लेख-निबंध >> आत्मोदय से सर्वोदय आत्मोदय से सर्वोदयकृष्णराज मेहता
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एक मौलिक निबन्ध
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
आत्मोदय से सर्वोदय गांधीवादी चिन्तक श्री कृष्णराज मेहता जी के मौलिक
निबंधों का संग्रह है। प्रज्ञा प्रौढ़ चिंतक श्री मेहताजी ने अपनी
सुदीर्घकालीन समाज-सेवा और राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत अपने
लोक-कल्याणकारी विचारों को एक सफल अभिव्यक्ति दी है। धर्म-अध्यात्म से
संबंधित अनेक आलेखों के कारण इस पुस्तक की पठनीयता स्वयंसिद्ध
है।
राजनीतिक छल-छद्म, अलगाववाद,भ्रष्टाचार और अराजकता के इस माहौल में श्री मेहता के विचार राष्ट्र और समाज के लिए प्रासंगिक और युवापीढ़ी के लिए अनुकरणीय है। देश के लिए निष्ठा और त्याग की भावना से समर्पित अपने जीवन के अनुभव-सूत्र को श्री मेहता ने इस पुस्तक में रेखांकित किया है। महात्मा गाँधी, संत विनोबा भावे और लोकनायक जयप्रकाश के शाश्वत चिंतन से अनुप्राणित ये विचार-सूत्र जन-जीवन का पथप्रदर्शन करेंगे, ऐसा हमारा विश्वास है।
राजनीतिक छल-छद्म, अलगाववाद,भ्रष्टाचार और अराजकता के इस माहौल में श्री मेहता के विचार राष्ट्र और समाज के लिए प्रासंगिक और युवापीढ़ी के लिए अनुकरणीय है। देश के लिए निष्ठा और त्याग की भावना से समर्पित अपने जीवन के अनुभव-सूत्र को श्री मेहता ने इस पुस्तक में रेखांकित किया है। महात्मा गाँधी, संत विनोबा भावे और लोकनायक जयप्रकाश के शाश्वत चिंतन से अनुप्राणित ये विचार-सूत्र जन-जीवन का पथप्रदर्शन करेंगे, ऐसा हमारा विश्वास है।
ग्रंथावतरण-प्रक्रिया
‘आत्मोदय से सर्वोदय’ एक सामाजिक और आध्यात्मिक महत्त्व की
कृति है। इसके लेखक श्री कृष्णराज मेहता 80 वर्षीय सर्वोदयी, सामाजिक
कार्यकर्ता और विचारक है। ‘सादा जीवन उच्च विचार’ की जीवित
प्रतिमूर्ति के रूप में इन्हें सर्वत्र आदर की दृष्टि से देखा जाता है। 31
मार्च, 1999 ईस्वी को सुविचार श्री कृष्णराज मेहता सुलभ इंटरनेशनल सामाजिक
सेवा-संस्थान के दिल्ली स्थित कार्यालय ‘सुलभ-ग्राम’ में पहली
बार पहुँचे, जहाँ इनका सुलभ-परिवार की ओर से स्वागत-सत्कार किया गया।
इन्होंने अपने भाषण में कहा,
‘‘प्रार्थना-गीत की पहली पंक्ति थी- ‘आओ हम मिल- जुलकर बनाएँ सुलभ-सुखद संसार’। इस पंक्ति के अर्थ ने मेरे हृदय को छू लिया। हम सब सर्वोदय के कार्यकर्ता भी सारे संसार को सुखी बनाना चाहते हैं और वही संकल्प सामूहिक प्रार्थना में सुलभ-परिवार को गाते हुए देखकर मैं गद्गद हो गया। मैं इस सामूहिक संकल्प को समर्पित हूँ।
करीब तीस वर्ष पहले पटना में आचार्य विनोबा से भेंट के दौरान ही मेरा संपर्क डॉ. पाठक से हुआ। संत विनोबा से डॉ. पाठक को जो मार्गदर्शन मिला, उससे भी उनका जीवन परिवर्तित हुआ है। वे संकल्प-पूर्वक दृढ़ता और साहस के साथ महात्मा गाँधी की क्रांतिकारी भंगी-मुक्ति के अंत्योदय-कार्य में लग गए। समाज ने उन्हें ऊँचे स्थानों पर प्रतिष्ठित किया।’’
गाँधीवादी चिंतक श्री मेहता विनोबा जी के सहायक और सहयोगी के रूप में लंबे समय तक कार्यरत रहे हैं। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ को कार्यरूप देने के लिए जिस ‘विश्वग्राम’ की कल्पना की गई है, उसमें श्री कृष्णराज मेहता-सहित अनेक कल्याणमित्र और अन्य लोग लगे हैं।
संत विनोबा भावे ने ज्ञान, भक्ति और कर्म तीनों की समानुपाती त्रिवेणी बनाई और उसके लिए परंधाम-आश्रम, पवनार की स्थापना की। सन् 1969 ईस्वी में आचार्य विनोबा ने इसे ब्रह्म-विद्या के अद्यतन प्रयोग का केन्द्र बनाया। यह आज भी अनेक आकर्षणों का केन्द्र है।
सुलभ-ग्राम में माननीय मेहता जी के साथ बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ तो इन्होंने अपने अनुभव के अनेक मुक्ताकण उपस्थित किए, जिनमें उपस्थित सभी लोगों के साथ मेरे मन में यह विचार उपस्थित हुआ कि इनकी अनुभूतियों, सत्संगति और विचारों को क्यों नहीं लिपिबद्ध रूप दिया जाए, जिससे समाज को एक विश्वसनीय और प्रेरणादायक मार्ग-निर्देश मिल सकता है। इसी भावना को ध्यान में रखते हुए मैंने माननीय मेहता जी से आग्रह किया कि वे इन विचारों को संग्रह कर दें और सुलभ इंटरनेशनल के द्वारा संस्थापित और संचालित ‘सुलभ-साहित्य-अकादमी’ को समर्पित करने की कृपा करें। मैंने अकादमी के अध्यक्ष प्रोफेसर निशांतकेतु को इस ग्रंथ के प्रकाशन का दायित्व दिया, जो अब ग्रंथाकार प्रस्तुत है। यह देखकर मुझे हार्दिक प्रसन्नता है। मैं माननीय श्री कृष्णराज मेहता जी के शतायु होने की हार्दिक कामना करता हूँ।
‘‘प्रार्थना-गीत की पहली पंक्ति थी- ‘आओ हम मिल- जुलकर बनाएँ सुलभ-सुखद संसार’। इस पंक्ति के अर्थ ने मेरे हृदय को छू लिया। हम सब सर्वोदय के कार्यकर्ता भी सारे संसार को सुखी बनाना चाहते हैं और वही संकल्प सामूहिक प्रार्थना में सुलभ-परिवार को गाते हुए देखकर मैं गद्गद हो गया। मैं इस सामूहिक संकल्प को समर्पित हूँ।
करीब तीस वर्ष पहले पटना में आचार्य विनोबा से भेंट के दौरान ही मेरा संपर्क डॉ. पाठक से हुआ। संत विनोबा से डॉ. पाठक को जो मार्गदर्शन मिला, उससे भी उनका जीवन परिवर्तित हुआ है। वे संकल्प-पूर्वक दृढ़ता और साहस के साथ महात्मा गाँधी की क्रांतिकारी भंगी-मुक्ति के अंत्योदय-कार्य में लग गए। समाज ने उन्हें ऊँचे स्थानों पर प्रतिष्ठित किया।’’
गाँधीवादी चिंतक श्री मेहता विनोबा जी के सहायक और सहयोगी के रूप में लंबे समय तक कार्यरत रहे हैं। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ को कार्यरूप देने के लिए जिस ‘विश्वग्राम’ की कल्पना की गई है, उसमें श्री कृष्णराज मेहता-सहित अनेक कल्याणमित्र और अन्य लोग लगे हैं।
संत विनोबा भावे ने ज्ञान, भक्ति और कर्म तीनों की समानुपाती त्रिवेणी बनाई और उसके लिए परंधाम-आश्रम, पवनार की स्थापना की। सन् 1969 ईस्वी में आचार्य विनोबा ने इसे ब्रह्म-विद्या के अद्यतन प्रयोग का केन्द्र बनाया। यह आज भी अनेक आकर्षणों का केन्द्र है।
सुलभ-ग्राम में माननीय मेहता जी के साथ बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ तो इन्होंने अपने अनुभव के अनेक मुक्ताकण उपस्थित किए, जिनमें उपस्थित सभी लोगों के साथ मेरे मन में यह विचार उपस्थित हुआ कि इनकी अनुभूतियों, सत्संगति और विचारों को क्यों नहीं लिपिबद्ध रूप दिया जाए, जिससे समाज को एक विश्वसनीय और प्रेरणादायक मार्ग-निर्देश मिल सकता है। इसी भावना को ध्यान में रखते हुए मैंने माननीय मेहता जी से आग्रह किया कि वे इन विचारों को संग्रह कर दें और सुलभ इंटरनेशनल के द्वारा संस्थापित और संचालित ‘सुलभ-साहित्य-अकादमी’ को समर्पित करने की कृपा करें। मैंने अकादमी के अध्यक्ष प्रोफेसर निशांतकेतु को इस ग्रंथ के प्रकाशन का दायित्व दिया, जो अब ग्रंथाकार प्रस्तुत है। यह देखकर मुझे हार्दिक प्रसन्नता है। मैं माननीय श्री कृष्णराज मेहता जी के शतायु होने की हार्दिक कामना करता हूँ।
-डॉ. विन्देश्वर पाठक
प्राक्कथन
सुलभ-साहित्य-अकादमी ने श्री कृष्णराज मेहता जी के लेखों, उनके संस्मरणों
एवं उनके साथ किए गए प्रश्नों के उत्तर ‘आत्मोदय से
सर्वोदय’
शीर्षक से अकादमी-ग्रंथमाला के प्रथम पुष्प के रूप में प्रकाशित कर जगत्
का महान् उपकार किया है। श्री कृष्णराज मेहता उन गिने-चुने मान्य चिंतकों
में हैं, जो महात्मा गाँधी, संत विनोबा भावे तथा लोकनायक जयप्रकाश नारायण
के साथ स्वाधीनता-आंदोलन से लेकर भू-दान-यज्ञ एवं संपूर्ण क्रांति के
आंदोलनों तक सक्रिय रूप से जुड़े रहे हैं। वस्तुत: वह उन आंदोलनों की
दार्शनिक एवं प्रयोगात्मक पृष्ठभूमि के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान
करनेवालों में अग्रणी रहे हैं। उन्होंने अपने जीवन-भर के अध्ययन, चिंतन,
प्रयोग तथा अनुभव से निष्पन्न ज्ञान को सूत्र-रूप में लधु निबंधों,
व्याख्यानों और संस्मरणों अथवा प्रश्नों के उत्तर के माध्यम से अत्यंत
प्रामाणिक ढंग से समय-समय पर अभिव्यक्त किए हैं। इन अभिव्यक्तियों के
संग्रह के प्रकाशन की आवश्यकता बहुत दिनों से अनुभव की जी रही थी। उन
आवश्यकता की पूर्ति सुलभ-साहित्य-अकादमी द्वारा वांछित रूप से की गई है।
इस कार्य के लिए अकादमी साधुवाद की पात्र है।
पुस्तक के आरंभ में उसके विद्वान संपादक आचार्य निशांतकेतु द्वारा मेहता जी का संक्षिप्त जीवनवृत छापा गया है, जिससे महात्मा गाँधी, संत विनोबा भावे और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की रचनात्मक प्रवृत्तियों को क्रियान्वित करने के संबंध में उनके मनस्वी कार्यकलापों पर प्रकाश पड़ता है। मेहता जी की प्रेरणा से सर्वोदय समाज में नई ऊर्जा का संचार हुआ, यह सर्वोदय समाज के कार्यकर्ताओं की आम धारणा है। कृष्णराज मेहता जी ने संस्मरणों में कई महत्त्वपूर्ण दार्शनिक एवं ऐतिहासिक तथ्यों के गंभीर रहस्यों को उद्घा़टित करनेवाले मूल्यवान सुभाषित संगृहीत हैं। उनसे साक्षात्कार करनेवाले विद्धान् ने व्यक्तिगत, सामाजिक, आध्यात्मिक एवं गाँधी, विनोबा, जयप्रकाश नारायण से संबधित अनेक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाए हैं। जिनका उत्तर उन्होंने आर्षवचनवत् सूक्ष्म, स्पष्ट और अनूहित प्रकार से दिए हैं, जो अत्यंत ज्ञानवर्धक हैं। विशेषतया इस क्रम में मेहता जी ने गाँधी, विनोबा और जयप्रकाश नारायण जी के तुलनात्मक गुणों की तालिका दी है। वह अपूर्व एवं अद्वितीय है। इस प्रकार की श्रद्धायुक्त विवेक-बुद्धि मैंने कम ही देखी है।
संप्रति पुस्तक में आत्मोदय से सर्वोदय की यात्रा के चार सोपान वर्णित हैं- आत्मोदय, अंत्योदय, ग्रामोदय और सर्वोदय। इन सोपानों के अंतर्गत उनके विभिन्न रूपों या अंगों का सांगोंपांग विश्लेषण किया गया है, जिनके द्वारा देश में अहिंसक तथा धार्मिक अनुष्ठानों के लिए ग्राम-स्वराज्य, नगर-स्वराज्य या लोक स्वराज्य के स्थापित करने के मार्ग प्रशस्त किए जाते हैं।
इस पुस्तक के लेखक ने महात्मा गाँधी की तपोभूमि सेवाश्रम में नई आजादी आंदोलन, आचार्यकुल, अखिल भारत-कृषि-गोसेवा-संघ, रोजी-रोटी अभियान-समिति की रणनीति की विशद व्याख्या प्रस्तुत की है तथा इसी प्रकार संत विनोबा द्वारा प्रतिपादित एवं प्राचीनकाल से समर्थित नैतिक मूल्यों के आधार पर परिचालित सर्वोदय की साधना के प्रकरण बड़े मनोयोग से तैयार किए हैं। उनमें ‘अहिंसा का साक्षात्कार’, ‘करुणा की क्रांति’ और ‘जय जगत्’ में प्रवेश के निमित्त ‘सूक्ष्म कर्मयोग’ के विचार संत विनोबा के चिंतन-सूत्रों की सहज मीमांस प्रस्तुत करते हैं। इसी तरह विश्व-पुरूषों के चिंतन के प्रसंग में श्री अरविंद-योग और वैज्ञानिक दृष्टि तथा परम पावन दलाई लामा के विश्व-मैत्री और करुणा-विषयक विचार अत्यंत मार्मिक हैं, जिनके द्वारा जगत् का संपूर्ण कल्याण अवश्यम्भावी है।
आचार्य विनोबा के साथ हुए जयप्रकाश नारायण जी के रचनात्मक परिसंवादों के माध्यम से श्री कृष्णराज मेहता जी ने संसार वैज्ञानिक विचारकों की धारणाओं की संगति बैठाने में अपनी ओर से कोई कोर-कसर नहीं रख छोड़ी है। ऐसी सुंदर एवं सहज भाषा में लिखी गई पुस्तक को मैं अपने अंतरतम से स्वागत करता हूँ। आज विश्व हिंसा और भौतिकतावाद के दु:खों से जिस तरह संतापित है, उससे मुक्ति पाने के लिए सत्य, अहिंसा, करुणा पर आधारित गाँधी और विनोबा के विचार ही हमें कुछ मार्ग दिखा सकते हैं। यह आज की ऐतिहासिक अनिवार्यता के रूप में उभर आया है। उस प्रक्रिया में यह ग्रंथ एक प्रकाश-स्तम्भ के समान लोककल्याणकारक होगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
जय जगत्
पुस्तक के आरंभ में उसके विद्वान संपादक आचार्य निशांतकेतु द्वारा मेहता जी का संक्षिप्त जीवनवृत छापा गया है, जिससे महात्मा गाँधी, संत विनोबा भावे और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की रचनात्मक प्रवृत्तियों को क्रियान्वित करने के संबंध में उनके मनस्वी कार्यकलापों पर प्रकाश पड़ता है। मेहता जी की प्रेरणा से सर्वोदय समाज में नई ऊर्जा का संचार हुआ, यह सर्वोदय समाज के कार्यकर्ताओं की आम धारणा है। कृष्णराज मेहता जी ने संस्मरणों में कई महत्त्वपूर्ण दार्शनिक एवं ऐतिहासिक तथ्यों के गंभीर रहस्यों को उद्घा़टित करनेवाले मूल्यवान सुभाषित संगृहीत हैं। उनसे साक्षात्कार करनेवाले विद्धान् ने व्यक्तिगत, सामाजिक, आध्यात्मिक एवं गाँधी, विनोबा, जयप्रकाश नारायण से संबधित अनेक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाए हैं। जिनका उत्तर उन्होंने आर्षवचनवत् सूक्ष्म, स्पष्ट और अनूहित प्रकार से दिए हैं, जो अत्यंत ज्ञानवर्धक हैं। विशेषतया इस क्रम में मेहता जी ने गाँधी, विनोबा और जयप्रकाश नारायण जी के तुलनात्मक गुणों की तालिका दी है। वह अपूर्व एवं अद्वितीय है। इस प्रकार की श्रद्धायुक्त विवेक-बुद्धि मैंने कम ही देखी है।
संप्रति पुस्तक में आत्मोदय से सर्वोदय की यात्रा के चार सोपान वर्णित हैं- आत्मोदय, अंत्योदय, ग्रामोदय और सर्वोदय। इन सोपानों के अंतर्गत उनके विभिन्न रूपों या अंगों का सांगोंपांग विश्लेषण किया गया है, जिनके द्वारा देश में अहिंसक तथा धार्मिक अनुष्ठानों के लिए ग्राम-स्वराज्य, नगर-स्वराज्य या लोक स्वराज्य के स्थापित करने के मार्ग प्रशस्त किए जाते हैं।
इस पुस्तक के लेखक ने महात्मा गाँधी की तपोभूमि सेवाश्रम में नई आजादी आंदोलन, आचार्यकुल, अखिल भारत-कृषि-गोसेवा-संघ, रोजी-रोटी अभियान-समिति की रणनीति की विशद व्याख्या प्रस्तुत की है तथा इसी प्रकार संत विनोबा द्वारा प्रतिपादित एवं प्राचीनकाल से समर्थित नैतिक मूल्यों के आधार पर परिचालित सर्वोदय की साधना के प्रकरण बड़े मनोयोग से तैयार किए हैं। उनमें ‘अहिंसा का साक्षात्कार’, ‘करुणा की क्रांति’ और ‘जय जगत्’ में प्रवेश के निमित्त ‘सूक्ष्म कर्मयोग’ के विचार संत विनोबा के चिंतन-सूत्रों की सहज मीमांस प्रस्तुत करते हैं। इसी तरह विश्व-पुरूषों के चिंतन के प्रसंग में श्री अरविंद-योग और वैज्ञानिक दृष्टि तथा परम पावन दलाई लामा के विश्व-मैत्री और करुणा-विषयक विचार अत्यंत मार्मिक हैं, जिनके द्वारा जगत् का संपूर्ण कल्याण अवश्यम्भावी है।
आचार्य विनोबा के साथ हुए जयप्रकाश नारायण जी के रचनात्मक परिसंवादों के माध्यम से श्री कृष्णराज मेहता जी ने संसार वैज्ञानिक विचारकों की धारणाओं की संगति बैठाने में अपनी ओर से कोई कोर-कसर नहीं रख छोड़ी है। ऐसी सुंदर एवं सहज भाषा में लिखी गई पुस्तक को मैं अपने अंतरतम से स्वागत करता हूँ। आज विश्व हिंसा और भौतिकतावाद के दु:खों से जिस तरह संतापित है, उससे मुक्ति पाने के लिए सत्य, अहिंसा, करुणा पर आधारित गाँधी और विनोबा के विचार ही हमें कुछ मार्ग दिखा सकते हैं। यह आज की ऐतिहासिक अनिवार्यता के रूप में उभर आया है। उस प्रक्रिया में यह ग्रंथ एक प्रकाश-स्तम्भ के समान लोककल्याणकारक होगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
जय जगत्
समदोङ् रिनपोछे
सारनाथ
22 जून, 2000 ई.
सारनाथ
22 जून, 2000 ई.
भूमिका
पराधीनता के दौरान भारतीय सामाजिक व्यवस्था में एक साथ अनेक खामियाँ आईं,
जिसमें वाल्मीकि समाज के प्रति ऊँच-नीच की भावना ने सामाजिक कोढ़ का रूप
धारण कर लिया। समाज में अंत्यज की संज्ञा से पुकारे जानेवाले इस समाज को
अछूत माना जाने लगा। अस्पृश्यता की भावना की जड़ें जमने लगीं। धर्म की आड़
में इस समाज पर अत्याचार की ज्वाला प्रचंड हो गई, जिसकी लपटों में सामाजिक
मूल्य और मार्यादाएँ तक धू-धू कर जलने लगीं। इस सामाजिक कुव्यवस्था को
सुधारने के लिए युग-पुरुष महात्मा गाँधी, संत विनोबा भावे एवं लोकनायक
जयप्रकाश का ऐतिहासिक अवदान है। इन तीनों मनीषियों ने अपने सुदीर्घकालीन
चिंतन और सामाजिक जीवन के प्रौढ़ अनुभव के आधार पर समाज के अंत्यज समझे
जानेवाले लोगों के कल्याण के लिए मार्ग प्रशस्त किया और जनांदोलन का
प्रवर्तन किया। भारत के पुनर्निमाण और उसे वैभवशाली बनाने के लिए उन
पुरोधापुरूषों का चिंतन आज भी हमारा मार्गदर्शन करने के लिए प्रासंगिक है।
भारत के इन मनीषियों ने मानव-मात्र के कल्याण के लिए आत्मोदय से सर्वोदय
तक के चार सोपानों के संबंध में बताया, जो इस प्रकार है:
आत्मोदय-अंत्योदय-ग्रामोदय-सर्वोदय।
राष्ट्रीय पुर्निमाण के इन्हीं व्यापक संदर्भों में संत विनोबा सन् 1967 में भूदान-ग्रामदान के शुभसंकल्प को लेकर बिहार की यात्रा पर थे। इस तूफानी यात्रा के क्रम में ही बिहार के प्रतिभासंपन्न एक समर्पित युवा सामाजिक कार्यकर्ता श्री विंदेश्वर पाठक संत विनोबा से मार्गदर्शन प्राप्त करने आए। संत विनोबा से श्री विंदेश्वर पाठक के दर्शन-लाभ का साक्षित्व मुझे प्राप्त हुआ था। आचार्य विनोबा ने पाठक जी को ‘भंगी-मुक्ति’ का मिशन सुझाया। बस क्या था, युवा समाज सेवी विंदेश्वर पाठक निष्ठा और समर्पण के साथ इस मिशन की मशाल लेकर चल दिए, जिस कारवों में आज लाखों लोग चल रहे हैं। सच पूछिए तो डॉक्टर विंदेश्वर पाठक महात्मा गाँधी और संत विनोबा के अधूरे कार्यों को आगे बढ़ा रहा हैं।
मेरे लिए 31 मार्च 1999 को सुखानुभूति का क्षण था जब मैं डॉक्टर पाठक जी के आमंत्रण पर दिल्ली- स्थित सुलभ इंटरनेशनल सामाजिक सेवा-संस्थान की प्रार्थना-सभा में उपस्थित हुआ। सैकड़ों सुलभ- कार्यकर्ताओं के कंठ से ‘श्रीराम चंद्र कृपालु भजमन हरण भव भय दारूणाम्’ और ‘आओ हम सब मिल-जुलकर बनाएँ, सुलभ-सुखद संसार’ गीतों को सुमधुर स्वर में सुनकर मैं अभिभूत हो गया। ‘सुलभ-सुखद संसार’ के मिशन के सामूहिक संकल्प की ध्वनि से प्रार्थना-कक्ष अनुगुंजित हो रहा था। यह देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि जिस उद्देश्य को लेकर हम सभी गाँधीवादी सामाजिक कार्य कर रहे हैं, उसे ही सुलभ इंटरनेशल सामाजिक सेवा-संस्थान में भी मूर्त रूप दिया जा रहा है। प्रार्थना-सभा में हमसे ‘दो शब्द’ कहने का आग्रह किया गया, जिसे सुनकर डॉक्टर विन्देश्वर पाठक ने मेरे विचारों और अनुभवों को रेखांकित करने का संकल्प किया, जिसका प्रत्यक्ष रूप इस पुस्तक के माध्यम आपके सम्मुख उपस्थित है। मेरे विचारों को युवा पीढ़ी के समक्ष उपस्थित करने के लिए डॉक्टर पाठक ने जो यज्ञ किया है इसके लिए हम उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। हृदय से आभार व्यक्त करते हैं।
सुलभ-साहित्य-अकादमी के अध्यक्ष आचार्य निशांतकेतु के प्रति हम आभार व्यक्त करते हैं, क्योंकि उनके पौरोहित्य में ही यह सारस्वत अनुष्ठान सम्पन्न हुआ है।
राष्ट्रीय पुर्निमाण के इन्हीं व्यापक संदर्भों में संत विनोबा सन् 1967 में भूदान-ग्रामदान के शुभसंकल्प को लेकर बिहार की यात्रा पर थे। इस तूफानी यात्रा के क्रम में ही बिहार के प्रतिभासंपन्न एक समर्पित युवा सामाजिक कार्यकर्ता श्री विंदेश्वर पाठक संत विनोबा से मार्गदर्शन प्राप्त करने आए। संत विनोबा से श्री विंदेश्वर पाठक के दर्शन-लाभ का साक्षित्व मुझे प्राप्त हुआ था। आचार्य विनोबा ने पाठक जी को ‘भंगी-मुक्ति’ का मिशन सुझाया। बस क्या था, युवा समाज सेवी विंदेश्वर पाठक निष्ठा और समर्पण के साथ इस मिशन की मशाल लेकर चल दिए, जिस कारवों में आज लाखों लोग चल रहे हैं। सच पूछिए तो डॉक्टर विंदेश्वर पाठक महात्मा गाँधी और संत विनोबा के अधूरे कार्यों को आगे बढ़ा रहा हैं।
मेरे लिए 31 मार्च 1999 को सुखानुभूति का क्षण था जब मैं डॉक्टर पाठक जी के आमंत्रण पर दिल्ली- स्थित सुलभ इंटरनेशनल सामाजिक सेवा-संस्थान की प्रार्थना-सभा में उपस्थित हुआ। सैकड़ों सुलभ- कार्यकर्ताओं के कंठ से ‘श्रीराम चंद्र कृपालु भजमन हरण भव भय दारूणाम्’ और ‘आओ हम सब मिल-जुलकर बनाएँ, सुलभ-सुखद संसार’ गीतों को सुमधुर स्वर में सुनकर मैं अभिभूत हो गया। ‘सुलभ-सुखद संसार’ के मिशन के सामूहिक संकल्प की ध्वनि से प्रार्थना-कक्ष अनुगुंजित हो रहा था। यह देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि जिस उद्देश्य को लेकर हम सभी गाँधीवादी सामाजिक कार्य कर रहे हैं, उसे ही सुलभ इंटरनेशल सामाजिक सेवा-संस्थान में भी मूर्त रूप दिया जा रहा है। प्रार्थना-सभा में हमसे ‘दो शब्द’ कहने का आग्रह किया गया, जिसे सुनकर डॉक्टर विन्देश्वर पाठक ने मेरे विचारों और अनुभवों को रेखांकित करने का संकल्प किया, जिसका प्रत्यक्ष रूप इस पुस्तक के माध्यम आपके सम्मुख उपस्थित है। मेरे विचारों को युवा पीढ़ी के समक्ष उपस्थित करने के लिए डॉक्टर पाठक ने जो यज्ञ किया है इसके लिए हम उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। हृदय से आभार व्यक्त करते हैं।
सुलभ-साहित्य-अकादमी के अध्यक्ष आचार्य निशांतकेतु के प्रति हम आभार व्यक्त करते हैं, क्योंकि उनके पौरोहित्य में ही यह सारस्वत अनुष्ठान सम्पन्न हुआ है।
-कृष्णराज मेहता
साधना केंद
राजगाट, वाराणसी
साधना केंद
राजगाट, वाराणसी
श्री कृष्णराज मेहता का संक्षिप्त जीवन-वृत्त
सर्वोदय के सुप्रसिद्ध नेता, प्रखर चिंतक और सुबुद्ध विचारक श्री कृष्णराज
मेहता का जन्म 26 नवंबर 1920 ईस्वी को राजस्थान में पाली के नजदीक एक
छोटा-सा-गाँव खिमेल में हुआ था। पिता श्री मोहनराज मेहता एवं माता भिरवी
देवी के प्रथम पुत्र हैं। उन्होंने बचपन में ही माता-पिता की छत्रच्छाया
खो दी। दसवीं कक्षा तक की शिक्षा जोधपुर के दरबार हाई स्कूल से प्राप्त
की। वे 1940 ईस्वी में ऊषा देवी लोढ़ा के साथ प्रणय-सूत्र में बँधे। हाई
स्कूल की शिक्षा समाप्त करने के बाद उच्च शिक्षा-हेतु वे फर्ग्युसन कॉलेज,
पूना गए।
पूना उन दिनों राष्ट्रवादी गतिविधियों के प्रमुख केंद्रों में से एक था। वहाँ शिक्षा ग्रहण करने के दौरान ही महात्मा गाँधी के प्रति इनका आकर्षण बढ़ने लगा। राष्ट्रीय चिंतन से अनुप्राणित होकर श्री कृष्णराज मेहता ने खादी अपना ली और बापू द्वारा संपादित पत्र ‘हरिजन’ नियमित पढ़ने लगे। कांग्रेस की गतिविधियों में रूचि रखने लगे। देश-सेवा की उत्कट भावना के कारण महात्मा गाँधी से इनका पत्र-व्यवहार होने लगा।
महात्मा गाँधी के बुलाने पर मार्च 1942 ईस्वी को सेवाग्राम-आश्रम गए। उनके दर्शन-लाभ के बाद बातचीत की, बापू ने आपको टटोलते हुए एवं सावधान करते हुए कहा कि यहाँ (सेवाग्राम) विश्व की अविरोधी देश-सेवा की शिक्षा होती है, अर्थात् जिस सेवा से किसी का भी अहित न हो। इस मुद्दे पर स्वीकृति पाने पर बापू ने दूसरी शर्त रखी-देश-सेवा कोई खेल नहीं है। इसके लिए जीवन-समर्पण की तैयारी होनी चाहिए। देश-सेवा-हेतु जीवन-समर्पण की तैयारी बताने पर बापू ने फिर एक चेतावनी दी कि आश्रम-जीवन के लिए, एकादश-व्रत का पालन अनिवार्य है। इन सभी शर्तों पर स्वीकृति पा लेने के बाद बापू ने आपको आश्रम-प्रवेश की अनुमति दे दी। इस प्रकार आत्मोदय एवं सर्वोदय के लिए महात्मा गाँधी द्वारा मिली यह प्रथम दीक्षा थी।
महात्मा गाँधी ने बाद में श्री कृष्णराज मेहता को आचार्य विनोबा से मिलने का सुझाव दिया। आचार्य विनोबा से मिलने आप सुरगाँव (वर्धा) गए। वे वहाँ महात्मा गाँधी द्वारा बताई गई सारी रचनात्मक प्रवृत्तियों को क्रियान्वित कर रहे थे। सुरगाँव में आपने पहली बार संत विनोबा के दर्शन किए। वहाँ एक सप्ताह आचार्य विनोबा के संपर्क-सान्निध्य में रहने का सौभाग्य आपको प्राप्त हुआ। पवनार- आश्रम से सुरगाँव तक आते-जाते संत विनोबा से कई विषयों पर चर्चा होती रहती थी। उनके शास्त्रसंगत, तर्संगत एवं रचनात्मक अभियान से आपकी जिज्ञासा-समस्याओं का समाधान ही नहीं हुआ, बल्कि हृदय अत्यंत प्रभावित हो गया। उस समय संत विनोबा-साहचर्य के दौरान, आपकी सूझ-बूझ, तार्किकता और चिंतन की गंभीरता को देखते हुए एक दिन संत विनोबा ने अचानक ही कहा ‘आपके लिए आश्रम के द्वार खुले हैं।’ इस बात की जानकारी जब महात्मा गाँधी को हुई तो उन्होंने सराहते हुए कहा कि ‘यह विनोबा के द्वारा तुमको दिया गया एक बड़ा सर्टिफिकेट है।’
वर्धा में गाँधी एवं विनोबा से मिलने के बाद जब पूना लौटे तो कॉलेज की शिक्षा में आपको रुचि न रही। दो महीने पूना रहकर वापस परंधाम आश्रम वर्धा आ गए। आचार्य विनोबा ने रचनात्मक प्रयोग-हेतु वल्लभस्वामी की मदद के लिए आपको सुरगाँव जाने का परामर्श दिया। सुरगाँव में आप 8 अगस्त 1942 ईस्वी तक रचनात्मक कार्यों में लगे रहे।
9 अगस्त 1942 ईस्वी को ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन शुरू हुआ। संत विनोबा ने आपको गाँधी के ‘करो या मरो’ संदेश को वर्धा के गाँव-गाँव तक पहुँचाने की बात बताई तथा सत्याग्रह-टोली तैयार करवाने को कहा। आप शिव-संकल्प के साथ इस काम में लग गए। भूमिगत रहकर आपने यह काम शुरू कर दिया। एक दिन (2 अक्टूबर) सत्याग्रह करते हुए आपको पकड़ लिया गया तथा छह महीने कठोर कारावास की यातनाएँ भोगीं।
अप्रिल 1943 ईस्वी को जेल से छूटने के बाद भी आप आजादी के आंदोलन एवं रचनात्मक प्रवृत्तियों से जुड़े रहे। बंबई के श्री केदारनाथ से प्रभावित होकर, खादी-ग्रामोद्योग-केंद्र (कोराकेंद्र) में बतौर व्यवस्थापक का काम करने लगे।
महात्मा गाँधी की शहादत के बाद आचार्य विनोबा की प्रेरणा से ‘सर्वोदय-समाज’ तथा ‘सर्व-सेवा-संघ’ का निर्माण हुआ। इस सर्व-सेवा-संघ का पहला मंत्री वल्लभस्वामी को बनाया गया। सन् 1949 में संत विनोबा एवं वल्लभस्वामी का कोराकेंद्र (बंबई) में आना हुआ। इन दोनों महापुरुषों ने ‘सर्व-सेवा-संघ’ के लिए आपको वर्धा चलने का आग्रह किया। इस प्रकार आप बंबई से गोपुरी, वर्धा (जहाँ सर्व-सेवा-संघ का दफ्तर था) आए। गोपुरी, वर्धा में कार्यकर्ताओं ने सामूहिक साधना की दृष्टि से ‘साम्ययोगी’ परिवार का प्रयोग किया था। इस प्रयोग में आप अपनी पत्नी उषा देवी तथा दो साल की पुत्री मीरा के साथ शामिल हुए। राजस्थानी रूढ़िग्रस्त परिवार से आने के बावजूद, उषा देवी ने इस कठिन त्यागमय जीवन को, पूरे समर्पण-भावना के साथ स्वीकार किया। एक साल के बाद सर्व-सेवा-संघ का कार्यालय सेवाग्राम में स्थानांतरित किया गया। वहाँ बापू के सेवा एवं ज्ञान के समवाय की दृष्टि से शुरू किए गए रचनात्मक प्रयोगों में आप भी शामिल हुए।
सन् 1951 में शिवरामपल्ली सर्वोदय-सम्मेलन के बाद जब संत विनोबा तेलंगाना में पदयात्रा कर रहे थे, उसी दौरान एक दिन दान में उन्हें भूमि मिली। उसी के साथ भूदान-यज्ञ की शुरुआत हुई। सन् 1952 में सेवापुरी सर्वोदय-सम्मेलन में उन्होंने आगामी 2 वर्षों में 25 लाख एक एकड़ जमीन प्राप्त करने का संकल्प किया। अगले वर्ष चांडील के सर्वोदय-सम्मेलन में एक प्रकार से सर्वोदय का घोषणा-पत्र पेश किया गया, जिसका सूत्र था-
‘हिंसा-विरोधी दंड शक्ति से भिन्न तीसरी अहिंसक लोक-शक्ति के द्वारा अहिंसक क्रांति’
सन् 1954 में बोधगया में ऐतिहासिक सर्वोदय-सम्मेलन हुआ, जिसमें लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने ‘भूदान-मूलक ग्रामोद्योग-प्रधान अहिंसक क्रांति’ के लिए अपने जीवन-दान की घोषणा की, जिसमें आप भी सम्मिलित थे। अब तक 32 लाख एकड़ जमीन भूदान में मिल चुकी थी। इस भूमि के वितरण के लिए एक अखिल भारतीय भूदान-यज्ञ-समिति बनी, जिसका आपको संयोजक बनाया गया, समिति का कार्यालय बिहार के गया जिला में रखा गया। उसी साल सोखोदेवरा, गया में ग्राम-निर्माण-मंडल की स्थापना लोकनायक जयप्रकाश ने की, जिसके अध्यक्ष जयप्रकाश तथा कोषाध्यक्ष का कार्यभार आपको दिया गया। सर्व-सेवा-संघ का दफ्तर दो साल के बाद गया से खादी-ग्राम (मुंगेर) स्थानान्तरित हो गया। वहाँ श्री धीरेंद्र मजूमदार की प्रेरणा से जीवन में श्रमनिष्ठा एवं रचात्मक प्रवृत्ति के प्रयोग में शामिल रहते हुए आपने कार्यालय-व्यवस्था का कार्य भी सँभाला।
बाद में सर्वोदय-साहित्य-प्रकाशन तथा भूदान-यज्ञ पत्रिका-प्रकाशन के लिए सर्व-सेवा-संघ का दफ्तर काशी ले जाने का निर्णय हुआ। आप अब काशी आ गए। सन् 1949-50 का साम्ययोगी परिवार का प्रयोग एक बार फिर से करने को सोचा गया। 2 अक्टूबर 1959 ईस्वी को सामूहिक जीवन के प्रयोग के लिए साधना-केंद्र की राजघाट में स्थापना की गई। इस प्रयोग में सर्वश्री शंकरराव देव, दादा धर्माधिकार, विमला ठाकर, सिद्धराज चड्ढा, निर्मला देश पांडेय इत्यादि कई प्रमुख लोग शामिल थे। साधना-केंद्र के व्यवस्थापक के रूप में आपने अपनी विलक्षण कार्य-कुशलता का परिचय दिया। साधना-केंद्र में सर्वोदय-मंडल तथा शांति-सेना के संयोजकों का प्रशिक्षण का काम भी होता था।
सन् 1960-61 में साधना-केंद्र, राजघाट में गाँधी- विचारधारा के अध्ययन एवं शोध के लिए लोकनायक जयप्रकाश ने गाँधी-विद्या-संस्थान की स्थापना की। इस संस्था के प्रथम अध्यक्ष श्री शंकरराव देव और निर्देशक जयप्रकाश ने आपको कोषाध्यक्ष नियुक्त किया। सन् 1962 में संत विनोबा तथा अरविंद-आश्रम-पांडिचेरी की माता जी की प्रेरणा से सर्व-सेवा-संघ एवं वर्ल्ड यूनियन (पांडिचेरी) के संयुक्त तत्त्वावधान में एक गोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसका विषय था ‘आत्मज्ञान और विज्ञान’ इस गोष्ठी का संयोजक आपको तथा वर्ल्ड यूनियन के श्री जे. स्मिथ को बनाया गया। गोष्ठी की अध्यक्षता महामहिम राष्ट्रपति श्री राजेन्द्र प्रसाद ने की थी। गोष्ठी के निष्कर्ष को लेकर आपकी एक टीम भारत के कई विश्वविद्यालयों, धार्मिक संस्थाओं तथा आध्यात्मिक बनी, जिसका आपको संयोजक बनाया गया। इसकी प्रथम बैठक 1963 ईस्वी में रायपुर में लोकनायक जयप्रकाश की अध्यक्षता में तथा संत विनोबा के सान्निध्य में संपन्न हुई। काका साहेब कालेलकर इस सर्वोदय- बैठक में विशेष रूप से आमंत्रित थे।
सन् 1964-65 तक देशभर में ग्रामदान-आंदोलन जोर पकड़ने लगा। हरिजन के साथ मंदिर-प्रवेश करने पर संत विनोबा पर देवघर (बिहार) में लाठी-प्रहार हुआ, जिससे उन्हें सर में चक्कर आने लगा तथा कान से कम सुनाई देने लगा। इस घटना के बाद आचार्य विनोबा को वाहन का सहारा लेना पड़ा। 11 सितम्बर 1965 ईस्वी को पटना से उनकी वाहन-यात्रा शुरू हुई। उनकी इस तूफानी यात्रा के संयोजन तथा कार्यभार आपने कुशलता-पूर्वक सँभाला, जिसमें कई महत्त्वपूर्ण लोगों के साथ चर्चा, गोष्ठियाँ, सम्मेलन इत्यादि हुए। सन् 1969 में राजगीर में हुए सर्वोदय-समाज के सम्मेलन तक यह यात्रा जारी रही। इसी वर्ष गाँधी-शताब्दी-वर्ष के निमित्त खान अब्दुल गफ्फार खान भारत आए थे। वे आचार्य विनोबा से मिलना चाहते थे। अत: उनसे मिलने आचार्य विनोबा सेवाग्राम पहुँचे। आपकी कर्मठता, समर्पण-निष्ठा और सेवा-भावना से प्रभावित होकर आचार्य विनोबा आपको अपने साथ सेवाग्राम ले गए। उनके स्नेहाधीन रहकर आपने अपनी कुशल नेतृत्व-क्षमता का परिचय दिया।
सन् 1970 को संत विनोबा की हीरक-जयंती सेवाग्राम में मनाई गई। ग्रामदान-पुष्टि-अभियान के लिए आचार्य विनोबा ने सुशीला अग्रवाल तथा निर्मला देश पांडेय के साथ आपको सहरसा जाने के लिए कहा। इस अभियान में आप तीन वर्षों तक बिहार एवं देश के कई कर्मठ तथा उत्साही कार्यकर्ताओं के साथ कंधा से कंधा मिलाकर आप काम करते रहे।
पूना उन दिनों राष्ट्रवादी गतिविधियों के प्रमुख केंद्रों में से एक था। वहाँ शिक्षा ग्रहण करने के दौरान ही महात्मा गाँधी के प्रति इनका आकर्षण बढ़ने लगा। राष्ट्रीय चिंतन से अनुप्राणित होकर श्री कृष्णराज मेहता ने खादी अपना ली और बापू द्वारा संपादित पत्र ‘हरिजन’ नियमित पढ़ने लगे। कांग्रेस की गतिविधियों में रूचि रखने लगे। देश-सेवा की उत्कट भावना के कारण महात्मा गाँधी से इनका पत्र-व्यवहार होने लगा।
महात्मा गाँधी के बुलाने पर मार्च 1942 ईस्वी को सेवाग्राम-आश्रम गए। उनके दर्शन-लाभ के बाद बातचीत की, बापू ने आपको टटोलते हुए एवं सावधान करते हुए कहा कि यहाँ (सेवाग्राम) विश्व की अविरोधी देश-सेवा की शिक्षा होती है, अर्थात् जिस सेवा से किसी का भी अहित न हो। इस मुद्दे पर स्वीकृति पाने पर बापू ने दूसरी शर्त रखी-देश-सेवा कोई खेल नहीं है। इसके लिए जीवन-समर्पण की तैयारी होनी चाहिए। देश-सेवा-हेतु जीवन-समर्पण की तैयारी बताने पर बापू ने फिर एक चेतावनी दी कि आश्रम-जीवन के लिए, एकादश-व्रत का पालन अनिवार्य है। इन सभी शर्तों पर स्वीकृति पा लेने के बाद बापू ने आपको आश्रम-प्रवेश की अनुमति दे दी। इस प्रकार आत्मोदय एवं सर्वोदय के लिए महात्मा गाँधी द्वारा मिली यह प्रथम दीक्षा थी।
महात्मा गाँधी ने बाद में श्री कृष्णराज मेहता को आचार्य विनोबा से मिलने का सुझाव दिया। आचार्य विनोबा से मिलने आप सुरगाँव (वर्धा) गए। वे वहाँ महात्मा गाँधी द्वारा बताई गई सारी रचनात्मक प्रवृत्तियों को क्रियान्वित कर रहे थे। सुरगाँव में आपने पहली बार संत विनोबा के दर्शन किए। वहाँ एक सप्ताह आचार्य विनोबा के संपर्क-सान्निध्य में रहने का सौभाग्य आपको प्राप्त हुआ। पवनार- आश्रम से सुरगाँव तक आते-जाते संत विनोबा से कई विषयों पर चर्चा होती रहती थी। उनके शास्त्रसंगत, तर्संगत एवं रचनात्मक अभियान से आपकी जिज्ञासा-समस्याओं का समाधान ही नहीं हुआ, बल्कि हृदय अत्यंत प्रभावित हो गया। उस समय संत विनोबा-साहचर्य के दौरान, आपकी सूझ-बूझ, तार्किकता और चिंतन की गंभीरता को देखते हुए एक दिन संत विनोबा ने अचानक ही कहा ‘आपके लिए आश्रम के द्वार खुले हैं।’ इस बात की जानकारी जब महात्मा गाँधी को हुई तो उन्होंने सराहते हुए कहा कि ‘यह विनोबा के द्वारा तुमको दिया गया एक बड़ा सर्टिफिकेट है।’
वर्धा में गाँधी एवं विनोबा से मिलने के बाद जब पूना लौटे तो कॉलेज की शिक्षा में आपको रुचि न रही। दो महीने पूना रहकर वापस परंधाम आश्रम वर्धा आ गए। आचार्य विनोबा ने रचनात्मक प्रयोग-हेतु वल्लभस्वामी की मदद के लिए आपको सुरगाँव जाने का परामर्श दिया। सुरगाँव में आप 8 अगस्त 1942 ईस्वी तक रचनात्मक कार्यों में लगे रहे।
9 अगस्त 1942 ईस्वी को ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन शुरू हुआ। संत विनोबा ने आपको गाँधी के ‘करो या मरो’ संदेश को वर्धा के गाँव-गाँव तक पहुँचाने की बात बताई तथा सत्याग्रह-टोली तैयार करवाने को कहा। आप शिव-संकल्प के साथ इस काम में लग गए। भूमिगत रहकर आपने यह काम शुरू कर दिया। एक दिन (2 अक्टूबर) सत्याग्रह करते हुए आपको पकड़ लिया गया तथा छह महीने कठोर कारावास की यातनाएँ भोगीं।
अप्रिल 1943 ईस्वी को जेल से छूटने के बाद भी आप आजादी के आंदोलन एवं रचनात्मक प्रवृत्तियों से जुड़े रहे। बंबई के श्री केदारनाथ से प्रभावित होकर, खादी-ग्रामोद्योग-केंद्र (कोराकेंद्र) में बतौर व्यवस्थापक का काम करने लगे।
महात्मा गाँधी की शहादत के बाद आचार्य विनोबा की प्रेरणा से ‘सर्वोदय-समाज’ तथा ‘सर्व-सेवा-संघ’ का निर्माण हुआ। इस सर्व-सेवा-संघ का पहला मंत्री वल्लभस्वामी को बनाया गया। सन् 1949 में संत विनोबा एवं वल्लभस्वामी का कोराकेंद्र (बंबई) में आना हुआ। इन दोनों महापुरुषों ने ‘सर्व-सेवा-संघ’ के लिए आपको वर्धा चलने का आग्रह किया। इस प्रकार आप बंबई से गोपुरी, वर्धा (जहाँ सर्व-सेवा-संघ का दफ्तर था) आए। गोपुरी, वर्धा में कार्यकर्ताओं ने सामूहिक साधना की दृष्टि से ‘साम्ययोगी’ परिवार का प्रयोग किया था। इस प्रयोग में आप अपनी पत्नी उषा देवी तथा दो साल की पुत्री मीरा के साथ शामिल हुए। राजस्थानी रूढ़िग्रस्त परिवार से आने के बावजूद, उषा देवी ने इस कठिन त्यागमय जीवन को, पूरे समर्पण-भावना के साथ स्वीकार किया। एक साल के बाद सर्व-सेवा-संघ का कार्यालय सेवाग्राम में स्थानांतरित किया गया। वहाँ बापू के सेवा एवं ज्ञान के समवाय की दृष्टि से शुरू किए गए रचनात्मक प्रयोगों में आप भी शामिल हुए।
सन् 1951 में शिवरामपल्ली सर्वोदय-सम्मेलन के बाद जब संत विनोबा तेलंगाना में पदयात्रा कर रहे थे, उसी दौरान एक दिन दान में उन्हें भूमि मिली। उसी के साथ भूदान-यज्ञ की शुरुआत हुई। सन् 1952 में सेवापुरी सर्वोदय-सम्मेलन में उन्होंने आगामी 2 वर्षों में 25 लाख एक एकड़ जमीन प्राप्त करने का संकल्प किया। अगले वर्ष चांडील के सर्वोदय-सम्मेलन में एक प्रकार से सर्वोदय का घोषणा-पत्र पेश किया गया, जिसका सूत्र था-
‘हिंसा-विरोधी दंड शक्ति से भिन्न तीसरी अहिंसक लोक-शक्ति के द्वारा अहिंसक क्रांति’
सन् 1954 में बोधगया में ऐतिहासिक सर्वोदय-सम्मेलन हुआ, जिसमें लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने ‘भूदान-मूलक ग्रामोद्योग-प्रधान अहिंसक क्रांति’ के लिए अपने जीवन-दान की घोषणा की, जिसमें आप भी सम्मिलित थे। अब तक 32 लाख एकड़ जमीन भूदान में मिल चुकी थी। इस भूमि के वितरण के लिए एक अखिल भारतीय भूदान-यज्ञ-समिति बनी, जिसका आपको संयोजक बनाया गया, समिति का कार्यालय बिहार के गया जिला में रखा गया। उसी साल सोखोदेवरा, गया में ग्राम-निर्माण-मंडल की स्थापना लोकनायक जयप्रकाश ने की, जिसके अध्यक्ष जयप्रकाश तथा कोषाध्यक्ष का कार्यभार आपको दिया गया। सर्व-सेवा-संघ का दफ्तर दो साल के बाद गया से खादी-ग्राम (मुंगेर) स्थानान्तरित हो गया। वहाँ श्री धीरेंद्र मजूमदार की प्रेरणा से जीवन में श्रमनिष्ठा एवं रचात्मक प्रवृत्ति के प्रयोग में शामिल रहते हुए आपने कार्यालय-व्यवस्था का कार्य भी सँभाला।
बाद में सर्वोदय-साहित्य-प्रकाशन तथा भूदान-यज्ञ पत्रिका-प्रकाशन के लिए सर्व-सेवा-संघ का दफ्तर काशी ले जाने का निर्णय हुआ। आप अब काशी आ गए। सन् 1949-50 का साम्ययोगी परिवार का प्रयोग एक बार फिर से करने को सोचा गया। 2 अक्टूबर 1959 ईस्वी को सामूहिक जीवन के प्रयोग के लिए साधना-केंद्र की राजघाट में स्थापना की गई। इस प्रयोग में सर्वश्री शंकरराव देव, दादा धर्माधिकार, विमला ठाकर, सिद्धराज चड्ढा, निर्मला देश पांडेय इत्यादि कई प्रमुख लोग शामिल थे। साधना-केंद्र के व्यवस्थापक के रूप में आपने अपनी विलक्षण कार्य-कुशलता का परिचय दिया। साधना-केंद्र में सर्वोदय-मंडल तथा शांति-सेना के संयोजकों का प्रशिक्षण का काम भी होता था।
सन् 1960-61 में साधना-केंद्र, राजघाट में गाँधी- विचारधारा के अध्ययन एवं शोध के लिए लोकनायक जयप्रकाश ने गाँधी-विद्या-संस्थान की स्थापना की। इस संस्था के प्रथम अध्यक्ष श्री शंकरराव देव और निर्देशक जयप्रकाश ने आपको कोषाध्यक्ष नियुक्त किया। सन् 1962 में संत विनोबा तथा अरविंद-आश्रम-पांडिचेरी की माता जी की प्रेरणा से सर्व-सेवा-संघ एवं वर्ल्ड यूनियन (पांडिचेरी) के संयुक्त तत्त्वावधान में एक गोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसका विषय था ‘आत्मज्ञान और विज्ञान’ इस गोष्ठी का संयोजक आपको तथा वर्ल्ड यूनियन के श्री जे. स्मिथ को बनाया गया। गोष्ठी की अध्यक्षता महामहिम राष्ट्रपति श्री राजेन्द्र प्रसाद ने की थी। गोष्ठी के निष्कर्ष को लेकर आपकी एक टीम भारत के कई विश्वविद्यालयों, धार्मिक संस्थाओं तथा आध्यात्मिक बनी, जिसका आपको संयोजक बनाया गया। इसकी प्रथम बैठक 1963 ईस्वी में रायपुर में लोकनायक जयप्रकाश की अध्यक्षता में तथा संत विनोबा के सान्निध्य में संपन्न हुई। काका साहेब कालेलकर इस सर्वोदय- बैठक में विशेष रूप से आमंत्रित थे।
सन् 1964-65 तक देशभर में ग्रामदान-आंदोलन जोर पकड़ने लगा। हरिजन के साथ मंदिर-प्रवेश करने पर संत विनोबा पर देवघर (बिहार) में लाठी-प्रहार हुआ, जिससे उन्हें सर में चक्कर आने लगा तथा कान से कम सुनाई देने लगा। इस घटना के बाद आचार्य विनोबा को वाहन का सहारा लेना पड़ा। 11 सितम्बर 1965 ईस्वी को पटना से उनकी वाहन-यात्रा शुरू हुई। उनकी इस तूफानी यात्रा के संयोजन तथा कार्यभार आपने कुशलता-पूर्वक सँभाला, जिसमें कई महत्त्वपूर्ण लोगों के साथ चर्चा, गोष्ठियाँ, सम्मेलन इत्यादि हुए। सन् 1969 में राजगीर में हुए सर्वोदय-समाज के सम्मेलन तक यह यात्रा जारी रही। इसी वर्ष गाँधी-शताब्दी-वर्ष के निमित्त खान अब्दुल गफ्फार खान भारत आए थे। वे आचार्य विनोबा से मिलना चाहते थे। अत: उनसे मिलने आचार्य विनोबा सेवाग्राम पहुँचे। आपकी कर्मठता, समर्पण-निष्ठा और सेवा-भावना से प्रभावित होकर आचार्य विनोबा आपको अपने साथ सेवाग्राम ले गए। उनके स्नेहाधीन रहकर आपने अपनी कुशल नेतृत्व-क्षमता का परिचय दिया।
सन् 1970 को संत विनोबा की हीरक-जयंती सेवाग्राम में मनाई गई। ग्रामदान-पुष्टि-अभियान के लिए आचार्य विनोबा ने सुशीला अग्रवाल तथा निर्मला देश पांडेय के साथ आपको सहरसा जाने के लिए कहा। इस अभियान में आप तीन वर्षों तक बिहार एवं देश के कई कर्मठ तथा उत्साही कार्यकर्ताओं के साथ कंधा से कंधा मिलाकर आप काम करते रहे।
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