प्रवासी लेखक >> अन्तर्वंशी अन्तर्वंशीउषा प्रियंवदा
|
9 पाठकों को प्रिय 212 पाठक हैं |
अमेरिकावासी पात्रों और परिवारों की जिंदगी को उनके आपसी संबंधों और संघर्षों को गहरी अंतर्दृष्टि और पर्यवेक्षण सामर्थ्य से उद्घाटित करता उपन्यास
Antarvanshi a hindi book by Usha Priyamvada - अन्तर्वंशी - उषा प्रियंवदा
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
उषा प्रियवंदा का यह उपन्यास उन तमाम भारतीय परिवारों की जीवन-शैली का विश्लेषण करता है जो बेहतर अवसरों की तलाश और आशा में प्रवासी हो जाते हैं। विदेश में बसे युवकों से मध्यवर्गीय परिवारों की कन्याओं का विवाह सौभाग्य समझा जाता है और फिर शुरू होता है संघर्ष और मोहभंग का अटूट सिलसिला।
ऐसी ही है अन्तर्वंशी की नायिका बनारस की ‘वनश्री’ या ‘बाँसुरी’ जो अमरीका पहुँचकर ‘वाना’ हो जाती है-एक ऐसे समाज के बीच जहाँ सभी लोग ‘औरों’ की उपलब्धियों और लाचारियों के बीच कशमकश में पड़ी जैसे-तैसे ग्रहस्थी की गाड़ी खींचती ‘वाना’। पति की असमर्थताओं का दमघोट एहसास उसे क्रमशः उसके प्रति संवेदनहीन बना देता है, जिसकी परिणति होती है संबंधों के ठंडेपन में। पर उसके चारों ओर एक दुनिया और भी है जिसमें ‘अजी’ है, ‘राहुल’ है, ‘सुबोध’ है। सब एक-दूसरे से भिन्न, अपने-अपने रास्तों को तलाशते हुए। सभी ‘राहुल’ की तरह सफलता की सीढ़ियाँ नहीं चढ़ पाते और न ही ‘शिवेश’ की तरह टकराकर लहुलुहान होते हुए कारुणिक अंत को प्राप्त होते हैं-सवाल है अपनी-अपनी क्षमता और अपनी-अपनी नियति का।
अमेरिकावासी इन पात्रों और परिवारों की जिंदगी को, उनके आपसी संबंधों और संघर्षों को गहरी अंतदृष्टि और पर्यवेक्षण-सामर्थ्य से उद्घाटित करता है यह उपन्यास। अनुभव की प्रामाणिकता और गहन संवेदनीयता से युक्त रचनाओं की श्रृंखला में एक महत्वपूर्ण कड़ी।
ऐसी ही है अन्तर्वंशी की नायिका बनारस की ‘वनश्री’ या ‘बाँसुरी’ जो अमरीका पहुँचकर ‘वाना’ हो जाती है-एक ऐसे समाज के बीच जहाँ सभी लोग ‘औरों’ की उपलब्धियों और लाचारियों के बीच कशमकश में पड़ी जैसे-तैसे ग्रहस्थी की गाड़ी खींचती ‘वाना’। पति की असमर्थताओं का दमघोट एहसास उसे क्रमशः उसके प्रति संवेदनहीन बना देता है, जिसकी परिणति होती है संबंधों के ठंडेपन में। पर उसके चारों ओर एक दुनिया और भी है जिसमें ‘अजी’ है, ‘राहुल’ है, ‘सुबोध’ है। सब एक-दूसरे से भिन्न, अपने-अपने रास्तों को तलाशते हुए। सभी ‘राहुल’ की तरह सफलता की सीढ़ियाँ नहीं चढ़ पाते और न ही ‘शिवेश’ की तरह टकराकर लहुलुहान होते हुए कारुणिक अंत को प्राप्त होते हैं-सवाल है अपनी-अपनी क्षमता और अपनी-अपनी नियति का।
अमेरिकावासी इन पात्रों और परिवारों की जिंदगी को, उनके आपसी संबंधों और संघर्षों को गहरी अंतदृष्टि और पर्यवेक्षण-सामर्थ्य से उद्घाटित करता है यह उपन्यास। अनुभव की प्रामाणिकता और गहन संवेदनीयता से युक्त रचनाओं की श्रृंखला में एक महत्वपूर्ण कड़ी।
अन्तर्वंशी
भाग-एक
सड़क के मोड़ से राहुल की गाड़ी अन्दर घुसती है, हल्की-सी आहट, दरवाज़ा खुलने और बन्द होने की। इतना काफी है। वाना की रुकी हुई साँस बाहर आती है, वह रजाई ऊपर खींचती है। कमरे में खुले हुए शीशों से प्रकाश मद्धिम-मद्धिम झरता है। कम-से-कम दो बजा होगा, वाना की दृष्टि घड़ी पर जाती है, दो बजने में कुल दो मिनट बाकी हैं। इतनी-इतनी रात राहुल अपने विभाग में क्या काम करता है ? वाना को इसका बिल्कुल ज्ञान नहीं है। पर जो भी करता है, उससे नाम और यश झरझर झरता है। उस रात को, बिजली के खंभे के नीचे खड़े हुए राहुल को यशस्वी भव का आशीर्वाद देते हुए पिता, त्र्यम्बक पाण्डेय की जिह्ना पर अवश्य सरस्वती आ बैठी होगी।
बगल में शिवेश, पति की समगति में खुर्र-खुर्र खर्राटे जारी रहते हैं। इस बड़े शयनकक्ष से सटे हुए दोनों कमरों में बेटे, विकास और आकाश बच्चों की गहरी नींद में डूबे हैं। सहसा अपने कमरे में भी अँधेरा हो जाता है। राहुल ने अपने बरामदे की बत्ती, जो उसके आने तक जलती रहती है, बुझा दी है। वही तिरछी होकर इस कमरे के शीशे पर उजली-उजली परछाइयाँ डालती रहती है। सब कुछ साफ-सुथरा, तरतीबवार, शान्त, स्थिर। घर के पिछवाड़े बगीचा, उसके बाद पुरानी घिसी-सीढ़ियाँ, और सीढ़ियों का हलकी-हलकी लहरों से छूता सहारा नदी का पानी, नीला और गहरा, वाना जैसे उठकर अँधेरे घर में चक्कर लगा रही है, पर चक्कर लगाने की आवश्यकता नहीं, सब कुछ, एक-एक आकार मन की तख्ती पर लिखा हुआ है। रसोई, झकाझक साफ, प्लेटें-कटोरियाँ, अलमारी में अपनी-अपनी जगह। सब कुछ धुला-पुँछा। कमरों में अलमारियों में कपड़े, साफ करीने से तहाये हुए। तौलियों की गड्डी ऊपर के खाने में चादरें बीच के खाने में, तकियों के गिलाफ और ओढ़ने की चादर, कम्बल। दरवाजा खोलने पर सूखे हुए फूलों की खुशबू आती है। उधर यानी इस घर की दीवार के उस पार; जहाँ राहुल रहता है, सोने के कमरे में एक अकेला तंग-सा लम्बा पलंग। पास में दराज वाली मेज, टेलीफोन, और राहुल की अपनी हाथ-घड़ी। तुम्हें कैसे मालूम कि राहुल रात में अपनी घड़ी कहाँ उतारकर सोता है ? बहुत सीधा-सादा उत्तर, वह एक बार जल्दी में घड़ी भूल गया था, और विभाग से उसका फोन आया था कि वह ताहिर कुरैशी के हाथ उसकी घड़ी भेज दे। यह प्रबन्ध तो दोनों की सुविधा के लिए हुआ था। शिवेश की आय और नौकरी ठिकाने से चल रही थी, अपनी भी कुछ न कुछ आमदनी हो ही रही थी। विश्वविद्यालय का घर तीन साल के बाद छोड़ना था। उस अवधि में कुछ महीने बाकी थे। यह सब कुछ नया था। ब्रजनन्दन और नन्दनन्दन सम्मिलित घर में दो-तीन साल रहे होंगे। सारी मशीनें, सारी दीवारें, सब नई थीं। बच्चों का स्कूल भी अच्छा था। शहर से बस आती-जाती रहती थी, मगर विश्वविद्यालय दूर है। राहुल ने धीमें से कहा था, ‘‘दूर तो है मगर...’’वाना कहते-कहते रुक गई। राहुल ने ध्यान से उसे दुबारा देखा, संकोच से ताका। बीच में छोड़कर जैसे वाना के पश्चिमी ताने-बाने में वह पुरानी, बनारस के साक्षात्कार की वनश्री झाँक उठी, शरमाई-शरमाई आँखें, आधे खुले होठ, एक ओर को हलका-सा झुका सर। उसकी साड़ी मोटे सूत की थी, गंगा में धुलते-धुलते उसकी सफेदी मटियाली हो गई थी। सुबह-सुबह के उजियाले में, तुलसी घाट की सीढ़ियों पर खड़ी वनश्री ने अपने को कब यह अमरीकी वाना बना लिया ? वह उसे उत्सुक उत्कंठित दृष्टि से देख रही थी...अब इस समय अपनी एजेन्सी की यूनीफार्म पहने थी। काली स्कर्ट, सफेद ब्लाउज़ एकदम छोटे-कटे, बाल, बाल तो उसके बनारस में भी छोटे थे, जैसे लम्बी बीमारी के बाद झड़ जाते हैं। यह बाल सुरुचि से कटे और बने थे। चेहरा बना-ठना, एक मुखौटा-सा, पलकों पर हलका-सा रंग, हलकी भौंहें, कानों में एक-एक शायद नक़ली मोती, जो उसकी लबों पर खूब फब रहा था। राहुल के मन में उठा कि वह वाना को अपनी बाँहों में खींच ले, और धीरे-धीरे कोमलता से उसके होठों को चूमता जाए, चूमता रहे, गुलाब की पाँखुड़ी जैसे उसके अधखुले होठ। इस वक्त सिर्फ इतना ही, वह स्कर्ट ब्लाउज़ में सतर सीधी उसकी बाँहों में बँधी रहे, बसन्ती फूलोंवाली चमेली की तला की तरह, और वह उसे चूमता रहे। सहारा नदी की लहरें धीरे-धीरे तट से टकराती रहें, नीचे जंगल हो आये फूल अपनी खुशबू बिखेरते रहें। पर यह सब कुछ नहीं हुआ। एक निमिष मात्र का पागलपन नदी के उस पार (शाम के झुटपुट) में राजभवन की सारी बत्तियाँ जगमगा उठी थीं, वाना अभी भी, बालकनी का जंगला पकड़कर खड़ी थी। छोटा-सा तूफान राहुल के अन्दर उठा और उसे झकझोरता हुआ थम गया। इसका उसे रंचमात्र भी अनुमान न हुआ होगा। ‘‘मुझे सोचने का समय चाहिए’’ राहुल ने अपने संयत, नापतौल कर कदम रखनेवाले लहजे में कहा। उसने वाना को एकदम कुम्हला जाते हुए देखा। मुरझाती हुई चमेली के फूलों की बसन्ती लता-उसकी आँखें झुक गईं थीं, जैसे सारे दिन की थकान उसके चेहरे पर उतर आई।
‘‘ठीक है,’’ वाना ने कहा, ‘‘मगर देर तक इन्तज़ार मत करना’’ उसने अँग्रेजी में कहा। वाना की अँग्रेज़ी भी नाम और पहनावे के अनुरूप ढल गई है शत-प्रतिशत अमेरिकन। फोन पर सुनो तो पहचान भी न सको कि यह वनश्री है, बनारसवाली वनश्री। आकाश-विकास की अम्माँ, शिवेश मिशिर की बीवी। ‘‘ओके,’’ राहुल ने कहा। दोनों बालकनी से हट आये। नीचे आकर वाना ने बच्चों को पुकारा, ‘‘बच्चों, चलो घर चलना है।’’ दोनों लड़के घर के सामने गेंद से खेलने में व्यस्त थे।
‘‘यह गेंद कहाँ से मिली ?’’ वाना ने पूछा।
‘‘अन्दर पड़ी थी’’ विकास ने कहा, ‘‘ले लें ?’’
‘‘नहीं जहाँ पड़ी थी, वहीं रख दो,’’ वाना ने कहा।
‘‘पर मौम,’’ विकास ने ठुनकते हुए कहा, ‘‘घर तो खाली है।’’
‘‘तो क्या हुआ,’’ वाना ने पूरी सख्ती से कहा।
विकास ने खुले दरवाज़े से गेंद अन्दर उछाल दी। ‘‘चलो तुम्हें नई गेंद लिवा दें।’’ राहुल ने विकास की नाक पर हलके से ठुनका दिया।
‘‘तुम जबसे आये हो, बच्चों को बिगाड़ रहे हो,’’ वनश्री ने कहा।
‘‘बच्चे तो लाड़ करने के लिए नहीं होते हैं ?’’ आकाश-विकास गाड़ी की पिछली सीट पर बैठने लगे। वनश्री, नहीं अब वाना, आकर साथवाली सीट पर बैठ गई। राहुल ने गाड़ी को घर की तरफ मोड़ दिया।
‘‘यह नई गाड़ी ऐसे चलती है जैसे पानी पर तैर रही हो।’’ वाना बोली, उत्तर में राहुल ने कहा, (प्रश्न नहीं केवल टिप्पणी) ‘‘साड़ी पहनना एकदम छोड़ दिया ?’’
वाना ने छोटी स्कर्ट को नीचे खींचने की कोशिश की, ‘‘सब पुरानी हो गई हैं, फटफुट गईं। अब इसी में आराम रहता है।’’
‘‘पक्की पश्चिमी हो गई।’’
‘‘जैसे आप खुद नहीं,’’ वह थोड़ा-सा हँसी।
‘‘मगर अन्दर मन तो भारतीय रहता है और ऊपर की त्वचा भी।’’ वह गम्भीर हो आई।
‘‘अच्छा, ऐसा ?’’ राहुल की आखें से दिप उठीं।
‘‘और नहीं तो क्या ? कम से हँसी कम मेरे साथ तो। आपकी तरह थोड़े ही, आये दिन नई-नई अमरीकन लड़कियों का साथ...’’
‘‘यह किसने कहा ? जरूर शिवेश ने कहा होगा।’’
‘‘तो क्या सच नहीं है ? ये मुझसे झूठ क्यों बोलेंगे ?’’
राहुल ने हँसकर कहा, ‘‘शिवेश और झूठ न बोले ? मान गया, अन्दर से अभी भी भारतीय पत्नी हो, पति पर अटूट विश्वास।’’
‘‘गेंद, गेंद’’ विकास ने पीछे से कहा, ‘‘वह बाजार आ गया।’’
राहुल ने गाड़ी रोक दी, ‘‘चलो, इन्हें खरीदवा दें।’’
अंजी ने वाना को लहँगा पहना रखा है। ज़रा हटकर खड़े होकर लहँगे का घेर देख रही है। दाँतों के बीच सुई, हाथ में धागा काटने की छोटी, तेज़ धार की कैंची।
‘‘ज़रा चलो।’’
वाना कमरे में कुछ कदम चलती है। अंजी ध्यान से अपने हाथ के काम को देख रही है। सलमा, सितारे, ज़री का बारीक़-बारीक़ काम, लहँगे का घर, वाना के चलने से हिलोरें-सा लेता है।
‘‘कैसा लगा ? ठीक है न ?’’ वाना ने पूछा।
‘‘ग्राहक की पसन्द,’’ अंजी ने झुककर धागा कतरते हुए कहा, ‘‘मुझे क्या ?’’
‘‘रंग कुछ अजीब-सा नहीं है ? मेरा मतलब है पचास साला मिसेज़ मेहरा के लिए।’’
‘‘उनके रंगरूप के हिसाब से तो ठीक ही है।’’ अंजी कहती है, ‘‘बेटे की शादी में पहनकर नाचने के लिए।’’
दोनों हँसती हैं।
‘‘राहुल ने घर खरीद लिया।’’ वाना ने हलके से कहा, वह सभाँलकर लहँगा उतार रही है।
‘‘कौन-सा ?’’
‘‘वही वाला, सहारा नदी के किनारे।’’
‘‘वह एक अकेले के लिए बड़ा नहीं है ?’’ अंजी कहती है, ‘‘वह तो दो फ़ैमिली होम है।’’
‘‘एक तरफ़ हम लोग रहेंगे,’’ वाना कहती है। अंजी आँखें गोल-गोल घुमाती है।
‘‘यह आँखें क्यों नचा रही हो ?’’
‘‘कैसी आँखें ?’’ अंजी ने अपने चेहरे पर हाथ फेरा।
‘‘यही यक्षगान वाली मुद्रा में।’’
‘‘पता नहीं तुम क्या कह रही हो, मेरी आँखें तो थक गई हैं। उन्हीं को रिलैक्स कर रही हूँ।’’
वाना को पूरा विश्वास है कि अंजी ने उसकी बात पर आँखें नचाई हैं। ज़रूर नचाई हैं, ‘‘हमें कहीं न कहीं तो रहना ही है। युनिवर्सिटी वाले फ्लैट की लीज़ खतम हो रही है। तो हमीं क्यों न किराया दें। राहुल को मदद करें।’’
‘‘राहुल को मदद की कोई ज़रूरत नहीं है। ज़रा बचके रहना, लाड़ो !’’
‘‘क्या मतलब ?’’ वाना नाराज़ हो आई है, अंजी साफ़-साफ़ बात बना रही है।
‘‘अरे, मतलब यही कि वह एक अकेले सन्नाटे के आदी। तुम घर-गृहस्थिन, दो शोर मचानेवाले बच्चे...कहीं आपस में मन-मुटाव....।’’
‘‘वह नहीं होगा,’’ वाना ने विश्वास से कहा।
‘‘यह दोनों कॉलेज से दोस्त हैं। हमारे रहने से राहुल को आराम ही रहेगा।’’ थोड़ा चुप रहने के बाद उसने कहा, ‘‘असल में वैसा घर हमें कहाँ मिलेगा ? ऐसी विशेष जगह। एकदम झील के किनारे। इत्ते-बड़े तीन कमरे, रसोई तुम देखना, स्टेनलेस स्टील और ग्रैनाइट के काउंटर, अलमारियाँ, पारदर्शक। मैं उसमें कटग्लास के बर्तन सजाऊँगी। पीछे खूब बड़ी-सी जगह फूलदानों के लिए, बीच का दरवाजा बन्द रखेंगे तो राहुल को डिस्टर्ब नहीं होगा।’’
वाना का चेहरा खिल उठा है। अंजी थकी-थकी आँखों से उसे एकटक देखती है। उसने लहँगा-टुपट्टा हैंगर पर टाँग दिया है। फिर वह बाँहें फैलाकर उँगलियाँ चमकाती है।
‘‘तुम्हें कमीशन भी तो मिला होगा।’’
‘‘हाँ ! पूरे आठ प्रतिशत,’’ वाना अब हँस रही है, ‘‘नये घर में तुम्हें दावत खिलाऊँगी।’’
‘‘ज़रूर !’’ अंजी ने कहा।
राहुल और शिवेश साथ-साथ बियर पी रहे हैं। राहुल की बैठक में एक नीचा-सा सोफ़ा है। एकदम नरम, मुलायम चमड़े का। सामने शीशे की मेज़, एक ओर लकड़ी की कुर्सी। वाना उसी कुर्सी पर बैठी है, जहाँ वह बैठी है वहाँ से रसोई का एक हिस्सा दीखता है। एकदम खाली-बड़ी खिड़की के पार एक झुका हुआ वृक्ष।
‘‘आज मुझे एजेन्सी से चेक मिल गया,’’ उसने कहा।
‘‘कमीशन का ?’’ राहुल ने पूछा।
‘‘हाँ।’’
‘‘क्या करोगी उसका ?’’ शिवेश ने लाड़ में भरकर पूछा।
‘‘करूँगी क्या ? अपने लिए पाँच हीरोंवाली नाक की लौंग खरीदूँगी।’’
‘‘हीरे की लौंग ?’’ राहुल ने बची हुई बियर बोतल गिलास में डाली। उसका स्वर अचरज से भरा हुआ है।
‘‘हाँ, बहुत दिनों से अरमान।’’
‘‘तो चलो, खरीदवा दें,’’ राहुल ने कहा।
शिवेश की गाड़ी मरम्मत के लिए गई है। राहुल दोनों को अपनी गाड़ी में लेकर आया है, ‘‘यहाँ कहाँ मिलेगी, वह तो कोई स्वदेश से आता-जाता होगा तो मँगवानी पड़ेगी।’’
‘‘वाना’’ शिवेश ने उठते हुए कहा, ‘‘चलो उधर से पर्दो की नाप ले लो।’’
दोनों प्लैटों के बीच सिर्फ़ एक दरवाज़ा है। वह अभी खुला है। नहीं तो एकदम अलग-अलग हैं। बाहर से एक बड़ा सा घर दिखता है। पास आने पर पता चलता है कि खंभों के नीचे जो दूर से एक बड़ा दरवाज़ा-सा लगता है, असल में अलग-अलग दो दरवाज़े हैं, बायें दरवाज़े से घुसकर जो प्लैट मिलता है, वह राहुल का है। बड़ी-सी चौकोर बैठक, खुली-खुली काँच की खिड़कियाँ-उसी से सटी रसोई, एकदम लम्बी, एकदम आधुनिक, चमचमाती, खाली। निश्चय ही वह रोज़ दो-तीन वक्त खाना बनाने वाले के लिए नहीं हैं। उसके सिरे पर सिंक और नल समेत बार है। काउंटर, ऊँचे-ऊँचे दो-तीन स्टूल, काउंटर के पीछे नल, सिंक। बोतलें रखने की जगह। वाना याद करती है कि दिल्ली में दस-बारह दिन राहुल के घर रहकर भी कभी उसे चाय के अतिरिक्त कुछ और पीते नहीं देखा। कैलीफोर्निया में तीन साल रहकर वह कुछ-कुछ पीने लगा है। काउंटर पर स्कॉच की काले लेबिल की आधे गैलन की बोतल रखी है।
ऊधर ही से ऊपर सीढ़ियाँ जाती हैं, ऊपर दो कमरे हैं, एक बड़ा, एक छोटा, कभी से ही संलग्न दो गुसलखाने, सामान रखने की कोठरी, कमरों के आगे बालकनी, आधी घिरी आधी खुली। बीच में झिंझरीदार दीवार-उधर दूसरा फ्लैट। बड़े कमरे की दीवारों पर किताब रखने की शेल्फें हैं, जो अभी खाली हैं। बीच में पढ़ने की मेज़, छोटे-बड़े दो-तीन कम्प्यूटर, टेलीफोन, पर कमरे को संगीत से भर देनेवाले चार स्पीकर। पर वह संगीत इतने धीरे बजता है कि उधर उसकी आवाज़ भी नहीं आती। गज़लें, वाद्य, शास्त्रीय संगीत, नाम जो वाना ने कभी सुने भी नहीं हैं, पर वाना जानती ही कितना है, रसोई, घाट, कुछ फिल्में, अंजी की सोहबत में सिलाई, कढ़ाई, पाकिस्तानी सीरियल। और अब, घर कैसे शो करे, कैसे बेचे। यह नहीं कि उसमें बहुत सफल हुई है। ले-देकर, इतने महीनों में केवल राहुल को बेटे पाया है। वह भी, वाना को लगता है कि शिवेश की दोस्ती के मुआहिजे में राहुल ना नहीं कर सका। उसके अपने लिए एक फ्लैट ही काफ़ी होता। मकान मालिक बनने की उसकी अनिच्छा वाना के आगे स्पष्ट थी।
‘‘नाम ?’’ चुनमुन-उसकी आवाज़ मन्द है, नई दुल्हन के अनुरूप।
‘‘स्कूल का नाम,’’ शिवेश से पूछा।
‘‘स्कूल का नाम भी यही,’’ उसने कहा।
‘‘यही यानी कि चुनमुन ?’’
‘‘हाँ चुन्नी बुआ और मुन्नी बुआ ने मिलकर यही पुकारना शुरू किया,’’ उसका चेहरा फीका होता जा रहा है। अपनी नगण्यता के बोध से।
‘‘खैर, पासपोर्ट में कुछ कायदे का नाम होना चाहिए।’’
‘‘क्या नाम लिखूँ ?’’ शिवेश के हाथ में पेंसिल है।
‘‘जो आपको पसन्द हो,’’ वह नमित है।
‘‘तुम्हें क्या पसन्द है ?’’ शिवेश ने पूछा।
‘‘आप बतायें,’’ उसकी कोई अपनी इच्छा अपनी पसन्द नहीं है।
‘‘सुनीता ?’’ शिवेश कहते हैं।
‘‘नहीं-’’ उसने हलके से कहा।
‘‘कविता...’’
वह चुप है, सोचती हुई, कहाँ चुनमुन, कहाँ सुनीता-कविता, यह कोठरी में रहनेवाली लड़कियों के नाम नहीं होते। वह तो बँगलेवालियों के नाम हैं, जो लड़कियाँ उस अँग्रेज़ी वाले स्कूलों में पढ़ती हैं। जिनकी बुआओं और मौसियों के नाम मोना और लीना और बँगले टैगोर टाउन या गोमती नगर में होते हैं। ‘‘बँसरी,’’ वह धीरे-से कहती है। कुछ तो कहना है।
‘‘क्या कहा ?’’ शिवेश ने ज़ोर से पूछा।
वह सकुच गई। फिर मुस्कराई और कहा, ‘‘कहा तो बँसरी।’’
राहुल कुछ दूर बैठा था, फ़ार्म भरने को तत्पर।
‘‘लो भई,’’ शिवेश ने कहा, ‘‘इनका यही नाम भर दो।’’
वह पूरी पलकें उघाड़कर राहुल को देख रही है। राहुल पूरे ध्यान से पासपोर्ट का फ़ार्म टाइप कर रहा है। उसकी उँगलियों अक्षरों पर जैसे तैर रही हैं। टिप, टिप, टिप। पासपोर्ट बनकर आता है।
वह अपनी तस्वीर देखती है, माँग में सिन्दूर, माथे तक खिंचा हुआ, बड़ी-सी बिन्दिया, छोटे बालों को वश में लाने के लिए ढेर-सी चिमटियाँ। वह अचम्भे से उस तस्वीर को देखती रह जाती है। यह मैं ? श्यामलाल के हाते वाली, गणपतनिवास की चुनमुन ? क्या उस तस्वीर का इस ‘स्वयं’ से कोई सिलसिला, कोई सम्बन्ध है ? जैसे उसे सब एक मरीचिका-सा लगता है, जैसे राहुल का यह बँगला, सामने मखमली लॉन, गोभी जैसे साइज़ के गुलाब के फूल, माली, चौबीसों घंटे का नौकर जंग बहादुर-टीवी, वीसीआर। और कितना सन्नाटा, कैसी खुशबूदार हवा, पासपोर्ट में वह अपना नाम पढ़ती है। वनश्री मिशिर-कितना अजीब ? ऐसा नाम तो कभी सुना ही नहीं।
‘‘यह क्या नाम है ?’’ वह दीन-हीन मुद्रा में हलके से कहती है, न राहुल से, न शिवेश से, न अपने-आप से।
‘‘कुछ और कहा था क्या ?’’ राहुल की आवाज़ खेद से भरी है।
‘‘बँसरी कहा था,’’ उसकी आवाज़ रुआँसी हो आई है। उसे ज़रा-ज़रा सी बात पर रोना आ जाता है।
‘‘श्री किशनजी की बँसरी,’’ शिवेश ने उपहासपूर्ण मुद्रा में कहा।
‘‘छेदों से भरी, फूँकों तो फुक-फुक करनेवाली। कितना पोएटिक नाम दिया राहुल ने। वनश्री-’’
उसे पोएटिक का मतलब नहीं मालूम, चुनमुन से बँसरी बँसरी से वनश्री।
अमरीकन मालकिन ने उसे वाना ही बना दिया। लहँगे फरिये से फ़राक से साड़ी और अबकी स्कर्ट-ब्लाउज़ व क्रिस्टीन की दी हुई, छोटी, कसी काले चमड़े की स्कर्ट और सफ़ेद ब्लाउज़, कालर पर हल्की-सी चुन्नट। बाल एकदम छोटे, सलीक़ेदार, सँवारी भौंहे, लिपिस्टिक-जैसे किसी ने पकी जामुन को कुचल दिया हो। कितने दिन अटपटा लगा था, आगे न पल्ला, न दुपट्टा, जाँघों से लेकर नीचे तक खुली टाँगे, फिर आदत पड़ गई-अच्छा लगने लगा, जैसे किसी के वाना पुकारने पर हाँ कहने की आदत पड़ गई।
शिवेश हँसते हैं-यहाँ के नाम वहाँ नहीं चलनेवाले, कोई बोल भी नहीं सकेगा-वहाँ बालों की ज़बान सीधेसादे नाम की आदी होती है।
जैसे, ‘‘लीसा, टेरीसा, ज़ेन।’’
चुनमुन कुंठित होकर अपनी और भी गहराई में डूब जाती है।
वहाँ, वहाँ के लोग, वहाँ ऐसा-शादी के बाद लगातार सुन रही है। कभी राहुल से, कभी शिवेश से-‘वहाँ’ कितना भयानक और डरावना-सा लगने लगा है। एक बहुत बड़ा अँधेरा, मगर साथ ही साथ, ‘वहाँ’ तो डाकवाला भी मोटरगाड़ी पर आता है। झाड़ूवाली भी। ‘वहाँ’ नौकर-चाकर नहीं होते, सब कुछ आप से आप करना पड़ता है। मगर मशीन होती है, हाय दैया, कैसे चलाएगी झाड़ूवाली मशीन मेरी नन्ही-मुन्नी चिरैया-चुन्नी बुआ उसका बक्स सहेजते हुए सहजादी नाउन से कहती हैं।
सहजादी ऊपर से नीचे अपने धराऊ कपड़ों और गहनों में सजी है। नीचे घाघरे और गुलाबी चुनरी के बीच उसका चेहरा सलोने सौन्दर्य से दिप उठा है। वह चुनमुन की एड़ी में आलता लगाते हुए कहती है, ‘‘अरे ! पंडिज्जी को पूरे बनारस में चुनमुन बिटिया के लिए दुलहा नहीं जुटा कि सात समुन्दर पार भेज रहे हैं।’’
‘‘अरे दुलहे को देखना,’’ चुन्नी बुआ के कामकाजी कड़े हाथ रेशम की साड़ी को दुबारा-तिबारा तहाते हुए सलहा रहे हैं, ‘‘एकदम कार्तिकेय ! विद्यामान ! कहाँ जुटता ऐसा दुलहा यहाँ देस में ?’’
छुटकी ने उछलते हुए कहा था ‘‘दिदिया, देख ! देख ले न खिड़की से ! अपना दुलहा।’’ खाना-पीना रिश्तेदारी में हुआ था, वहीं जहाँ शादी में शिवेश की बहन ने चुनमुन को देखा था और पसन्द कर लिया था। चुनमुन वह बात भूल भी गई थी। शिवेश को आने में देर लगी थी-साल-डेढ़ साल। चुन्नी बुआ उसे बिना बता लाये फिर रिश्तेदारों में ले गई थीं, किसी ‘कारज’ में। उसी भीड़-भड़क्के, गपड़चौथ में शिवेश ने चुनमुन को देखा, वह अपनी इकलौती बढ़िया कोकाकोला रंग की नेपाली नायलौन की साड़ी पहने थी, काला ब्लाउज़, छोटी-छोटी बाँहें, छुटकी ने मैरून बिन्दी माथे पर सटा दी थी। चुननुन सारी शाम, रात देर तक और मामियों और बहनों के साथ काम में व्यस्थ रही थी। अपने भविष्य की दिशा के बारे में अनभिज्ञ, छुटकी ने उसे धक्का दिया था, चुनमुन ने बाहर झाँका, नीचे घरवालों की गाड़ी खड़ी थी, उसका हरा दरवाज़ा खुला था, उसके पास ही पिताजी खड़े थे। चुनमुन ने ‘राहुल’ की एक झलक देखी-लम्बा, क़द सौम्य चेहरा। दरवाज़ा बन्द हुआ और शायद उधर से प्रणाम के उत्तर में पिताजी ने अपने गंभीर, मृदुल स्वर में कहा, ‘‘यशस्वी भव !’’
कभी-कभी पंडित त्र्यम्बक पांडेय की जिह्ना पर सरस्वती आ विराजती है। वह शाम भी वैसी ही रही होगी। पर्दों का नाम लेकर राहुल की गाड़ी की पिछली सीट पर बैठी-बैठी वह सोचती है। नहीं तो इतनी-सी उम्र में इतना नाम, इतनी इज़्ज़त। पैसा। क्या नहीं है राहुल के पास। उस समय क्या मालूम था कि शिवेश गाड़ी में बैठ चुके हैं। छुटकी के कहने और स्वयं खिड़की से झाँकने के दो क्षणों में। और इन्हें देखो। वह शिवेश के साथ बेईमानी कर रही है। इसका उसे पूरा-पूरा पता है। कॉलेज में दोनों साथ-साथ थे, दोनों ने साथ-साथ डाक्टरेट की, और यह हैं कि कहीं पढ़ाने तक की नौकरी नहीं मिलती। लेक्चरर तक नहीं। इतने दिनों से पीट रहे हैं और जूनियर साइंटिस्ट ही बने हुए हैं। जबसे इस शहर में नववधू बनकर आई है कितने परिवर्तन देखे हैं। आसपास के सभी लोग एक होड़ में, एक पागल दौड़ में रत हैं। छोटे मकान से बड़ा मकान, एक गाड़ी से दो गाड़ियाँ; सस्ते से महँगा ही महँगा। छुट्टियाँ बीतती हैं, स्पेन में, हवाई में, मैक्सिकों में। रामबाग पैलेस और कोवलम में। हाथों की उँगलियों में बड़े-बड़े हीरे झमकाती हुई वे सबकी-सब उसकी एकदम उपेक्षा करती हैं।
‘‘जलती हैं सालियाँ, ‘‘शिवेश कहता है।
‘‘वे सब क्यों जलेंगी ? और मुझसे ?’’ वह भोलेपन से पूछती।
‘‘इस चेहरे से।’’ शिवेश ने उसे अपनी ओर खींच लिया। शिवेश के होठ उसे कुचल रहे हैं। लोभी हाथ उसे मसल रहे हैं-वाना शिवेश के भार को चुपचाप बरदाश्त करती है। यही तो है यहाँ की नियति। वहाँ से यहाँ पहुँचने का मूल्य। हरेक चीज़ का मूल्य चुकाना पड़ता है। तुम कुछ भी, चुपचाप बिना किसी के जाने, दुकान से कुछ भी उठाकर थैले में नहीं छुपा सकती।
‘‘बस, बस, बस,’’ वह एकदम छटपटा उठी है। शिवेश की उपस्थिति उसे असह्य लगने लगती है। वह हथेली से शिवेश को ठेलती है। शिवेश हट जाते हैं। वह उठकर बैठ जाती है और लम्बी-लम्बी साँसें हिचकियों की तरह बाहर आती हैं।
‘‘क्या हुआ ?’’
‘‘जी घबरा रहा है।’’
‘‘पानी दूँ ?’’
‘‘नहीं ।’’
शिवेश का पहला खुर्राटा कमरे में गूँजने लगता है। वह नाइटगाउन नीचे खींच कर पैर ढकती है। बालकनी पर राहुल के कमरे की बत्ती का उजाला है। वाना उसे खाली-खाली आँखों से देखती है। फिर थकान से उसकी पलकें झपक जाती हैं। वह जब दुबारा आँख खोलती है तो बाहर अँधेरा है। बत्ती बुझ चुकी है। शायद हवा ने जोर पकड़ लिया होगा, वह लहरों को पत्थर की दीवार से आ-आकर टकराये हुए सुनती है। यह सब आए दिन-जब भी शिवेश की इच्छा हो तब ! चाहे वह थकी हो, सिर दुख रहा हो।
‘‘अब मुझसे और बरदाश्त नहीं होता,’’ वाना कहती है। उसके शब्द वातावरण में खो गये हैं।
पर आगे कोई रास्ता नहीं है।
नदी में डूबकर मर जाने का समय यह नहीं है।
वाना उठकर बैठ गई है। घुटनों को बाँहों से घेरे वह मन-ही-मन अपने जीवन के सुख दोहराती है, दो-दो बेटे, सुन्दर, स्वस्थ, एकाग्र रूप से चाहनेवाले शिवेश। वह स्वयं स्वस्थ है। कोई बीमारी दुख नहीं, कितना अच्छा घर है, अंजी है, राहुल हैं, पर.... मन में और भी इच्छाएँ हैं। कितनी ढेर सारी इच्छाएँ जो दिन पर दिन बढ़ती ही जाती हैं। अपना निजी घर, अपनी गाड़ी, जो आये दिन धोखा न दे, समाज में सम्मान। शिवेश की अच्छी नौकरी। यह नहीं कि हर साल नये कांट्रैक्ट का इंतजार। इस विभाग से उस विभाग तक। इतना पैसा कि किसी चीज का दाम न पूछना पड़े। यात्राएँ, जैसे कि और लोग करते हैं, पैलेस ऑन व्हील, राजस्थान, कर्नाटक, केरल, कॉसल, लन्दन ! होनो लुलू...
यह सब शेखचिल्ली जैसे विचार हैं क्या ? पर औरों को उपलब्ध हैं, एयरकंडीशन कम्पनी चलानेवालों को पर्दे और कुंडीवाले सप्लाई करनेवालों को, पेट्रोल पम्प और सुविधा स्टोर चलानेवालों के बच्चों और पत्नियों को। मगर शिवेश के प्रति विमुख होने का यह असली कारण नहीं है। वाना जानती है कि इसके मूल में क्या है, पर वह होठों तक कैसे लाये ? एक बार अगर उसने अपने से कह दिया तो फिर बन्द रास्ते के अन्त में दीवार पर सर पटकने के अलावा और कोई चारा नहीं बचेगा। और उससे होगा भी क्या, आहत और लहुलूहान होने के अतिरिक्त। चुप रहो चुनमुन..बँसरी...वनश्री...वाना...सो जाओ।
वह जैसे अपने आप को स्वयं थपकियाँ देने लगती है।
बगल में शिवेश, पति की समगति में खुर्र-खुर्र खर्राटे जारी रहते हैं। इस बड़े शयनकक्ष से सटे हुए दोनों कमरों में बेटे, विकास और आकाश बच्चों की गहरी नींद में डूबे हैं। सहसा अपने कमरे में भी अँधेरा हो जाता है। राहुल ने अपने बरामदे की बत्ती, जो उसके आने तक जलती रहती है, बुझा दी है। वही तिरछी होकर इस कमरे के शीशे पर उजली-उजली परछाइयाँ डालती रहती है। सब कुछ साफ-सुथरा, तरतीबवार, शान्त, स्थिर। घर के पिछवाड़े बगीचा, उसके बाद पुरानी घिसी-सीढ़ियाँ, और सीढ़ियों का हलकी-हलकी लहरों से छूता सहारा नदी का पानी, नीला और गहरा, वाना जैसे उठकर अँधेरे घर में चक्कर लगा रही है, पर चक्कर लगाने की आवश्यकता नहीं, सब कुछ, एक-एक आकार मन की तख्ती पर लिखा हुआ है। रसोई, झकाझक साफ, प्लेटें-कटोरियाँ, अलमारी में अपनी-अपनी जगह। सब कुछ धुला-पुँछा। कमरों में अलमारियों में कपड़े, साफ करीने से तहाये हुए। तौलियों की गड्डी ऊपर के खाने में चादरें बीच के खाने में, तकियों के गिलाफ और ओढ़ने की चादर, कम्बल। दरवाजा खोलने पर सूखे हुए फूलों की खुशबू आती है। उधर यानी इस घर की दीवार के उस पार; जहाँ राहुल रहता है, सोने के कमरे में एक अकेला तंग-सा लम्बा पलंग। पास में दराज वाली मेज, टेलीफोन, और राहुल की अपनी हाथ-घड़ी। तुम्हें कैसे मालूम कि राहुल रात में अपनी घड़ी कहाँ उतारकर सोता है ? बहुत सीधा-सादा उत्तर, वह एक बार जल्दी में घड़ी भूल गया था, और विभाग से उसका फोन आया था कि वह ताहिर कुरैशी के हाथ उसकी घड़ी भेज दे। यह प्रबन्ध तो दोनों की सुविधा के लिए हुआ था। शिवेश की आय और नौकरी ठिकाने से चल रही थी, अपनी भी कुछ न कुछ आमदनी हो ही रही थी। विश्वविद्यालय का घर तीन साल के बाद छोड़ना था। उस अवधि में कुछ महीने बाकी थे। यह सब कुछ नया था। ब्रजनन्दन और नन्दनन्दन सम्मिलित घर में दो-तीन साल रहे होंगे। सारी मशीनें, सारी दीवारें, सब नई थीं। बच्चों का स्कूल भी अच्छा था। शहर से बस आती-जाती रहती थी, मगर विश्वविद्यालय दूर है। राहुल ने धीमें से कहा था, ‘‘दूर तो है मगर...’’वाना कहते-कहते रुक गई। राहुल ने ध्यान से उसे दुबारा देखा, संकोच से ताका। बीच में छोड़कर जैसे वाना के पश्चिमी ताने-बाने में वह पुरानी, बनारस के साक्षात्कार की वनश्री झाँक उठी, शरमाई-शरमाई आँखें, आधे खुले होठ, एक ओर को हलका-सा झुका सर। उसकी साड़ी मोटे सूत की थी, गंगा में धुलते-धुलते उसकी सफेदी मटियाली हो गई थी। सुबह-सुबह के उजियाले में, तुलसी घाट की सीढ़ियों पर खड़ी वनश्री ने अपने को कब यह अमरीकी वाना बना लिया ? वह उसे उत्सुक उत्कंठित दृष्टि से देख रही थी...अब इस समय अपनी एजेन्सी की यूनीफार्म पहने थी। काली स्कर्ट, सफेद ब्लाउज़ एकदम छोटे-कटे, बाल, बाल तो उसके बनारस में भी छोटे थे, जैसे लम्बी बीमारी के बाद झड़ जाते हैं। यह बाल सुरुचि से कटे और बने थे। चेहरा बना-ठना, एक मुखौटा-सा, पलकों पर हलका-सा रंग, हलकी भौंहें, कानों में एक-एक शायद नक़ली मोती, जो उसकी लबों पर खूब फब रहा था। राहुल के मन में उठा कि वह वाना को अपनी बाँहों में खींच ले, और धीरे-धीरे कोमलता से उसके होठों को चूमता जाए, चूमता रहे, गुलाब की पाँखुड़ी जैसे उसके अधखुले होठ। इस वक्त सिर्फ इतना ही, वह स्कर्ट ब्लाउज़ में सतर सीधी उसकी बाँहों में बँधी रहे, बसन्ती फूलोंवाली चमेली की तला की तरह, और वह उसे चूमता रहे। सहारा नदी की लहरें धीरे-धीरे तट से टकराती रहें, नीचे जंगल हो आये फूल अपनी खुशबू बिखेरते रहें। पर यह सब कुछ नहीं हुआ। एक निमिष मात्र का पागलपन नदी के उस पार (शाम के झुटपुट) में राजभवन की सारी बत्तियाँ जगमगा उठी थीं, वाना अभी भी, बालकनी का जंगला पकड़कर खड़ी थी। छोटा-सा तूफान राहुल के अन्दर उठा और उसे झकझोरता हुआ थम गया। इसका उसे रंचमात्र भी अनुमान न हुआ होगा। ‘‘मुझे सोचने का समय चाहिए’’ राहुल ने अपने संयत, नापतौल कर कदम रखनेवाले लहजे में कहा। उसने वाना को एकदम कुम्हला जाते हुए देखा। मुरझाती हुई चमेली के फूलों की बसन्ती लता-उसकी आँखें झुक गईं थीं, जैसे सारे दिन की थकान उसके चेहरे पर उतर आई।
‘‘ठीक है,’’ वाना ने कहा, ‘‘मगर देर तक इन्तज़ार मत करना’’ उसने अँग्रेजी में कहा। वाना की अँग्रेज़ी भी नाम और पहनावे के अनुरूप ढल गई है शत-प्रतिशत अमेरिकन। फोन पर सुनो तो पहचान भी न सको कि यह वनश्री है, बनारसवाली वनश्री। आकाश-विकास की अम्माँ, शिवेश मिशिर की बीवी। ‘‘ओके,’’ राहुल ने कहा। दोनों बालकनी से हट आये। नीचे आकर वाना ने बच्चों को पुकारा, ‘‘बच्चों, चलो घर चलना है।’’ दोनों लड़के घर के सामने गेंद से खेलने में व्यस्त थे।
‘‘यह गेंद कहाँ से मिली ?’’ वाना ने पूछा।
‘‘अन्दर पड़ी थी’’ विकास ने कहा, ‘‘ले लें ?’’
‘‘नहीं जहाँ पड़ी थी, वहीं रख दो,’’ वाना ने कहा।
‘‘पर मौम,’’ विकास ने ठुनकते हुए कहा, ‘‘घर तो खाली है।’’
‘‘तो क्या हुआ,’’ वाना ने पूरी सख्ती से कहा।
विकास ने खुले दरवाज़े से गेंद अन्दर उछाल दी। ‘‘चलो तुम्हें नई गेंद लिवा दें।’’ राहुल ने विकास की नाक पर हलके से ठुनका दिया।
‘‘तुम जबसे आये हो, बच्चों को बिगाड़ रहे हो,’’ वनश्री ने कहा।
‘‘बच्चे तो लाड़ करने के लिए नहीं होते हैं ?’’ आकाश-विकास गाड़ी की पिछली सीट पर बैठने लगे। वनश्री, नहीं अब वाना, आकर साथवाली सीट पर बैठ गई। राहुल ने गाड़ी को घर की तरफ मोड़ दिया।
‘‘यह नई गाड़ी ऐसे चलती है जैसे पानी पर तैर रही हो।’’ वाना बोली, उत्तर में राहुल ने कहा, (प्रश्न नहीं केवल टिप्पणी) ‘‘साड़ी पहनना एकदम छोड़ दिया ?’’
वाना ने छोटी स्कर्ट को नीचे खींचने की कोशिश की, ‘‘सब पुरानी हो गई हैं, फटफुट गईं। अब इसी में आराम रहता है।’’
‘‘पक्की पश्चिमी हो गई।’’
‘‘जैसे आप खुद नहीं,’’ वह थोड़ा-सा हँसी।
‘‘मगर अन्दर मन तो भारतीय रहता है और ऊपर की त्वचा भी।’’ वह गम्भीर हो आई।
‘‘अच्छा, ऐसा ?’’ राहुल की आखें से दिप उठीं।
‘‘और नहीं तो क्या ? कम से हँसी कम मेरे साथ तो। आपकी तरह थोड़े ही, आये दिन नई-नई अमरीकन लड़कियों का साथ...’’
‘‘यह किसने कहा ? जरूर शिवेश ने कहा होगा।’’
‘‘तो क्या सच नहीं है ? ये मुझसे झूठ क्यों बोलेंगे ?’’
राहुल ने हँसकर कहा, ‘‘शिवेश और झूठ न बोले ? मान गया, अन्दर से अभी भी भारतीय पत्नी हो, पति पर अटूट विश्वास।’’
‘‘गेंद, गेंद’’ विकास ने पीछे से कहा, ‘‘वह बाजार आ गया।’’
राहुल ने गाड़ी रोक दी, ‘‘चलो, इन्हें खरीदवा दें।’’
अंजी ने वाना को लहँगा पहना रखा है। ज़रा हटकर खड़े होकर लहँगे का घेर देख रही है। दाँतों के बीच सुई, हाथ में धागा काटने की छोटी, तेज़ धार की कैंची।
‘‘ज़रा चलो।’’
वाना कमरे में कुछ कदम चलती है। अंजी ध्यान से अपने हाथ के काम को देख रही है। सलमा, सितारे, ज़री का बारीक़-बारीक़ काम, लहँगे का घर, वाना के चलने से हिलोरें-सा लेता है।
‘‘कैसा लगा ? ठीक है न ?’’ वाना ने पूछा।
‘‘ग्राहक की पसन्द,’’ अंजी ने झुककर धागा कतरते हुए कहा, ‘‘मुझे क्या ?’’
‘‘रंग कुछ अजीब-सा नहीं है ? मेरा मतलब है पचास साला मिसेज़ मेहरा के लिए।’’
‘‘उनके रंगरूप के हिसाब से तो ठीक ही है।’’ अंजी कहती है, ‘‘बेटे की शादी में पहनकर नाचने के लिए।’’
दोनों हँसती हैं।
‘‘राहुल ने घर खरीद लिया।’’ वाना ने हलके से कहा, वह सभाँलकर लहँगा उतार रही है।
‘‘कौन-सा ?’’
‘‘वही वाला, सहारा नदी के किनारे।’’
‘‘वह एक अकेले के लिए बड़ा नहीं है ?’’ अंजी कहती है, ‘‘वह तो दो फ़ैमिली होम है।’’
‘‘एक तरफ़ हम लोग रहेंगे,’’ वाना कहती है। अंजी आँखें गोल-गोल घुमाती है।
‘‘यह आँखें क्यों नचा रही हो ?’’
‘‘कैसी आँखें ?’’ अंजी ने अपने चेहरे पर हाथ फेरा।
‘‘यही यक्षगान वाली मुद्रा में।’’
‘‘पता नहीं तुम क्या कह रही हो, मेरी आँखें तो थक गई हैं। उन्हीं को रिलैक्स कर रही हूँ।’’
वाना को पूरा विश्वास है कि अंजी ने उसकी बात पर आँखें नचाई हैं। ज़रूर नचाई हैं, ‘‘हमें कहीं न कहीं तो रहना ही है। युनिवर्सिटी वाले फ्लैट की लीज़ खतम हो रही है। तो हमीं क्यों न किराया दें। राहुल को मदद करें।’’
‘‘राहुल को मदद की कोई ज़रूरत नहीं है। ज़रा बचके रहना, लाड़ो !’’
‘‘क्या मतलब ?’’ वाना नाराज़ हो आई है, अंजी साफ़-साफ़ बात बना रही है।
‘‘अरे, मतलब यही कि वह एक अकेले सन्नाटे के आदी। तुम घर-गृहस्थिन, दो शोर मचानेवाले बच्चे...कहीं आपस में मन-मुटाव....।’’
‘‘वह नहीं होगा,’’ वाना ने विश्वास से कहा।
‘‘यह दोनों कॉलेज से दोस्त हैं। हमारे रहने से राहुल को आराम ही रहेगा।’’ थोड़ा चुप रहने के बाद उसने कहा, ‘‘असल में वैसा घर हमें कहाँ मिलेगा ? ऐसी विशेष जगह। एकदम झील के किनारे। इत्ते-बड़े तीन कमरे, रसोई तुम देखना, स्टेनलेस स्टील और ग्रैनाइट के काउंटर, अलमारियाँ, पारदर्शक। मैं उसमें कटग्लास के बर्तन सजाऊँगी। पीछे खूब बड़ी-सी जगह फूलदानों के लिए, बीच का दरवाजा बन्द रखेंगे तो राहुल को डिस्टर्ब नहीं होगा।’’
वाना का चेहरा खिल उठा है। अंजी थकी-थकी आँखों से उसे एकटक देखती है। उसने लहँगा-टुपट्टा हैंगर पर टाँग दिया है। फिर वह बाँहें फैलाकर उँगलियाँ चमकाती है।
‘‘तुम्हें कमीशन भी तो मिला होगा।’’
‘‘हाँ ! पूरे आठ प्रतिशत,’’ वाना अब हँस रही है, ‘‘नये घर में तुम्हें दावत खिलाऊँगी।’’
‘‘ज़रूर !’’ अंजी ने कहा।
राहुल और शिवेश साथ-साथ बियर पी रहे हैं। राहुल की बैठक में एक नीचा-सा सोफ़ा है। एकदम नरम, मुलायम चमड़े का। सामने शीशे की मेज़, एक ओर लकड़ी की कुर्सी। वाना उसी कुर्सी पर बैठी है, जहाँ वह बैठी है वहाँ से रसोई का एक हिस्सा दीखता है। एकदम खाली-बड़ी खिड़की के पार एक झुका हुआ वृक्ष।
‘‘आज मुझे एजेन्सी से चेक मिल गया,’’ उसने कहा।
‘‘कमीशन का ?’’ राहुल ने पूछा।
‘‘हाँ।’’
‘‘क्या करोगी उसका ?’’ शिवेश ने लाड़ में भरकर पूछा।
‘‘करूँगी क्या ? अपने लिए पाँच हीरोंवाली नाक की लौंग खरीदूँगी।’’
‘‘हीरे की लौंग ?’’ राहुल ने बची हुई बियर बोतल गिलास में डाली। उसका स्वर अचरज से भरा हुआ है।
‘‘हाँ, बहुत दिनों से अरमान।’’
‘‘तो चलो, खरीदवा दें,’’ राहुल ने कहा।
शिवेश की गाड़ी मरम्मत के लिए गई है। राहुल दोनों को अपनी गाड़ी में लेकर आया है, ‘‘यहाँ कहाँ मिलेगी, वह तो कोई स्वदेश से आता-जाता होगा तो मँगवानी पड़ेगी।’’
‘‘वाना’’ शिवेश ने उठते हुए कहा, ‘‘चलो उधर से पर्दो की नाप ले लो।’’
दोनों प्लैटों के बीच सिर्फ़ एक दरवाज़ा है। वह अभी खुला है। नहीं तो एकदम अलग-अलग हैं। बाहर से एक बड़ा सा घर दिखता है। पास आने पर पता चलता है कि खंभों के नीचे जो दूर से एक बड़ा दरवाज़ा-सा लगता है, असल में अलग-अलग दो दरवाज़े हैं, बायें दरवाज़े से घुसकर जो प्लैट मिलता है, वह राहुल का है। बड़ी-सी चौकोर बैठक, खुली-खुली काँच की खिड़कियाँ-उसी से सटी रसोई, एकदम लम्बी, एकदम आधुनिक, चमचमाती, खाली। निश्चय ही वह रोज़ दो-तीन वक्त खाना बनाने वाले के लिए नहीं हैं। उसके सिरे पर सिंक और नल समेत बार है। काउंटर, ऊँचे-ऊँचे दो-तीन स्टूल, काउंटर के पीछे नल, सिंक। बोतलें रखने की जगह। वाना याद करती है कि दिल्ली में दस-बारह दिन राहुल के घर रहकर भी कभी उसे चाय के अतिरिक्त कुछ और पीते नहीं देखा। कैलीफोर्निया में तीन साल रहकर वह कुछ-कुछ पीने लगा है। काउंटर पर स्कॉच की काले लेबिल की आधे गैलन की बोतल रखी है।
ऊधर ही से ऊपर सीढ़ियाँ जाती हैं, ऊपर दो कमरे हैं, एक बड़ा, एक छोटा, कभी से ही संलग्न दो गुसलखाने, सामान रखने की कोठरी, कमरों के आगे बालकनी, आधी घिरी आधी खुली। बीच में झिंझरीदार दीवार-उधर दूसरा फ्लैट। बड़े कमरे की दीवारों पर किताब रखने की शेल्फें हैं, जो अभी खाली हैं। बीच में पढ़ने की मेज़, छोटे-बड़े दो-तीन कम्प्यूटर, टेलीफोन, पर कमरे को संगीत से भर देनेवाले चार स्पीकर। पर वह संगीत इतने धीरे बजता है कि उधर उसकी आवाज़ भी नहीं आती। गज़लें, वाद्य, शास्त्रीय संगीत, नाम जो वाना ने कभी सुने भी नहीं हैं, पर वाना जानती ही कितना है, रसोई, घाट, कुछ फिल्में, अंजी की सोहबत में सिलाई, कढ़ाई, पाकिस्तानी सीरियल। और अब, घर कैसे शो करे, कैसे बेचे। यह नहीं कि उसमें बहुत सफल हुई है। ले-देकर, इतने महीनों में केवल राहुल को बेटे पाया है। वह भी, वाना को लगता है कि शिवेश की दोस्ती के मुआहिजे में राहुल ना नहीं कर सका। उसके अपने लिए एक फ्लैट ही काफ़ी होता। मकान मालिक बनने की उसकी अनिच्छा वाना के आगे स्पष्ट थी।
‘‘नाम ?’’ चुनमुन-उसकी आवाज़ मन्द है, नई दुल्हन के अनुरूप।
‘‘स्कूल का नाम,’’ शिवेश से पूछा।
‘‘स्कूल का नाम भी यही,’’ उसने कहा।
‘‘यही यानी कि चुनमुन ?’’
‘‘हाँ चुन्नी बुआ और मुन्नी बुआ ने मिलकर यही पुकारना शुरू किया,’’ उसका चेहरा फीका होता जा रहा है। अपनी नगण्यता के बोध से।
‘‘खैर, पासपोर्ट में कुछ कायदे का नाम होना चाहिए।’’
‘‘क्या नाम लिखूँ ?’’ शिवेश के हाथ में पेंसिल है।
‘‘जो आपको पसन्द हो,’’ वह नमित है।
‘‘तुम्हें क्या पसन्द है ?’’ शिवेश ने पूछा।
‘‘आप बतायें,’’ उसकी कोई अपनी इच्छा अपनी पसन्द नहीं है।
‘‘सुनीता ?’’ शिवेश कहते हैं।
‘‘नहीं-’’ उसने हलके से कहा।
‘‘कविता...’’
वह चुप है, सोचती हुई, कहाँ चुनमुन, कहाँ सुनीता-कविता, यह कोठरी में रहनेवाली लड़कियों के नाम नहीं होते। वह तो बँगलेवालियों के नाम हैं, जो लड़कियाँ उस अँग्रेज़ी वाले स्कूलों में पढ़ती हैं। जिनकी बुआओं और मौसियों के नाम मोना और लीना और बँगले टैगोर टाउन या गोमती नगर में होते हैं। ‘‘बँसरी,’’ वह धीरे-से कहती है। कुछ तो कहना है।
‘‘क्या कहा ?’’ शिवेश ने ज़ोर से पूछा।
वह सकुच गई। फिर मुस्कराई और कहा, ‘‘कहा तो बँसरी।’’
राहुल कुछ दूर बैठा था, फ़ार्म भरने को तत्पर।
‘‘लो भई,’’ शिवेश ने कहा, ‘‘इनका यही नाम भर दो।’’
वह पूरी पलकें उघाड़कर राहुल को देख रही है। राहुल पूरे ध्यान से पासपोर्ट का फ़ार्म टाइप कर रहा है। उसकी उँगलियों अक्षरों पर जैसे तैर रही हैं। टिप, टिप, टिप। पासपोर्ट बनकर आता है।
वह अपनी तस्वीर देखती है, माँग में सिन्दूर, माथे तक खिंचा हुआ, बड़ी-सी बिन्दिया, छोटे बालों को वश में लाने के लिए ढेर-सी चिमटियाँ। वह अचम्भे से उस तस्वीर को देखती रह जाती है। यह मैं ? श्यामलाल के हाते वाली, गणपतनिवास की चुनमुन ? क्या उस तस्वीर का इस ‘स्वयं’ से कोई सिलसिला, कोई सम्बन्ध है ? जैसे उसे सब एक मरीचिका-सा लगता है, जैसे राहुल का यह बँगला, सामने मखमली लॉन, गोभी जैसे साइज़ के गुलाब के फूल, माली, चौबीसों घंटे का नौकर जंग बहादुर-टीवी, वीसीआर। और कितना सन्नाटा, कैसी खुशबूदार हवा, पासपोर्ट में वह अपना नाम पढ़ती है। वनश्री मिशिर-कितना अजीब ? ऐसा नाम तो कभी सुना ही नहीं।
‘‘यह क्या नाम है ?’’ वह दीन-हीन मुद्रा में हलके से कहती है, न राहुल से, न शिवेश से, न अपने-आप से।
‘‘कुछ और कहा था क्या ?’’ राहुल की आवाज़ खेद से भरी है।
‘‘बँसरी कहा था,’’ उसकी आवाज़ रुआँसी हो आई है। उसे ज़रा-ज़रा सी बात पर रोना आ जाता है।
‘‘श्री किशनजी की बँसरी,’’ शिवेश ने उपहासपूर्ण मुद्रा में कहा।
‘‘छेदों से भरी, फूँकों तो फुक-फुक करनेवाली। कितना पोएटिक नाम दिया राहुल ने। वनश्री-’’
उसे पोएटिक का मतलब नहीं मालूम, चुनमुन से बँसरी बँसरी से वनश्री।
अमरीकन मालकिन ने उसे वाना ही बना दिया। लहँगे फरिये से फ़राक से साड़ी और अबकी स्कर्ट-ब्लाउज़ व क्रिस्टीन की दी हुई, छोटी, कसी काले चमड़े की स्कर्ट और सफ़ेद ब्लाउज़, कालर पर हल्की-सी चुन्नट। बाल एकदम छोटे, सलीक़ेदार, सँवारी भौंहे, लिपिस्टिक-जैसे किसी ने पकी जामुन को कुचल दिया हो। कितने दिन अटपटा लगा था, आगे न पल्ला, न दुपट्टा, जाँघों से लेकर नीचे तक खुली टाँगे, फिर आदत पड़ गई-अच्छा लगने लगा, जैसे किसी के वाना पुकारने पर हाँ कहने की आदत पड़ गई।
शिवेश हँसते हैं-यहाँ के नाम वहाँ नहीं चलनेवाले, कोई बोल भी नहीं सकेगा-वहाँ बालों की ज़बान सीधेसादे नाम की आदी होती है।
जैसे, ‘‘लीसा, टेरीसा, ज़ेन।’’
चुनमुन कुंठित होकर अपनी और भी गहराई में डूब जाती है।
वहाँ, वहाँ के लोग, वहाँ ऐसा-शादी के बाद लगातार सुन रही है। कभी राहुल से, कभी शिवेश से-‘वहाँ’ कितना भयानक और डरावना-सा लगने लगा है। एक बहुत बड़ा अँधेरा, मगर साथ ही साथ, ‘वहाँ’ तो डाकवाला भी मोटरगाड़ी पर आता है। झाड़ूवाली भी। ‘वहाँ’ नौकर-चाकर नहीं होते, सब कुछ आप से आप करना पड़ता है। मगर मशीन होती है, हाय दैया, कैसे चलाएगी झाड़ूवाली मशीन मेरी नन्ही-मुन्नी चिरैया-चुन्नी बुआ उसका बक्स सहेजते हुए सहजादी नाउन से कहती हैं।
सहजादी ऊपर से नीचे अपने धराऊ कपड़ों और गहनों में सजी है। नीचे घाघरे और गुलाबी चुनरी के बीच उसका चेहरा सलोने सौन्दर्य से दिप उठा है। वह चुनमुन की एड़ी में आलता लगाते हुए कहती है, ‘‘अरे ! पंडिज्जी को पूरे बनारस में चुनमुन बिटिया के लिए दुलहा नहीं जुटा कि सात समुन्दर पार भेज रहे हैं।’’
‘‘अरे दुलहे को देखना,’’ चुन्नी बुआ के कामकाजी कड़े हाथ रेशम की साड़ी को दुबारा-तिबारा तहाते हुए सलहा रहे हैं, ‘‘एकदम कार्तिकेय ! विद्यामान ! कहाँ जुटता ऐसा दुलहा यहाँ देस में ?’’
छुटकी ने उछलते हुए कहा था ‘‘दिदिया, देख ! देख ले न खिड़की से ! अपना दुलहा।’’ खाना-पीना रिश्तेदारी में हुआ था, वहीं जहाँ शादी में शिवेश की बहन ने चुनमुन को देखा था और पसन्द कर लिया था। चुनमुन वह बात भूल भी गई थी। शिवेश को आने में देर लगी थी-साल-डेढ़ साल। चुन्नी बुआ उसे बिना बता लाये फिर रिश्तेदारों में ले गई थीं, किसी ‘कारज’ में। उसी भीड़-भड़क्के, गपड़चौथ में शिवेश ने चुनमुन को देखा, वह अपनी इकलौती बढ़िया कोकाकोला रंग की नेपाली नायलौन की साड़ी पहने थी, काला ब्लाउज़, छोटी-छोटी बाँहें, छुटकी ने मैरून बिन्दी माथे पर सटा दी थी। चुननुन सारी शाम, रात देर तक और मामियों और बहनों के साथ काम में व्यस्थ रही थी। अपने भविष्य की दिशा के बारे में अनभिज्ञ, छुटकी ने उसे धक्का दिया था, चुनमुन ने बाहर झाँका, नीचे घरवालों की गाड़ी खड़ी थी, उसका हरा दरवाज़ा खुला था, उसके पास ही पिताजी खड़े थे। चुनमुन ने ‘राहुल’ की एक झलक देखी-लम्बा, क़द सौम्य चेहरा। दरवाज़ा बन्द हुआ और शायद उधर से प्रणाम के उत्तर में पिताजी ने अपने गंभीर, मृदुल स्वर में कहा, ‘‘यशस्वी भव !’’
कभी-कभी पंडित त्र्यम्बक पांडेय की जिह्ना पर सरस्वती आ विराजती है। वह शाम भी वैसी ही रही होगी। पर्दों का नाम लेकर राहुल की गाड़ी की पिछली सीट पर बैठी-बैठी वह सोचती है। नहीं तो इतनी-सी उम्र में इतना नाम, इतनी इज़्ज़त। पैसा। क्या नहीं है राहुल के पास। उस समय क्या मालूम था कि शिवेश गाड़ी में बैठ चुके हैं। छुटकी के कहने और स्वयं खिड़की से झाँकने के दो क्षणों में। और इन्हें देखो। वह शिवेश के साथ बेईमानी कर रही है। इसका उसे पूरा-पूरा पता है। कॉलेज में दोनों साथ-साथ थे, दोनों ने साथ-साथ डाक्टरेट की, और यह हैं कि कहीं पढ़ाने तक की नौकरी नहीं मिलती। लेक्चरर तक नहीं। इतने दिनों से पीट रहे हैं और जूनियर साइंटिस्ट ही बने हुए हैं। जबसे इस शहर में नववधू बनकर आई है कितने परिवर्तन देखे हैं। आसपास के सभी लोग एक होड़ में, एक पागल दौड़ में रत हैं। छोटे मकान से बड़ा मकान, एक गाड़ी से दो गाड़ियाँ; सस्ते से महँगा ही महँगा। छुट्टियाँ बीतती हैं, स्पेन में, हवाई में, मैक्सिकों में। रामबाग पैलेस और कोवलम में। हाथों की उँगलियों में बड़े-बड़े हीरे झमकाती हुई वे सबकी-सब उसकी एकदम उपेक्षा करती हैं।
‘‘जलती हैं सालियाँ, ‘‘शिवेश कहता है।
‘‘वे सब क्यों जलेंगी ? और मुझसे ?’’ वह भोलेपन से पूछती।
‘‘इस चेहरे से।’’ शिवेश ने उसे अपनी ओर खींच लिया। शिवेश के होठ उसे कुचल रहे हैं। लोभी हाथ उसे मसल रहे हैं-वाना शिवेश के भार को चुपचाप बरदाश्त करती है। यही तो है यहाँ की नियति। वहाँ से यहाँ पहुँचने का मूल्य। हरेक चीज़ का मूल्य चुकाना पड़ता है। तुम कुछ भी, चुपचाप बिना किसी के जाने, दुकान से कुछ भी उठाकर थैले में नहीं छुपा सकती।
‘‘बस, बस, बस,’’ वह एकदम छटपटा उठी है। शिवेश की उपस्थिति उसे असह्य लगने लगती है। वह हथेली से शिवेश को ठेलती है। शिवेश हट जाते हैं। वह उठकर बैठ जाती है और लम्बी-लम्बी साँसें हिचकियों की तरह बाहर आती हैं।
‘‘क्या हुआ ?’’
‘‘जी घबरा रहा है।’’
‘‘पानी दूँ ?’’
‘‘नहीं ।’’
शिवेश का पहला खुर्राटा कमरे में गूँजने लगता है। वह नाइटगाउन नीचे खींच कर पैर ढकती है। बालकनी पर राहुल के कमरे की बत्ती का उजाला है। वाना उसे खाली-खाली आँखों से देखती है। फिर थकान से उसकी पलकें झपक जाती हैं। वह जब दुबारा आँख खोलती है तो बाहर अँधेरा है। बत्ती बुझ चुकी है। शायद हवा ने जोर पकड़ लिया होगा, वह लहरों को पत्थर की दीवार से आ-आकर टकराये हुए सुनती है। यह सब आए दिन-जब भी शिवेश की इच्छा हो तब ! चाहे वह थकी हो, सिर दुख रहा हो।
‘‘अब मुझसे और बरदाश्त नहीं होता,’’ वाना कहती है। उसके शब्द वातावरण में खो गये हैं।
पर आगे कोई रास्ता नहीं है।
नदी में डूबकर मर जाने का समय यह नहीं है।
वाना उठकर बैठ गई है। घुटनों को बाँहों से घेरे वह मन-ही-मन अपने जीवन के सुख दोहराती है, दो-दो बेटे, सुन्दर, स्वस्थ, एकाग्र रूप से चाहनेवाले शिवेश। वह स्वयं स्वस्थ है। कोई बीमारी दुख नहीं, कितना अच्छा घर है, अंजी है, राहुल हैं, पर.... मन में और भी इच्छाएँ हैं। कितनी ढेर सारी इच्छाएँ जो दिन पर दिन बढ़ती ही जाती हैं। अपना निजी घर, अपनी गाड़ी, जो आये दिन धोखा न दे, समाज में सम्मान। शिवेश की अच्छी नौकरी। यह नहीं कि हर साल नये कांट्रैक्ट का इंतजार। इस विभाग से उस विभाग तक। इतना पैसा कि किसी चीज का दाम न पूछना पड़े। यात्राएँ, जैसे कि और लोग करते हैं, पैलेस ऑन व्हील, राजस्थान, कर्नाटक, केरल, कॉसल, लन्दन ! होनो लुलू...
यह सब शेखचिल्ली जैसे विचार हैं क्या ? पर औरों को उपलब्ध हैं, एयरकंडीशन कम्पनी चलानेवालों को पर्दे और कुंडीवाले सप्लाई करनेवालों को, पेट्रोल पम्प और सुविधा स्टोर चलानेवालों के बच्चों और पत्नियों को। मगर शिवेश के प्रति विमुख होने का यह असली कारण नहीं है। वाना जानती है कि इसके मूल में क्या है, पर वह होठों तक कैसे लाये ? एक बार अगर उसने अपने से कह दिया तो फिर बन्द रास्ते के अन्त में दीवार पर सर पटकने के अलावा और कोई चारा नहीं बचेगा। और उससे होगा भी क्या, आहत और लहुलूहान होने के अतिरिक्त। चुप रहो चुनमुन..बँसरी...वनश्री...वाना...सो जाओ।
वह जैसे अपने आप को स्वयं थपकियाँ देने लगती है।
..इसके आगे पुस्तक में देखें..
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book