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कविता संग्रह >> अचानक हम फिर

अचानक हम फिर

नेमिचन्द्र जैन

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4558
आईएसबीएन :0000

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एकान्त और उसके बाद की कवितायें

Achanak Hum Phir - A hindi Book by Nemichandra Jain

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

'तार सप्तक' में शामिल कवियों में से एक नेमिचन्द्र जैन की लगभग छह दशकों में फैली कविता-यात्रा संयम और वाग्संकोच से भरा उपक्रम रही है। कवि के रूप में प्रतिष्ठित होने के बाद नेमिजी की अधिक प्रभावशाली छवि कविता, उपन्यास, रंगमंच और मीडिया के आलोचक के रूप में बनी। लेकिन, सौभाग्य से इस दौरान वे प्रायः चुपचाप कविकर्म में भी संलग्न रहे हैं। अपने समय से दो-चार होते हुए भी नेमिजी की कविता ने अपने को कविता की चालू शैलियों और नाटकीय भंगिमाओं से दूर रखकर अपनी विशिष्टता बनाये रक्खी है। सूक्ष्मसंवेदनशीलता के साथ उनकी कविता अपने समय और उसमें बनी-बिगड़ती व्यक्ति की हैसियत की पड़ताल करनेवाली कविता है। उसमें बौद्धिकता और भावप्रवणता के बीच कोई फर्क नहीं है। उसमें सब-कुछ को जैसे-तैसे कह देने की अधीरता भी नहीं है। उसमें हरदम ऐसा एकान्त खोजने और बचाने की चिन्ता है, जिसमें सहानुभूति और समझ के साथ स्वयं अपने को और आसपास की दुनिया से अपने उलझाव को, देखा-समझा जा सके। इधर कविता में बेचैनी के जो नाटकीय और दिखाऊ रूप नजर आते हैं उनसे नेमिचन्द्र जैन की कविता की बेचैनी बिल्कुल अलग है : वह शान्त क्षोभ है,धीर प्रश्नाकूलता है। उसमें शिरकत सहज है और उसका बखान भी उतना ही मुद्राओं और भंगिमाओं से मुक्त। पिछली अधसदी की हिन्दी कविता का यह एक शान्त और जिम्मेदार मुकाम है। शमशेर बहादुरसिंह ने नेमिजी की कविताओं की ‘आन्तरिक गरिमा, भावना की सच्चाई, का जिक्र किया है। यह कविता-संग्रह, जिसमें नेमिजी के पहिले संग्रह ‘एकान्त’ की सभी कविताएँ और अभी तक की और सभी मुकम्मिल कविताएँ शामिल हैं, गरिमा का एक उल्लेखनीय दस्तावेज है। भारतीय ज्ञानपीठ इसे नेमिचन्द्र जैन के अस्सीवें जन्मदिन पर सहर्ष प्रकाशित कर रहा है।

कविता से पहले

मेरे इस नये संग्रह का मौजूदा रूप कुछ अटपटे ढंग से कविता के साथ मेरे रिश्ते को उजागर करता है,क्योंकि इसमें नयी कविताओं के साथ मेरे पहले ‘एकान्त’ की कविताएँ भी शामिल है। ‘एकान्त’ के बाद आज के लम्बे अन्तराल में,कविता लिखने की गहरी ललक बनी रहने के बावजूद एक भरे-पूरे मुकम्मिल संग्रह के लिए पर्याप्त कविताएँ क्यों नहीं सुलभ हुई,इसके कई कारण हैं पर अक्सर वे स्वयं मुझे ही पूरी तरह विश्वसनीय नहीं लगते।

दूसरे तमाम लेखकों की तरह साहित्य में मेरी भी पहली घुसपैठ कविता में ही हुई थी और जल्दी ही ‘तार सप्तक’ के कारण वह पहचान और भी पक्की हो गयी। उसके बाद भी कलकत्ता,बम्बई और इलाहाबाद रहने के दिनों में कुछ समय तक मुख्यतः कविता ही लिखी जाती रही,भले ही परिणाम में बहुत कभी नहीं रही। मगर पचास के दशक में दिल्ली आने के बाद कुछ ऐसी परिस्थितियाँ बनीं कि दूसरे कामों में उलझाव के अलावा लगभग सारी रचनात्मक ऊर्जा आलोचना और फिर नाट्यालोचना में ही लगना अनिवार्य हो गया। अब सीधे-सीधे कविता से लगाव का समावेश बढ़ता गया। मैंने पाया कि उपन्यास,विशेषकर नाटक या रंगसृष्टि की आन्तरिक बुनावट में काव्य-तत्त्व को पहचाने बिना उनकी सृजनात्मक सार्थकता को नहीं समझा जा सकता। एक तरह से मैं कविता के बाहर भी कविता की तलाश करने लगा।

इस सबके बावजूद कविता से सीधे रिश्ता भी टूटा नहीं। उससे कभी अदावत न हुई,छेड़ चलती ही रही। बीच-बीच में कविता लिखने का बड़ा तीखा दबाव होता और एक साथ कई कविताएँ लिखी जातीं। पर वह दौर देर तक कभी नहीं टिक पाया और मैं पूरी तरह कविता की ओर नहीं लौट सका। मौजूदा संग्रह में ‘एकान्त’ के बाद की सारी कविताएँ इसी भीतरी दबाव की उपज है। मैं नहीं जानता कि इनकी कोई रचनात्मक सार्थकता या समकालीन काव्य परिदृश्य में कोई प्रासंगिकता है भी या नहीं,या है तो वह क्या और कितनी है। बहरहाल,कोई कवि चाहे वह बड़ा हो या छोटा, अच्छा हो या बुरा,इस कामना से मुक्त नहीं हो पाता कि जो कुछ उसने रचा-लिखा है वह दूसरों तक अवश्य पहुँचे,फिर वह चाहे स्वीकृत या उपेक्षित ही हो जाय। मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि अनायास ही मेरी इन कविताओं के प्रकाशन का सुयोग बन गया। हो सकता है यह सुयोग मेरे जीवन के बचे-खुचे वर्षों या महीनों में कुछ और कविताएँ लिखे जाने का निमित्त भी बन जाए।

कहाँ गये सारे लोग
कहाँ गये सारे लोग जो यहाँ थे,
या कहा गया था कि यहाँ होंगे
लग रहा था बहुत शोर है,

एक साथ कई तरह की आवाजें
उभरती थीं बार-बार
बन्द बड़े कमरे में
पुराने एयर-कण्डीशनर की सीलन-भरी खड़खड़ाहट

सामने छोटे-मंच पर
आत्मविश्वास से अपनी-अपनी बातें सुनाते हुए
बड़े जिम्मेदार लोग
या उनसे भी ज्यादा जिम्मेदार

सुनने की कोशिश में एक साथ बोलते हुए
सवाल पूछते हुए
सामनेवालों से
आपस में

नारियल की शक्ल का जूड़ा बनाये
और मोटा-मोटा काजल आँजे
एक महिला का
रह-रह कर

किसी अपरिचित राग का आलाप-
लग रहा था बहुत शोर है,बहुत आवाजें हैं-
पर फिर क्या हुआ
कहाँ सब गायब हो गया

क्या कोई तार प्लग से निकल गया है
बेमालूम
कि कोई आवाज नहीं आती
कहीं कोई हिलता-डोलता नही

कुछ दिखाई भी नहीं पड़ता
कहीं ऐसा तो नहीं कि
बड़ा कमरा खाली है
हर चीज दूसरी से अलग हुई

थमी, बेजान है
या कि इतनी सारी आवाजों के
लोगों के बीच
मैं ही कहीं खो गया
अकेला हो गया।

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