विविध >> भारत की नदियां भारत की नदियांराधाकांत भारती
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भारत के प्रमुख नदियों का वर्णन
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मानव सभ्यता का उद्भव और संस्कृति का प्रारम्भिक विकास नदी के किनारे ही
हुआ। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में नदियों का विशेष महत्व है। भारतीय
संस्कृति में ये जीवनदायिनी मां की तरह पूजनीय हैं। प्रस्तुत पुस्तक
इन्हीं तथ्यों को रेखांकित करती है। इसमें लेखक ने भारत की प्रमुख नदियों
से जुड़े अतीत, वर्तमान और भविष्य के सभी संभावित शोधपूर्ण अध्ययन इन
नदियों के सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, व्यापारिक महत्व की विषद्
व्याख्या के साथ-साथ इनके कई सद्-असद् लक्षणों का बखान करता है। पुस्तक की
भाषा अत्यंत सरल, सहज और प्रवाहमयी है।
पुस्तक के लेखक राधाकान्त भारती (1939) भूगोल के गंभीर अध्येता रहे हैं। भूगोल के अध्यापन से ही इन्होंने अपना व्यवहारिक जीवन प्रारम्भ किया। समाजशास्त्र, पर्यटन और भूगोल से सम्बन्धित इनके कई आलेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। वर्षों तक इन्होंने ‘भागीरथ’ का संपादन किया। भारत की प्रमुख नदियों पर बने इनके वृत्त-चित्र काफी सराहे गए।
पुस्तक के लेखक राधाकान्त भारती (1939) भूगोल के गंभीर अध्येता रहे हैं। भूगोल के अध्यापन से ही इन्होंने अपना व्यवहारिक जीवन प्रारम्भ किया। समाजशास्त्र, पर्यटन और भूगोल से सम्बन्धित इनके कई आलेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। वर्षों तक इन्होंने ‘भागीरथ’ का संपादन किया। भारत की प्रमुख नदियों पर बने इनके वृत्त-चित्र काफी सराहे गए।
जल का महत्व
या आपो दिव्या वा स्नवंति खनित्रिमा उत वा या: स्वयंजा:।
समुद्रार्था या: शुचय: पावकास्ता आपो देवीरिह मामवंतु।
समुद्रार्था या: शुचय: पावकास्ता आपो देवीरिह मामवंतु।
ऋग्वेद, मंडल-7, सूक्त-49
जल की अभ्यर्थना करते हुए कहा गया है कि बादल बूंद, नहर, नदियां, समुद्र
सब उसी के प्रसार और विस्तार हैं। दिव्य गुणों से संपन्न जल इस लोक में
हमारी रक्षा करे।
भारतीय नदियों की महिमा
गंगे च यमुने चैव, गोदावरि सरस्वती।
नर्मदे, सिंधु, कावेरी, जलेअस्मिन् सन्निधं कुरु।।
नर्मदे, सिंधु, कावेरी, जलेअस्मिन् सन्निधं कुरु।।
भूमिका
सुविदित तथ्य है कि मानव सभ्यता के विकास से जल का अटूट संबंध रहा है।
भारत के अलावा प्राचीन संस्कृति वाले संसार के अनेक देशों में ऐसी मान्यता
है कि मानव सभ्यता का प्रारंभिक विकास नदी घाटियों के क्षेत्र में हुआ था।
फलस्वरूप प्राचीन सभ्यताओं की जानकारी नदियों के नाम से है : जैसे- नील
नदी की सभ्यता, सिंधु घाटी की सभ्यता इत्यादि। मानव समुदाय को अपने
जीवनयापन के लिए जल की परम आवश्यकता होती है। यही कारण है कि दुनिया के
प्राय: सभी सुप्रसिद्ध नगर नदी तटों पर या सागर के किनारे बसे और विकसित
हुए हैं, उदाहरणार्थ टेम्स नदी पर लंदन, सीन पर पेरिस, मसकोवा पर मास्को
और नील पर कैरो। अपने देश भारत में भी संसार का प्राचीनतम तीर्थनगर
वाराणसी गंगा पर, राजधानी यमुना दिल्ली पर और कृष्णा नदी विजयवाड़ा
उल्लेखनीय हैं। स्पष्ट है कि सभ्यता के विकास तथा मानव क्रियाकलाप में
नदियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
गौरवमय परंपरा वाले देश भारत में नदियों का जनजीवन से अटूट संबंध कई रूपों में उजागर होता है। यहां सदियों से स्नान के समय पांच नदियों के नामों का उच्चारण तथा जल की महिमा का बखान एक भारतीय परंपरा बन गई है। इससे भारत में जल संसाधन तथा जलधाराओं की महत्ता स्पष्ट होती है। भारत की जल संपदा की चर्चा के दौरान प्राय: लोग यह समझ लेते हैं कि उष्ण कटिबंध के मानसूनी जलवायु वाले इस देश में प्रचुर मात्रा में जलराशि है। किंतु यह बात पूरी तरह सही नहीं है। वर्षा के मौसम में जलवृष्टि से जल की काफी मात्रा प्राप्य होने के बाद भी, देश के कई भागों में जल की कमी होने से कृषि कार्य बहुत कठिन हो जाता है, हालांकि इसका मुख्य कारण मानसूनी वर्षा की अनियमितता और असमानता भी है, जिसकी वजह से और बाढ़ों से बचाव करके कृषि कार्य को उचित रूप में संपन्न करने के लिए वांछित जल प्रबंध की नितांत आवश्यकता बनी रहती है। इस प्रसंग में सुप्रसिद्ध इंजीनियर और भारत के भूतपूर्व सिंचाई और विद्युत मंत्री डा. के.एल. राव का कथन उचित है-
‘‘....भारत को अपरिमित जल संसाधन प्राप्त है, ऐसा सोचना भूल है क्योंकि महानद ब्रह्मपुत्र का बहुत-सा जल हमारे उपयोग के लिए उपलब्ध नहीं है। इसी प्रकार अनेक लघु सरिताओं के जल का भी पूर्ण उपयोग संभव नहीं है। इसलिए भारत में जल संसाधनों के नियोजित और संतुलित विकास के लिए गहन अध्ययन की आवश्यकता है।.....’’
गौरवमय परंपरा वाले देश भारत में नदियों का जनजीवन से अटूट संबंध कई रूपों में उजागर होता है। यहां सदियों से स्नान के समय पांच नदियों के नामों का उच्चारण तथा जल की महिमा का बखान एक भारतीय परंपरा बन गई है। इससे भारत में जल संसाधन तथा जलधाराओं की महत्ता स्पष्ट होती है। भारत की जल संपदा की चर्चा के दौरान प्राय: लोग यह समझ लेते हैं कि उष्ण कटिबंध के मानसूनी जलवायु वाले इस देश में प्रचुर मात्रा में जलराशि है। किंतु यह बात पूरी तरह सही नहीं है। वर्षा के मौसम में जलवृष्टि से जल की काफी मात्रा प्राप्य होने के बाद भी, देश के कई भागों में जल की कमी होने से कृषि कार्य बहुत कठिन हो जाता है, हालांकि इसका मुख्य कारण मानसूनी वर्षा की अनियमितता और असमानता भी है, जिसकी वजह से और बाढ़ों से बचाव करके कृषि कार्य को उचित रूप में संपन्न करने के लिए वांछित जल प्रबंध की नितांत आवश्यकता बनी रहती है। इस प्रसंग में सुप्रसिद्ध इंजीनियर और भारत के भूतपूर्व सिंचाई और विद्युत मंत्री डा. के.एल. राव का कथन उचित है-
‘‘....भारत को अपरिमित जल संसाधन प्राप्त है, ऐसा सोचना भूल है क्योंकि महानद ब्रह्मपुत्र का बहुत-सा जल हमारे उपयोग के लिए उपलब्ध नहीं है। इसी प्रकार अनेक लघु सरिताओं के जल का भी पूर्ण उपयोग संभव नहीं है। इसलिए भारत में जल संसाधनों के नियोजित और संतुलित विकास के लिए गहन अध्ययन की आवश्यकता है।.....’’
(डा. के. एल. राव, ‘‘इंडिया’ज वाटर वेल्थ
की भूमिका से)
सभ्यता के विकास के साथ ही नदी और नदी जल के विभिन्न उपयोगों का सिलसिला
जारी है। विशेषकर भारतीय परिवेश में नदी जल का उपयोग पीने, सिंचाई और
नौचालन के लिए बहुत पुराने समय से होता चला आ रहा है। आधुनिक युग में
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश में नदी-घाटी विकास की एक नई दिशा खोली
गई, जिसके अंतगर्त कृषि विकास हेतु सिंचाई के अलावा नदियों का उपयोग अन्य
कई प्रकार के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए होने लगा है।
संसार में नदी जल का सर्वाधिक उपयोग कृषि कार्य के लिए हुआ है जिसमें सिंचाई मुख्य है। कृषि कार्य द्वारा अनाज पैदाकर मानव अपने भोजन के साधन जुटाया करता है। प्राकृतिक व्यवस्था के अनुसार अच्छी फसल के लिए मिट्टी के बाद प्रधान उचित मात्रा में जल का होना परमावश्यक है। भारत जैसा कृषि प्रधान देश आज भी भोजन प्राप्ति के लिए कृषि पर निर्भर है। यहां कृषि की सफलता बहुत हद तक मानसून पर निर्भर करती है। भारत जैसे मानसूनी प्रकार की जलवायु वाले देश में जल वर्षा की अवधि, स्थिति और परिणाम सदैव अनिश्चित हैं। फलस्वरूप यह कहावत प्रचलित हो गई है कि ‘‘भारत में कृषि कार्य वर्षा में जुए का खेल है, जहां हर साल किसान खेतों में जाकर भाग्य भरोसे होकर दांव लगाया करता है।’’
ऐसी स्थिति में फसलों की खेती के लिए सिंचाई की आवश्यकता होती है। विशेषकर गन्ना, धान, पाट जैसी फसलों को उपजाने के लिए पानी की अधिक जरूरत है, जिसकी पूर्ति केवल वर्षा से संभव नहीं है।
भारत में सिंचाई तथा जल संबंधी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नदी घाटियों के योजनाबद्ध विकास के कार्यक्रम बनाए गए। इसके लिए उत्तर और दक्षिण भारत की अनेक नदियों के गहन अध्ययन और भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण का कार्य पूरा किया गया। कतिपय नदी-घाटियों के योजनाबद्ध विकास के साथ ही जल-विद्युत की उपयोगिता का महत्व भी ज्ञात हुआ। कृषि के अलावा देश की उन्नति के लिए औद्योगिक विकास की भी आवश्यकता है, जिसके लिए शक्ति के साधन उपलब्ध होने चाहिए। पारंपरिक रूप में अपने देश में कोयले का उपयोग होता रहा है जिसकी यथेष्ट मात्रा यहां उपलब्ध है।
किन्तु इसकी तुलना में जल-विद्युत सस्ती है और ऊर्जा का स्रोत्र अक्षय है। भारत में ऊंचे पहाड़ी ढलानों से होकर बहने वाली अनेक छोटी बड़ी सरिताओं ने जल-विद्युत विकास की अपार संभावनाएं प्रस्तुत की हैं। नदी-घाटी विकास कार्यक्रमों के अंतर्गत इन्हें विकसित करके कई प्रकार से उपयोग में लाया जा सकता है। अब नए अध्ययन के आधार पर भविष्य में कोयला, खनिज, तेल या नाभिकीय ईंधन से बिजली उत्पादन के कार्य की तुलना में जल-विद्युत उत्पादन को प्राथमिकता मिलने की संभावना है। भारत में नदी विकास के द्वारा जल-विद्युत उत्पादन की अनेक संभावनाएं विद्यमान हैं, जिनके उपयोग से देश के विभिन्न क्षेत्रों में विकास की गति तेज होगी। यह एक अच्छा संयोग है कि भारत में जल-विद्युत विकास के संभावित स्थानों से मांग क्षेत्रों की दूरी कहीं भी 500 कि.मी. से अधिक नहीं है।
इतना सब कुछ रहने पर भी देश की जलवायु तथा वर्षा की अनिश्चितता से नदियों में उचित जल-प्रवाह की कमी, जल-विद्युतग्रहों की स्थापना और विकास में बाधा स्वरूप है। साल के कुछ महीनों में पानी की कमी की समस्या को बांध के साथ जलाशय बनाकर दूर किया जा सकता है। महानदी पर हीराकुड, कृष्णा नदी पर नागार्जुन सागर और दामोदर घाटी निगम जैसे अनेक जल-विद्युतगृहों में यह पद्धति अपनाई गई है। जल-विद्युत उत्पादन के लिए उचित जल-प्रवाह प्राप्त करने हेतु एक अनय तरीका प्रवाहित जल को बिजली के पंपों द्वारा पुन: जलाशय में डालने का है। नदी जल-प्रवाह से विद्युत-उत्पादन के लिए भी क्षेत्रीय भूगोल और विभिन्न नदी द्रोणियों के अध्ययन की आवश्यकता है।
नदी का संतुलित जल-प्रवाह जीवनदायक और राष्ट्रीय विकास में सहायक है, वहीं इसकी अधिकता क्षेत्र विशेष के लिए विनाशकारी भी बन जाती है। भारत में छोटी-बड़ी अनेक नदियां अपनी भयंकर बाढ़ों के लिए बदनाम रही हैं। इनमें कोसी, कृष्णा, दामोदर, ब्रह्मपुत्र आदि उल्लेखनीय हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद केंद्र तथा राज्यों की सरकारों ने विभिन्न नदियों के प्रवाह को संतुलिक करने के लिए बाढ़ नियंत्रण की महत्वाकांक्षी योजनाओं का सूत्रपात किया है। इस दिशा में केंद्रीय जल तथा विद्युत आयोग ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और भारत की प्राय: सभी मुख्य नदियों के जल-प्रवाहों की स्थिति का सर्वेक्षण कार्य पूरा किया है। अब नदी-घाटी विकास योजनाओं में योजना आयोग के विशेषज्ञों ने अनेक पहलुओं से आकलन करवाया है। दुनिया भर में जल-प्रवाह का पारंपरिक उपयोग नौकायान द्वारा भी होता है। लेकिन भारत की अधिकतर नदियां जिनमें स्थायी रूप से समुचित जल-प्रवाह नहीं है, नाव चलाने योग्य नहीं मानी जाती हैं। फिर भी गंगा, ब्रह्मपुत्र, महानदी, कृष्णा, गोदावरी जैसी बड़ी नदियों तथा इनकी सहायिकाओं और शाखाओं में नावें चलाई जाती रही हैं और यहां जल यातायात की सुविधा उपलब्ध है।
भारत जैसे देश के लिए नदी जल-प्रवाह का सदैव एक विशेष महत्व रहा है। यहां की नदियां सिंचाई के लिए पानी, उद्योगों के लिए बिजली और यातायात के साधन जैसी सुविधाएं प्रदान करती रही हैं, साथ ही कोटि-कोटि भारतवासियों के लिए उल्लास, उमंग और शोक-संताप का कारण भी बनती रही हैं। भारत में नदियों के किनारों पर पवित्र तीर्थ, औद्योगिक केंद्र और पर्यटन स्थल हैं जो श्मशान घाट और धर्शालाएं भी हैं। इसलिए प्रगतिशील भारत की सही पहचान और लोक-संस्कृति की उचित जानकारी के लिए नदियों का विस्तृत अध्ययन आवश्यक है।
प्रस्तुत पुस्तक में भारत की अनेक सरिताओं का सांगोपांग विवरण और तथ्यपूर्ण जानकारी चित्रों के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। मानचित्रों के लिए प्रारूपकार अमरजीत नांगिया की मदद सराहनीय है। इससे सामान्य पाठकों के अलावा स्कूल-कालेज के विद्यार्थियों का भी ज्ञानवर्धन हो सकेगा, ऐसा विश्वास है।
सदैव सामयिक और रोचक रहनेवाली पुस्तक की इस विषयवस्तु को देखते हुए सहज रूप में प्रिय पाठकों से आग्रह है कि अपनी प्रतिक्रिया भेजकर सुधार के लिए लेखक को उपकृत तथा प्रकाशक को उत्साहित करेंगे।
संसार में नदी जल का सर्वाधिक उपयोग कृषि कार्य के लिए हुआ है जिसमें सिंचाई मुख्य है। कृषि कार्य द्वारा अनाज पैदाकर मानव अपने भोजन के साधन जुटाया करता है। प्राकृतिक व्यवस्था के अनुसार अच्छी फसल के लिए मिट्टी के बाद प्रधान उचित मात्रा में जल का होना परमावश्यक है। भारत जैसा कृषि प्रधान देश आज भी भोजन प्राप्ति के लिए कृषि पर निर्भर है। यहां कृषि की सफलता बहुत हद तक मानसून पर निर्भर करती है। भारत जैसे मानसूनी प्रकार की जलवायु वाले देश में जल वर्षा की अवधि, स्थिति और परिणाम सदैव अनिश्चित हैं। फलस्वरूप यह कहावत प्रचलित हो गई है कि ‘‘भारत में कृषि कार्य वर्षा में जुए का खेल है, जहां हर साल किसान खेतों में जाकर भाग्य भरोसे होकर दांव लगाया करता है।’’
ऐसी स्थिति में फसलों की खेती के लिए सिंचाई की आवश्यकता होती है। विशेषकर गन्ना, धान, पाट जैसी फसलों को उपजाने के लिए पानी की अधिक जरूरत है, जिसकी पूर्ति केवल वर्षा से संभव नहीं है।
भारत में सिंचाई तथा जल संबंधी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नदी घाटियों के योजनाबद्ध विकास के कार्यक्रम बनाए गए। इसके लिए उत्तर और दक्षिण भारत की अनेक नदियों के गहन अध्ययन और भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण का कार्य पूरा किया गया। कतिपय नदी-घाटियों के योजनाबद्ध विकास के साथ ही जल-विद्युत की उपयोगिता का महत्व भी ज्ञात हुआ। कृषि के अलावा देश की उन्नति के लिए औद्योगिक विकास की भी आवश्यकता है, जिसके लिए शक्ति के साधन उपलब्ध होने चाहिए। पारंपरिक रूप में अपने देश में कोयले का उपयोग होता रहा है जिसकी यथेष्ट मात्रा यहां उपलब्ध है।
किन्तु इसकी तुलना में जल-विद्युत सस्ती है और ऊर्जा का स्रोत्र अक्षय है। भारत में ऊंचे पहाड़ी ढलानों से होकर बहने वाली अनेक छोटी बड़ी सरिताओं ने जल-विद्युत विकास की अपार संभावनाएं प्रस्तुत की हैं। नदी-घाटी विकास कार्यक्रमों के अंतर्गत इन्हें विकसित करके कई प्रकार से उपयोग में लाया जा सकता है। अब नए अध्ययन के आधार पर भविष्य में कोयला, खनिज, तेल या नाभिकीय ईंधन से बिजली उत्पादन के कार्य की तुलना में जल-विद्युत उत्पादन को प्राथमिकता मिलने की संभावना है। भारत में नदी विकास के द्वारा जल-विद्युत उत्पादन की अनेक संभावनाएं विद्यमान हैं, जिनके उपयोग से देश के विभिन्न क्षेत्रों में विकास की गति तेज होगी। यह एक अच्छा संयोग है कि भारत में जल-विद्युत विकास के संभावित स्थानों से मांग क्षेत्रों की दूरी कहीं भी 500 कि.मी. से अधिक नहीं है।
इतना सब कुछ रहने पर भी देश की जलवायु तथा वर्षा की अनिश्चितता से नदियों में उचित जल-प्रवाह की कमी, जल-विद्युतग्रहों की स्थापना और विकास में बाधा स्वरूप है। साल के कुछ महीनों में पानी की कमी की समस्या को बांध के साथ जलाशय बनाकर दूर किया जा सकता है। महानदी पर हीराकुड, कृष्णा नदी पर नागार्जुन सागर और दामोदर घाटी निगम जैसे अनेक जल-विद्युतगृहों में यह पद्धति अपनाई गई है। जल-विद्युत उत्पादन के लिए उचित जल-प्रवाह प्राप्त करने हेतु एक अनय तरीका प्रवाहित जल को बिजली के पंपों द्वारा पुन: जलाशय में डालने का है। नदी जल-प्रवाह से विद्युत-उत्पादन के लिए भी क्षेत्रीय भूगोल और विभिन्न नदी द्रोणियों के अध्ययन की आवश्यकता है।
नदी का संतुलित जल-प्रवाह जीवनदायक और राष्ट्रीय विकास में सहायक है, वहीं इसकी अधिकता क्षेत्र विशेष के लिए विनाशकारी भी बन जाती है। भारत में छोटी-बड़ी अनेक नदियां अपनी भयंकर बाढ़ों के लिए बदनाम रही हैं। इनमें कोसी, कृष्णा, दामोदर, ब्रह्मपुत्र आदि उल्लेखनीय हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद केंद्र तथा राज्यों की सरकारों ने विभिन्न नदियों के प्रवाह को संतुलिक करने के लिए बाढ़ नियंत्रण की महत्वाकांक्षी योजनाओं का सूत्रपात किया है। इस दिशा में केंद्रीय जल तथा विद्युत आयोग ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और भारत की प्राय: सभी मुख्य नदियों के जल-प्रवाहों की स्थिति का सर्वेक्षण कार्य पूरा किया है। अब नदी-घाटी विकास योजनाओं में योजना आयोग के विशेषज्ञों ने अनेक पहलुओं से आकलन करवाया है। दुनिया भर में जल-प्रवाह का पारंपरिक उपयोग नौकायान द्वारा भी होता है। लेकिन भारत की अधिकतर नदियां जिनमें स्थायी रूप से समुचित जल-प्रवाह नहीं है, नाव चलाने योग्य नहीं मानी जाती हैं। फिर भी गंगा, ब्रह्मपुत्र, महानदी, कृष्णा, गोदावरी जैसी बड़ी नदियों तथा इनकी सहायिकाओं और शाखाओं में नावें चलाई जाती रही हैं और यहां जल यातायात की सुविधा उपलब्ध है।
भारत जैसे देश के लिए नदी जल-प्रवाह का सदैव एक विशेष महत्व रहा है। यहां की नदियां सिंचाई के लिए पानी, उद्योगों के लिए बिजली और यातायात के साधन जैसी सुविधाएं प्रदान करती रही हैं, साथ ही कोटि-कोटि भारतवासियों के लिए उल्लास, उमंग और शोक-संताप का कारण भी बनती रही हैं। भारत में नदियों के किनारों पर पवित्र तीर्थ, औद्योगिक केंद्र और पर्यटन स्थल हैं जो श्मशान घाट और धर्शालाएं भी हैं। इसलिए प्रगतिशील भारत की सही पहचान और लोक-संस्कृति की उचित जानकारी के लिए नदियों का विस्तृत अध्ययन आवश्यक है।
प्रस्तुत पुस्तक में भारत की अनेक सरिताओं का सांगोपांग विवरण और तथ्यपूर्ण जानकारी चित्रों के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। मानचित्रों के लिए प्रारूपकार अमरजीत नांगिया की मदद सराहनीय है। इससे सामान्य पाठकों के अलावा स्कूल-कालेज के विद्यार्थियों का भी ज्ञानवर्धन हो सकेगा, ऐसा विश्वास है।
सदैव सामयिक और रोचक रहनेवाली पुस्तक की इस विषयवस्तु को देखते हुए सहज रूप में प्रिय पाठकों से आग्रह है कि अपनी प्रतिक्रिया भेजकर सुधार के लिए लेखक को उपकृत तथा प्रकाशक को उत्साहित करेंगे।
वसंत पंचमी 12.2.1997
राधाकान्त भारती
दूसरे संस्करण की भूमिका
प्रसन्नता की बात है कि कुछ वर्षों में ही पुस्तक का प्रथम संस्करण समाप्त
हुआ तथा पुनर्मुद्रण के बाद पुस्तक संशोधित तथा परिवर्धित रूप में
प्रस्तुत की जा रही है। पिछली सदी से ही संसार के अनेक देशों के साथ भारत
में नदी जल-प्रवाह तथा उसके उपयोगों के बारे में सचेतना आई है तथा नई-नई
जानकारियां प्राप्त करने के लिए यथोचित प्रयास किये जा रहे हैं। पारंपरिक
रूप में नदियों की पूजा कर उन्हें प्रतिष्ठा देने वाला देश भारत भी अब
जलधाराओं की महत्ता को समझकर इनके अद्यतन उपयोग की दिशा में आगे बढ़ रहा
है।
नदी, नदी जलधारा तथा इसके उद्गम, विकास अवसान का क्रम भी मानव जीवन की तरह होता है। तभी तो वैदिक युग में हमारे यहां सरिताओं का मानवीकरण करके उन्हें माता-पिता, भाई-बहन, नायक-नायिका के रूप में चित्रित किया जाता रहा है। वैज्ञानिक विकास के आधुनिक युग में वर्षों तक निरंतर अनुसंधान तथा पर्यवेक्षण के उपरांत डा. डेविस ने इसके अनुरूप ही नदी के जीवन-चक्र का सुप्रसिद्ध सिद्धांत प्रतिपादित किया है। इसके द्वारा नदी जलधारा के वैज्ञानिक अध्ययन को नई दिशा मिली है। किसी सरिता के उद्गम के साथ उसकी बाल्यावस्था, लघु आकार-प्रकार, उन्मुक्त चाल-ढाल के अवलोकन से यह बात स्पष्ट होती है।
इसके बाद युवावस्था के आगमन की स्थिति के साथ नदी के कलेवर में बदलाव आता है, सहायिकाओं के सहयोग से जलराशि में वृद्धि होती है, इस अवस्था में छोटी सरिताओं को अपने में समाहित करते हुए तेज रफ्तार के साथ बाधाओं और कभी-कभी तटबंधों को भी तोड़कर प्रवाह-पथ बनाना इसकी सामान्य विशेषताएं हैं। क्रमश: आगे चलकर आती है, प्रौढ़ावस्था-जब नदी जलधारा धीर-गंभीर होती जाती है। इसमें किनारों से टकराकर आगे बढ़ने की चंचलता समाप्त हो जाती है। नदी में जलराशि बढ़ने के बावजूद उसके बहाव की गति मंद होने लगती है तथा मुख्य धारा से अलग होकर कई छोटी-छोटी धाराएं निकल पड़ती हैं, और तब मानव जीवन के समान ही अवसान की स्थिति समीप आती है।
नदी, नदी जलधारा तथा इसके उद्गम, विकास अवसान का क्रम भी मानव जीवन की तरह होता है। तभी तो वैदिक युग में हमारे यहां सरिताओं का मानवीकरण करके उन्हें माता-पिता, भाई-बहन, नायक-नायिका के रूप में चित्रित किया जाता रहा है। वैज्ञानिक विकास के आधुनिक युग में वर्षों तक निरंतर अनुसंधान तथा पर्यवेक्षण के उपरांत डा. डेविस ने इसके अनुरूप ही नदी के जीवन-चक्र का सुप्रसिद्ध सिद्धांत प्रतिपादित किया है। इसके द्वारा नदी जलधारा के वैज्ञानिक अध्ययन को नई दिशा मिली है। किसी सरिता के उद्गम के साथ उसकी बाल्यावस्था, लघु आकार-प्रकार, उन्मुक्त चाल-ढाल के अवलोकन से यह बात स्पष्ट होती है।
इसके बाद युवावस्था के आगमन की स्थिति के साथ नदी के कलेवर में बदलाव आता है, सहायिकाओं के सहयोग से जलराशि में वृद्धि होती है, इस अवस्था में छोटी सरिताओं को अपने में समाहित करते हुए तेज रफ्तार के साथ बाधाओं और कभी-कभी तटबंधों को भी तोड़कर प्रवाह-पथ बनाना इसकी सामान्य विशेषताएं हैं। क्रमश: आगे चलकर आती है, प्रौढ़ावस्था-जब नदी जलधारा धीर-गंभीर होती जाती है। इसमें किनारों से टकराकर आगे बढ़ने की चंचलता समाप्त हो जाती है। नदी में जलराशि बढ़ने के बावजूद उसके बहाव की गति मंद होने लगती है तथा मुख्य धारा से अलग होकर कई छोटी-छोटी धाराएं निकल पड़ती हैं, और तब मानव जीवन के समान ही अवसान की स्थिति समीप आती है।
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