कणों को बटोर कर, बचा कर, धरातल तक ले जाने का—इस नशे में इतनी गहरी वेदना और इतना तीखा सुख घुला-मिला रहता है कि उसके आस्वादन के लिए मन बेबस हो उठता है। उसी की उपलब्धि के लिए यह कृति लिखी गयी।
एक स्थल पर आकर मन का डर छूट गया था। कुण्ठा, निराशा, रक्तपात, प्रतिशोध, विकृति, कुरूपता, अन्धापन—इनसे हिचकिचाना क्या इन्हीं में तो सत्य के दुर्लभ कण छिपे हुए हैं, तो इनमें क्यों न निडर धँसूँ ! इनमें धँस कर भी मैं मर नहीं सकता ! ‘‘हम न मरैं, मरिहै संसारा !’’
पर नहीं, संसार भी क्यों मरे ? मैंने जब वेदना सब की भोगी है, तो जो सत्य पाया, वह अकेले मेरा कैसे हुआ ? एक धरातल ऐसा भी होता है जहाँ ‘निजी’ और ‘व्यापक’ का बाह्य अन्तर मिट जाता है। वे भिन्न नहीं रहते। ‘कहियत भिन्न न भिन्न।’
यह तो ‘व्यापक’ सत्य है। जिसकी ‘निजी’ उपलब्धि मैंने की ही—उसकी मर्यादा इसी में है कि वह पुनः व्यापक हो जाये.....
निर्देश
इस दृश्य-काव्य में जिन समस्याओं को उठाया गया है, उनके सफल निर्वाह के
लिए महाभारत के उत्तरार्द्ध की घटनाओं का आश्रय ग्रहण किया गया है। अधिकतर
कथावस्तु ‘प्रख्यात’ है, केवल कुछ ही तत्त्व
‘उत्पाद्य’ हैं—कुछ स्वकल्पित पात्र और कुछ
स्वकल्पित घटनाएँ। प्राचीन पद्धति भी इसकी अनुमति देती है। दो प्रहरी, जो
घटनाओं और स्थितियों पर अपनी व्याख्याएँ देते चलते हैं, बहुत कुछ ग्री़क
कोरस के निम्न वर्ग के पात्रों की भाँति हैं; किन्तु, उनका अपना
प्रतीकात्मक महत्त्व भी है। कृष्ण के वधकर्त्ता का नाम
‘जरा’ था, ऐसा भागवत में भी मिलता है, लेखक ने उसे
वृद्ध याचक की प्रेत काया मान लिया है।
समस्त कथावस्तु पाँच अंकों में विभाजित है। बीच में अन्तराल है। अन्तराल के पहले दर्शकों को लम्बा मध्यान्तर दिया जा सकता है। मंच-विधान जटिल नहीं है। एक पर्दा पीछे स्थायी रहेगा। उसके आगे दो पर्दे रहेंगे। सामने का पर्दा अंक के प्रारम्भ में उठेगा और अंक के अंत तक उठा रहेगा। उस अवधि में एक ही अंक में दो दृश्य बदलते हैं, उनमें बीच का पर्दा उठता गिरता रहता है। बीच का और पीछे का पर्दा चित्रित नहीं होना चाहिए। मंच की सजावट कम-से-कम होनी चाहिए। प्रकाश-व्यवस्था में अत्यधिक सतर्क रहना चाहिए।
दृश्य-परिवर्तन या अंक-परिवर्तन के समय कथा-गायन की योजना है। यह पद्धति लोक-नाट्य-परम्परा से ली गयी है। कथानक की जो घटनाएँ मंच पर नहीं दिखाई जातीं, उनकी सूचना देने, वातावरण की मार्मिकता को और गहन बनाने तथा कहीं-कहीं उसके प्रतिकात्मक अर्थों को भी स्पष्ट करने के लिए यह कथा गायन की पद्धति अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुई है। कथा-गायक दो रहने चाहिए : एक स्त्री और एक पुरुष। कथा-गायन में जहाँ छन्द बदला है, वहाँ दूसरे गायक को गायन-सूत्र ग्रहण कर लेना चाहिए। वैसे भी आशय के अनुसार, उचित प्रभाव के लिए, पंक्तियों को स्त्री या पुरुष में बाँट देना चाहिए। कथा-गायन के साथ अधिक वाद्य-यन्त्रों का प्रयोग नहीं होना चाहिए। गायक-स्वर ही प्रमुख रहना चाहिए।
संवाद मुक्त छन्दों में है और अन्तराल में कितने प्रकार की ही छन्द योजना से मुक्त वृत्तगन्धी गद्य का भी प्रयोग किया गया है। वृत्तगन्धी गद्य की ऐसी पंक्तियाँ अन्यत्र भी मिल जायेंगी। लम्बे नाटक में छन्द बदलते रहना आवश्यक प्रतीत हुआ, अन्यथा एकरसता आ जाती। कुछ स्थानों को अपवादस्वरूप छोड़ दें तो प्रहरियों का सारा वार्तालाप एक निश्चित लय में चलता है जो नाटक के आरम्भ से अन्त तक लगभग एक-सी रहती है। अन्य पात्रों के कथोपकथन में सभी पंक्तियाँ एक ही लय की हों, यह आवश्यक नहीं है। जैसे एक बार बोलने के लिए कोई मुँह खोले, किन्तु उसी बात को कहने में, मन में भावनाएँ कई बार करवटें बदल लें, तो उसे सम्प्रेषित करने के लिए लय भी अपने को बदल लेती है। मुक्त छन्द में कोई लिरिक प्रवृत्ति की कविता अलग से लिखी जाये तो छन्द की मूल योजना वही बनी रह सकती है, किन्तु नाटकीय कथन में इसे मैं बहुत आवश्यक नहीं मानता। कहीं-कहीं लय का यह परिवर्तन मैंने जल्दी-जल्दी ही किया है—उदाहरण के लिए पृष्ठ 79-80 पर संजय के समस्त सम्वाद एक विशिष्ट लय में है, पृष्ठ 81 पर संजय के सम्वाद की यह लय अकस्मात् बदल जाती है।
जब ‘अन्धा युग’ प्रस्तुत किया गया तो अभिनेताओं के साथ एक कठिनाई दीख पड़ी। वे सम्वादों को या तो बिलकुल कविता की तरह लय के आघात दे-देकर पढ़ते थे, या बिलकुल गद्ध की तरह। स्थिति इन दोनों के बीच की होनी चाहिए। लय की अपेक्षा अर्थ पर बल प्रमुख होना चाहिए, किन्तु छन्द की लय भी ध्वनित होती रहनी चाहिए। अभी इस प्रकार के नाटकों की परम्परा का सूत्रपात ही हो रहा है, किन्तु छन्दात्मक लय, नाटकीय कथन और अर्थ पर आग्रह का जितना सफल समन्वय अश्वत्थामा की भूमिका में श्री गोपालदा ने ‘अन्धा युग’ के रेडियो-रूपान्तर में प्रस्तुत किया है; और, उसमें वाल्यूम, अंडर-टोन, ओवर-टोन, ओवरलैपिंग टोन्स स्वरों के कम्पन आदि का जैसा उपयोग किया है, वह न केवल इन गीति-नाट्यों, वरन् समस्त नयी कविता के प्रभावोत्पादक पाठ की अमित सम्भावनाओं की ओर संकेत करता है।
मूलतः यह काव्य रंगमंच को दृष्टि में रखकर लिखा गया था। यहाँ वह उसी मूल रूप में छापा जा रहा है। लिखे जाने के बाद इसका रेडियो-रूपान्तर भी प्रस्तुत हुआ जिसके कारण इसके सम्वादों की लय और भाषा को माँजने में काफी सहायता मिली। मैंने इस बात को भी ध्यान में रखा है कि मंच-विधान को थोड़ा बदल कर यह खुले मंच वाले लोक-नाट्य में भी परिवर्तित किया जा सकता है। अधिक कल्पनाशील निर्देशक इसके रंगमंच को प्रतीकात्मक भी बना सकते हैं।
समस्त कथावस्तु पाँच अंकों में विभाजित है। बीच में अन्तराल है। अन्तराल के पहले दर्शकों को लम्बा मध्यान्तर दिया जा सकता है। मंच-विधान जटिल नहीं है। एक पर्दा पीछे स्थायी रहेगा। उसके आगे दो पर्दे रहेंगे। सामने का पर्दा अंक के प्रारम्भ में उठेगा और अंक के अंत तक उठा रहेगा। उस अवधि में एक ही अंक में दो दृश्य बदलते हैं, उनमें बीच का पर्दा उठता गिरता रहता है। बीच का और पीछे का पर्दा चित्रित नहीं होना चाहिए। मंच की सजावट कम-से-कम होनी चाहिए। प्रकाश-व्यवस्था में अत्यधिक सतर्क रहना चाहिए।
दृश्य-परिवर्तन या अंक-परिवर्तन के समय कथा-गायन की योजना है। यह पद्धति लोक-नाट्य-परम्परा से ली गयी है। कथानक की जो घटनाएँ मंच पर नहीं दिखाई जातीं, उनकी सूचना देने, वातावरण की मार्मिकता को और गहन बनाने तथा कहीं-कहीं उसके प्रतिकात्मक अर्थों को भी स्पष्ट करने के लिए यह कथा गायन की पद्धति अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुई है। कथा-गायक दो रहने चाहिए : एक स्त्री और एक पुरुष। कथा-गायन में जहाँ छन्द बदला है, वहाँ दूसरे गायक को गायन-सूत्र ग्रहण कर लेना चाहिए। वैसे भी आशय के अनुसार, उचित प्रभाव के लिए, पंक्तियों को स्त्री या पुरुष में बाँट देना चाहिए। कथा-गायन के साथ अधिक वाद्य-यन्त्रों का प्रयोग नहीं होना चाहिए। गायक-स्वर ही प्रमुख रहना चाहिए।
संवाद मुक्त छन्दों में है और अन्तराल में कितने प्रकार की ही छन्द योजना से मुक्त वृत्तगन्धी गद्य का भी प्रयोग किया गया है। वृत्तगन्धी गद्य की ऐसी पंक्तियाँ अन्यत्र भी मिल जायेंगी। लम्बे नाटक में छन्द बदलते रहना आवश्यक प्रतीत हुआ, अन्यथा एकरसता आ जाती। कुछ स्थानों को अपवादस्वरूप छोड़ दें तो प्रहरियों का सारा वार्तालाप एक निश्चित लय में चलता है जो नाटक के आरम्भ से अन्त तक लगभग एक-सी रहती है। अन्य पात्रों के कथोपकथन में सभी पंक्तियाँ एक ही लय की हों, यह आवश्यक नहीं है। जैसे एक बार बोलने के लिए कोई मुँह खोले, किन्तु उसी बात को कहने में, मन में भावनाएँ कई बार करवटें बदल लें, तो उसे सम्प्रेषित करने के लिए लय भी अपने को बदल लेती है। मुक्त छन्द में कोई लिरिक प्रवृत्ति की कविता अलग से लिखी जाये तो छन्द की मूल योजना वही बनी रह सकती है, किन्तु नाटकीय कथन में इसे मैं बहुत आवश्यक नहीं मानता। कहीं-कहीं लय का यह परिवर्तन मैंने जल्दी-जल्दी ही किया है—उदाहरण के लिए पृष्ठ 79-80 पर संजय के समस्त सम्वाद एक विशिष्ट लय में है, पृष्ठ 81 पर संजय के सम्वाद की यह लय अकस्मात् बदल जाती है।
जब ‘अन्धा युग’ प्रस्तुत किया गया तो अभिनेताओं के साथ एक कठिनाई दीख पड़ी। वे सम्वादों को या तो बिलकुल कविता की तरह लय के आघात दे-देकर पढ़ते थे, या बिलकुल गद्ध की तरह। स्थिति इन दोनों के बीच की होनी चाहिए। लय की अपेक्षा अर्थ पर बल प्रमुख होना चाहिए, किन्तु छन्द की लय भी ध्वनित होती रहनी चाहिए। अभी इस प्रकार के नाटकों की परम्परा का सूत्रपात ही हो रहा है, किन्तु छन्दात्मक लय, नाटकीय कथन और अर्थ पर आग्रह का जितना सफल समन्वय अश्वत्थामा की भूमिका में श्री गोपालदा ने ‘अन्धा युग’ के रेडियो-रूपान्तर में प्रस्तुत किया है; और, उसमें वाल्यूम, अंडर-टोन, ओवर-टोन, ओवरलैपिंग टोन्स स्वरों के कम्पन आदि का जैसा उपयोग किया है, वह न केवल इन गीति-नाट्यों, वरन् समस्त नयी कविता के प्रभावोत्पादक पाठ की अमित सम्भावनाओं की ओर संकेत करता है।
मूलतः यह काव्य रंगमंच को दृष्टि में रखकर लिखा गया था। यहाँ वह उसी मूल रूप में छापा जा रहा है। लिखे जाने के बाद इसका रेडियो-रूपान्तर भी प्रस्तुत हुआ जिसके कारण इसके सम्वादों की लय और भाषा को माँजने में काफी सहायता मिली। मैंने इस बात को भी ध्यान में रखा है कि मंच-विधान को थोड़ा बदल कर यह खुले मंच वाले लोक-नाट्य में भी परिवर्तित किया जा सकता है। अधिक कल्पनाशील निर्देशक इसके रंगमंच को प्रतीकात्मक भी बना सकते हैं।
पात्र
अश्वत्थामा
गान्धारी
विदुर
धृतराष्ट्र
युधिष्ठिर
कृतवर्मा
कृपाचार्य
संजय
युयुत्सु
वृद्ध याचक
गूँगा भिखारी
प्रहरी 1
प्रहरी 2
व्यास
बलराम
कृष्ण
गान्धारी
विदुर
धृतराष्ट्र
युधिष्ठिर
कृतवर्मा
कृपाचार्य
संजय
युयुत्सु
वृद्ध याचक
गूँगा भिखारी
प्रहरी 1
प्रहरी 2
व्यास
बलराम
कृष्ण
घटना-काल
महाभारत के अट्ठारहवें दिन की संध्या से लेकर प्रभास-तीर्थ में कृष्ण की
मृत्यु के क्षण तक।
स्थापना
[नेपथ्य से उद्घोषणा तथा मंच पर नर्त्तक के द्वारा उपयुक्त भावनाट्य का
प्रदर्शन। शंख-ध्वनि के साथ पर्दा खुलता है तथा मंगलाचरण के साथ-साथ
नर्त्तक नमस्कार-मुद्रा प्रदर्शित करता है। उद्घोषणा के साथ-साथ उसकी
मुद्राएँ बदलती जाती हैं।]
मंगलाचरण
नारायणम् नमस्कृत्य नरम् चैव नरोत्तमम्।
देवीम् सरस्वतीम् व्यासम् ततो जयमुदीयरेत्।
उद्घोषणा
जिस युग का वर्णन इस कृति में है
उसके विषय में विष्णु-पुराण में कहा है :
ततश्चानुदिनमल्पाल्प ह्रास
व्यवच्छेददाद्धर्मार्थयोर्जगतस्संक्षयो भविष्यति।’
उस भविष्य में
धर्म-अर्थ ह्रासोन्मुख होंगे
क्षय होगा धीरे-धीरे सारी धरती का।
‘ततश्चार्थ एवाभिजन हेतु।’
सत्ता होगी उनकी।
जिनकी पूँजी होगी।
‘कपटवेष धारणमेव महत्त्व हेतु।’
जिनके नकली चेहरे होंगे
केवल उन्हें महत्त्व मिलेगा।
‘एवम् चाति लुब्धक राजा
सहाश्शैलानामन्तरद्रोणीः प्रजा संश्रियष्यवन्ति।’
राजशक्तियाँ लोलुप होंगी,
जनता उनसे पीड़ित होकर
गहन गुफाओं में छिप-छिप कर दिन काटेगी।
(गहन गुफाएँ वे सचमुच की या अपने कुण्ठित अंतर की)
[गुफाओं में छिपने की मुद्रा का प्रदर्शन करते-करते नर्त्तक नेपथ्य में चला जाता है।]
युद्धोपरान्त,
यह अन्धा युग अवतरित हुआ
जिसमें स्थितियाँ, मनोवृत्तियाँ, आत्माएँ सब विकृत हैं
है एक बहुत पतली डोरी मर्यादा की
पर वह भी उलझी है दोनों ही पक्षों में
सिर्फ कृष्ण में साहस है सुलझाने का
वह है भविष्य का रक्षक, वह है अनासक्त
पर शेष अधिकतर हैं अन्धे
पथभ्रष्ट, आत्महारा, विगलित
अपने अन्तर की अन्धगुफाओं के वासी
यह कथा उन्हीं अन्धों की है;
या कथा ज्योति की है अन्धों के माध्यम से
पहला अंक
कौरव नगरी
तीन बार तूर्यनाद के उपरान्त
कथा-गायन
टुकड़े-टुकड़े हो बिखर चुकी मर्यादा
उसको दोनों ही पक्षों ने तोड़ा है
पाण्डव ने कुछ कम कौरव ने कुछ ज्यादा
यह रक्तपात अब कब समाप्त होना है
यह अजब युद्ध है नहीं किसी की भी जय
दोनों पक्षों को खोना ही खोना है
अन्धों से शोभित था युग का सिंहासन
दोनों ही पक्षों में विवेक ही हारा
दोनों ही पक्षों में जीता अन्धापन
भय का अन्धापन, ममता का अन्धापन
अधिकारों का अन्धापन जीत गया
जो कुछ सुन्दर था, शुभ था, कोमलतम था
वह हार गया....द्वापर युग बीत गया
[पर्दा उठने लगता है]
यह महायुद्ध के अंतिम दिन की संध्या
है छाई चारों ओर उदासी गहरी
कौरव के महलों का सूना गलियारा
हैं घूम रहे केवल दो बूढ़े प्रहरी
[पर्दा उठाने पर स्टेज खाली है। दाईं और बाईं ओर बरछे और ढाल लिये दो प्रहरी हैं जो वार्तालाप करते हुए यन्त्र-परिचालित से स्टेज के आर-पार चलते हैं।]
प्रहरी 1. थके हुए हैं हम,
पर घूम-घूम पहरा देते हैं
इस सूने गलियारे में
प्रहरी 2. सूने गलियारे में
जिसके इन रत्न-जटित फर्शों पर
कौरव-वधुएँ
मंथर-मंथर गति से
सुरभित पवन-तरंगों-सी चलती थीं
आज वे विधवा हैं,
प्रहरी 1. थके हुए हैं हम,
इसलिए नहीं कि
कहीं युद्धों में हमने भी
बाहुबल दिखाया है
प्रहरी थे हम केवल
सत्रह दिनों के लोमहर्षक संग्राम में
भाले हमारे ये,
ढालें हमारी ये,
निरर्थक पड़ी रहीं
अंगों पर बोझ बनी
रक्षक थे हम केवल
लेकिन रक्षणीय कुछ भी नहीं था यहाँ
प्रहरी 2. रक्षणीय कुछ भी नहीं था यहाँ..........
संस्कृति थी यह एक बूढ़े और अन्धे की
जिसकी सन्तानों ने
महायुद्ध घोषित किये,
जिसके अन्धेपन में मर्यादा
गलित अंग वेश्या-सी
प्रजाजनों को भी रोगी बनाती फिरी
उस अन्धी संस्कृति,
उस रोगी मर्यादा की
रक्षा हम करते रहे
सत्रह दिन।
प्रहरी 1. जिसने अब हमको थका डाला है
मेहनत हमारी निरर्थक थी
आस्था का,
साहस का,
श्रम का,
अस्तित्व का हमारे
कुछ अर्थ नहीं था
कुछ भी अर्थ नहीं था
प्रहरी 2. अर्थ नहीं था
कुछ भी अर्थ नहीं था
जीवन के अर्थहीन
सूने गलियारे में
पहरा दे देकर
अब थके हुए हैं हम
अब चुके हुए हैं हम
[चुप होकर वे आर-पार घूमते हैं। सहसा स्टेज पर प्रकाश धीमा हो जाता है। नेपथ्य से आँधी की-सी ध्वनि आती है। एक प्रहरी कान लगाकर सुनता है, दूसरा भौंहों पर हाथ रख कर आकाश की ओर देखता है।]
प्रहरी 1. सुनते हो
कैसी है ध्वनि यह
भयावह ?
प्रहरी 2. सहसा अँधियारा क्यों होने लगा
देखो तो
दीख रहा है कुछ ?
प्रहरी 1. अन्धे राजा की प्रजा कहाँ तक देख ?
दीख नहीं पड़ता कुछ
हाँ, शायद बादल है
[दूसरा प्रहरी भी बगल में आकर देखता है और भयभीत हो उठता है]
प्रहरी-2. बादल नहीं है
वे गिद्ध हैं
लाखों-करोड़ों
पाँखें खोले
[पंखों की ध्वनि के साथ स्टेज पर और भी अँधेरा]
प्रहरी-1. लो
सारी कौरव नगरी
का आसमान
गिद्धों ने घेर लिया
प्रहरी-2. झुक जाओ
झुक जाओ
ढालों के नीचे
छिप जाओ
नरभक्षी हैं
वे गिद्ध भूखे हैं।
[प्रकाश तेज होने लगता है]
प्रहरी-1. लो ये मुड़ गये
कुरुक्षेत्र की दिशा में
[आँधी की ध्वनि कम होने लगती है]
प्रहरी-2. मौत जैसे
ऊपर से निकल गयी
प्रहरी-1. अशकुन है
भयानक वह।
पता नहीं क्या होगा
कल तक
इस नगरी में
[विदुर का प्रवेश, बाईं ओर से]
प्रहरी-1. कौन है ?
विदुर मैं हूँ
विदुर
देखा धृतराष्ट्र ने
देखा यह भयानक दृश्य ?
प्रहरी-1. देखेंगे कैसे वे ?
अन्धे हैं।
कुछ भी क्या देख सके
अब तक
वे ?
विदुर. मिलूँगा उनसे मैं
अशकुन भयानक है
पता नहीं संजय
क्या समाचार लाये आज ?
[प्रहरी जाते हैं, विदुर अपने स्थान पर चिन्तातुर खड़े रहते हैं। पीछे का पर्दा उठने लगता है।]
कथा गायन
है कुरुक्षेत्र से कुछ भी खबर न आयी
जीता या हारा बचा-खुचा कौरव-दल
जाने किसकी लोथों पर जा उतरेगा
यह नरभक्षी गिद्धों का भूखा बादल
अन्तःपुर में मरघट की-सी खामोशी
कृश गान्धारी बैठी है शीश झुकाये
सिंहासन पर धृतराष्ट्र मौन बैठे हैं
संजय अब तक कुछ भी संवाद न लाये।
[पर्दा उठने पर अन्तःपुर। कुशासन बिछाये सादी चौकी पर गान्धारी, एक छोटे सिंहासन पर चिन्तातुर धृतराष्ट्र। विदुर उनकी ओर बढ़ते हैं।]
मंगलाचरण
नारायणम् नमस्कृत्य नरम् चैव नरोत्तमम्।
देवीम् सरस्वतीम् व्यासम् ततो जयमुदीयरेत्।
उद्घोषणा
जिस युग का वर्णन इस कृति में है
उसके विषय में विष्णु-पुराण में कहा है :
ततश्चानुदिनमल्पाल्प ह्रास
व्यवच्छेददाद्धर्मार्थयोर्जगतस्संक्षयो भविष्यति।’
उस भविष्य में
धर्म-अर्थ ह्रासोन्मुख होंगे
क्षय होगा धीरे-धीरे सारी धरती का।
‘ततश्चार्थ एवाभिजन हेतु।’
सत्ता होगी उनकी।
जिनकी पूँजी होगी।
‘कपटवेष धारणमेव महत्त्व हेतु।’
जिनके नकली चेहरे होंगे
केवल उन्हें महत्त्व मिलेगा।
‘एवम् चाति लुब्धक राजा
सहाश्शैलानामन्तरद्रोणीः प्रजा संश्रियष्यवन्ति।’
राजशक्तियाँ लोलुप होंगी,
जनता उनसे पीड़ित होकर
गहन गुफाओं में छिप-छिप कर दिन काटेगी।
(गहन गुफाएँ वे सचमुच की या अपने कुण्ठित अंतर की)
[गुफाओं में छिपने की मुद्रा का प्रदर्शन करते-करते नर्त्तक नेपथ्य में चला जाता है।]
युद्धोपरान्त,
यह अन्धा युग अवतरित हुआ
जिसमें स्थितियाँ, मनोवृत्तियाँ, आत्माएँ सब विकृत हैं
है एक बहुत पतली डोरी मर्यादा की
पर वह भी उलझी है दोनों ही पक्षों में
सिर्फ कृष्ण में साहस है सुलझाने का
वह है भविष्य का रक्षक, वह है अनासक्त
पर शेष अधिकतर हैं अन्धे
पथभ्रष्ट, आत्महारा, विगलित
अपने अन्तर की अन्धगुफाओं के वासी
यह कथा उन्हीं अन्धों की है;
या कथा ज्योति की है अन्धों के माध्यम से
पहला अंक
कौरव नगरी
तीन बार तूर्यनाद के उपरान्त
कथा-गायन
टुकड़े-टुकड़े हो बिखर चुकी मर्यादा
उसको दोनों ही पक्षों ने तोड़ा है
पाण्डव ने कुछ कम कौरव ने कुछ ज्यादा
यह रक्तपात अब कब समाप्त होना है
यह अजब युद्ध है नहीं किसी की भी जय
दोनों पक्षों को खोना ही खोना है
अन्धों से शोभित था युग का सिंहासन
दोनों ही पक्षों में विवेक ही हारा
दोनों ही पक्षों में जीता अन्धापन
भय का अन्धापन, ममता का अन्धापन
अधिकारों का अन्धापन जीत गया
जो कुछ सुन्दर था, शुभ था, कोमलतम था
वह हार गया....द्वापर युग बीत गया
[पर्दा उठने लगता है]
यह महायुद्ध के अंतिम दिन की संध्या
है छाई चारों ओर उदासी गहरी
कौरव के महलों का सूना गलियारा
हैं घूम रहे केवल दो बूढ़े प्रहरी
[पर्दा उठाने पर स्टेज खाली है। दाईं और बाईं ओर बरछे और ढाल लिये दो प्रहरी हैं जो वार्तालाप करते हुए यन्त्र-परिचालित से स्टेज के आर-पार चलते हैं।]
प्रहरी 1. थके हुए हैं हम,
पर घूम-घूम पहरा देते हैं
इस सूने गलियारे में
प्रहरी 2. सूने गलियारे में
जिसके इन रत्न-जटित फर्शों पर
कौरव-वधुएँ
मंथर-मंथर गति से
सुरभित पवन-तरंगों-सी चलती थीं
आज वे विधवा हैं,
प्रहरी 1. थके हुए हैं हम,
इसलिए नहीं कि
कहीं युद्धों में हमने भी
बाहुबल दिखाया है
प्रहरी थे हम केवल
सत्रह दिनों के लोमहर्षक संग्राम में
भाले हमारे ये,
ढालें हमारी ये,
निरर्थक पड़ी रहीं
अंगों पर बोझ बनी
रक्षक थे हम केवल
लेकिन रक्षणीय कुछ भी नहीं था यहाँ
प्रहरी 2. रक्षणीय कुछ भी नहीं था यहाँ..........
संस्कृति थी यह एक बूढ़े और अन्धे की
जिसकी सन्तानों ने
महायुद्ध घोषित किये,
जिसके अन्धेपन में मर्यादा
गलित अंग वेश्या-सी
प्रजाजनों को भी रोगी बनाती फिरी
उस अन्धी संस्कृति,
उस रोगी मर्यादा की
रक्षा हम करते रहे
सत्रह दिन।
प्रहरी 1. जिसने अब हमको थका डाला है
मेहनत हमारी निरर्थक थी
आस्था का,
साहस का,
श्रम का,
अस्तित्व का हमारे
कुछ अर्थ नहीं था
कुछ भी अर्थ नहीं था
प्रहरी 2. अर्थ नहीं था
कुछ भी अर्थ नहीं था
जीवन के अर्थहीन
सूने गलियारे में
पहरा दे देकर
अब थके हुए हैं हम
अब चुके हुए हैं हम
[चुप होकर वे आर-पार घूमते हैं। सहसा स्टेज पर प्रकाश धीमा हो जाता है। नेपथ्य से आँधी की-सी ध्वनि आती है। एक प्रहरी कान लगाकर सुनता है, दूसरा भौंहों पर हाथ रख कर आकाश की ओर देखता है।]
प्रहरी 1. सुनते हो
कैसी है ध्वनि यह
भयावह ?
प्रहरी 2. सहसा अँधियारा क्यों होने लगा
देखो तो
दीख रहा है कुछ ?
प्रहरी 1. अन्धे राजा की प्रजा कहाँ तक देख ?
दीख नहीं पड़ता कुछ
हाँ, शायद बादल है
[दूसरा प्रहरी भी बगल में आकर देखता है और भयभीत हो उठता है]
प्रहरी-2. बादल नहीं है
वे गिद्ध हैं
लाखों-करोड़ों
पाँखें खोले
[पंखों की ध्वनि के साथ स्टेज पर और भी अँधेरा]
प्रहरी-1. लो
सारी कौरव नगरी
का आसमान
गिद्धों ने घेर लिया
प्रहरी-2. झुक जाओ
झुक जाओ
ढालों के नीचे
छिप जाओ
नरभक्षी हैं
वे गिद्ध भूखे हैं।
[प्रकाश तेज होने लगता है]
प्रहरी-1. लो ये मुड़ गये
कुरुक्षेत्र की दिशा में
[आँधी की ध्वनि कम होने लगती है]
प्रहरी-2. मौत जैसे
ऊपर से निकल गयी
प्रहरी-1. अशकुन है
भयानक वह।
पता नहीं क्या होगा
कल तक
इस नगरी में
[विदुर का प्रवेश, बाईं ओर से]
प्रहरी-1. कौन है ?
विदुर मैं हूँ
विदुर
देखा धृतराष्ट्र ने
देखा यह भयानक दृश्य ?
प्रहरी-1. देखेंगे कैसे वे ?
अन्धे हैं।
कुछ भी क्या देख सके
अब तक
वे ?
विदुर. मिलूँगा उनसे मैं
अशकुन भयानक है
पता नहीं संजय
क्या समाचार लाये आज ?
[प्रहरी जाते हैं, विदुर अपने स्थान पर चिन्तातुर खड़े रहते हैं। पीछे का पर्दा उठने लगता है।]
कथा गायन
है कुरुक्षेत्र से कुछ भी खबर न आयी
जीता या हारा बचा-खुचा कौरव-दल
जाने किसकी लोथों पर जा उतरेगा
यह नरभक्षी गिद्धों का भूखा बादल
अन्तःपुर में मरघट की-सी खामोशी
कृश गान्धारी बैठी है शीश झुकाये
सिंहासन पर धृतराष्ट्र मौन बैठे हैं
संजय अब तक कुछ भी संवाद न लाये।
[पर्दा उठने पर अन्तःपुर। कुशासन बिछाये सादी चौकी पर गान्धारी, एक छोटे सिंहासन पर चिन्तातुर धृतराष्ट्र। विदुर उनकी ओर बढ़ते हैं।]
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