स्वास्थ्य-चिकित्सा >> भारतीय जड़ी-बूटियाँ और फलों के अचूक नुस्खे भारतीय जड़ी-बूटियाँ और फलों के अचूक नुस्खेमहेन्द्र मित्तल
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जड़ी-बूटियों और फलों के अचूक नुस्खे...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
महर्षि धन्वन्तरि आयुर्वेद के जनक माने जाते हैं। उनसे भी पहले
अश्वनीकुमारों ने आर्युर्वेदिक चिकित्सा की नींव रखी थी। बाद में महर्षि
चरक ने इस ज्ञान को विस्तृत फलक प्रदान किया। सदियों से भारतीय ऋषि
मुनियों ने प्रकृति के मध्य से विविध जड़ी-बूटियों की खोज की और मनुष्य को
स्वस्थ रखने में उन जड़ी-बूटियों का उपोयग किया। मनुष्य के स्वास्थ्य के
लिए जड़ी-बूटियाँ वरदान सिद्ध हुईं।
प्रकृति ने असंख्य रोग यदि उत्पन्न किए तो उनका निदान करने हेतु जड़ी-बूटियों को भी जन्म दिया। कोई ऐसा रोग नहीं है जिसका उपचार इन जड़ी-बूटियों के माध्यम से न किया जा सके। इस प्रकार प्रकृति यदि विनाश का कारण बनी है तो वह मानव जीवन की सशक्त रक्षक भी है।
वर्तमान काल में मनुष्य का जीवन इतना अधिक संघर्षमय हो गया है कि उसे अपने स्वास्थ्य की कम अपनी भौतिक-समृद्धि की चिन्ता अधिक है। स्वास्थ्य की देखभाल वह भागते-भागते करना चाहता है, अथवा अत्यधिक आरामतलब होने के कारण उसकी ओर से उदासीन हो जाता है। ऐलोपैथिक दवाओं का अत्यधिक सेवन कुछ समय के लिए उसे अवश्य स्वस्थ होने का एहसास करा देता है, किन्तु स्थायी स्वास्थ्य उसे कभी प्राप्त नहीं हो पाता। इसलिए जीवन की दौड़ में वह जल्दी थककर या तो बैठ जाता है या फिर दौड़ से ही बाहर हो जाता है।
आयुर्वेदिक चिकित्सा-पद्धति थोड़ी श्रम साध्य अवश्य है, किंतु शरीर को निरोग रखने और स्थायी स्वास्थ्य प्रदान करने में इस चिकित्सा पद्धति का कोई जोड़ नहीं है।
इस पुस्तक में उन ऋषि-मुनियों द्वारा खोजे गए अधिकांश अमूल्य नुस्खों, जड़ी-बूटियों और रोग-निदान के प्राकृतिक उपायों का सरलता से विवरण प्रस्तुत किया गया है, जिन्हें एक बार आजमाकर कोई भी व्यक्ति अपने को स्वस्थ बना सकता है।
एक बात का अवश्य ध्यान रखिए कि स्वस्थ शरीर और जीवन आपके पास है तो आपका वर्तमान और भविष्य दोनों सुरक्षित हैं; अन्यथा रोगी काया लेकर आप अंधकार भरे और कष्टपूर्ण मार्गों पर ही चल पाते हैं। आज जो आपके साथ दो कदम चल रहे हैं, आपके रोगी होते ही वे आपका साथ छोड़ जाने वाले हैं।
शरीर में ‘पेट’ वह स्थान है, जिसके लिए यह सारा कार्य-व्यापार चल रहा है। उसे सबसे पहले स्वस्थ और निरोगी रखिए। पेट के खराब होते ही आपका शरीर रोगों से घिर जाएगा। पेट ठीक रहेगा तो रोग आपके शरीर के निकट आने का साहस नहीं कर पाएँगे। याद रखिए, ‘जान है तो जहान है।’ यदि यह ‘जी’ (जीवन) रोगी होगा तो आपका सारा अस्तित्व ही रोगी हो जाएगा और जल्दी ही जर्जर होकर भरभराकर गिर जाएगा।
इसलिए इस पुस्तक के आयुर्वेदिक नुस्खों को आज से ही अपनाइए और अपने स्वस्थ जीवन की गारंटी मुझसे ले लीजिए। धन्यवाद।
प्रकृति ने असंख्य रोग यदि उत्पन्न किए तो उनका निदान करने हेतु जड़ी-बूटियों को भी जन्म दिया। कोई ऐसा रोग नहीं है जिसका उपचार इन जड़ी-बूटियों के माध्यम से न किया जा सके। इस प्रकार प्रकृति यदि विनाश का कारण बनी है तो वह मानव जीवन की सशक्त रक्षक भी है।
वर्तमान काल में मनुष्य का जीवन इतना अधिक संघर्षमय हो गया है कि उसे अपने स्वास्थ्य की कम अपनी भौतिक-समृद्धि की चिन्ता अधिक है। स्वास्थ्य की देखभाल वह भागते-भागते करना चाहता है, अथवा अत्यधिक आरामतलब होने के कारण उसकी ओर से उदासीन हो जाता है। ऐलोपैथिक दवाओं का अत्यधिक सेवन कुछ समय के लिए उसे अवश्य स्वस्थ होने का एहसास करा देता है, किन्तु स्थायी स्वास्थ्य उसे कभी प्राप्त नहीं हो पाता। इसलिए जीवन की दौड़ में वह जल्दी थककर या तो बैठ जाता है या फिर दौड़ से ही बाहर हो जाता है।
आयुर्वेदिक चिकित्सा-पद्धति थोड़ी श्रम साध्य अवश्य है, किंतु शरीर को निरोग रखने और स्थायी स्वास्थ्य प्रदान करने में इस चिकित्सा पद्धति का कोई जोड़ नहीं है।
इस पुस्तक में उन ऋषि-मुनियों द्वारा खोजे गए अधिकांश अमूल्य नुस्खों, जड़ी-बूटियों और रोग-निदान के प्राकृतिक उपायों का सरलता से विवरण प्रस्तुत किया गया है, जिन्हें एक बार आजमाकर कोई भी व्यक्ति अपने को स्वस्थ बना सकता है।
एक बात का अवश्य ध्यान रखिए कि स्वस्थ शरीर और जीवन आपके पास है तो आपका वर्तमान और भविष्य दोनों सुरक्षित हैं; अन्यथा रोगी काया लेकर आप अंधकार भरे और कष्टपूर्ण मार्गों पर ही चल पाते हैं। आज जो आपके साथ दो कदम चल रहे हैं, आपके रोगी होते ही वे आपका साथ छोड़ जाने वाले हैं।
शरीर में ‘पेट’ वह स्थान है, जिसके लिए यह सारा कार्य-व्यापार चल रहा है। उसे सबसे पहले स्वस्थ और निरोगी रखिए। पेट के खराब होते ही आपका शरीर रोगों से घिर जाएगा। पेट ठीक रहेगा तो रोग आपके शरीर के निकट आने का साहस नहीं कर पाएँगे। याद रखिए, ‘जान है तो जहान है।’ यदि यह ‘जी’ (जीवन) रोगी होगा तो आपका सारा अस्तित्व ही रोगी हो जाएगा और जल्दी ही जर्जर होकर भरभराकर गिर जाएगा।
इसलिए इस पुस्तक के आयुर्वेदिक नुस्खों को आज से ही अपनाइए और अपने स्वस्थ जीवन की गारंटी मुझसे ले लीजिए। धन्यवाद।
आपका शुभेच्छुक
डॉ. महेन्द्र मित्तल
डॉ. महेन्द्र मित्तल
अडूसा
यह एक प्राकृतिक छोटे कद का पौधा है। जंगलों और खुले-खुले मैदानों में यह
स्वतः ही उग आता है। अडूसा के पत्ते काफी लम्बे होते हैं। इन पत्तों की
डण्डी से सफेद रंग का दूध निकलता है, जो मीठा होता है। अडूसा के पत्ते
पकने पर पीले पड़ जाते हैं। संस्कृत में इसे ‘लासक
आटरूप’
कहते हैं। इसके वृक्ष पर सफेद रंग के फूल आते हैं। फूल को तोड़ने पर भी
इसकी डण्डी से सफेद रंग का रस निकलता, जिसका स्वाद मधुर होता है। यह वृक्ष
तपेदिक और खाँसी आदि रोगों में काम आता है।
अडूसा के लाभ
1. तपेदिक-
अडूसा के फूलों का रस तपेदिक के
रोगियों को लगातार देने से तपेदिक रोग में बहुत आराम मिलता है।
2. खाँसी रोग-
अडूसा के पत्तों का अर्क
सेंधा नमक मिलाकर पीने से खाँसी ठीक हो जाती है।
3. दाँतों का रोग-
अडूसा के पत्तों को पानी
में खूब
उबालें। जब पानी आधा रह जाए तो उसे छान लें। उस पानी के कुल्ले करने से
दाँतों के समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं। मुँह की गन्ध भी दूर हो जाएगी।
कम-से-कम दस दिन सेवन करें।
4. दमा रोग –
अडूसा के पके पीले
पत्तों के रस में
या उसकी जड़ के बनाए काढ़े में अभ्रक या कान्तिसार थोड़ा सा मिलाकर रोगी
को कम-से-कम पन्द्रह दिन तक लगातार सेवन कराएँ। इससे सभी प्रकार के
‘सांस रोग’, ‘पुरानी खाँसी’,
‘प्रमेह’, ‘मूत्र रोग’,
‘धात
गिरना’ आदि रोग ठीक हो जाएँगे।
5. नकसीर-
शहद के साथ अडूसा के पत्तों का
अर्क चटाने से
नकसीर रुक जाती है और यदि इसे एक सप्ताह तक चटा दिया जाए तो फिर नकसीर कभी
नहीं होगी।
6. मुँह से खून आना-
अडूसा की छाल, मुनक्का
छोटी हरड़ का
या बड़ी हरड़ का छिलका इन सबको बराबर लेकर बराबर का पानी डालकर आग पर
पकाकर काढ़ा बना लें। इस काढ़े को एक-एक चम्मच सुबह-शाम शहद या पानी के
साथ सेवन करने से और इस काढ़े के कुल्ले करने से मुँह से रक्त आना बन्द हो
जाएगा।
7. चर्म रोग-
अडूसा की जड़ को पानी के साथ
पीसकर उसका
लेप फोड़े-फुंसियों पर, दाद, छाजन और खुजली पर लगाने से कुछ ही दिनों में
आराम आ जाएगा।
8. चुस्ती फुर्ती-
अडूसा की चाय सुबह-शाम
पीने से शरीर चुस्त-दुरुस्त रहता है।
9. क्षय रोग-
अडूसा की जड़ का रस 10 ग्रा.
शहद के साथ
देने से क्षय रोग में तुरंत लाभ होता है। इसे लगातार तब तक दें जब तक पूरी
तरह आराम न हो जाए।
अकरकरा
अकरकरा वर्षा ऋतु में उगने वाला प्राकृतिक पौधा है। इसकी शाखाएँ रोएँदार
होती हैं। इस पर गोल गुच्छेदार पीले रंग के फूल लगते हैं। इसकी जड़ ज्यादा
लम्बी नहीं होती और न अधिक मोटी होती है। इसकी तासीर गर्म होती है। यह
शक्तिवर्द्धक जड़ी है। वात, पित्त, कफ को दूर करती है। संस्कृत में इसे
‘आकारकरभ’ और अंग्रेजी में ‘Pellitory
Root’ कहते
हैं। आयुर्वेदिक दवाओं में इसकी जड़ बहुत काम आती है।
अकरकरा के लाभ
1. अकरकरा की छोटी-सी सूखी डंडी का टुकड़ा मुँह में रखकर चूसने से हकलाना
बन्द हो जाता है। ध्यान रहे कि उस टुकड़े पर कोई काँटा आदि न हो या वह
कहीं से फटा हुआ न हो।
2. अकरकरा की लकड़ी को महुए के तेल में डुबोकर शरीर के लकवाग्रस्त अंग पर मलने से लकवा ठीक हो जाता है।
3. अकरकरा की लकड़ी को पीसकर चूर्ण बना लें और उसमें जरा सा सेंधा नमक मिलाकर दाँतों पर मंजन की तरह घिसें तो दाँत का दर्द खत्म हो जाएगा और दाँत चमकीले हो जाएँगे।
2. अकरकरा की लकड़ी को महुए के तेल में डुबोकर शरीर के लकवाग्रस्त अंग पर मलने से लकवा ठीक हो जाता है।
3. अकरकरा की लकड़ी को पीसकर चूर्ण बना लें और उसमें जरा सा सेंधा नमक मिलाकर दाँतों पर मंजन की तरह घिसें तो दाँत का दर्द खत्म हो जाएगा और दाँत चमकीले हो जाएँगे।
4. मिर्गी का दौरा-
अकरकरा की जड़ को बारीक पीसकर कपड़छन कर लें और उसमें
थोड़ा-सा शुद्ध शहद मिलाकर लुगदी सी बना लें। फिर उसे मिर्गी के दौरे वाले
रोगी को सुंघाएँ तो मिर्गी का प्रभाव खत्म हो जाएगा।
सिर में दर्द-
अकरकरा की लकड़ी को दाँतों से दबाकर कुछ देर पकड़े रहें।
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