नारी विमर्श >> दास कबीरा जतन से ओढ़ी दास कबीरा जतन से ओढ़ीभगवती प्रसाद वाजपेयी
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एक पारिवारिक उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘दास कबीरा जतन से ओढ़ी’ एक ऐसी भारतीय नारी की
संघर्षमयी
जीवनयात्रा है, जो साधारण ग्रामीण परिवार में जन्मी, साधारण परिवेश में
पली, और उच्चशिक्षा संस्कार सम्पन्न होने पर भी साधारण परिवार में ब्याही
गयी थी। वह साधारण समस्याओं से जूझती हुई किस प्रकार अपने असाधारण कार्यों
से सौन्दर्य और सतीत्व की रक्षा कर सकी, सन्तानों को पितृत्व प्रदान किया,
यही उपन्यास का मन्तव्य है। उसने जिस प्रकार बुद्धि कौशल से बेसहारा औरतों
को समृद्धि का रास्ता दिखलाया, समाज के मनचलों का चेहरा ठीक किया तथा अपनी
सन्तानों को आर्थिक प्रगति के ऊँचे सोपान तक पहुँचाया, वह सर्वथा अनुकरणीय
है।
समाज और परिवार के लिए जीती हुई अन्त में उपभोक्तावादी संस्कृति के शिकार, पारस्परिक, द्वेष-मूलक प्रवृत्ति से त्रस्त अपने ही मदांध दोनों पुत्रों से वाक्-वाणों से आहत होकर उसने आत्म विसर्जन कर दिया। वस्तुतः उसने अपने निष्कलुष शरीर को प्रभु के चरणों पर ज्यों का त्यों कबीर की चादर की भाँति उतार कर रख दिया।
प्रकृति और परिवेश के सुन्दर समन्वय में रही एक साधारण नारी अपने जीवन के उदात्त मूल्यों की किस प्रकार रक्षा करती है और अन्ततोगत्वा किस प्रकार मृत्यु का वरण करती है-यही मुख्य बिन्दु उपन्यास के कलेवर को सँवारता है।
बाजपेयी जी को इस शील-निरूपण में यथेष्ट सफलता मिली है, ऐसे स्वच्छ नारी चरित्र की सृष्टि हेतु उन्हें बधाइयाँ।
आशा है, अपने आधुनिक बोध की हविश में भारतीय नारी की छवि हनन करने वाले कथाकार इसे पढ़ेगें तो अपनी पापवृत्ति का प्रायश्चित करेंगे और शील संवर्धन का नया साहित्यिक सद्प्रयास शुरू कर देंगे।
समाज और परिवार के लिए जीती हुई अन्त में उपभोक्तावादी संस्कृति के शिकार, पारस्परिक, द्वेष-मूलक प्रवृत्ति से त्रस्त अपने ही मदांध दोनों पुत्रों से वाक्-वाणों से आहत होकर उसने आत्म विसर्जन कर दिया। वस्तुतः उसने अपने निष्कलुष शरीर को प्रभु के चरणों पर ज्यों का त्यों कबीर की चादर की भाँति उतार कर रख दिया।
प्रकृति और परिवेश के सुन्दर समन्वय में रही एक साधारण नारी अपने जीवन के उदात्त मूल्यों की किस प्रकार रक्षा करती है और अन्ततोगत्वा किस प्रकार मृत्यु का वरण करती है-यही मुख्य बिन्दु उपन्यास के कलेवर को सँवारता है।
बाजपेयी जी को इस शील-निरूपण में यथेष्ट सफलता मिली है, ऐसे स्वच्छ नारी चरित्र की सृष्टि हेतु उन्हें बधाइयाँ।
आशा है, अपने आधुनिक बोध की हविश में भारतीय नारी की छवि हनन करने वाले कथाकार इसे पढ़ेगें तो अपनी पापवृत्ति का प्रायश्चित करेंगे और शील संवर्धन का नया साहित्यिक सद्प्रयास शुरू कर देंगे।
दो शब्द
अवकाशप्राप्त शिक्षाधिकारी पं. भगवती प्रसाद बाजपेयी
‘अनूप’
एक अनुभवी शिक्षाविद् एवं लोकप्रिय कथा-शिल्पी हैं। 5 वर्ष के अन्तराल में
आपकी अनेक औपन्यासिक कृतियाँ प्रकाशित हुई हैं, जिनमें
‘पतिपरमेश्वर’ ‘आज की अबला’
‘नारी तेरे रूप
अनेक’ ‘कर्नल साहब के बेटे का विवाह’,
‘एक और
मीरा’ ‘ब्यूटी क्लीनिक’ ‘भद्र
शालिनी’ आदि
बहुचर्चित हैं।
‘दास कबीरा जतन ते ओढ़ी’ आपकी सद्यः लिखित कृति है। इसमें एक साधारण परिवार की सामान्य नारी के त्याग, परिश्रम, जनकल्याण की भावना, परोपकार आदि समाजोपयोगी कार्यों का विवरण प्रभावपूर्ण है। सामान्य नारी द्वारा परिवार के उत्थान हेतु किए गए बलिदानों का मार्मिक वर्णन है।
आधुनिक साहित्य में देवी-देवता, राजा-रानी, मंत्री, राजनीतिक बड़े नेताओं के स्थान पर साधारण नर-नारी के सुख-दुःख हर्ष-विषाद, उत्थान-पतन का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने की वरीयता दी जाती है, वैसे तो प्रस्तुत उपन्यास शुद्ध पारिवारिक है, किन्तु अनुभवी व विद्वान लेखक ने इसके विविध प्रसंगों को दार्शनिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक व आर्थिक समस्याओं से सम्पृक्त करने का यथाशक्ति प्रयास किया है। सुखी परिवार ही सुखी समाज अथवा देश की महत्त्वपूर्ण इकाई हो सकते हैं। अतः जनकल्याणोन्मुख समितियों के बनाने, शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ व्यवसायोन्मुखी योजनाओं को जोड़ने, नारी-शिक्षा विधवाओं तथा परित्यक्ताओं को औद्योगिक प्रशिक्षण दोने की योजनाओं की ओर संकेत किया गया है।
लेखक का दृष्टिकोण आदर्शोन्मुख यथार्थ के चित्रण को विशेष बल देन चाहता है। कुछ प्रसंग ऐसे हैं जिनका कथानक के विकास से कोई संबंध नहीं है यदि उन्हें छोड़ दिया गया होता तो उपन्यास शिल्प की दृष्टि से अधिक सफल होता। रेल कर्मचारियों के भ्रष्टाचार, दहेज-प्रथा की बुराईयों, कार्यशील महिलाओं की समस्याओं का लम्बा किन्तु रोचक विवेचन आदि कुछ ऐसे प्रसंग हैं, जिनकी उपेक्षा सरलता से की जा सकती थी बाजपेयी जी का जीवानानुभव बहुमुखी तथा विशाल है। प्रत्येक विवरण की सविस्तार विवेचना करने के साथ उससे सम्बन्धित सूक्ष्म से सूक्ष्म तथा स्थूल से स्थूल जानकारी के विविध पक्षों को पाठक के मानस-पटल पर साकार करने की क्षमता उनकी लेखनी को प्राप्त है।
मेरे सदृश अल्पज्ञ व्यक्ति को आप अपना अनुज जानकर इतना महत्त्व देते हैं यह आपकी उदारता का परिचायक है। आप एक यशस्वी उपन्याकार और कथाशिल्पी हों, यही मेरी कमना है।
‘दास कबीरा जतन ते ओढ़ी’ आपकी सद्यः लिखित कृति है। इसमें एक साधारण परिवार की सामान्य नारी के त्याग, परिश्रम, जनकल्याण की भावना, परोपकार आदि समाजोपयोगी कार्यों का विवरण प्रभावपूर्ण है। सामान्य नारी द्वारा परिवार के उत्थान हेतु किए गए बलिदानों का मार्मिक वर्णन है।
आधुनिक साहित्य में देवी-देवता, राजा-रानी, मंत्री, राजनीतिक बड़े नेताओं के स्थान पर साधारण नर-नारी के सुख-दुःख हर्ष-विषाद, उत्थान-पतन का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने की वरीयता दी जाती है, वैसे तो प्रस्तुत उपन्यास शुद्ध पारिवारिक है, किन्तु अनुभवी व विद्वान लेखक ने इसके विविध प्रसंगों को दार्शनिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक व आर्थिक समस्याओं से सम्पृक्त करने का यथाशक्ति प्रयास किया है। सुखी परिवार ही सुखी समाज अथवा देश की महत्त्वपूर्ण इकाई हो सकते हैं। अतः जनकल्याणोन्मुख समितियों के बनाने, शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ व्यवसायोन्मुखी योजनाओं को जोड़ने, नारी-शिक्षा विधवाओं तथा परित्यक्ताओं को औद्योगिक प्रशिक्षण दोने की योजनाओं की ओर संकेत किया गया है।
लेखक का दृष्टिकोण आदर्शोन्मुख यथार्थ के चित्रण को विशेष बल देन चाहता है। कुछ प्रसंग ऐसे हैं जिनका कथानक के विकास से कोई संबंध नहीं है यदि उन्हें छोड़ दिया गया होता तो उपन्यास शिल्प की दृष्टि से अधिक सफल होता। रेल कर्मचारियों के भ्रष्टाचार, दहेज-प्रथा की बुराईयों, कार्यशील महिलाओं की समस्याओं का लम्बा किन्तु रोचक विवेचन आदि कुछ ऐसे प्रसंग हैं, जिनकी उपेक्षा सरलता से की जा सकती थी बाजपेयी जी का जीवानानुभव बहुमुखी तथा विशाल है। प्रत्येक विवरण की सविस्तार विवेचना करने के साथ उससे सम्बन्धित सूक्ष्म से सूक्ष्म तथा स्थूल से स्थूल जानकारी के विविध पक्षों को पाठक के मानस-पटल पर साकार करने की क्षमता उनकी लेखनी को प्राप्त है।
मेरे सदृश अल्पज्ञ व्यक्ति को आप अपना अनुज जानकर इतना महत्त्व देते हैं यह आपकी उदारता का परिचायक है। आप एक यशस्वी उपन्याकार और कथाशिल्पी हों, यही मेरी कमना है।
महावीर जैन जयन्ती
20. 4. 97
चैत्र शुल्क त्रयोदशी, सं. 2054
20. 4. 97
चैत्र शुल्क त्रयोदशी, सं. 2054
दुर्गा शंकर मिश्र
सद्भावना नगर, बिरहाना, लखनऊ
सद्भावना नगर, बिरहाना, लखनऊ
प्राक्कथन
विश्व का इतिहास सम्राटों, सम्राज्ञियों और उनकी भाग्यशाली सन्तानों की
गौरवगाथाओं से ओतप्रोत है भले ही उन्होंने समर-भूमि में अनेक रणकौशल का
प्रदर्शन न किया हो अथवा देश की सीमाओं की सुरक्षा के क्षेत्र में नगण्य
योगदान किया हो।
साहित्य, कला संगीत के क्षेत्रों में ख्याति अर्जित करने वाले सम्राटों के शासनकाल को स्वर्णयुग के रूप में रेखांकित कर दिया गया है, पर प्रश्नगत स्वर्णयुग के आधार-स्तम्भ साहित्यकार कला-मर्मज्ञ और संगीत-साधक महापुरुषों की प्रामाणिक जीवनी लिखने में इतिहास ने काफी उदासीनता दिखलाई है।
शायद सम्राटों का इतिहास बढ़ा-चढ़ा कर इसलिए लिखा गया हो कि उनकी मुट्ठी में शासन शक्ति और समृद्धि की कुंजी मौजूद रहती थी और अनेक इतिहासकार उनके प्रश्रय में रहकर इतिहास–लेखन का का दायित्व निभाते थे। वे शासक का इतिहास लिखते थे, शासित का नहीं, राजवंश का इतिहास लिखते थे, प्रजाजनों का नहीं, नेता का इतिहास लिखते थे, जनता का नहीं, पर क्यों ? क्योंकि वे इसे अनावश्यक मानते थे, असंभव समझते थे।
शाहजहाँ ने सुन्दर ताजमहल का निर्माण कराकर अपने अमर प्रेम को साकार कर दिया। उसने अपनी बेगम का स्मारक बनवाने का आदेश दे दिया, और साथ ही में राजकोष से वांछित धन उपलब्ध कराते रहने का आश्वाशन।
इतिहासकारों ने शाहजहाँ का जयघोष किया, पर ताजमहल के मनमोहक निर्माण से जुडे वास्तुविदों, कुशल शिल्पियों और समर्पित श्रमिकों की सरहाना में इतिहासकारों ने कितना परिश्रम किया ? कितने पृष्ठ लिखे ?
शायद इसीलिए इतिहास पर कुछ विचारकों द्वारा साम्राज्यवादी और सामान्तवादी होने का आरोप लगाया जाता रहा है।
इतनी बड़ी दुनिया में हज़ारों नर-नारियाँ ऐसे हो चुके हैं और भविष्य में होते रहेंगे जिनके द्वारा मानव-जीवन में स्थापित अनेक दुर्लभ कीर्तिमानों पर नज़र डालते समय हमें इतिहास के बहुचर्चित सम्राट बौने दिखलाई पड़ते हैं।
समाज की मूल इकाई व्यक्ति है, उसकी महानतम उपलब्धियों से समाज आलोकित होता है, यशस्वी होता है। यशस्वी समाज की इतिहास-रचना सम्राटों की विरुदावली बखानने से कही अधिक प्रेरणाप्रद और लोकमंगलकारी होगी।
इस धरती पर जन्म लेने वाली प्रत्येक नारी न तो अपने देश की राष्ट्रपति बनती है और न प्रधानमंत्री। घर की चहारदीवारी में सिमटी हुई नारियाँ, जिन्दा रहने के लिए दिन-रात परिश्रम और संघर्ष करके आगे बढती हुईं नारियाँ, सार्वजनिक वितरण प्रणाली का शिकार, शक्कर, मिट्टी का तेल खरीदने के लिए जाड़ा-गर्मी-बरसात खुली सड़कों पर लम्बी-लम्बी लाइनों में राशन कार्ड पकड़े घंटों खड़ी हुई नारियाँ, घर का माहवारी राशन-पानी जुटाने, बच्चों की स्कूल की मोटी फीस नियम-तारीख पर जमा करने, मकान का किराया और बिजली के बिल का नियमित भुगतान करने, तिथि-त्यौहार की मंहगी तैयारी करने, बीमार और निकम्मे पति की दवा दारू के लिए पैसै जुटाने और इन सबके बावजूद अपनी सन्तानों को इन्जीनियर, डॉक्टर और प्रशासनिक अधिकारी बना लेने वाली नारियाँ-क्या किसी इतिहासकार की तीव्र ज्योति वाली आँखों को दिखलाई नहीं पड़तीं ?
धरती पर आदमी खाली आता है, यहाँ पर आकर उसे सब कुछ जुटाना पड़ता है। धरती के साधारण लोग, इनका साधारण परिवेश, रोटी कपड़े और मकान की इनकी समस्या-हमें क्यों नहीं आकृष्ट करते हैं ?
‘दास कबीर जतन से ओढ़ी’ एक ऐसी ही साधारण नारी की असाधारण तपस्या की हृदय-स्पर्शी कहानी है, जो देश की अधिसंख्य नारियों की तरह घर के चूल्हे-चौके से जुड़ी रहकर अपने दाम्पत्य जीवन के सुनहरे सपनों के ताने-बाने बुनती है, त्याग और बलिदान की भावना से परिवार को सदा सँवारती है, और प्रौढ़ावस्था में प्रवेश करते ही ‘वशुधैव कुटम्बकम्’ की भावना से प्रेरित होकर अपने पार्श्वर्ती समाज की गरीब और बेसहारा औरतों को व्यवसायिक प्रशिक्षण देकर उनका चेहरा ठीक करती है, उनका सर्वतोमुखी विकास करती है।
वह सतत पति-परायण पत्नी और ममतामयी माँ के रूप में पूरे परिवार का आकर्षण-बिन्दु बनी रहती है, पर दूसरी ओर पशुवत् जीवन बिता रही विपन्न नारियों के समग्र उत्थान के लिए कमर कसे रहती है।
उसने निष्कलुष जीवन जिया, अपने अप्रतिम सौन्दर्य, मादक यौवन श्रेष्ठ सतीत्व की सदा रक्षा की, अपनी सन्तानों को प्रगति के उच्च सोपानों तक पहुँचाया और गरीब और फटे हाल औरतों को रास्ते पर लगाया।
अन्त में उपभोक्ता वादी संस्कृति से दिग्भ्रमित होकर उसके दोनों पुत्रों ने अपने दर्प और घृणित कृत्यों से उसे इतना झकझोर दिया, इतना मर्माहत कर दिया, कि दुःखी होकर उसने अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया।
अपनी संघर्षपूर्ण जीवन-यात्रा में विजयश्री प्राप्त करके अपने अन्तिम क्षणों में उसने अपने पवित्र शरीर को ‘सन्त कबीर की चदरिया’ की भाँति ज्यों का त्यों अपने प्रभू के चरणों में अर्पित कर दिया।
जिस प्रकार शरीर-रूपी चादर को ऋषियों-मुनियों ने ओढ़ते समय भले ही गन्दी कर डाला हो, पर कबीर ने उसे सँभाल कर ओढ़ा और बिना गन्दी किये ज्यों–का-त्यों उतार दिया, उसी प्रकार प्रस्तुत उपन्यास की नायिका ने अपने निष्कलुष शरीर-रूपी चादर को बुनने वाले के श्री चरणों में उतार कर रख दिया। एक साधारण नारी होते हुए भी वह विशाल नारी-समाज के लिए अपने पीछे एक शाश्वत संदेश छोड़ गयी-
साहित्य, कला संगीत के क्षेत्रों में ख्याति अर्जित करने वाले सम्राटों के शासनकाल को स्वर्णयुग के रूप में रेखांकित कर दिया गया है, पर प्रश्नगत स्वर्णयुग के आधार-स्तम्भ साहित्यकार कला-मर्मज्ञ और संगीत-साधक महापुरुषों की प्रामाणिक जीवनी लिखने में इतिहास ने काफी उदासीनता दिखलाई है।
शायद सम्राटों का इतिहास बढ़ा-चढ़ा कर इसलिए लिखा गया हो कि उनकी मुट्ठी में शासन शक्ति और समृद्धि की कुंजी मौजूद रहती थी और अनेक इतिहासकार उनके प्रश्रय में रहकर इतिहास–लेखन का का दायित्व निभाते थे। वे शासक का इतिहास लिखते थे, शासित का नहीं, राजवंश का इतिहास लिखते थे, प्रजाजनों का नहीं, नेता का इतिहास लिखते थे, जनता का नहीं, पर क्यों ? क्योंकि वे इसे अनावश्यक मानते थे, असंभव समझते थे।
शाहजहाँ ने सुन्दर ताजमहल का निर्माण कराकर अपने अमर प्रेम को साकार कर दिया। उसने अपनी बेगम का स्मारक बनवाने का आदेश दे दिया, और साथ ही में राजकोष से वांछित धन उपलब्ध कराते रहने का आश्वाशन।
इतिहासकारों ने शाहजहाँ का जयघोष किया, पर ताजमहल के मनमोहक निर्माण से जुडे वास्तुविदों, कुशल शिल्पियों और समर्पित श्रमिकों की सरहाना में इतिहासकारों ने कितना परिश्रम किया ? कितने पृष्ठ लिखे ?
शायद इसीलिए इतिहास पर कुछ विचारकों द्वारा साम्राज्यवादी और सामान्तवादी होने का आरोप लगाया जाता रहा है।
इतनी बड़ी दुनिया में हज़ारों नर-नारियाँ ऐसे हो चुके हैं और भविष्य में होते रहेंगे जिनके द्वारा मानव-जीवन में स्थापित अनेक दुर्लभ कीर्तिमानों पर नज़र डालते समय हमें इतिहास के बहुचर्चित सम्राट बौने दिखलाई पड़ते हैं।
समाज की मूल इकाई व्यक्ति है, उसकी महानतम उपलब्धियों से समाज आलोकित होता है, यशस्वी होता है। यशस्वी समाज की इतिहास-रचना सम्राटों की विरुदावली बखानने से कही अधिक प्रेरणाप्रद और लोकमंगलकारी होगी।
इस धरती पर जन्म लेने वाली प्रत्येक नारी न तो अपने देश की राष्ट्रपति बनती है और न प्रधानमंत्री। घर की चहारदीवारी में सिमटी हुई नारियाँ, जिन्दा रहने के लिए दिन-रात परिश्रम और संघर्ष करके आगे बढती हुईं नारियाँ, सार्वजनिक वितरण प्रणाली का शिकार, शक्कर, मिट्टी का तेल खरीदने के लिए जाड़ा-गर्मी-बरसात खुली सड़कों पर लम्बी-लम्बी लाइनों में राशन कार्ड पकड़े घंटों खड़ी हुई नारियाँ, घर का माहवारी राशन-पानी जुटाने, बच्चों की स्कूल की मोटी फीस नियम-तारीख पर जमा करने, मकान का किराया और बिजली के बिल का नियमित भुगतान करने, तिथि-त्यौहार की मंहगी तैयारी करने, बीमार और निकम्मे पति की दवा दारू के लिए पैसै जुटाने और इन सबके बावजूद अपनी सन्तानों को इन्जीनियर, डॉक्टर और प्रशासनिक अधिकारी बना लेने वाली नारियाँ-क्या किसी इतिहासकार की तीव्र ज्योति वाली आँखों को दिखलाई नहीं पड़तीं ?
धरती पर आदमी खाली आता है, यहाँ पर आकर उसे सब कुछ जुटाना पड़ता है। धरती के साधारण लोग, इनका साधारण परिवेश, रोटी कपड़े और मकान की इनकी समस्या-हमें क्यों नहीं आकृष्ट करते हैं ?
‘दास कबीर जतन से ओढ़ी’ एक ऐसी ही साधारण नारी की असाधारण तपस्या की हृदय-स्पर्शी कहानी है, जो देश की अधिसंख्य नारियों की तरह घर के चूल्हे-चौके से जुड़ी रहकर अपने दाम्पत्य जीवन के सुनहरे सपनों के ताने-बाने बुनती है, त्याग और बलिदान की भावना से परिवार को सदा सँवारती है, और प्रौढ़ावस्था में प्रवेश करते ही ‘वशुधैव कुटम्बकम्’ की भावना से प्रेरित होकर अपने पार्श्वर्ती समाज की गरीब और बेसहारा औरतों को व्यवसायिक प्रशिक्षण देकर उनका चेहरा ठीक करती है, उनका सर्वतोमुखी विकास करती है।
वह सतत पति-परायण पत्नी और ममतामयी माँ के रूप में पूरे परिवार का आकर्षण-बिन्दु बनी रहती है, पर दूसरी ओर पशुवत् जीवन बिता रही विपन्न नारियों के समग्र उत्थान के लिए कमर कसे रहती है।
उसने निष्कलुष जीवन जिया, अपने अप्रतिम सौन्दर्य, मादक यौवन श्रेष्ठ सतीत्व की सदा रक्षा की, अपनी सन्तानों को प्रगति के उच्च सोपानों तक पहुँचाया और गरीब और फटे हाल औरतों को रास्ते पर लगाया।
अन्त में उपभोक्ता वादी संस्कृति से दिग्भ्रमित होकर उसके दोनों पुत्रों ने अपने दर्प और घृणित कृत्यों से उसे इतना झकझोर दिया, इतना मर्माहत कर दिया, कि दुःखी होकर उसने अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया।
अपनी संघर्षपूर्ण जीवन-यात्रा में विजयश्री प्राप्त करके अपने अन्तिम क्षणों में उसने अपने पवित्र शरीर को ‘सन्त कबीर की चदरिया’ की भाँति ज्यों का त्यों अपने प्रभू के चरणों में अर्पित कर दिया।
जिस प्रकार शरीर-रूपी चादर को ऋषियों-मुनियों ने ओढ़ते समय भले ही गन्दी कर डाला हो, पर कबीर ने उसे सँभाल कर ओढ़ा और बिना गन्दी किये ज्यों–का-त्यों उतार दिया, उसी प्रकार प्रस्तुत उपन्यास की नायिका ने अपने निष्कलुष शरीर-रूपी चादर को बुनने वाले के श्री चरणों में उतार कर रख दिया। एक साधारण नारी होते हुए भी वह विशाल नारी-समाज के लिए अपने पीछे एक शाश्वत संदेश छोड़ गयी-
‘दास कबीरा जतन से ओढ़ी
ज्यों की त्यों धर दीन्हीं चदरिया।’
ज्यों की त्यों धर दीन्हीं चदरिया।’
मुझे विश्वास है कि हमारे चिन्तनशील पाठकों को आज के बदले सन्दर्भों में
मेरी यह तुच्छ रचना अवश्य ग्राह्य होगी।
इस अवसर पर मैं अपने विद्वान समीक्षक डॉ. दुर्गाशंकर मिश्र, पूर्व प्राचार्य और पथप्रदर्शक डॉ. सूर्य प्रसाद दीक्षित, आचार्य एवं अध्यक्ष, हिन्दी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग लखनऊ-विश्वविद्यालय के प्रति अपनी आन्तरिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ।
अन्त मैं अपनी कृतियों के कलात्मक मुद्रण और सुरुचिपूर्ण प्रकाशन के लिए आत्माराम एण्ड सन्स, दिल्ली के प्रति अपना हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ जिनकी सक्रिय सहायता के बिना मेरी रचनाएँ दिवास्वप्न बनकर निष्प्रयोज्य रह जातीं।
इस अवसर पर मैं अपने विद्वान समीक्षक डॉ. दुर्गाशंकर मिश्र, पूर्व प्राचार्य और पथप्रदर्शक डॉ. सूर्य प्रसाद दीक्षित, आचार्य एवं अध्यक्ष, हिन्दी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग लखनऊ-विश्वविद्यालय के प्रति अपनी आन्तरिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ।
अन्त मैं अपनी कृतियों के कलात्मक मुद्रण और सुरुचिपूर्ण प्रकाशन के लिए आत्माराम एण्ड सन्स, दिल्ली के प्रति अपना हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ जिनकी सक्रिय सहायता के बिना मेरी रचनाएँ दिवास्वप्न बनकर निष्प्रयोज्य रह जातीं।
एच. आई. जी 21/ 1029,
इन्दिरानगर लखनऊ
दिनांक ,फरवरी 1, 1997
दूरभाष 342263
इन्दिरानगर लखनऊ
दिनांक ,फरवरी 1, 1997
दूरभाष 342263
भगवती प्रसाद बाजपेयी ‘अनूप
दास कबीरा जतन से ओढ़ी
भारत अनेक तीर्थस्थलों का देश है। तीर्थराज प्रयागराज और नैमिषारण्य का
पुण्यगान आज भी सारे देश में पूर्ववत् हो रहा है।
नैमिषारण्य या नैमिष तीर्थ संहिता काल से पुराण काल तक एक समान प्रख्यात रहा है। अथर्वा ऋषि के पुत्र द्ध्यड:-अथर्वण या महर्षि दधीचि के तप-त्याग से पुनीत इस क्षेत्र का वर्णन संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों, पुराणों और उपनिषदों में प्रचुरता से पढ़ने को मिलता है। महर्षि देवव्यास ने यहाँ पुराणों की रचना की। उत्तरवैदिक काल में भी एक सुविख्यात अरण्यक-विश्वविद्यालय के यहाँ स्थिति होने का प्रमाण उपलब्ध होता है जिसमें अठासी हजार ऋषिगण शास्त्रार्थ पद्धति से कुलपति शौनक ऋषि की अध्यक्षता में ज्ञानार्जन करते थे। विश्वसनीय पारस्परिक अन्तर्कथाओं के अनुसार मर्यादा पुरुषोत्तम राम इस क्षेत्र में पधारे थे और कुछ समय यहाँ उन्होंने सीताजी के साथ निवास किया था। सिधौली तहसील मुख्यावास से कुछ दूर स्थित सीता रसोई नामक स्थान आज भी सीताजी जी की पाकशाला के रूप में चर्चित किया जाता है।
प्रकृति और पुरुष का अविच्छिन्न संबंध है। नैमिष का पावन वातावरण आज भी हमारे मन में सदवृत्तियों का संचार कर देता है।
उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में इसी नैमिष तीर्थ में एक निर्धन किसान परिवार में दो सुन्दर जुड़वा शिशुओं ने अपनी आँखें खोलीं। तीन वर्ष की आयु में उनकी माता और सात वर्ष की आयु में इनके पिता भगवान को प्यारे हो गये। अनाथ और असहाय अवस्था में वे दोनों बालक गरीबी से तंग आकर अपने ननिहाल खैराबाद चले गये। वहाँ विधवा नाना को छोड़कर अन्य कोई व्यक्ति जीवित नहीं था। नानी तो ममता और वात्सल्य का समुद्र होती है। उसने अपने बचे-खुचे गहने व बरतन बेंच कर अपने उन दोनों नातियों का बड़े स्नेह के साथ पालन-पोषण किया और पास में मिडिल स्कूल में प्रधानाध्यापक की खुशामद करके उन्हें वर्नाक्यूलर फाइनल परीक्षा उत्तीर्ण करवा दी।
खैराबाद के एक मशहूर मज़ार में उन दिनों एक पहुँचे हुए सूफ़ी संत रहा करते थे। दोनों बालक जो अब कुबेर और किशोर के रूप में यौवन की दहलीज पर पदार्पण कर रहे थे, अवसर निकाल कर उन सूफ़ी संत की कुटिया पर जाते, उनकी द्वि-अर्थी बातों और रहस्यपूर्ण मुस्कान से सहज प्रभावित होते और अंगूर या सेब का तबर्रुक लेकर अपनी नानी के घर लौट आते। भाग्य ने करवट बदली, कुछ दिनों में उनकी नानी की आँखें भी बन्द हो गईं। अब वे ननिहाल पहुँच कर भी दुबारा अनाथ हो गये और उन्हें अपने सिरों पर खुला आसमान दिखलाई पड़ने लगा।
उनकी करुणापूर्ण और दुःखद स्थिति देखकर सूफी बाबा ने कुबेर को सीतापुर शहर के प्रसिद्ध नबीनगर इस्टेट के शिव-मन्दिर में पुजारी के पद पर नियुक्त करवा दिया।
किशोर तो बचपन से ही चालू प्रकृति, तिकड़मी स्वभाव और रंग-बिरंगी बातें बनाने वाला व्यक्ति था। वह अपने सीतापुर के किसी मशहूर मेहरोत्रा वकील का मुंशी बनकर दीवानी कचहरी में बैठने लगा। धीरे-धीरे वहाँ के खुराफाती वातावरण में झूठ, फरेब, मक्कारी और बेईमानी के नये-नये तरीके सीखकर किशोर ने पैसा कमाना शुरू कर दिया।
जहाँ तक बेचारे कुबेर का प्रश्न था वह वहीं का वहीं रहा, परन्तु नबीनगर की रानी साहिबा के शिव मन्दिर में पुजारी के रूप में शंकर जी की पूजा-अर्चना में तन-मन से जुट गया और धीरे-धीरे भोले बाबा की कृपा से वह भी स्वावलम्बी होकर अपना जीवन ससम्मान व्यतीत करने लगा।
अंग्रेज कैप्टन थामसन की बसाई हुई बाजार अब तानसेन गंज के नाम से सुन्दर आबादी बन गई थी। यहीं पर नबीनगर हाउस के नाम से चर्चित एक महलनुमा बड़ी कोठी थी जिसमें रानी साहिबा का शानदार आवास था। कोठी के पूर्व में एक विस्तृत भूखण्ड पर लाल पत्थर के एक ऊँचे और चौकोर चबूतरे पर दक्षिण भारतीय शैली में लाल पत्थर से बना भव्य शिव-मन्दिर शोभायमान था, जिसका स्वर्ण कलश दूर-दूर तक लोगों को दिखलाई पड़ता था। मन्दिर के मध्य भाग में गहराई पर काले पत्थर का निर्मित एक विशाल शिवलिंग प्रतिष्ठापित था। मन्दिर की भीतरी दीवारों पर प्रस्तर निर्मित अनेक देवी-देवताओं की कलात्मक प्रतिमाएँ दर्शकों का ध्यान सहज आकर्षित कर लेती थीं।
मन्दिर से संलग्न विस्तृत यज्ञशाला थी जिसमें बृहत वर्गाकार हवनकुंड बना था। यज्ञशाला के चारों ओर स्थिति उद्यान में बेल, आम, कटहल, कैथा, शरीफा, जामुन, अंजीर, केला, अमरूद, खिन्नी और फालसे के पुराने और हरे-भरे पेड़ छाया और फल दोनों की सुविधा प्रदान करते थे। वहाँ की सुरम्य प्रकृति स्वतः किसी आश्रम की पृथक सत्ता की सहज अनुभूति करा देती थी।
यज्ञशाला की सीमा समाप्त होते ही पूर्व दिशा में मन्दिर का विशाल प्रवेश द्वार था, जिसमें नगर-निवासी पुरुष, महिलाएँ और बच्चे बड़ी संख्या में प्रातः-सायं शंकर जी के दर्शन करने आ जाते थे। उस समय मन्दिर और यज्ञशाला का पुनीत वातावरण जीवान्त हो उठता था, किसी उत्सव अथवा धार्मिक अनुष्ठान होने का बोध करने लगता था।
कुबेर अब बड़े पुजारी के नाम से प्रसिद्ध हो चले थे। वे प्रत्येक दर्शानार्थी को इलायची दाने, किशमिश और बताशे प्रसाद में श्रद्धापूर्वक देते थे। हरतालिका, शिवरात्रि और श्रावणीय सोमवारों के विशेष अवसरों पर मन्दिर में शंकर जी का नयनाभिराम श्रृंगार किया जाता था, रंग-बिरंगे विद्युत-दीपों से मन्दिर, यज्ञशाला और फलोद्यान नई दुल्हन की भाँति सजा दिया जाता था दर्शनार्थी महिलाओं की भीड़ बेतहाशा बढ़ जाती थी, सीतापुर नगर-निवासियों का ध्यान मन्दिर की ओर इन दिनों अनायास आकर्षित हो जाता था।
मन्दिर की सुन्दर व्यवस्था, प्रशान्त वातावरण, सायंकालीन भजन-कीर्तन भक्ति-संगीत की गोष्ठियाँ, नियमित यज्ञ-हवन, नैमिषारण्य से आमन्त्रित प्रसिद्ध साधु-सन्तों का अमृतोपदेश, संभावित वरवधुओं के परिवारजनों का सायंकालीन मिलन-ये कुछ ऐसी विचित्रताएँ थीं, जिनसे प्रभावित होकर पड़ोसी जनपदों के श्रद्धालु भक्तगण यहाँ पर पूजा-अर्चना हेतु आया करते और मन्दिर में संलग्न धर्मशाला में एक-दो दिन ठहर जाया करते। मन्दिर में एक लम्बी अवधि से साधु-सन्तों के वचनामृत सुनते–सुनते, धर्मशास्त्रः मनोयोगपूर्वक अध्ययन करते-करते और चिन्तन-मनन एवं उपासना में अधिकांश समय बिताते-बिताते पुजारी जी स्वयं श्रीमदभागवत् और रामचरितमानस के कुशल व्याख्याता बन गये। रामकथा की मार्मिक व्याख्या करके वे श्रोतागणों को मन्त्रमुग्ध कर देते, मानस के उत्तरकाण्ड में संनिहित अध्यात्म तत्त्वों की वे इतनी मार्मिक विवेचना करते कि विद्वज्जन भी उनकी आध्यात्मिक छाप से प्रभावित हुए बिना नहीं रहते।
यद्यपि पुजारी जी के निजी आवास के लिए रानी साहिबा ने उन्हें एक कमरा प्रारंभ से ही उपलब्ध करा रखा था, पर वे मन्दिर के परिक्रमा-मार्ग के संगमरमरी फर्श पर शीतल पाटी बिछा कर दिन-रात वहीं बैठे रहते या गर्मी के दिनों में कभी-कभी पंखा खोलकर दोपहर में सो रहते। उनकी सेवा और टहल के लिए कीर्ती नाम का एक बूढ़ा नौकर नियुक्त था। वह पुजारी जी की रसोई में बर्तन साफ कर देता, उनके वस्त्र धो डालता, खाना बनाते समय तरकारी काट देता, आटा सान देता, रोटियाँ बेल देता, पीने के लिए पानी भर लाता। कीर्ती के अतिरिक्त चमेली नाम की एक बूढ़ी नौकरानी उनकी सेवा के लिए नियुक्त थी। वह राजस्थान में जन्मी और रानी साहिबा की शादी में दहेज में नबीनगर इस्टेट आई थी। वह मन्दिर के पूजा के बरतन चमाचम रखती, मन्दिर परिसर को अच्छी तरह दोनों समय पानी डाल-डाल कर खूब साफ करती, पूजा के लिए बेल-पत्र, करनैल के फूल, धतूरे के फल आदि तोड़ लाती और शंकर जी पर चढ़ाने के लिए भाँग पीसती।
जब चमेली के लिए मंदिर का कुछ काम शेष न रहता, तो वह रनिवास के अन्दर जाकर रानी साहिबा का छोटा फर्शी हुक्का ताज़ा करती, चिलम भरती, बरामदे में उनके बैठने के लिए निवाड़ से बुनी छोटी मचिया रख देती। जब रानी साहिबा हुक्का पीना शुरू करतीं, तो वे खुशबूदार लखनवी तम्बाकू के धुएँ के छल्ले अपने मुँह और नाक से निकाल-निकाल कर मुस्कुरातीं, चमेली को अपने मैके की अविस्मरणीय घटनाएँ सुनातीं। चमेली चतुर थी, वह रानी साहिबा की वही पुरानी और बार-बार सुनी हुई बातों को इतने ध्यान से सुनती जैसे कि वह उन्हें प्रथम बार सुन रही हो और उन बातों को सुनकर आनन्दित हो रही हो।
वह समय चैन और निश्चिन्तता का युग था। रानी सहिबा प्रातः, दोपहर सायं और रात्री में चार-पाँच बार हुक्का पीतीं और चमेली के साथ बातें करते-करते कहकहा लगाकर हँसती, फिर ठट्टा मारकर नाचने लगतीं।
वे प्रातः काल काफी देर बाद अपने शयन कक्ष से बाहर निकलतीं, सुगन्धित जल से स्नान करतीं, पीले रेशमी वस्त्र धारण करतीं और मन्दिर में पूजा करने के लिए प्रस्थान करतीं।
नैमिषारण्य या नैमिष तीर्थ संहिता काल से पुराण काल तक एक समान प्रख्यात रहा है। अथर्वा ऋषि के पुत्र द्ध्यड:-अथर्वण या महर्षि दधीचि के तप-त्याग से पुनीत इस क्षेत्र का वर्णन संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों, पुराणों और उपनिषदों में प्रचुरता से पढ़ने को मिलता है। महर्षि देवव्यास ने यहाँ पुराणों की रचना की। उत्तरवैदिक काल में भी एक सुविख्यात अरण्यक-विश्वविद्यालय के यहाँ स्थिति होने का प्रमाण उपलब्ध होता है जिसमें अठासी हजार ऋषिगण शास्त्रार्थ पद्धति से कुलपति शौनक ऋषि की अध्यक्षता में ज्ञानार्जन करते थे। विश्वसनीय पारस्परिक अन्तर्कथाओं के अनुसार मर्यादा पुरुषोत्तम राम इस क्षेत्र में पधारे थे और कुछ समय यहाँ उन्होंने सीताजी के साथ निवास किया था। सिधौली तहसील मुख्यावास से कुछ दूर स्थित सीता रसोई नामक स्थान आज भी सीताजी जी की पाकशाला के रूप में चर्चित किया जाता है।
प्रकृति और पुरुष का अविच्छिन्न संबंध है। नैमिष का पावन वातावरण आज भी हमारे मन में सदवृत्तियों का संचार कर देता है।
उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में इसी नैमिष तीर्थ में एक निर्धन किसान परिवार में दो सुन्दर जुड़वा शिशुओं ने अपनी आँखें खोलीं। तीन वर्ष की आयु में उनकी माता और सात वर्ष की आयु में इनके पिता भगवान को प्यारे हो गये। अनाथ और असहाय अवस्था में वे दोनों बालक गरीबी से तंग आकर अपने ननिहाल खैराबाद चले गये। वहाँ विधवा नाना को छोड़कर अन्य कोई व्यक्ति जीवित नहीं था। नानी तो ममता और वात्सल्य का समुद्र होती है। उसने अपने बचे-खुचे गहने व बरतन बेंच कर अपने उन दोनों नातियों का बड़े स्नेह के साथ पालन-पोषण किया और पास में मिडिल स्कूल में प्रधानाध्यापक की खुशामद करके उन्हें वर्नाक्यूलर फाइनल परीक्षा उत्तीर्ण करवा दी।
खैराबाद के एक मशहूर मज़ार में उन दिनों एक पहुँचे हुए सूफ़ी संत रहा करते थे। दोनों बालक जो अब कुबेर और किशोर के रूप में यौवन की दहलीज पर पदार्पण कर रहे थे, अवसर निकाल कर उन सूफ़ी संत की कुटिया पर जाते, उनकी द्वि-अर्थी बातों और रहस्यपूर्ण मुस्कान से सहज प्रभावित होते और अंगूर या सेब का तबर्रुक लेकर अपनी नानी के घर लौट आते। भाग्य ने करवट बदली, कुछ दिनों में उनकी नानी की आँखें भी बन्द हो गईं। अब वे ननिहाल पहुँच कर भी दुबारा अनाथ हो गये और उन्हें अपने सिरों पर खुला आसमान दिखलाई पड़ने लगा।
उनकी करुणापूर्ण और दुःखद स्थिति देखकर सूफी बाबा ने कुबेर को सीतापुर शहर के प्रसिद्ध नबीनगर इस्टेट के शिव-मन्दिर में पुजारी के पद पर नियुक्त करवा दिया।
किशोर तो बचपन से ही चालू प्रकृति, तिकड़मी स्वभाव और रंग-बिरंगी बातें बनाने वाला व्यक्ति था। वह अपने सीतापुर के किसी मशहूर मेहरोत्रा वकील का मुंशी बनकर दीवानी कचहरी में बैठने लगा। धीरे-धीरे वहाँ के खुराफाती वातावरण में झूठ, फरेब, मक्कारी और बेईमानी के नये-नये तरीके सीखकर किशोर ने पैसा कमाना शुरू कर दिया।
जहाँ तक बेचारे कुबेर का प्रश्न था वह वहीं का वहीं रहा, परन्तु नबीनगर की रानी साहिबा के शिव मन्दिर में पुजारी के रूप में शंकर जी की पूजा-अर्चना में तन-मन से जुट गया और धीरे-धीरे भोले बाबा की कृपा से वह भी स्वावलम्बी होकर अपना जीवन ससम्मान व्यतीत करने लगा।
अंग्रेज कैप्टन थामसन की बसाई हुई बाजार अब तानसेन गंज के नाम से सुन्दर आबादी बन गई थी। यहीं पर नबीनगर हाउस के नाम से चर्चित एक महलनुमा बड़ी कोठी थी जिसमें रानी साहिबा का शानदार आवास था। कोठी के पूर्व में एक विस्तृत भूखण्ड पर लाल पत्थर के एक ऊँचे और चौकोर चबूतरे पर दक्षिण भारतीय शैली में लाल पत्थर से बना भव्य शिव-मन्दिर शोभायमान था, जिसका स्वर्ण कलश दूर-दूर तक लोगों को दिखलाई पड़ता था। मन्दिर के मध्य भाग में गहराई पर काले पत्थर का निर्मित एक विशाल शिवलिंग प्रतिष्ठापित था। मन्दिर की भीतरी दीवारों पर प्रस्तर निर्मित अनेक देवी-देवताओं की कलात्मक प्रतिमाएँ दर्शकों का ध्यान सहज आकर्षित कर लेती थीं।
मन्दिर से संलग्न विस्तृत यज्ञशाला थी जिसमें बृहत वर्गाकार हवनकुंड बना था। यज्ञशाला के चारों ओर स्थिति उद्यान में बेल, आम, कटहल, कैथा, शरीफा, जामुन, अंजीर, केला, अमरूद, खिन्नी और फालसे के पुराने और हरे-भरे पेड़ छाया और फल दोनों की सुविधा प्रदान करते थे। वहाँ की सुरम्य प्रकृति स्वतः किसी आश्रम की पृथक सत्ता की सहज अनुभूति करा देती थी।
यज्ञशाला की सीमा समाप्त होते ही पूर्व दिशा में मन्दिर का विशाल प्रवेश द्वार था, जिसमें नगर-निवासी पुरुष, महिलाएँ और बच्चे बड़ी संख्या में प्रातः-सायं शंकर जी के दर्शन करने आ जाते थे। उस समय मन्दिर और यज्ञशाला का पुनीत वातावरण जीवान्त हो उठता था, किसी उत्सव अथवा धार्मिक अनुष्ठान होने का बोध करने लगता था।
कुबेर अब बड़े पुजारी के नाम से प्रसिद्ध हो चले थे। वे प्रत्येक दर्शानार्थी को इलायची दाने, किशमिश और बताशे प्रसाद में श्रद्धापूर्वक देते थे। हरतालिका, शिवरात्रि और श्रावणीय सोमवारों के विशेष अवसरों पर मन्दिर में शंकर जी का नयनाभिराम श्रृंगार किया जाता था, रंग-बिरंगे विद्युत-दीपों से मन्दिर, यज्ञशाला और फलोद्यान नई दुल्हन की भाँति सजा दिया जाता था दर्शनार्थी महिलाओं की भीड़ बेतहाशा बढ़ जाती थी, सीतापुर नगर-निवासियों का ध्यान मन्दिर की ओर इन दिनों अनायास आकर्षित हो जाता था।
मन्दिर की सुन्दर व्यवस्था, प्रशान्त वातावरण, सायंकालीन भजन-कीर्तन भक्ति-संगीत की गोष्ठियाँ, नियमित यज्ञ-हवन, नैमिषारण्य से आमन्त्रित प्रसिद्ध साधु-सन्तों का अमृतोपदेश, संभावित वरवधुओं के परिवारजनों का सायंकालीन मिलन-ये कुछ ऐसी विचित्रताएँ थीं, जिनसे प्रभावित होकर पड़ोसी जनपदों के श्रद्धालु भक्तगण यहाँ पर पूजा-अर्चना हेतु आया करते और मन्दिर में संलग्न धर्मशाला में एक-दो दिन ठहर जाया करते। मन्दिर में एक लम्बी अवधि से साधु-सन्तों के वचनामृत सुनते–सुनते, धर्मशास्त्रः मनोयोगपूर्वक अध्ययन करते-करते और चिन्तन-मनन एवं उपासना में अधिकांश समय बिताते-बिताते पुजारी जी स्वयं श्रीमदभागवत् और रामचरितमानस के कुशल व्याख्याता बन गये। रामकथा की मार्मिक व्याख्या करके वे श्रोतागणों को मन्त्रमुग्ध कर देते, मानस के उत्तरकाण्ड में संनिहित अध्यात्म तत्त्वों की वे इतनी मार्मिक विवेचना करते कि विद्वज्जन भी उनकी आध्यात्मिक छाप से प्रभावित हुए बिना नहीं रहते।
यद्यपि पुजारी जी के निजी आवास के लिए रानी साहिबा ने उन्हें एक कमरा प्रारंभ से ही उपलब्ध करा रखा था, पर वे मन्दिर के परिक्रमा-मार्ग के संगमरमरी फर्श पर शीतल पाटी बिछा कर दिन-रात वहीं बैठे रहते या गर्मी के दिनों में कभी-कभी पंखा खोलकर दोपहर में सो रहते। उनकी सेवा और टहल के लिए कीर्ती नाम का एक बूढ़ा नौकर नियुक्त था। वह पुजारी जी की रसोई में बर्तन साफ कर देता, उनके वस्त्र धो डालता, खाना बनाते समय तरकारी काट देता, आटा सान देता, रोटियाँ बेल देता, पीने के लिए पानी भर लाता। कीर्ती के अतिरिक्त चमेली नाम की एक बूढ़ी नौकरानी उनकी सेवा के लिए नियुक्त थी। वह राजस्थान में जन्मी और रानी साहिबा की शादी में दहेज में नबीनगर इस्टेट आई थी। वह मन्दिर के पूजा के बरतन चमाचम रखती, मन्दिर परिसर को अच्छी तरह दोनों समय पानी डाल-डाल कर खूब साफ करती, पूजा के लिए बेल-पत्र, करनैल के फूल, धतूरे के फल आदि तोड़ लाती और शंकर जी पर चढ़ाने के लिए भाँग पीसती।
जब चमेली के लिए मंदिर का कुछ काम शेष न रहता, तो वह रनिवास के अन्दर जाकर रानी साहिबा का छोटा फर्शी हुक्का ताज़ा करती, चिलम भरती, बरामदे में उनके बैठने के लिए निवाड़ से बुनी छोटी मचिया रख देती। जब रानी साहिबा हुक्का पीना शुरू करतीं, तो वे खुशबूदार लखनवी तम्बाकू के धुएँ के छल्ले अपने मुँह और नाक से निकाल-निकाल कर मुस्कुरातीं, चमेली को अपने मैके की अविस्मरणीय घटनाएँ सुनातीं। चमेली चतुर थी, वह रानी साहिबा की वही पुरानी और बार-बार सुनी हुई बातों को इतने ध्यान से सुनती जैसे कि वह उन्हें प्रथम बार सुन रही हो और उन बातों को सुनकर आनन्दित हो रही हो।
वह समय चैन और निश्चिन्तता का युग था। रानी सहिबा प्रातः, दोपहर सायं और रात्री में चार-पाँच बार हुक्का पीतीं और चमेली के साथ बातें करते-करते कहकहा लगाकर हँसती, फिर ठट्टा मारकर नाचने लगतीं।
वे प्रातः काल काफी देर बाद अपने शयन कक्ष से बाहर निकलतीं, सुगन्धित जल से स्नान करतीं, पीले रेशमी वस्त्र धारण करतीं और मन्दिर में पूजा करने के लिए प्रस्थान करतीं।
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