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वरदान

प्रेमचंद

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4432
आईएसबीएन :81-7182-907-4

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की दुखांत कथा है...

Vardan

‘वरदान’ दो प्रेमियों की दुखांत कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले, जिन्होंने तरुणाई में भावी जीवन की सरल और कोमल कल्पनाएं संजोईं, जिनके सुन्दर घर के निर्माण के अपने सपने थे और भावी जीवन के निर्धारण के लिए अपनी विचारधारा थी। किन्तु उनकी कल्पनाओं का महल शीघ्र ढह गया। विश्व के महान कथा-शिल्पी प्रेमचन्द के उपन्यास वरदान में सुदामा अष्टभुजा देवी से एक ऐसे सपूत का वरदान मांगती है, जो जाति की भलाई में संलग्न हो। इसी ताने-बाने पर प्रेमचन्द की सशक्त कलम से बुना कथानक जीवन की स्थितियों की बारीकी से पड़ताल करता है। सुदामा का पुत्र प्रताप एक ऐसा पात्र है जो दीन-दुखियों, रोगियों, दलितों की निस्वार्थ सहायता करता है।
इसमें विरजन और प्रताप की प्रेम-कथा भी है, और है विरजन तथा कमलाचरण के अनमेल विवाह का मार्मिक प्रसंग। इसी तरह एक माधवी है, जो प्रताप के प्रति भाव से भर उठती है, लेकिन अंत में वह सन्यासी जो मोहपाश में बांधने की जगह स्वयं योगिनी बनना पसंद करती हैं।

1

वरदान

विन्ध्याचल पर्वत मध्य रात्रि के निविड़ अन्धकार काले देव की भांति खड़ा था। उस पर उगे हुए छोटे-छोटे वृक्ष इस प्रकार दृष्टिगोचर होते थे, मानो ये उसकी जटाएं हैं और अष्टभुजा देवी का मन्दिर, जिसके कलश पर श्वेत पताकाएं वायु की मन्द-मन्द तरंगों से लहरा रही थीं, उस देव का मस्तक है। मन्दिर में एक झिलमिलाता हुआ दीपक था, जिसे देखकर किसी धुंधले तारे का भान हो जाता था।

अर्धरात्रि व्यतीत हो चुकी थी। चारों ओर भयावह सन्नाटा छाया हुआ था। गंगाजी की काली तरंगें पर्वत के नीचे सुखद प्रवाह से बह रही थीं। उनके बहाव से एक मनोरंजक राग की ध्वनि निकल रही थी। ठौर-ठौर नावों पर और किनारों के आस-पास मल्लाहों के चूल्हों की आंच दिखाई देती थी। ऐसे समय में एक श्वेत वस्त्रधारिणी स्त्री अष्टभुजा देवी के सम्मुख हाथ बांधे बैठी हुई थी। उसका प्रौढ़ मुखमण्डल पीला था और भावों से कुलीनता प्रकट होती थी। उसने देर तक सिर झुकाए रहने के पश्चात् कहा-
‘माता ! आज बीस वर्ष से कोई मंगलवार ऐसा नहीं गया जब कि मैंने तुम्हारे चरणों पर सिर न झुकाया हो। एक दिन भी ऐसा नहीं गया जबकि मैंने तुम्हारे चरणों का ध्यान न किया हो। तुम जगतारिणी महारानी हो। तुम्हारी इतनी सेवा करने पर भी मन की अभिलाषा पूरी न हुई ! मैं तुम्हें छोड़कर कहां जाऊं ?’

‘माता ! मैंने सैकड़ों व्रत रखे, देवताओं की उपासनाएं कीं, तीर्थयात्राएं कीं, परन्तु मनोरथ पूरा न हुआ। तब तुम्हारी शरण आई। अब तुम्हें छोड़कर कहां जाऊं ? तुमने सदा अपने भक्तों की इच्छाएं पूरी की हैं। क्या मैं तुम्हारे दरबार से निराश हो जाऊं ?’
सुवामा इसी प्रकार देर तक विनती करती रही। अकस्मात् उसके चित्त पर अचेत करने वाले अनुराग का आक्रमण हुआ। उसकी आंखें बन्द हो गयीं और कान में ध्वनि आई-

‘सुवामा ! मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं। मांग, क्या मांगती है ?’
सुवामा रोमांचित हो गई। उसका हृदय धड़कने लगा। आज बीस वर्ष के पश्चात् महारानी ने उसे दर्शन दिए। वह कांपती हुई बोली-जो कुछ मांगूंगी, वह महारानी देंगी ?
‘हा, मिलेगा।’
‘क्या लेगी ? कुबेर का धन ?’
‘नहीं।’
‘इन्द्र का बल !’
‘नहीं।’
‘सरस्वती की विद्या ?’
‘नहीं।’
‘फिर क्या लेगी ?’
‘संसार का सबसे उत्तम पदार्थ।’
‘वह क्या है ?’
‘सपूत बेटा।’
‘जो कुल का नाम रोशन करे ?’
‘नहीं।’
‘जो माता-पिता की सेवा करे ?
‘नहीं।’
‘जो विद्वान और बलवान हो ?’
‘नहीं।’
‘फिर सपूत बेटा किसे कहते हैं ?’
‘जो अपने देश का उपकार करे।’
‘तेरी बुद्धि को धन्य है ! जा, तेरी इच्छा पूरी होगी।’

2

वैराग्य


मुंशी शालिग्राम बनारस के पुराने रईस थे। जीवन-वृत्ति वकालत थी और पैतृक सम्पत्ति भी अधिक थी। दशाश्वमेध घाट पर उनका वैभवान्वित गृह आकाश को स्पर्श करता था। उदार ऐसे कि पचीस-तीस हजार की वार्षिक आय भी व्यय को पूरी न होती थी। साधु-ब्राह्मणों के बड़े श्रद्धावान थे। वे जो कुछ कमाते, वह स्वयं ब्रह्मभोज और साधुओं के भण्डारे एवं सत्कार्य में व्यय हो जाता। नगर में कोई साधु-महात्मा आ जाय, वह मुंशी जी का अतिथि। संस्कृत के ऐसे विद्वान की बड़े-बड़े पंडित उनका लोहा मानते थे। वेदान्तीय सिद्धान्तों के वे अनुयायी थे। उनके चित्त की प्रवृत्ति वैराग्य की ओर थी।

मुंशीजी को स्वभावत: बच्चों से बहुत प्रेम था। मुहल्ले-भर के बच्चे उनके प्रेम-वारि से अभिसिंचित होते रहते थे। जब वे घर से निकलते थे तब बालकों का एक दल उनके साथ होता था। एक दिन कोई पाषाण-हृदया माता अपने बच्चे को मार रही थी। लड़का बिलख-बिलखकर रो रहा था। मुंशीजी से न रहा गया। दौड़े, बच्चे को गोद में उठा लिया और स्त्री के सम्मुख अपना सिर झुका दिया। स्त्री ने उस दिन से अपने लड़के को न मारने की शपथ खा ली। जो मनुष्य दूसरे के बालकों का ऐसा स्नेही हो, वह अपने बालक को कितना प्यार करेगा, सो अनुमान से बाहर है। जब से पुत्र पैदा हुआ, मुंशीजी संसार के सब कार्यों से अलग हो गए। कहीं वे लड़के को हिंडोले में झुला रहे हैं और प्रसन्न हो रहे हैं, कहीं वे उसे एक सुन्दर सैरगाड़ी में बैठाकर स्वयं खींच रहे हैं। एक क्षण के लिए भी उसे अपने पास से दूर नहीं करते थे। वे बच्चे के स्नेह में अपने को भूल गए थे।

सुवामा ने लड़के का नाम प्रतापचन्द्र रखा था। जैसा नाम था वैसे ही उसमें गुण भी थे। वह अत्यन्त प्रतिभाशाली और रूपवान था। जब वह बातें करता, सुनने वाले मुग्ध हो जाते। भव्य ललाट दम-दम करता था। अंग ऐसे पुष्ट कि द्विगुण डील वाले लड़कों को भी वह कुछ न समझता था। इस अल्प आयु ही में उसका मुखमण्डल ऐसा दिव्य और ज्ञानमय था कि यदि वह अचानक किसी अपरिचित मनुष्य के सामने आकर खड़ा हो जाता तो वह विस्मय से ताकने लगता था।

इस प्रकार हंसते-खेलते छ: वर्ष व्यतीत हो गए। आनन्द के दिन पवन की भांति सन्न से निकल जाते हैं और पता भी नहीं चलता। वे दुर्भाग्य के दिन और विपत्ति की रातें हैं, जो काटे नहीं कटतीं। प्रताप को पैदा हुए अभी कितने दिन हुए ! बधाई की मनोहारिणी ध्वनि कानों में गूंज रही थीं कि छठी वर्षगांठ आ पहुंची। छठे वर्ष का अन्त दुर्दिनों का श्री गणेश था। मुंशी शालिग्राम का सांसारिक संबंध केवल दिखावटी था। वह निष्काम और निस्संबंध जीवन व्यतीत करते थे। यद्यपि प्रकट वह सामान्य संसारी मनुष्यों की भांति संसार के क्लेशों से क्लेशित और सुखों से हर्षित दृष्टिगोचर होते थे, तथापि उनका मन सर्वथा उस महान आनन्दपूर्ण शांति का सुख भोग करता था, जिस पर दु:ख को झोंकों और सुख की थपकियों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

माघ का महीना था। प्रयाग में कुम्भ का मेला लगा हुआ था। रेलगाड़ियों में यात्री रुई की भांति भर-भरकर प्रयाग पहुंचाए जाते थे। अस्सी-अस्सी बरस के वृद्ध....जिनके लिए वर्षों से उठना कठिन हो रहा था- लंगड़ाते, लाठियां टेकते मंजिलें तय करके प्रयाग राज को जा रहे थे। बड़े-बड़े साधु महात्मा, जिनके दर्शनों की इच्छा लोगों को हिमालय की अंधेरी गुफाओं में खींच ले जाती थी, उस समय गंगाजी की पवित्र तरंगों से गले मिलने के लिए आये हुए थे। मुंशी शालिग्राम का भी मन ललचाया। सुवामा से बोले-कल स्नान है।
सुवामा-सारा मुहल्ला सूना हो गया। कोई मनुष्य नहीं दीखता।
मुंशी-तुम चलना स्वीकार नहीं करतीं, नहीं तो बड़ा आनन्द होता। ऐसा मेला तुमने कभी न देखा होगा।
सुवामा-ऐसे मेले से मेरा जी घबराता है।

मुंशी-मेरा जी तो नहीं मानता। जबसे सुना है कि स्वामी परमानन्द जी आये हैं, तबसे उनके दर्शन के लिए चित्त उद्विग्न हो रहा है।
सुवामा पहले तो उनके जाने पर सहमत न हुई, पर जब देखा कि यह रोके न रुकेंगे, तब विवश होकर मान गई। उसी दिन मुंशी जी ग्यारह बजे रात को प्रयागराज चले गए। चलते समय उन्होंने प्रताप के मुख का चुम्बन किया और स्त्री को प्रेम से गले लगा लिया। सुवामा ने उस समय देखा कि उनके नेत्र सजल हैं उसका कलेजा धक्-से हो गया। जैसे चैत्र मास में काली घटाओं को देखकर कृषक का हृदय कांपने लगता है, उसी भांति मुंशीजी के नेत्रों को अश्रुपूर्ण देखकर सुवामा कम्पित हुई। अश्रु की वे बूंदे वैराग्य और त्याग का आगाध समुद्र थीं। देखने में वे जैसे नन्हें जल के कण थीं पर थीं वे कितनी गंभीर और विस्तीर्ण।

उधर मुंशीजी घर के बाहर निकले और इधर सुवामा ने एक सांस ली। किसी ने उसके हृदय में यह कहा कि अब तुझे अपने पति के दर्शन न होंगे। एक दिन बीता, दो दिन बीते, चौथा दिन आया और रात हो गई, यहां तक कि पूरा सप्ताह बीत गया, पर मुंशीजी न आए। तब सुवामा को आकुलता होने लगी। तार दिए, आदमी दौड़ाए, पर कुछ पता न चला। दूसरा सप्ताह भी इसी प्रयत्न में समाप्त हो गया। मुंशीजी के लौटने की जो कुछ आशा शेष थी, वह सब मिट्टी में मिल गई। मुंशी जी का अदृश्य होना उनके कुटुम्ब मात्र के लिए नहीं, वरन सारे नगर के लिए एक शोकपूर्ण घटना थी। हाटों में, दुकानों पर, हथाइयों में अर्थात् चारों ओर यही वार्तालाप होता था। जो सुनता, वही शोक करता-क्या धनी, क्या निर्धन। यह शोक सबको था। उनके कारण चारों ओर उत्साह फैला रहता था। अब सर्वत्र उदासी छा गई। जिन गलियों से वे बालकों का झुण्ड लेकर निकलते थे, वहां अब धूल उड़ रही थी। बच्चे बराबर उनके पास जाने के लिए रोते और हठ करते थे। उन बेचारों को यह सुध कहां थी कि अब प्रमोद सभा भंग हो गई है ! उनकी माताएं आंचल से मुख-ढांपकर रोतीं, मानो उसका सगा प्रेमी मर गया है।

       
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