लोगों की राय

विविध >> पर्यावरणीय मनोविज्ञान

पर्यावरणीय मनोविज्ञान

प्रेमसागर नाथ तिवारी

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4526
आईएसबीएन :81-208-3014-8

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

28 पाठक हैं

पर्यावरणीय मनोविज्ञान....

paryavarneeya manovigyan .

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

द्वितीय संस्करण

प्रस्तुत पुस्तक के प्रथम संस्करण का प्राक्कथन लिखते हुए मैंने आशा तथा विश्वास व्यक्त किया था कि यद्यपि यह पुस्तक पर्यावरणीय मनोविज्ञान के क्षेत्र में विशेष रूप से हिन्दी भाषा की प्रथम पाठ्य-पुस्तक है तथापि यह पुस्तक मनोविज्ञान के क्षेत्र में उस रिक्त स्थान को भरनें में सफल होगी जो कि मनोविज्ञान के पुराने तथा नये पाठ्यक्रमों के बीच उत्पन्न हो चुका है। आज हम अत्यंन्त हर्ष के साथ कहते हैं कि हिन्दी भाषी प्रदेशों के विश्वविद्यालयीय प्राध्यापकों एवं मनोविज्ञान विषय का अध्ययन करने वाले स्नातक तथा परास्नातक विद्यार्थियों ने अतिशय उत्साह एवं सदाशयता के साथ इस पुस्तक को स्वीकार किया है। इन्होंने पुस्तक की विषय-वस्तु, प्रतिपादन शैली तथा भाषा के प्रबंध में हमें अपने महत्त्वपूर्ण सुझावों से अवगत कराया। सम्बन्धित विद्यार्थियों एवं अध्यापकों द्वारा आत्मीय के साथ प्रस्तुत पुस्तक का व्यापक स्तर पर स्वागत किया गया, जिसका परिणाम है कि प्रकाशक को मात्र वर्ष के अंतराल में ही इसका पुनर्मुद्रक प्राध्यापकों, विद्यार्थियों एवं पर्यावरीणीय समस्याओं को समझने एवं उनके निराकरण में विशेष रुचि रखने वाले अन्य सम्बन्धित विषय के पाठकों के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करने में हर्ष का अनुभव हो रहा है।

इस संस्करण में पुस्तक को अधिक उपोदय बनाने के लिए प्रत्येक अध्याय के अन्त में उसका सारांश प्रस्तुत किया गया है। इस संस्करण के प्रकाशन में मुद्रक को अधिक आकर्षण बनाने तथा शीघ्रातिशीघ्र उपलब्ध कराने में प्रकाशक मोतीलाल बनारसीदास के पटना स्थिति कार्यालय के प्रबन्धक श्री कमला शंकर सिंह ने जिस उत्साह एंव लगन का परिचय दिया है उसके लिए वे बधाई के पात्र हैं। हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रस्तुत संशोधित संस्करण मनोविज्ञान के प्राध्यापकों एवं विद्यार्थियों के लिए अधिक सुग्राह्य एवं उपादेय सिद्ध होगा।

1 अक्टूबर 1999

-प्रेमसागर नाथ तिवारी

भूमिका


आधुनिक मनोविज्ञान सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों के प्रति संवेदशील मानवीय अध्ययन है और मनोवैज्ञानिकों के एक बहुत बड़े समुदाय की रुचि इन परिवर्तनों का सामना करने तथा उनमें उपजने वाली समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने में है।  पर्यावरण मनोविज्ञान इसी तरह के प्रयासों का एक उल्लेखनीय उदाहरण है। शोध और अध्ययन की पश्चिमी मनोवैज्ञानिक परम्परा में इस क्षेत्र में प्रचुर शोध हुआ है और विपुल अध्ययन सामग्री उपलब्ध है। भारत में पिछले दो-तीन दशकों में इस दिशा में विशेष गतिविधि आरंभ हुई है परन्तु पर्यावरण मनोविज्ञान पर पाठ्य सामग्री का आभाव ही रहा है। हिन्दी माध्यम में शिक्षारत छात्रों की कठिनाई को ध्यान में रखकर मेरे अनुजतुल्य युवा मनोवैज्ञानिक डॉ.प्रेम सागर नाथ तिवारी ने इस दिशा में पहल की है। यह एक स्वागत योग्य कार्य है।

 उन्होंने विगत दशक में ग्रामीण जनजीवन और उसके पर्यावरण की समस्याओं के मनोवैज्ञानिक पक्षों के विश्लेषण में विशेष रुचि ली है और इस पुस्तक का प्रणयन उसी रूप का प्रमाण है और परिणाम भी। हिन्दी को माध्यम के रूप में उच्च शिक्षा में प्रवेश तो मिल गया है पर उसकी स्थिति दुर्बल बनी हुई है। ऐसी परिस्थिति में हिन्दी में स्तरीय सामग्री का उपलब्ध कराना एक सराहनीय प्रयास है। उन्होंने पुस्तक की भूमिका लिखने का अनुरोध किया है। मैं इस अवसर का लाभ उठाते हुए पर्यावरण मनोविज्ञान की आधार भूमि को किंचित स्पष्ट करने का प्रयास करूँगा ताकि आगे के विवेचन को बोधगम्य बनाने में कुछ सहायता मिल सके। यद्यपि मनोविज्ञान चिन्तन में ‘‘पर्यावरण’ को एक केन्द्रीय या बीज सम्प्रत्यय मानकर विचार-विमर्श की लम्बी परम्परा बनी है, परन्तु एक विशिष्ट अध्ययन क्षेत्र के रूप में इसका विकास और स्वीकृति अपेक्षाकृत नई घटना है। पर्यावरण मनोविज्ञानिकों के रूप में मनुष्य-पर्यावरण के प्रारम्भिक सम्बन्धों का विस्तृत अध्ययन किया 1960 के दशक में पारिस्थितिकी के प्रसंग आरंभ हुआ।

जब मनविज्ञानिकों को इसके शनैः शनैः रुचि लेनी शुरू की। इस क्षेत्र में आज बढ़ती हुई रुचि का कारण पर्यावरण की बढ़ती हुई भयानक समस्याएँ हैं। आज भौतिक समाजिक और सास्कृतिक हर दृष्टि से हमारा पर्यावरण पृथ्वी नामक ग्रह पर रहने वाले प्राणियों और जीवन मात्र के लिए चिन्ताजनक होता जा रहा है। चूँकी पर्यावरण की समस्याएँ काफी हद तक मनुष्य के अपने व्यवहार से उपजती हैं अतः उनके समाधान को ढूँढ़ने के लिए भी कहीं और नहीं बल्कि स्वयं मनुष्य के आचरण पर ही ध्यान केन्द्रित करना होगा।

मनोविज्ञान की सम्प्रत्यात्मक अवधारणा में काफी दिनों तक पर्यावरण को उद्दीपकों का समुच्य और मानव व्यवहार को अनुक्रिया माना गया। इस तरह के सरलीकरण में पर्यावरण की विशेषताओं में भिन्नता के साथ व्यवहार में होने वाले परिवर्तन को सह-सम्बन्धी किया जाता रहा। इस तरह के अध्ययनों में पर्यावरण को प्रायः एक जटिल अनाश्रित चर के रूप में ही मनुष्य को प्रभावित करने वाले एक महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में लिया गया। पर्वावरण एक परिवर्तन के रूप में व्यवहार के बारे में संभव नियमों का सुविधापूर्वक निर्माण करने में ही सहायक सिद्ध हुआ है क्योंकि प्राणी को एक निष्क्रिय यन्त्र सरीख स्वीकार किया गया। व्यवहारवादी दृष्टि वाले सतही अध्ययन प्रायः इसी क्षेणी में आते हैं। क्षेत्र सिद्धान्त के अन्तर्गत लुविन ने व्यवहार को व्यक्ति और पर्यावरण की अन्तःक्रिया के रूप में निरूपित किया परन्तु उसने भौतिकी पर्यावरण के बदले में प्रत्याक्षित या अनुभूति पर्यावरण पर अधिक बल दिया। व्यक्ति और उसके भौतिक पर्यावरण के बीच में पारस्परिक अन्तःक्रिया और विनिमय की ओर शोधकर्ताओं का ध्यान बाद में ही जा सका।

पर्यावरण मनोविज्ञान की अवधारणा को स्पष्ट करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण अध्ययन उन शोधकर्त्ताओं द्वारा किया गया जिन्होंने मनुष्य के द्वारा उपयोग तथा वास्तविक स्थिति में होने वाले व्यवहार का विश्लेषण आरम्भ किया। पारिस्थितिकीय अध्ययन का आरंभ करते हुए बार्कर भौतिक दिशाओं जैसे खेल-कूद का मैंदान, बाजार आदि में व्यवहार का प्रेक्षण किया धीरे-धीरे पर्यावरण मनोविज्ञान का जो रूप विकसित हुआ उसमें व्यवहार के सूक्ष्म रूप के बदले सम्पूर्ण व्यक्ति और समग्र परिस्थिति को सम्मिलित किया गया। विगत वर्षों में पर्यावरण के विभिन्न पक्षों को लेकर व्यापक शोध कार्य हुए हैं और यह विषय क्रमशः एक समृद्धि अध्ययन क्षेत्र बनता जा रहा है इस विषय में अध्ययन में अनेक विषयों का योगदान रहा है। इसके अध्ययन क्षेत्र के अन्तर्गत वातावरण के प्रकार, उनके, प्रति मनुष्य की अभिवृत्ति, संस्कृति के प्रभाव, पर्यावरण की संरचना और अभिकल्प इत्यादि का विस्तृति विश्लेषण किया जा रहा है। ध्यातव्य है कि ऐसे अध्ययन विकसित देशों में ही अपेक्षाकृत अधिक हुए हैं और इन्हीं अध्ययनों को मॉडल मानकर अन्य देशों में भी अध्ययन का विस्तार हुआ है।

‘‘पर्यावरण’’ के साथ सरोकार मनोवैज्ञानिक अध्ययनों की एक विविशता है अन्यथा मनोवैज्ञानिक परिवर्त्य केवल आंतरिक मानसिक प्रक्रमों को ही संबोधित करते रहेंगे और इस तरह सदैव परोक्ष या आदृश्य ही बने रहेंगे। आन्तरिक प्रक्रियाओं पर से रहस्य का आवरण हटाने के लिए और वास्तविक जगत के साथ सार्थक संवाद स्थापित करने के लिए पर्यावरण को उद्दीपक के रूप में संदर्भ के रूप में या प्रत्यक्षीकरण के रूप में, अपने अध्ययन में शामिल करना आवश्यक हो जाता है।
आरंभ में पर्यावरण मनोविज्ञान को ज्यादातर भौतिक पर्यावरण पर केन्द्रित अध्ययन के रूप में लिया गया और बाद में उसके सामाजिक तथा सांस्कृतिक पक्षों को भी जोड़ा गया। भारतीय दृष्टि में मनुष्य और पर्यावरण के संबंधों का विश्लेषण करते हुए एक परस्पर सापेक्ष्य दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया गया है जो मनुष्य और पर्यावरण के बीच किसी स्पष्ट विभाजन को अस्वीकार करता है। मनुष्य भी ब्राह्मांड का अन्य पदार्थों की ही तरह एक हिस्सा है और समष्टि (ब्रह्माड) और व्यष्टि (व्यक्ति) दोनों में एक-सी समानांतर प्रक्रियाएँ चलती रहती हैं। मनुष्य की रचना भी पंचमहाभूतों से हुई है जैसा कि तुलसादास जी ने ‘‘क्षिति जल पावक (अग्नि) गगन समीरा कहकर व्यक्त किया है।’’ मनुष्य पर्यावरण का न केवल दोहन करता है बल्कि उसे समृद्ध भी करता है, वह तो अंग है। एक संतुलित दृष्टि द्वारा यही आशा की जा सकती है।

पर्यावरण मनोविज्ञान में इस समय तीन प्रमुख सैद्धान्तिक उपागम प्रचलित हैं- अनुकूलन, अवसर की संरचना तथा सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतिमान। अनुकूलन का उपागम पर्यावरण को उसकी भौतिक विशेषताओं के रूप में ग्रहण करता है और व्यक्ति को एक जैविक व मनोवैज्ञानिक प्राणी मानता है। इसका उद्देश्य पर्यावरण में विद्यमान खतरों को टालना होता है। अवसर-संरचना का उपागम पंर्यावरण के उदेश्य और देश काल से जुड़ी हुई विशेषताएँ, उसमें प्राप्त अवसर तथा सुविधाओं पर बल देता है। पर्यावरण की समस्याएँ सामाजिक संरचना द्वारा उत्पन्न मानी जाती है और स्वयं पर्यावरण सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से परिभाषित एक व्यवस्था है। अन्तर्विनिमय का उपागम व्यक्ति को परिवेश में स्थापित करके विश्लेषित करता है तथा यह मानता है कि व्यक्ति और पर्यावरण एक-दूसरे को निरन्तर प्रभावित करते रहते हैं। स्मरणीय है कि इन उपागमो के साथ कुछ विशेष प्रकार के मूल्य तथा अभिग्रह भी जुड़े हुए हैं और शोध की समस्याओं और विधियों का चयन उन्हीं पर निर्भर करता है।

आज की समकालीन पर्यावरणीय समस्याएँ एक स्थानीय तथा वैश्विक दोनों ही स्तरों पर उपस्थित हैं। पर्यावरण मनोविज्ञान अपने अध्ययन के प्रयास में पर्यावरण की समस्याओं को सुलझाने और जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि लाने के लिए प्रतिबद्ध है। इसके समुचित विकास के लिए वास्तविक जीवन की परिस्थितियों के बारे में निष्कर्ष निकालना अपर्याप्त ही नहीं असंगत भी है। पर्यावरण और व्यावहार का संबंध प्रायः सीधा न होकर अन्य परिवर्त्यों द्वारा प्रभावित होता रहता है। यह मनोवैज्ञानिकों की रुचि का विषय रहा है। इस पृष्ठभूमि में परम्परागत भारतीय दृष्टि की चर्चा अप्रासंगिक नहीं होगी। इस दृष्टिकोण में मनुष्य पर्यावरण के बीच का संबंध नैतिक मूल्यों पर आधारित था न कि कोरे भौतिकवाद तर्क पर। इसके अन्तर्गत समस्त जगत एक ही समग्र के अवयव थे और ऋत की स्थापना ही लक्ष्य था। पर्यावरण का संरक्षण और उनके संसाधनों का पोषण प्रमुख मूल्य थे। पृथ्वी पर जीव-जन्तु, वृक्ष, जल और वायु सबके प्रति गम्भीर चिन्ता के कारण ही शायद दैनिक जीवन में इन सबको निरंतर आदर दिया जाता रहा है समग्र ब्रह्माण्ड में जीवन का विस्तार स्वीकार करते हुए सबको सूत्रबद्ध करने की कोशिश की गई। इसके अन्तर्गत न कोई निरुपेक्ष रूप से भोग्या था न भोक्ता।

 पर्यावरण का पोषण एक प्रत्यक्षण मूल बनकर दैनन्दित जीवन में रचा बसा था। ईश्वर की अवधारणा भी वायु, अग्नि, जल आदि प्रवृत्ति के प्रत्यक्ष रूप में की गई। मनुष्य और पर्यावरण को साथ लाने के लिए किसी अतिरिक्ति व्यवस्था की कल्पना आवश्यक थी। मनुष्य और विश्व के बीच का इस चिन्तन के केन्द्र में था न कि मनुष्य। पर्यावण, चाहे वह प्राकृतिक हो गया या मनुष्य रचित, हर कहीं जीवन की सत्ता स्वीकृत रही है और भारतीय वास्तु-शास्त्र, शिल्प सब में मनुष्य और प्रकृति के बीच एक-दूसरे की ओर अभिमुख निकटता का श्रेयस्कर ठहराया गया है। यह दृष्टि सहज रूप से पर्यावरण की गुणवत्ता का पक्षधर थी और पर्यावरण और मनुष्य दोनों एक-दूसरे के सहचर थे। सहजीवन का यह विचार आज की सहगामी प्रतिभागिता की अवधारणा से निश्चित ही कहीं बहुत आगे है और एक प्रभावी वैकल्पिक वैचारिक संकल्पना और कार्य योजना उपलब्ध कराता है।

आज के प्रधान जमाने में उपयुक्त भावात्मक अवधारणा उटपाटांग उग सकती है, परन्तु इसकी प्रासंगिता सहस्त्रब्दियों के जीवनानुभव की कसौटी पर खरी उतर चुकी है। प्रकृति के बदलते विविध रूपों में भी सामंजस्य और समरसता की खोज इस दृष्टिकोण की विशिष्ट उपलब्धि कही जा सकती है। इस प्रकार के चिन्तन की दिशा में खंडित दृष्टि वाले समाजवैज्ञानिकों का ध्यान अभी तक नहीं जा सका है और इस तरह की वैचारिक सामग्री का अध्ययन एक अछूता विषय है।

आधुनिक पर्यावरण-मनोविज्ञान का एक बड़ा भाग पर्यावरण की उन भौतिक विशेषताओं के अध्ययन से जुड़ा है जो मनुष्य के सामान्य व्यवहारों को बाधित करती है। भीड़, शोर, उच्च तापक्रम, जल तथा वायु प्रदूषण आदि का मनुष्य के स्वाभाव तथा अभियोजनात्मक व्यवहारों पर प्रभाव अध्ययन किया गया है। भारतीय परिवेश में जनसंख्या के दबाव तथा ऊर्जा की समस्या को ध्यान में रखकर कई प्रश्न उपस्थिति होते हैं। भारतीय मनोवैज्ञानिकों ने भीड़ की अनुभूति और उसके मनोवैज्ञानिक परिणामों का विशेष रूप में अध्ययन किया है। गाँव से शहर में पलायन के कारण शहरों में भीड़ बढ़ती जा रही है और इसके फलस्वरूप न केवल भौतिक पर्यावरण बल्कि मनुष्य के स्वास्थ्य, सामाजिक कार्य-कलाप और कार्यकुशलता आदि भी नकारात्मक ढंग से प्रभावित हो रही है। भीड़ जनसंख्या के घनत्व से जुड़ी है परन्तु भीड़ की अनुभूति के रूप में उसका एक मनोवैज्ञानिक पहलू भी है। जिसको ध्यान में रखे बिना भीड़ के प्राभावों का समुचित विश्लेषण नहीं किया जा सकता। प्रयोगशाला और वास्तविक जीवन में हुए अनेक अध्ययन यह दिखाते हैं कि भीड़ की अनुभूति कार्य निष्पादन, सामाजिक अंतःक्रिया, मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य आदि पर ऋणात्मक प्रभाव डालती है। मनुष्य की आवश्यकताओं का स्वरूप तथा प्रतिद्वन्द्विता-सहिष्णुता की प्रवृत्ति भीड़ के प्रभाव को परिसीमित करते हैं। स्मरणीय है कि जनसंख्या के घनत्व से निश्चित स्थान में रहने वाले व्यक्तियों की संख्या का बोध होता है और भीड़ स्थान के अभाव की अनुभूति की दशा है। भीड़ कि अनुभूति घर बाहर प्राथमिक तथा द्वितीयक पर्यावरण में अलग-अलग पायी जाती है।

भीड़ के अध्ययन प्रयोगशाला और वास्तविक जीवन दोनों तरह की दशाओं में हुए हैं। प्रयोगशाला में किए गए अध्ययनों में सामान्यीकरण की संभावना अपेक्षाकृत सीमित रहती है। साथ ही भीड़ की अनुभूति भी विभिन्न स्थानों पर एक जैसी नहीं होती। अध्ययनों के परिणामों से यह स्पष्ट होता है कि अनुभूति न केवल परिस्थिति विशिष्ट होती है बल्कि बची जा सकनेवाली दशाओं में भीड़ अपरिहार्य दशाओं की तुलना में अधिक होती है। भीड़ और शोर के कारण जटिल कार्यों का निष्पादन घट जाता है परन्तु जब व्यक्ति इन प्रतिबलों से अनुकूलित रहता है तो भीड़ का ऋणात्मक प्रभाव घट जाता है। घर के अन्दर के पर्यावरण का प्रत्यक्षीकरण शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में अलग-अलग पाया गया है। भीड़ पर हुए अध्ययनों के परिणामों का सामान्यीकरण वस्तुतः एक चुनौती है क्योंकि वास्तविक जीवन की परिस्थितियाँ भिन्न होती हैं। एक ही व्यक्ति अपनी दैनिक जीवनचर्या में भिन्न-भिन्न प्रकार की और भिन्न-भिन्न अनिश्चितता की मात्रा वाली भीड़ की स्थितियों से गुजरता है। सम्भवतः इन परिस्थितियों के अनुभव के आधार पर व्यक्ति एक अनुकूल स्तर विकसित करता है और उसी के आधार पर प्रतिक्रिया करता है।

भीड़ का मानव व्यवहार पर नाकारात्मक परिणाम क्यों पड़ता है ? इसे समझने के लिए कई सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। इनमें व्यवहार सीमा, नियन्त्रण तथा उद्दोलन के सिद्धान्त प्रमुख हैं। इनमें भीड़ के प्रभावों की व्याख्या के लिए अलग-अलग मध्यवर्ती परिवर्त्यों की संकल्पना की गयी है उनकी अध्ययनों द्वारा आंशिक पुष्टि हुई है। भीड़ और स्वास्थ्य के बीच सम्बन्ध उपलब्ध सामाजिक समर्थन की मात्रा पर निर्भर करता है। भीड़ और तापक्रम के प्रभाव भी संज्ञानात्मक कारकों की मध्यवर्ती भूमिका को स्पष्ट करते हैं। घरों में जनसंख्या के घनत्व का स्वास्थ्य, बच्चों के साथ व्यवहार, सांवेदिक समर्थन आदि पर ऋणात्मक प्रभाव पाया गया है परन्तु सामाजिक आर्थिक तथा जनांकिक कारकों को नियन्त्रित करने पर यह प्रभाव घट जाता है। स्मरणीय है कि कोई भी परिवर्त्य स्थायी रूप से मध्यवर्ती चर नहीं हो सकता क्योंकि प्रत्येक अन्तः क्रिया गत्यात्मक होती है।

पर्यावरण और उसकी समस्याओं पर सार्थक विचार सांस्कृतिक कारकों के परिप्रेक्ष्य में ही संभंव है। विशेषरूप से उच्च जनसंख्या वृद्धि, सीमित संसाधन, गरीबी, समाज की ग्रामीण एवं कृषि प्रधान पृष्ठभूमि सामाजिक परिवर्तन के लिए विकास योजना व विभिन्न सांस्कृतिक परम्पराएँ हमारे लिए विचारणीय हैं। अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्धों, परिवार और समुदाय को प्रधानता देने वाले भारतीय समाज में, जहाँ व्यक्ति नहीं बल्कि परिवार समाज की मूल ईकाई है, पर्यावरणीय प्रतिबलों का प्रभाव पश्चिमी देशों जैसा नहीं होगा। भारतीय परिस्थिति इन अर्थ में भी भिन्न है यहाँ पर आने वाले प्रतिबल विविध प्रकार के हैं। वे एक-दूसरे से जुड़े होते हैं तथा इनके ऊपर नियंत्रण आसानी से नहीं किया जा सकता। आधुनिक भारतीय अध्ययन सम्प्रत्यात्मक रूप से अधिकांशतः पाश्चात विचारधारा से ही प्रभावित रहें हैं और भारतीय सामाजिक यथार्थ के प्रति कम संवेदनशील रहे हैं। वस्तुतः भीड़ की अनुभूति भारतीय परिवेश में जहाँ लोगों का जीवन विभिन्न संस्कारों, रीति-रिवाजों, रस्मों, नाते-रिश्ते की भागीदारी से ओतप्रोत रहे हैं भिन्न होती है। अभी भी एकांकी परिवार की संख्या में वृद्धि होने के बावजूद संयुक्त परिवार किसी-न-किसी रूप से बना हुआ है।

ऐसी स्थिति में एक अलग दृष्टिकोण अपेक्षित है। बहुत सारे अवसरों पर भीड़ की उपस्थिति वांछनीय मानी जाती है और व्यक्ति को इसमें गौरव की अनुभूति होती हैं। साथ ही, सम्बन्धों को स्थापित करना और उनका निर्वाह एक सामाजिक दायित्व माना गया है। ऐसी स्थिति में भीड़ की अनुभूति का होना या न होना मात्र लोगों की उपस्थिति या अनुपस्थिति पर ही नहीं वरन् इस पर निर्भर करती है कि भीड़ में कौन से लोग उपस्थिति हैं। जब परिचित या प्रियजन होते हैं तो उनके बीच के व्यक्ति को स्वयं अपने ‘स्व’ के विस्तार की अनुभूति होती है। भीड़ को प्रायः सीमित स्थान में लोगों की उपस्थिति में उत्पन्न स्थानाभाव के बोध या अनुभूति के रूप में लिया जाता है। इस पर पुनर्विचार की आवश्यकता है क्योंकि भीड़ की अनुभूति के लिए यह अपर्याप्त है। भीड़ में कौन से लोग हैं और उनके एकत्र होने का उदेश्य क्या है ? बिना इस ध्यान दिए भीड़ का सम्प्रत्ययन अधूरा होगा।

पर्यावरण मनोविज्ञान में क्षेत्रीयता तथा निजी स्थान महत्त्वपूर्ण संप्रत्यन रहे हैं। क्षेत्रीयता व्यक्तियों द्वारा अधिकृत एक परिसीमित क्षेत्र को व्यक्त करती है जो दूसरों के प्रदेश को नियमित करता है जबकि निजी स्थान एक अदृश्य परिधि या सीमा रेखा होती है जो एक व्यक्ति दूसरों के साथ अन्तःक्रिया करते समय अपने इर्द-गिर्द बनाये रखता है। इन दोनों को किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा अतिक्रमण प्रतिबलकारी होता है। अतिक्रमण होने पर कोई व्यक्ति कैसा व्यवहार करेगा ? यह कार्य विशेष के स्वरूप पर निर्भर करता है। सामान्य कार्यों में अतिक्रमण का क्षेत्रीयता पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। अन्तर्वैयक्तिक दूरी पसन्द करती हैं। लोग अपने निजी स्थान के प्रति भिन्न-भिन्न मात्रा में लगाव अनुभव करते हैं और उनका अलग-अलग उपयोग करते हैं। यह बात इस पर निर्भर करता है कि वह कितना उपलब्ध है।

औद्योगिक और तकनीकी विकास के साथ-साथ आज मानवजनित त्रासदियाँ भी बढ़ती जा रहीं हैं। मनुष्य प्राकृतिक त्रासदी से तो पूर्वपरिचित था परन्तु जिस पैमाने पर मानव निर्मित त्रासिदियाँ बढ़ रही हैं। वह गम्भीर चिंता का कारण है। वस्तुतः यह स्थिति इस अर्थ में और भी गंभीर है कि मानव निर्मित त्रासदियाँ प्राकृतिक त्रासदियों को भी बढ़ा रही है। मनुष्य और प्रकृति के अन्तर्सम्बन्ध का महत्त्व आज स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ने लगा है। आज धरती पर वर्षा, वायुमण्डल, खेतों की उर्वरा शक्ति, हरितिमा यह सब मनुष्य के अन्धाधुन्ध हस्तक्षेपों से बुरी तरह दुष्प्रभीवित हो रहे हैं। बाढ़, सूखा, बढ़ता तापमान, प्रदूषित वायुमण्डल तथा पेयजल का प्रदूषण और उसका गिरता स्तर, पर्यावरण के बढ़ते खतरों की ओर  संकेत कर रहे हैं, जिनके मूल में स्वयं मनुष्य है।

पिछले दिनों विश्व में घटित भयानक त्रासदियों के अन्तर्गत औद्योगिक तथा रासायनिक क्षेणी की त्रासदियों उल्लेखनीय है। चेरनोबिल में आणविक संयंत्र की गड़बड़ी से धन-जन की हानि हुई है और भारत में भोपाल में आईसोसायनाईट गैस के रिसाव से भयंकर दुर्घटना हुई। इनके फलस्वरूप शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की गहन समस्याएँ उत्पन्न हुई है और दीर्घकाल तक और उन्होंने संक्षिप्त अवधि में बहुत बड़े पैमाने पर समस्त पर्यावरण को प्रभावित किया। त्रासदियों के द्वारा हुए विनाश के बाद जीवित बचे लोग उनके अस्वास्थ्यकर प्रभाव को काफी दिनों तक झेलते रहते हैं।

पर्यावरण प्रदूषण के चलते शुद्ध वायु, जल और जिनके द्वारा चलता है अलभ्य होते जा रहे हैं। आर्थिक औद्योगिक विकास के क्रम में जीवन के इन निरंतर प्रदूषित किया गया है। यह समस्या विकासशील देशों में अतिगंभीर होती जा रही है, क्योंकि औद्योगिक विकास की दौड़ में शामिल होना और प्रदूषण उत्पन्न करना उनकी मजबूरी हो गयी है। साथ ही बढ़ती जनसंख्या का दबाव और संसाधनों का बढ़ता आभाव और भी जटिल बनाता जा रहा है। विकास का आधुनिक मॉडल पर्यावरण के लिए एक गंभीर खतरा सिद्ध हो रहा है। भारत में शहरीकरण और औद्योगिकी के कारण वायु, ध्वनि, जल रासायनिक प्रदूषणों का खतरा दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है और विभिन्न प्रकार का कूड़ा-कचरा भी बढ़ रहा है जिनके निपटाने की भी कोई उचित व्यवस्था नहीं है।    

प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book