कविता संग्रह >> आदमी के अरण्य में आदमी के अरण्य मेंअमृता भारती
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अमृता भारती जी का उत्कृष्ठ कविता संग्रह....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
हिन्दी की प्रसिद्ध लेखिका एवं कवयित्री अमृता भारती का ज्ञानपीठ से
प्रकाशित नवीनतम काव्य-संग्रह है ‘आदमी के अरण्य में’।
प्रस्तुत कविता-संग्रह के संदर्भ में अमृता जी लिखती हैं, ‘कविता जो सुख थी, किताबें जो मित्र थीं, लोग जो बन्धु भी थे और शत्रु भी- सब जैसे परदे की तरह गिर गये हैं। मैं अपनी कविताओं में एक ऐसे अरण्य का अनुभव करती हूँ, जहाँ पहले कोई नहीं आया। आदमी का अरण्य मानो मेरा अपना ही अरण्य है।’
‘आदमी के अरण्य में’ का कथ्य और प्रारूप अमृताजी के पिछले संग्रहों की कविता से बहुत बदला हुआ है। सच तो यह है कि वे इसे एक खण्डकाव्य का रूप देना चाहती थीं लेकिन ऐसा नहीं हो सका। अब यह एक खण्ड-खण्ड कविता है जिसमें स्वीकार और नकार के अनेक स्वर हैं जो इस कविता की स्त्री को आक्षेप, आरोप और लगातार हुई हानि से कहीं दूर उसे उसकी गरिमा में लाकर खड़ा करते हैं।
नये शिल्प में विन्यस्त अमृता जी की एक और कविता, जो समय में चलकर भी समय से बाहर जा सकती है, क्योंकि उसे बार-बार लौटना है-आदमी के करीब, उसकी यातना और आनन्द के क़रीब।
प्रस्तुत कविता-संग्रह के संदर्भ में अमृता जी लिखती हैं, ‘कविता जो सुख थी, किताबें जो मित्र थीं, लोग जो बन्धु भी थे और शत्रु भी- सब जैसे परदे की तरह गिर गये हैं। मैं अपनी कविताओं में एक ऐसे अरण्य का अनुभव करती हूँ, जहाँ पहले कोई नहीं आया। आदमी का अरण्य मानो मेरा अपना ही अरण्य है।’
‘आदमी के अरण्य में’ का कथ्य और प्रारूप अमृताजी के पिछले संग्रहों की कविता से बहुत बदला हुआ है। सच तो यह है कि वे इसे एक खण्डकाव्य का रूप देना चाहती थीं लेकिन ऐसा नहीं हो सका। अब यह एक खण्ड-खण्ड कविता है जिसमें स्वीकार और नकार के अनेक स्वर हैं जो इस कविता की स्त्री को आक्षेप, आरोप और लगातार हुई हानि से कहीं दूर उसे उसकी गरिमा में लाकर खड़ा करते हैं।
नये शिल्प में विन्यस्त अमृता जी की एक और कविता, जो समय में चलकर भी समय से बाहर जा सकती है, क्योंकि उसे बार-बार लौटना है-आदमी के करीब, उसकी यातना और आनन्द के क़रीब।
कविताएँ
आदमी के अरण्य में
उगा था
नवम्बर का पूरा चाँद
ईश्वर का जन्मदिन-
मेरी कविता में
पृथिवी आड़े आ गयी थी-
तीन सौ चौंसठ दिन तक
मुझे नहीं मिला था
सुनहला अन्न
चमकता पानी
मैंने दुनिया की दीवारों का
अँधेरा खाया था
इस एक दिन को चमकाने के लिए
अपनी कविता में।
उगा था
नवम्बर का पूरा चाँद
ईश्वर का जन्मदिन-
मेरी कविता में
पृथिवी आड़े आ गयी थी-
तीन सौ चौंसठ दिन तक
मुझे नहीं मिला था
सुनहला अन्न
चमकता पानी
मैंने दुनिया की दीवारों का
अँधेरा खाया था
इस एक दिन को चमकाने के लिए
अपनी कविता में।
लूसी को
पानी ने
धरती को अलग-अलग कर दिया
हम देशान्तर हो गये-
पर
यह पानी ही है
अन्तर-जल
जो हमें एक करता है।
धरती को अलग-अलग कर दिया
हम देशान्तर हो गये-
पर
यह पानी ही है
अन्तर-जल
जो हमें एक करता है।
दो शब्द
‘आदमी के अरण्य में’ संकलन की पाण्डुलिपि तैयार करते
हुए
मैंने समय से एक ऐसी पृथक्ता का अनुभव किया कि उसका कोई पृष्ठ मेरे अन्दर
प्रतिभासित न हो सका-कहीं भी न अतीत की कोई रेखा थी, न भविष्य की कोई
छाया। वर्तमान क्षण मेरी ही तरह इतना मूक और निस्पृह था कि उसका कोई आग्रह
या हस्तक्षेप मेरे अनुभव में नहीं आया।
पर यह समय की शक्ति ही थी जो अपनी उपस्थिति के दबाव के बिना भी कर्म के लिए प्रेरित करती है और मिट्टी के ढूह में से भी कुछ चुन लेने के लिए विवश करती है।
इस संग्रह की कुछ कविताएँ 1978 में प्रकाशित संकलन ‘मैंने नहीं लिखी कविता’ में से ली गयी हैं-परिवर्तन, संशोधन के साथ। दो-चार कविताएँ अपने पूर्व रूप में ही हैं। अधिकांश कविताएँ नयी हैं।
‘मैंने नहीं लिखी कविता’ संकलन पर अपनी टिप्पणी में मैंने लिखा था-‘‘यह एक शीर्षक है, जो अभी लिखी नहीं गयी है। लेकिन इसमें निराशा नहीं है, पश्चाताप भी नहीं, न कोई दु:ख है न आक्षेप। यह एक स्वीकार है जो मुझे मेरी कविता से मुक्त करता है। यह एक स्वीकार है जो मुझे एक बड़ी कविता से जोड़ता है, मेरी अगली कविता से,-जो ‘प्रतिभा’ की पहचान और ‘शिल्प’ के गठन से अलग एक कविता हो सकती है, जो समय में चलकर भी समय से बाहर चल सकती है, क्योंकि उसे बार-बार लौटना है- आदमी के क़रीब, उसकी यातना और उसके आनन्द के क़रीब।’’
मैंने यह भी लिखा था, -कविता जो सुख थी, क़िताबें जो मित्र थीं, लोग जो बन्धु भी थे और शत्रु भी –सब जैसे परदे की तरह गिर गये हैं। मैं अपनी कविताओं में एक ऐसे अरण्य का अनुभव करती हूँ, जहाँ पहले कोई नहीं आया। आदमी का यह अरण्य मानो मेरा अपना ही अरण्य है।
कविता में ‘पूर्णतर कविता’ की खोज से भी ज़्यादा अहमियत रखनेवाला सवाल है, कविता में ‘अपनी कविता’ की खोज। वैसे ये दोनों बातें कहीं एक ही हैं- ‘पूर्णतर कविता’ या ‘अपनी कविता’। मैंने कोशिश की है और लिखी गयी कविता में लिखी जानेवाली कविता की तलाश को जारी रखा है।
इस संग्रह की लंबी कविता ‘अहल्या’ की शुरूआत सातवें दशक में हुई थी और इसका सर्वप्रथम प्रकाशन ‘माध्यम’ में हुआ था। पर तब से आज, इस संग्रह में आने तक, इसका कथ्य और प्रारूप बहुत बदला है। मैं इसे खण्ड काव्य के रूप में प्रस्तुत करना चाहती थी, पर अब देर हो चुकी है, मन ने अनेक आयाम लिये हैं, अत: अब यह एक खण्ड-खण्ड कविता है –टुकड़ों में बँटा एक संवाद, एक आत्म-संवाद। इसमें स्वीकार और नकार के अनेक स्वर हैं जो इस कविता की स्त्री को आक्षेप और आरोप तथा लगातार हुई हानि से अलग उसकी गरिमा या महिमा में खड़ा करते हैं।
सत्य की खोज सर्वत्र है -‘‘एक सत्य पृथिवी का, जो पृथिवी के लिए हो सके।’’
हिन्दी जगत् से दूर मैं यहाँ अपने परिमण्डल में रहती हूँ कि यह धीरे-धीरे प्रभामण्डल बन सके। संसार की तथाकथित बौद्धिकता जिसे ‘पलायन’ कहती है, वह ‘अध्यात्म’ मेरा पथ है –जो छुरे की धार की तरह तीक्ष्ण और दुर्गम है -‘क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथः ...’। इस पर चलना अच्छा लगता है, क्योंकि इसमें आत्म-अन्वेषण की साहसिक धीरता है।
‘भारतीय ज्ञानपीठ’ से मेरा पुराना रिश्ता है, उस रिश्ते का दबाव भी है। वर्तमान निदेशक डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय कविता के मर्मज्ञ हैं –मैं संस्था और उनके प्रति अपना आभार प्रकट करती हूँ।
पर यह समय की शक्ति ही थी जो अपनी उपस्थिति के दबाव के बिना भी कर्म के लिए प्रेरित करती है और मिट्टी के ढूह में से भी कुछ चुन लेने के लिए विवश करती है।
इस संग्रह की कुछ कविताएँ 1978 में प्रकाशित संकलन ‘मैंने नहीं लिखी कविता’ में से ली गयी हैं-परिवर्तन, संशोधन के साथ। दो-चार कविताएँ अपने पूर्व रूप में ही हैं। अधिकांश कविताएँ नयी हैं।
‘मैंने नहीं लिखी कविता’ संकलन पर अपनी टिप्पणी में मैंने लिखा था-‘‘यह एक शीर्षक है, जो अभी लिखी नहीं गयी है। लेकिन इसमें निराशा नहीं है, पश्चाताप भी नहीं, न कोई दु:ख है न आक्षेप। यह एक स्वीकार है जो मुझे मेरी कविता से मुक्त करता है। यह एक स्वीकार है जो मुझे एक बड़ी कविता से जोड़ता है, मेरी अगली कविता से,-जो ‘प्रतिभा’ की पहचान और ‘शिल्प’ के गठन से अलग एक कविता हो सकती है, जो समय में चलकर भी समय से बाहर चल सकती है, क्योंकि उसे बार-बार लौटना है- आदमी के क़रीब, उसकी यातना और उसके आनन्द के क़रीब।’’
मैंने यह भी लिखा था, -कविता जो सुख थी, क़िताबें जो मित्र थीं, लोग जो बन्धु भी थे और शत्रु भी –सब जैसे परदे की तरह गिर गये हैं। मैं अपनी कविताओं में एक ऐसे अरण्य का अनुभव करती हूँ, जहाँ पहले कोई नहीं आया। आदमी का यह अरण्य मानो मेरा अपना ही अरण्य है।
कविता में ‘पूर्णतर कविता’ की खोज से भी ज़्यादा अहमियत रखनेवाला सवाल है, कविता में ‘अपनी कविता’ की खोज। वैसे ये दोनों बातें कहीं एक ही हैं- ‘पूर्णतर कविता’ या ‘अपनी कविता’। मैंने कोशिश की है और लिखी गयी कविता में लिखी जानेवाली कविता की तलाश को जारी रखा है।
इस संग्रह की लंबी कविता ‘अहल्या’ की शुरूआत सातवें दशक में हुई थी और इसका सर्वप्रथम प्रकाशन ‘माध्यम’ में हुआ था। पर तब से आज, इस संग्रह में आने तक, इसका कथ्य और प्रारूप बहुत बदला है। मैं इसे खण्ड काव्य के रूप में प्रस्तुत करना चाहती थी, पर अब देर हो चुकी है, मन ने अनेक आयाम लिये हैं, अत: अब यह एक खण्ड-खण्ड कविता है –टुकड़ों में बँटा एक संवाद, एक आत्म-संवाद। इसमें स्वीकार और नकार के अनेक स्वर हैं जो इस कविता की स्त्री को आक्षेप और आरोप तथा लगातार हुई हानि से अलग उसकी गरिमा या महिमा में खड़ा करते हैं।
सत्य की खोज सर्वत्र है -‘‘एक सत्य पृथिवी का, जो पृथिवी के लिए हो सके।’’
हिन्दी जगत् से दूर मैं यहाँ अपने परिमण्डल में रहती हूँ कि यह धीरे-धीरे प्रभामण्डल बन सके। संसार की तथाकथित बौद्धिकता जिसे ‘पलायन’ कहती है, वह ‘अध्यात्म’ मेरा पथ है –जो छुरे की धार की तरह तीक्ष्ण और दुर्गम है -‘क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथः ...’। इस पर चलना अच्छा लगता है, क्योंकि इसमें आत्म-अन्वेषण की साहसिक धीरता है।
‘भारतीय ज्ञानपीठ’ से मेरा पुराना रिश्ता है, उस रिश्ते का दबाव भी है। वर्तमान निदेशक डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय कविता के मर्मज्ञ हैं –मैं संस्था और उनके प्रति अपना आभार प्रकट करती हूँ।
एक सत्य
मेरे जीवन की बर्फ़ पर
लिख जाते कुछ नाम
कुछ स्वप्न
कुछ इन्द्रधनुष
बार-बार –
फिर टूटते बर्फ़ में सब पुँछ जाता
या गल जाता –
अपनी छूटी हुई असंख्यता में
खड़ी मैं
खोजती एक सत्य
अन्दर की
कन्दरा में बड़ा हुआ
एक सत्य
अपना
सबसे जुड़ा हुआ।
लिख जाते कुछ नाम
कुछ स्वप्न
कुछ इन्द्रधनुष
बार-बार –
फिर टूटते बर्फ़ में सब पुँछ जाता
या गल जाता –
अपनी छूटी हुई असंख्यता में
खड़ी मैं
खोजती एक सत्य
अन्दर की
कन्दरा में बड़ा हुआ
एक सत्य
अपना
सबसे जुड़ा हुआ।
जन्म
मैं
हरे पेड़ों के नीचे खड़ी थी
सिर पर पुआल ले कर
पेड़ मेरे नहीं थे
पर पुआल मेरी थी-
शीत के लंबे मौसम में
मैं आग जला सकती थी
या
एक नर्म बिछौना बना सकती थी।
जीवन की उर्वर भूमियों पर
लगातार
हरे बीज बोने के बाद
ये पेड़ मेरे नहीं थे
पर ‘पशुशाला’ की
माँद की
यह पुआल मेरी थी
मैंने
जन्म को
वरदान की तरह सँजोया था
और स्वर्गिक शब्द को
सत्य की तरह चलते हुए देखा था
असि-धार की तरह पैने
चमकते पथ पर।
हरे पेड़ों के नीचे खड़ी थी
सिर पर पुआल ले कर
पेड़ मेरे नहीं थे
पर पुआल मेरी थी-
शीत के लंबे मौसम में
मैं आग जला सकती थी
या
एक नर्म बिछौना बना सकती थी।
जीवन की उर्वर भूमियों पर
लगातार
हरे बीज बोने के बाद
ये पेड़ मेरे नहीं थे
पर ‘पशुशाला’ की
माँद की
यह पुआल मेरी थी
मैंने
जन्म को
वरदान की तरह सँजोया था
और स्वर्गिक शब्द को
सत्य की तरह चलते हुए देखा था
असि-धार की तरह पैने
चमकते पथ पर।
मैं ‘मिथक’ में ही अधिक थी
मैं मिथक में ही अधिक थी-
मैं अपने बहुत बड़े हिस्से में
वहाँ होती
लगभग सम्पूर्ण।
यहाँ के यथार्थ में
मैं कितनी घट जाती
मानों मैं कोई ठोस वस्तु नहीं
एक छाया मात्र हूँ
एक चलता हुआ आभास
पर यदि कोई यथार्थ
मिथक बन जाता
मैं वहाँ पूरी तरह प्रकट हो जाती
अपनी सारी रेखाओं के साथ-
नक़्श और संवेदन
कितनी पूर्णता लिये
अभिव्यक्त हो जाते।
अब मैं भविष्य के ‘मिथक’ में हूँ
और यथार्थ
रात की संहत स्याही से
चमकीले रेशे उधेड़ कर
हवा के करघे पर
बुन रहा है
मेरे
भाग्य का परिधान।
मैं अपने बहुत बड़े हिस्से में
वहाँ होती
लगभग सम्पूर्ण।
यहाँ के यथार्थ में
मैं कितनी घट जाती
मानों मैं कोई ठोस वस्तु नहीं
एक छाया मात्र हूँ
एक चलता हुआ आभास
पर यदि कोई यथार्थ
मिथक बन जाता
मैं वहाँ पूरी तरह प्रकट हो जाती
अपनी सारी रेखाओं के साथ-
नक़्श और संवेदन
कितनी पूर्णता लिये
अभिव्यक्त हो जाते।
अब मैं भविष्य के ‘मिथक’ में हूँ
और यथार्थ
रात की संहत स्याही से
चमकीले रेशे उधेड़ कर
हवा के करघे पर
बुन रहा है
मेरे
भाग्य का परिधान।
अब मैं लौट रही हूँ
अब
कोई फूल नहीं रहा
न वे फूल ही
जो अपने अर्थों को अलग रख कर भी
एक डोरी में गुँथ जाते थे
छोटे-से क्षण की
लम्बी डोरी में।
अब मौसम बदल गया है
और टहनियों की नम्रता
कभी की झर गयी है-
मैं अनुभव करती हूँ
बिजली का संचरण
बादलों में दरारें डालता
और उनकी सींवन में
अपलक लुप्त होता-
मैंने अपने को समेटना शुरू कर दिया है
बाहर केवल एक दीया रख कर
उसके प्रति
जो पहले अन्दर था
प्रकाशित मन के केन्द्र में
और अब बाहर रह सकता है
उस दीये के नीचे के
अँधेरे में
अब मैं अपने को अलग कर रही हूँ
समय के गुँथे हुए अर्थों से
और लौट रही हूँ
अपने ‘शब्द-गृह’ में
जहाँ
अभी पिछले क्षण
टूट कर गिरा था आकाश
और अब एक छोटी-सी
ठण्डी चारदीवारी है।
कोई फूल नहीं रहा
न वे फूल ही
जो अपने अर्थों को अलग रख कर भी
एक डोरी में गुँथ जाते थे
छोटे-से क्षण की
लम्बी डोरी में।
अब मौसम बदल गया है
और टहनियों की नम्रता
कभी की झर गयी है-
मैं अनुभव करती हूँ
बिजली का संचरण
बादलों में दरारें डालता
और उनकी सींवन में
अपलक लुप्त होता-
मैंने अपने को समेटना शुरू कर दिया है
बाहर केवल एक दीया रख कर
उसके प्रति
जो पहले अन्दर था
प्रकाशित मन के केन्द्र में
और अब बाहर रह सकता है
उस दीये के नीचे के
अँधेरे में
अब मैं अपने को अलग कर रही हूँ
समय के गुँथे हुए अर्थों से
और लौट रही हूँ
अपने ‘शब्द-गृह’ में
जहाँ
अभी पिछले क्षण
टूट कर गिरा था आकाश
और अब एक छोटी-सी
ठण्डी चारदीवारी है।
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